देश के अभूतपूर्व संगीन हालात से ग़मगीन और चिंतित होकर साहित्य-संस्कृतिकर्मियों द्वारा चलाई जा रही इस देशव्यापी प्रतिरोध पहल में शिरकत करते हुए मैं रोमांचित हूं. जब मैं मौजूदा हालात को अभूतपूर्व और संगीन कहता हूं तो मेरे लिए इसके अर्थ सिहरा देने वाले हैं, क्योंकि मौजूदा निज़ाम की नज़रों में जनप्रतिरोध की कोई क़द्र-ओ-क़ीमत नहीं बची. असहमत होने के तमाम रास्ते बंद कर दिए गए हैं. महामारी को सरकारी हथियार बना लिया गया है. सरकार और उसकी विकृत डिज़ाइन की आलोचना करना अब देशद्रोह करार दे दिया जाता है.
विदेशी मूल के स्वयंभुओं द्वारा संचालित एक षड़्यंत्रकारी व अवैध संगठन भारतीय समाज का तथा एक वाचाल व्यक्ति समूचे भारत का पर्याय बना दिया गया है. ताज्जुब ये है कि भारत और मानव धर्म का हर क्षेत्र में कबाड़ा करने वाले लोगों पर हिन्दू ही लहालोट हैं. उन्हें ख़ुद के हिंसक पशु और भिखारी बनाए जाने पर भी कोई ऐतराज़ नहीं. सितम यह है कि अपने इस पतन को वे देशभक्ति का कोई आर्ट समझ रहे हैं।
इस संगठन की बगलबच्चा संस्थाओं की पैदाइश से जुड़ी तिथियां हिंदू राष्ट्र की घोषणा से सन्नद्ध हैं. इससे जुड़े स्वार्थी और खूंखार चेहरों ने हर भारतीय के जीवन में लूट और हाहाकार मचा रखा है. इसी से उनके प्रस्तावित हिन्दू राष्ट्र की भयावहता आंकी जा सकती है. आज हमारे मासूम जीवन को लांछित, कारुणिक, लाचार, दयनीय और संदिग्ध बना दिया गया है. ये कुछ कुंजीकृत शब्द हैं, इनके विस्तार में जाने का यह अवसर नहीं है. फिर भी चंद केंद्रीय प्रश्न उठाना लाज़िम है. मेरी यह चेष्टा इस सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान के शीर्षक ‘हम देखेंगे’ के अनुरूप ही है.
निकट इतिहास में याद नहीं आता कि समृद्ध लोकतांत्रिक परंपराओं वाले हमारे महान देश में झूठ का इस कदर बोलबाला कब था. असत्य को प्रतिष्ठित करने की ऐसी हवस और बेशर्मी हमारी किस पिछली पीढ़ी ने झेली थी ? हताश करने वाला तथ्य यह है कि सत्ताधारियों की इस नापाक मुहिम को युवा वर्ग और तथाकथित पढ़े-लिखे लोग अपना मूक अथवा मुखर समर्थन देते चले आ रहे हैं. इन वर्गों के अंध समर्थन की वजह उनके मन में सुसुप्त धार्मिक घृणा है, जिसे खाद-पानी देने की विशाल अपसांस्कृतिक व आत्मघाती परियोजना अब ज़मीन पर रंग ला रही है. इतिहास की मिथ्या, मनमानी और अश्लील व्याख्याएं हमारे समाज में भ्रम और सनसनी फैला रही हैं.
यह देख कर गहरी निराशा होती है कि हमारा संत समाज, जिसकी वाणी भारतीय जनमानस के लिए न्यायालय के फैसलों से भी अधिक वरेण्य हुआ करती थी, अब अवमूल्यन का शिकार हो चुका है और वर्तमान सत्ताधारियों की मंशापूर्ति के लिए हिंसक कदम उठाने का पैरोकार बनता जा रहा है.
इससे संगीन स्थिति भला और क्या हो सकती है कि जीवन के हर क्षेत्र में सक्रिय प्रगतिशील, नेक और अहिंसक सोच रखने वाले व्यक्तियों को अप्रासंगिक, कुख्यात और भोंथरा बनाने के कुटिल प्रयत्न अहर्निश किए जा रहे हैं. उन्हें जेलों में सड़ाया जा रहा है, यहां तक कि उनकी हत्याएं तक हो रही हैं, लेकिन मानवाधिकारों का गला घोंटते हुए कहीं कोई सुनवाई नहीं है. इसमें सहभागी बनने के लिए न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका की बांहें मरोड़ी जा रही हैं.
