विष्णु नागर
मजदूर दिवस के दिन मजदूरों से इस सरकार को कितना प्रेम है,यह जान लेना उचित होगा. आप तो चाहेंगे कि मैं लिखूं कि इस सरकार को मजदूरों से कोई लगाव नहीं है. सॉरी मैं इस बहकावे में आनेवाला नहीं हूं. मैं कहूंगा कि इस सरकार को ही मजदूरों से वास्तविक प्रेम है, उनकी चिंता है इसीलिए पूरे विश्व में मोदी जी के मजदूर-प्रेम का डंका बज रहा है.
उन्होंने 1 मई को पिछले सालों में भले ही ट्विटर पर भी मजदूरों को बधाई न दी हो, भाषण न दिया हो, ‘मन की बात’ न की हो, राष्ट्र के नाम संबोधन नहीं किया हो मगर इससे जल्दबाजी में कोई निष्कर्ष निकालना गलत होगा ! उनके मन में मजदूरों के प्रति अथाह प्रेम है, गहरा दर्द है. इतना अधिक है कि उन्हें इसे व्यक्त करते हुए भय लगता है कि कहीं उनकी आंखें आंसुओं से तर न हो जाएं. उनका कंठ कहीं अवरुद्ध न हो जाए, इसीलिए वह कुछ कहने से बचते रहे हैं.
सूत्र बताते हैं कि एक बार अनौपचारिक बातचीत में हिचकियां लेते हुए उन्होंने बताया था कि ‘मैं जानता हूं कि मजदूर होने का दर्द क्या होता है. मैंने इसे देखा है, भोगा है. मैं आज इस देश का नंबर वन मजदूर हूं और कुछ नहीं हूं. मेरे पास वे शब्द नहीं हैं, जिनसे मैं इसे बयान कर सकूं. पूरा देश जानता है कि मैं बचपन में चाय बेचता था. इस प्रकार बचपन से ही मैं मजदूर रहा और आज भी मजदूर ही हूं. इसे समझने के लिए संवेदनशील दृष्टि चाहिए. टुकड़े -टुकड़े गैंग के पास वह नजर नहीं है.’ यह बताते-बताते वह रो पड़े.
पानी के दो घूंट लेने के बाद उनका मन कुछ स्थिर हुआ तो वह फिर बोले- ‘ईमानदारी की बात तो यह है कि मैंने मजदूरी करने के अलावा जीवन में आज तक कुछ किया नहीं, जाना ही नहीं. एक तरह से मैं मजदूरों से भी ज्यादा मजदूर हूं. इसीलिए मैं मजदूरों से तो मैं केवल 12 घंटे काम लेना चाहता हूं, मगर मैं खुद 18-18 घंटे काम करता हूं और साल में एक दिन भी अवकाश नहीं लेता, जबकि मजदूरों को सप्ताह में अभी एक दिन का अवकाश दे रहा हूं. मैं तो उन्हें रोज बारह घंटे काम करवा कर सप्ताह में तीन दिन का अवकाश देना चाहता हूं. इसी से आप समझ सकते हैं कि मैं उनका कितना बड़ा हितैषी हूं !
‘और जहां तक दिहाड़ी मजदूरों का सवाल है, उनका तो मुझसे बड़ा हितैषी आज तक इस दुनिया में कोई हुआ नहीं ! मैंने जितना अवकाश उन्हें दिलवाया है, मेरा दावा है कि उतना तो आज तक कोई सरकार नहीं दिलवा पाई है. मनरेगा इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है.
कोई है विपक्ष में जो मेरे इस दावे का खंडन कर सके ? आज अस्सी करोड़ से अधिक पुरुष-स्त्री मेरी ही नीतियों की मेहरबानी से पांच किलो अनाज के सहारे घर बैठे आराम कर रहे हैं.
कुछ तो इस नतीजे पर पहुंच चुके हैं कि अब फिर से काम -धंधा क्या ढूंढना ! मिलेगा तो है नहीं. सब अब ऊपरवाले पर छोड़ देना चाहिए. उसकी इच्छा होगी तो काम देगा, नहीं होगी तो वह इतना दयालु है कि भूखे मरने से रोकेगा भी नहीं ! रोजगार को लेकर ऐसा उच्च दार्शनिक भाव उनके मन में कोई सरकार पैदा कर दे, ऐसा तो आज तक कभी हुआ नहीं. यह कोई साधारण बात नहीं है. यह मेरी सरकार की कार्यकुशलता का कमाल है. अफसोस कि किसी की इस पर नजर नहीं गई !
