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मैंने लोहे का चांद निगला है

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मैंने लोहे का चांद निगला है
वो उसको कील कहते हैं
मैंने इस औद्योगिक कचरे को,
बेरोज़गारी के दस्तावेज़ों को निगला है,
मशीनों पर झुका युवा जीवन अपने समय से
पहले ही दम तोड़ देता है,

मैंने भीड़, शोर-शराबे और बेबसी को निगला है
मैं निगल चुका हूं पैदल चलने वाले पुल,
ज़ंग लगी जि़न्दगी,
अब और नहीं निगल सकता
जो भी मैं निगल चुका हूं वो अब मेरे गले से निकल
मेरे पूर्वजों की धरती पर फैल रहा है
एक अपमानजनक कविता के रूप में

2

मशीन भी झपकी ले रही है
सीलबन्द कारख़ानों में भरा हुआ है बीमार लोहा
तनख़्वाहें छिपी हुई हैं पर्दों के पीछे
उसी तरह जैसे जवान मज़दूर अपने प्यार को
दफ़न कर देते है अपने दिल में,

अभिव्यक्ति के समय के बिना
भावनाएं धूल में तब्दील हो जाती हैं
उनके पेट लोहे के बने हैं
सल्फ़युरिक, नाइट्रिक एसिड जैसे गाढे़ तेज़ाब से भरे
इससे पहले कि उनके आंसुओं को गिरने का
मौक़ा मिले
ये उद्योग उन्हें निगल जाता है

समय बहता रहता है, उनके सिर धुंध में खो जाते हैं
उत्पादन उनकी उम्र खा जाता है
दर्द दिन और रात ओवरटाइम करता है
उनके वक़्त से पहले एक साँंचा उनके शरीर से
चमड़ी अलग कर देता है
और एल्युमीनियम की एक परत चढ़ा देता है
इसके बावजूद भी कुछ बच जाते हैं और
बाक़ी बीमारियों की भेंट चढ़ जाते हैं
मैं इस सब के बीच ऊंघता पहरेदारी कर रहा हूं
अपने यौवन के कब्रिस्तान की

  • जू़ लिझी
    (ये दोनों कविताएं चीन की फ़ॉक्सकॅान कम्पनी में काम करने वाले एक प्रवासी मज़दूर जू़ लिझी (Xu lizhi) ने लिखी हैं. लिझी ने 30 सितम्बर 2014 को आत्महत्या कर ली थी लेकिन लिझी की मौत आत्महत्या नहीं है, एक नौजवान से उसके सपने और उसकी जिजीविषा छीनकर इस मुनाफ़ाख़ोर निज़ाम ने उसे मौत के घाट उतार दिया. लिझी की कविताओं का एक-एक शब्द चीख़-चीख़कर इस बात की गवाही देता है. आज भी दुनिया भर में लिझी जैसे करोड़ों मज़दूर अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं. लिझी की कविताओं के बिम्ब उस नारकीय जीवन और उस अलगाव का खाका खींचते हैं जो यह मुनाफ़ाख़ोर व्यवस्था थोपती है और इंसान को अन्दर से खोखला कर देती है – मजदूर बिगुल से साभार)

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