दूर हूं
असंपृक्त नहीं
जंगल से आती मादल की थापों
हूंकार भरे गीतों
की दूरागत ध्वनि
फौजी बूटों की धमक
टकराहटों और धमाकों
के बीच आदिवासी नृत्य का उल्लास
तरंगों पर सवार बिम्ब उनके
मेरी नज़रों में आ समाते हैं
दिल्ली दरबार के
कालभैरव के
आसुरी तंत्र से
लोहा लेती
मल्ल क्रीड़ा की निपुण
बालिकाओं का साहस
मेरे हाथों में थमे
नवदर्पण पर अपने बिम्ब भेज
मेरे दिल में उतर आता है
नव तकनीक पृष्ठों पर
चला करती बहसें
सांस्कृतिक संघर्षों का ताप
मेरे मानस को
झकझोर डालती हैं
अपने विस्तृत होते नगर
और सत्ता के
वित्तपोषित तमाशों के बीच
सिमटती जाती
जनसंस्कृति को देख
व्याकुल हुआ
पुकारता हूं साथियों को
दूर से हाथ मिलाते हैं
पास होकर भी पास
नहीं होते
अकेले में
अपनी निराशाओं उम्मीदों से
स्वयम ही निपटते हैं
कभी गोष्ठी जो जुटा लेते हैं
तो अपना कहने की आतुरता
उन्हें सुनने नहीं देती है
निपट जाती है गोष्ठी
समाचार किरणों पर सवार
हो विलीन हो जाती है
लोग
अपने सामने वाले को बख्श
अन्यों का करते हैं गुणगान
अपनी अपनी भड़ास छोड़
जैसे थे
अपने अपने दड़बों में
लौट आते हैं
अपनी
- राजाराम चौधरी
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