‘कुछ मजदूरों के मन में वैसे अभी भी हूक उठती रहती है कि हम पहले की तरह मेहनत-मजदूरी करें, नौकरी करें. मैं उनको सलाह देता हूं कि क्यों फिर से इस दुनियावी चक्करों में पड़ते हो ! तुम भी संत-भाव मन में पैदा करो और सुखी रहो. मजदूरी या नौकरी करके तुम अडाणी-अंबानी तो बन नहीं जाओगे ! मुझे देखो, मैं भी कहां बन पाया ? परमार्थी हूं न ! मैं अडाणी-अंबानी को खरबपति बनाता हूं मगर खुद नहीं बनता. मैं वैसे भी सेवाव्रती हूं. इनकी सेवा करने पर जो आनंद, जो सुख-शांति मुझे मिलती है, वह सुख-आनंद प्रभु की सेवा में भी नहीं मिलता. यही असली देश सेवा है. यही वास्तविक विकास है.
फिर जोश में आकर वह बिना टेलीप्रांप्टर के भाषण सा देने लगे – ‘मजदूर भाई -बहनो, आप खुद देख लो, मैंने तो कोरोना काल से पहले ही तुम्हें स्थायी अवकाश देने-दिलवाने का शुभारंभ कर दिया था पर याद करो, कोरोना काल तो तुम्हारा संपूर्ण अवकाश-काल था. कुछ था ही नहीं, तुम्हारे पास करने को तो बीवी-बच्चों के साथ तुम आनंद मनाते रहे. पर उस काल में भी हमारे पूंजीपतियों ने सचमुच बहुत मेहनत की और भारत का मान बढ़ाया.
अपनी संपत्ति का उन्होंने इस बीच अविश्वसनीय तेजी से विकास किया और यह सिद्ध किया कि जब सब कल-कारखाने बंद होते हैं, तब पूंजी का अधिक तेजी से विकास होता है. इसीलिए कहता हूं कि मुझसे ज्यादा पूंजीपतियों और मजदूरों का दर्द और खुशी, खुशी और दर्द दुनिया में कोई नहीं जानता. मजदूर तक अपना दर्द उतना नहीं जानते, जितना मैं जानता हूं.
‘मैं आज भी पसीना बहाता हूं, कोई कह नहीं सकता कि मैं मजदूर नहीं हूं. वह तो नेहरू जी ऐसा षड़यंत्र किया कि मुझे एसी में काम करने को मजबूर होना पड़ा मगर भाइयो-बहनो मुझ पर विश्वास करो कि उसमें भी मैं इतना परिश्रम करता हूं कि पसीना आ जाता है. टुकड़े-टुकड़े गैंग मेरे बार बार कपड़े बदलने पर मेरी हंसी उड़ाती है. परिधान मंत्री कह कर मेरा मजाक बनाती है. उसे समझ में नहीं आता कि मेरी परेशानी क्या है ? मैं क्यों दिन में अनेक बार वस्त्र परिवर्तन करता हूं ? मेरे पसीने की, मजदूर के पसीने की गंध, आंदोलनजीवियों तक कभी पहुंच नहीं सकती. ये क्या जानें एक मोदी का, एक मजदूर का दर्द !
‘मजदूर ही मजदूर का दर्द समझ सकता है. आप समझते हैं इसे. भूख क्या होती है, इसे मैं नवरात्रों में उपवास करके खूब समझता हूं. मजदूर को मजदूरी कितनी कम मिलती है, यह भी मैं अच्छी तरह जानता हूं. मुझे स्वयं इतनी कम मजदूरी मिलती है कि महीने भर की डेढ़-दो सौ ड्रेस भी अपने पैसों से सिलवा नहीं पाता ! मजबूरी मजदूरों को किस प्रकार अपना गांव छोड़ शहर आने को मजबूर करती है, इसे भी मैं उसी शिद्धत से जानता हूं.
मुझे भी अपना देस, अपना प्रदेश, गुजरात छोड़कर दिल्ली आना अच्छा नहीं लगा पर आना पड़ा. मेरा बैरागी मन यहां नहीं लगता मगर 18 घंटे का मजदूर हूं, मेरे पास और विकल्प ही क्या है ? वापिस लौटने की च्वाइस है कहां ? अब तो जीना यहां, मरना यहां. इसके बाद भी हो सकता है, मरने के बाद बहादुर शाह ज़फर की तरह मुझे भी दो गज भी जमींं न मिले, कू -ए -यार में. वैसे फकीर को, चौकीदार को तो मिल जाया करती है न, इतनी सी जमीन कू ए यार में ! मुझे भी मिल जाए शायद.’
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