Home गेस्ट ब्लॉग मैं पूछता हूं कि आज भारत है ही कहां ?

मैं पूछता हूं कि आज भारत है ही कहां ?

14 second read
0
0
265
मैं पूछता हूं कि आज भारत है ही कहां ?
कार्टून – हेमन्त मालवीय
Saumitra Rayसौमित्र राय

हाल के चुनावों में दंगा मुक्त भारत के दावों को भूल जाएं. गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने आज लोकसभा में बताया कि 2016-2020 के बीच देश में 3400 दंगे हुए, यानी हर रोज़ दो दंगे. उन्होंने यह भी बताया कि दंगों से जुड़े 2.76 लाख मामले दर्ज़ हुए हैं. एक सवाल यह भी बनता है कि इन 2.76 लाख में से कितने मामलों में सज़ा हुई ? और किसको हुई ?

यहां अपराध का मज़हबी बंटवारा ज़रूरी है, क्योंकि कानून के तराज़ू पर भी भगवा भारी है. पत्रकारिता के छात्रों को इस पर एक रिसर्च करना चाहिए कि केस डायरी बनाने से लेकर साक्ष्य जुटाने तक में पुलिस की निष्पक्षता किन मामलों में कितनी है ? लेकिन देश में शायद ही किसी पत्रकारिता संस्थान या छात्र की हिम्मत होगी कि वह सरकारी एजेंसियों की पोल खोलकर निज़ाम से दुश्मनी करे.

जैसा कि मनुस्मृति में कहा गया है- शूद्र को गरिमामय जीवन का कोई हक़ नहीं. उसे ऊपर की तीन जातियों के पैरों तले ही जीना होगा. बाबा साहेब अंबेडकर कानून में समानता को स्थापित कर चले गए, पर 75 साल में कोई भी सरकार बाभन/ठाकुर के सामंतवाद को तोड़ नहीं पाई. यूपी में ठाकुर राज है तो एमपी में ठकुराई चलती है. दोनों ही सूबे दलितों पर अत्याचार में सबसे आगे हैं और ज़ुल्म का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है.

लोकसभा में सरकार ने बताया कि 2018-2020 तक डेढ़ लाख से ज़्यादा मामले SC/ST एक्ट में दर्ज हुए. दंगों की वेदी पर भारत में बीजेपी का उदय हुआ है. हर दंगे में पीड़ित हिंदुओं को दिखाया जाता है, मानवता को नहीं. कोर्ट ने बुल्ली बाई ऐप बनाने वाले लड़के को मानवता के आधार पर ज़मानत दी है लेकिन मरहूम फादर स्टेन स्वामी को खाना खाने के लिए एक स्ट्रॉ तक देना मानवता के ख़िलाफ़ समझा गया.

पार्किंसन से पीड़ित स्टेन स्वामी बुल्ली बाई के जनक लड़के से ज़्यादा ख़तरनाक थे, क्योंकि वे मुस्लिम औरतों की नीलामी नहीं कर रहे थे, वे देश को जगा रहे थे. मीडिया ऐसे आंकड़ों को सामने नहीं लाती, क्योंकि वहां बैठे बाभन/ठाकुर और बनियों के वज़ूद को खतरा पैदा हो जाएगा. उनका ही कुनबा उन्हें स्टेन स्वामी के समान बगावती मानकर सूली पर टांग देगा इसलिए सरकार को तेल लगाने में ही समझदारी है, बेशक लगाइए.

जब मैं UNI में था, तब विधानसभा और लोकसभा की पूरी डेस्क हुआ करती थी – हिंदी और अंग्रेज़ी. संसदीय परंपराओं और नियमों के जानकार दिग्गज़ रिपोर्टर जब कॉपी बनाते तो पढ़कर लगता था, मानों पक्ष और विपक्ष के बीच थर्ड अंपायर की तरह खड़े पत्रकार ने चाकू की तेज़ धार पर शब्दों का सफ़र तय किया है.

उन दिनों अखबारों में एक से डेढ़ पन्ना संसदीय कार्यवाही को समर्पित होता था. सत्र शुरू होने से पहले सवालों की मैपिंग और शाम को फीड भेजने के बाद चाय की चुस्कियों के साथ पत्रकार दीर्घा से उन अनकही बातों पर चर्चा, जो रिकॉर्ड से बाहर किये गए हों. मीडिया में बाभनो/अगड़ों का दबदबा तब भी था, लेकिन ईमान नहीं डोला था, मूल्य नहीं बदले थे. एक सबसे सुनहरा दौर ख़त्म हो गया. पत्रकारिता में रस और रोमांच दोनों को मालिकों का लालच लील गया. बची तो सिर्फ़ नौकरी और दलाली.

सरकार संसद के प्रति जवाबदेह है, लेकिन असल में उसे जवाबदेह मीडिया ही बनाता है. जब मीडिया ही बिक गया तो संसद बहुमत के दबदबे वाली कक्षा बन गई. और तो और सड़कें भी खामोश हो गईं क्योंकि लोगों को अपना हक़ मांगना उस ‘धर्म युद्ध’ के ख़िलाफ़ लगता है, जो उनके मुताबिक सरकार बहुसंख्यक अवाम की पहचान के लिए लड़ रही है. लोकतंत्र को टिकाए खड़े चारों खंभों का एक तरफ झुक जाना सभी के लिए फ़िसलन भरा है. आप न फिसलना चाहें तो भी फिसलेंगे.

इस फ़िसलन में मज़हब, जाति, सम्प्रदाय के नाम पर धक्का देकर गिराने की कोशिशें और सरकार की अनदेखी- लोगों को अपने मुताबिक नियम-कानूनों की व्याख्या करने पर मजबूर कर रही हैं. ये अंधी, अराजक दौड़ है, इसका अंत बहुत भयानक होने वाला है.

