Home गेस्ट ब्लॉग ‘दलाल (ब्रोकर) को मैं मानव जाति का सदस्य नहीं मानता’ – बाल्ज़ाक

‘दलाल (ब्रोकर) को मैं मानव जाति का सदस्य नहीं मानता’ – बाल्ज़ाक

19 second read
0
0
219
दलाल (ब्रोकर) को मैं मानव जाति का सदस्य नहीं मानता !

– बाल्ज़ाक

'दलाल (ब्रोकर) को मैं मानव जाति का सदस्य नहीं मानता' - बाल्ज़ाक
‘दलाल (ब्रोकर) को मैं मानव जाति का सदस्य नहीं मानता’ – बाल्ज़ाक

बाल्ज़ाक बुर्जुआ समाज और राजनीति के मानवद्रोही चरित्र और व्यावसायिक गतिविधियों के सूक्ष्म पर्यवेक्षक और तीक्ष्ण आलोचक थे; पर बुर्जुआ समाज के चरित्रों में शायद वह सबसे अधिक घृणा दलालों और सूदखोरों से करते थे.

सूदखोरों से मेरा वास्ता कभी नहीं पड़ा और सट्टा बाज़ार तथा सत्ता बाज़ार के दलालों का भी कोई प्रत्यक्ष अनुभव नहीं है. इनके बारे में अनुभवी साथियों से सुनकर और पढ़कर बस अनुमान लगा पाती हूं कि बाल्ज़ाक इस प्रजाति से इतनी नफ़रत क्यों करते थे.

दिल्ली और विभिन्न शहरों में किराए की जगह ढूंढते हुए प्रॉपर्टी डीलर्स से साबका खूब पड़ा और यह देखने का मौक़ा मिला कि दलाल चाहे जैसा भी हो, वह मनुष्य तो कत्तई नहीं रह जाता ! वह नीचता, पशुता, झूठ-फरेब, आने-पाई और हृदयहीनता के बदबूदार बजबजाते रसातल में पड़ा कोई सरीसृप होता है. कला-साहित्य-संस्कृति की दुनिया में भी सत्ता और पूंजी अपना घिनौना खेल दलालों के जरिये ही खेलती हैं ! ये दलाल भी कई किस्म के होते हैं.

जो पद-पीठ-प्रतिष्ठा-पुरस्कार से अघा चुके मठाधीश होते हैं, वे राजनेताओं के साथ मंच सुशोभित करते हैं, साहित्य-संस्कृति के ट्रस्ट चलाने और किताबें छपने वालें सेठों के घरों के ‘रामू काका’ होते हैं और विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों के अधिपति होते हैं.

उनका अपना साहित्यिक-सांस्कृतिक साम्राज्य होता है, पर मूलतः वे सत्ता और पूंजी की दुनिया के दलाल ही होते हैं, जो ज्यादा से ज्यादा लेखकों-कवियों-कलाकारों को सत्तासेवी और जन-विमुख बनाने का काम करते हैं !

जो इनके जाल में फंसकर इनके दरबार में हाजिरी बजा आता है, या वहां का स्थायी नागरिक हो जाता है, वह फिर दूसरों को इस ट्रैप में फंसाने का काम करने लगता है !

कभी इनका विरोध करने वाला भी कई बार इनकी पांतों में ठीक उसी तरह शामिल हो जाता है जिस तरह ड्रेक्युला (जॉम्बीज) से लड़ने वाले व्यक्ति के गले में ड्रेक्युला (जॉम्बीज) जब दांत धंसा देता है, तो वह भी ड्रेक्युला (जॉम्बीज) बन जाता है.

जो लोग वैचारिक कमजोरी के कारण इस सिस्टम को नहीं समझते और यूटोपियाई किस्म के आदर्शवादी होते हैं, वे अक्सर इनके ट्रैप में फंस जाते हैं और पद-पुरस्कार-ख्याति की थोड़ी सी पंजीरी फांकने के बाद, उनकी निष्ठाएं बदल जाती हैं और नसों में खून की जगह रंगीन शरबत बहने लगता है !

आदमी को पता ही नहीं चलता कि दलालों का विरोध करते-करते कब वह भी उन्हीं में से एक हो गया. सत्ता और पूंजी के ऐसे सांस्कृतिक-साहित्यिक दलालों की मंडी में इन दिनों खुले दक्षिणपंथियों से कई गुना अधिक पूछ, उन छद्मवेषी वामपंथियों की है जो ज्यादा विभ्रमकारी और भ्रष्टकारी क्षमता रखते हैं. ये साहित्यिक-सांस्कृतिक दलाल ज्यादा ख़तरनाक इसलिए भी हैं कि बोली-भाषा और हाव-भाव से ये दलालों जैसे नहीं लगते.

ये मानवता, मानवीय मूल्य और सौन्दर्य आदि की ही नहीं, मंच और मौक़ा देखकर बर्बरता, दमन आदि के विरोध की भी बातें करते हैं और बहुत संवेदनशील और ईमानदार दीखने का नाटक बहुत कुशलता से कर लेते हैं.

पूंजी की आततायी सत्ता सिर्फ़ दमन-तंत्र के बूते नहीं चल सकती. उसे प्रचार-तंत्र के अतिरिक्त एक विराट बौद्धिक-सांस्कृतिक मशीनरी की ज़रूरत होती है लेकिन इतने से भी काम नहीं चलता. उसे ऐसे बौद्धिक दलाल चाहिए जो जनता के शिविर में घुसकर जनता की भाषा में सत्ता के दूरगामी हित की बातें और काम करें.

तमाम ऐसे भगोड़े, रिटायर्ड वामपंथी हैं, छद्म-वामपंथी लम्पट-पियक्कड़ हैं, नाज़ुक मसलों पर चुप रहने वाले चतुर-चालाक सोशल डेमोक्रैट्स और जर्जर गांधीवादी-समाजवादी मुखौटों वाले बुर्जुआ डेमोक्रैट लिबरल्स हैं जो आज यही काम कर रहे हैं.

जो भले लोग इनके ख़िलाफ़ बोलने से बच रहे हैं या इनकी सच्चाई को समझ नहीं पा रहे हैं, वस्तुगत तौर पर वे भी जनता के दुश्मनों के शिविर को ही लाभ पहुंचा रहे हैं.

  • कविता कृष्णपल्लवी

Read Also –

 

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

scan bar code to donate
scan bar code to donate
Pratibha Ek Diary G Pay
Pratibha Ek Diary G Pay
Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

शातिर हत्यारे

हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…