Home लघुकथा साहित्यकार बनने चला मैं…

साहित्यकार बनने चला मैं…

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पतिदेव – ‘अब बहुत हो चुका है, मुझे भी साहित्यकार बनना है !’

मै – ‘सहितकार बनाना है… ? क्या मतलब है आपका…? अब क्या क्लीनिक बंद करके कहानी कविता लिखोगे…? अभी तक तो साहित्य के नाम पर कुछ लिखा नहीं…अचानक साहित्यकार बन जाओगे, वह कैसे…? जानते नहीं हो इस राह में कितना कंपटीशन है…! वरिष्ठ कनिष्ठ सभी को एक ही तराजू में तोल दिया जाता है !’

पतिदेव – ‘तभी तो मेरी और इच्छा है. जब वरिष्ठ कनिष्ठ एक ही होते हैं तो मैं भी 2-4 कविता लिखने के बाद सारे वरिष्ठ साहित्यकारों के बगल में खड़ा होने लायक हो जाऊंगा…और लिखना नहीं आएगा तो इधर उधर से कॉपी पेस्ट करना सीख जाऊंगा. किसी के गीत या कविता में दो-चार लाइन जोड़ दूंगा…या घटा ही दूंगा और अपने नाम के साथ वायरल कर दूंगा !’

मै – ‘ऐसे बोल रहे हैं जैसे बहुत आसान है…! सबसे ज्यादा कठिन तो यही है के किसी की रचना लेकर उसको अपने हिसाब से बनाना. मन में एक चोर भी बैठा रहता है कि कहीं कोई जान ना जाए…! इससे अच्छा तो बाबा कुछ लिख ही लो, खुद ही मेहनत कर लो…और अपना मौलिक समाज को दो !’

पतिदेव – ‘अरे तो तुम ने स्वीकार किया ना कि यह भी गुण, एक बहुत बड़ा गुण है…? सभी को नहीं आता. इसके लिए बहुत ऊंची वाली बुद्धि चाहिए…और सबसे बड़ी बात कि हिम्मत चाहिए…कि दूसरे के लिखे को संशोधित करके अपना लिखा बता सके !’

मै – ‘ऐसा है जो मन वो करो, बस मेरा नाम न आये और न किसी को ये पता चले की मेरे पतिदेव हैं आप…और हां इस गलतफहमी में मत रहिए कि आपको साहित्य के लोग हाथों-हाथ लेंगे. यहां भी बहुत प्रतियोगिता है. अच्छा बताइए ऐसा क्या करेंगे जिससे आपको लगता है कि आप स्थापित हो जाएंगे !’

पतिदेव – ‘कुछ नहीं करेंगे…थोड़े पैसे एकत्र करके शहर भर के साहित्यकारों को बुलाकर…किसी बड़े व्यक्तित्व के नाम पर सम्मान पत्र बांट देंगे…फिर क्या उसके बाद अगले 1 साल तक वह लोग मुझे बुलाएंगे और सम्मान पत्र देते रहेंगे. हो गया ना बड़ा साहित्यकार मैं !’

मै – ‘हे ईश्वर…अब बस करो ! चुप ही हो जाओ…! लो चाय पियो और अपनी क्लिनिक सम्भालो…साहित्य सृजन आपके बस का नहीं. हुंह !’

  • सीमा मधुरिमा
    लखनऊ

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