विगत दिनों गोदी मीडिया के एक संपादक का लंबे समय बाद फ़ोन आया. ख़ैर-ख़बर लेने के बाद उन्होंने सीधा सवाल दागा- तुम इतने नेगेटिव क्यों हो? नुक्स ही निकालते रहते हो ? इस दौर का यह बहुत लाज़िम सवाल है. इसके जवाब को मैं 3 सवालों में किसी एक विकल्प के चुनाव से तौलता हूं –

  • देश वहीं खड़ा है, जहां 2014 में खड़ा था- आप भी उसी जगह खड़े हैं.
  • देश 1970 के दौर तक पिछड़ गया है, जब भारत की 56% आबादी ग़रीब थी- आप भी ग़रीब हुए हैं.
  • देश आगे बढ़ रहा है, विकास हो रहा है- आपका भी विकास हुआ है.

1951 से 1974 के बीच देश की ग़रीब आबादी 47% से 56% हो गई. ये आज के भारत में उन 60% ग़रीब भारत से कतई अलग नहीं है, जिसे सितंबर तक सरकार मुफ़्त राशन देगी. इस मुफ्तखोरी का बिल 2.06 लाख करोड़ आएगा, जो सरकार भरेगी, क्योंकि रोज़गार देकर अवाम की जेब भरने का कोई फॉर्मूला उसके पास नहीं है. इससे देश का वित्तीय घाटा 6.7% को छू जाएगा. भारत की 95% आबादी को इसका नतीज़ा नहीं पता. उसे अपने चारों ओर महंगाई, बेरोज़गारी और लूट नज़र नहीं आती है.

भारत की महाज्ञानी वित्त मंत्री ने इसका हल निकाला और पूंजीगत व्यय में 7.5 लाख करोड़ डाल दिए. हुआ न हिसाब बराबर ! लूट थोड़ी और बढ़ेगी. आहिस्ता-आहिस्ता गला रेता जाएगा इसलिए तेल के दाम में 30, 50, 80 पैसे की बढ़ोतरी पर शोक न मनाएं. 60% वोट फिर भी बीजेपी को ही मिलेंगे.

यही पॉजिटिविटी अवाम को बीजेपी की तरफ झुकाए हुए है. भारत को अभी और नीचे गिरना है- लेकिन गिरते हुए भी यह सोच कि हम नीचे गिरकर भी टॉप पर रहेंगे- क्योंकि हमारा नज़रिया स्केल को उल्टा देखने का है.

जैसी की उम्मीद थी- संपादक जी का जवाब था- देश तरक्की कर रहा है. ज़ाहिर है, उनकी नौकरी बची है. कार, मकान का लोन जा रहा है. बच्चों की फ़ीस, घर का राशन भी. संपादक जी भी भारत के उन 8.5 करोड़ नौकरीपेशा लोगों में है, जो तनख्वाह पाते हैं. 140 करोड़ में से 10 करोड़ की आबादी से गुलज़ार है देश का विकास.

संपादकजी 10-20$ से ज़्यादा की दिहाड़ी कमाते हैं, ऊपरी दलाली अलग से. सो वे भारत के 6.6 करोड़ मध्यम वर्ग में भी नहीं आते, जो कोविड के दौर से पहले 13.4 करोड़ हुआ करते थे. लाज़िम है कि उनका विकास हुआ है. वे 50$ रोज़ाना कमाने वाले तबके से आते हैं, जिनके लिए तेल, अनाज, फल-सब्ज़ियों के दाम बढ़ना ज़्यादा मायने नहीं रखता. दलाली के कमीशन में 1% का इज़ाफ़ा सब एडजस्ट कर देता है.

मतलब भारत की 20 करोड़ आबादी के लिए देश खुशहाल है, तरक्की कर रहा है. 20 करोड़ मूर्ख, बहके हुए, भक्त, धर्मान्ध लोगों को और मिला लें तो 40 करोड़ की आबादी मज़बूती से तमाम तथ्यों, आंकड़ों, दलीलों को खारिज़ कर एक फ़र्ज़ी डिग्री वाले मूर्ख व्यक्ति के साथ खड़ी है, जो इत्तेफ़ाक से देश का प्रधानमंत्री है. इतना सब सुनने के बाद तमतमाये संपादक जी का कहना था- तुम नहीं सुधर सकते.

तकरीबन यही क्लोजिंग स्टेटमेंट आपको हर उस व्यक्ति से सुनने को मिलेगा, जो धार्मिक श्रेष्ठता की अफीम खाकर सुन्न हो चुका है. मुझे यकीन है कि मुझे फ़ोन लगाना संपादक महोदय की आखिरी ग़लती थी, जो फ़िर दोहराई नहीं जाएगी. वे भी मुझे अर्बन नक्सल, लिब्रांडू, कांगी, वामी, देशद्रोही वगैरह में से किसी एक से पहचानते ही होंगे.

अपराधी कपड़ों से पहचाने जा रहे हैं
ज़मानत मज़हब देखकर दी जा रही है
इतिहास अब फ़िल्में तय कर रही हैं
और नफ़रत के बोल मुस्कुराहटों से तौले जा रहे हैं
और आप कहते हैं कि भारत आगे बढ़ रहा है.
विकसित हो रहा है.
मैं पूछता हूं कि आज भारत है ही कहां ?

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

Donate on
Donate on
Pratibha Ek Diary G Pay
Pratibha Ek Diary G Pay

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

शातिर हत्यारे

हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…