संवैधानिक संस्थाओं को सत्ताधारी राजनीतिक दल का दरबान बना दिया गया है. परिणाम यह हुआ है कि भारतीय महासंघ को एक सूत्र में बांधे रखने वाली यह संस्थागत गोंद शिथिल होती जा रही है, जनता का ख़ुद पर से भरोसा डगमगा गया है, जिसे देख कर दक्षिणपंथी और पूंजीवादी शक्तियां मगन है. वे अपने हर कुकर्म को विपक्षियों व पूर्ववर्ती सरकारों के मत्थे मढ़ने में सफल हैं और अपने आईटी सेल की धूर्त व पाशविक सेना के जरिए देश के नागरिकों के ख़िलाफ़ ही खुला युद्ध छेड़े हुए हैं. वे अपनी नाकामियों का जिक्र तक नहीं छिड़ने देतीं, बल्कि हर बार अपने ही भयावह आंकड़े झुठला कर हमें किसी काल्पनिक अतीत की चारागाह में घसीट ले जाती हैं.
स्पष्ट है कि इंसानियत को बचाने की कूवत और सलाहियत इंसान से लगातार छीनी जा रही है. अब भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम और उसके बाद शुरू हुए राष्ट्रीय आंदोलन की विरासत भी लगभग समाप्त हो चुकी है. असली और ज़मीनी मुद्दों की जगह भावनात्मक और नकली मुद्दों ने ले ली है. गांधी के रामराज्य की संकल्पना ‘जय श्री राम’ वाले लोटे में बंद हो चुकी है, राष्ट्रीय आंदोलन से हासिल गंगा-जमुनी मूल्य फ़र्जी राष्ट्रवाद की भेंट चढ़ चुके हैं.
संवैधानिक कौल के मुताबिक समाज में वैज्ञानिक चेतना विकसित करने की जगह जनता को धार्मिक रूढ़ियों, अंधविश्वासों और पुरातनपंथ के दलदल में धकेला जा रहा है. संसदीय लोकतंत्र मंदिरीय ठोकतंत्र की शक्ल अख़्तियार कर चुका है. मतदाताओं से ही उनके नागरिक होने का प्रमाण मांगा जा रहा है. यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस पिशाच तंत्र में हमारी बेरुख़ी और ख़ामोशी ने ही जान फूंकी है इसलिए वसीम बरेलवी ललकारते हैं –
उसूलों पर जहां आंच आए टकराना ज़रूरी है
जो ज़िंदा हो तो फिर ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है
मौजूदा संगीन हालात निराशा तो पैदा करते हैं, लेकिन भारत का विचार उन धातुओं से निर्मित है, जिनमें आसानी से जंग नहीं लगती इसीलिए अल्लामा इकबाल ने कहा था – ‘कुछ बात है के हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जहां हमारा.’ भारतीय वांग्मय, मेधा और मिट्टी में प्रतिरोध की संस्कृति यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरी पड़ी है. उसे खोजना, चिह्नित करना, स्वीकार करना और प्रतिरोध का धारदार हथियार बनाना हमारी फ़ौरी जिम्मेदारी है.
हमारे सतना की यह गोष्ठी प्रलेस, जलेस, जसम व दलेस के प्रयागराज और दिल्ली में हुए संगम से निकली प्रतिरोध की वह अहिंसक धारा है, जो हर जनपक्षधर, विवेकी और न्यायशील व्यक्ति के दिल में सतत बहती है. यह धारा सत्ताधारियों की झूठी और बुल्डोजरी संस्कृति को छिन्न-भिन्न कर देगी. हमारा यही अक़ीदा और विश्वास हमारे दिलों में आशा और उमंग पैदा करता है. मैं मौजूदा निरंकुश और फ़ासिस्ट सत्ता के प्रतिरोध में अपनी एक ग़ज़ल पेश करने की इजाज़त चाहता हूं –
सबके सब मक्कार तुम्हारी जय बोलें ?
सब कुछ बंटाढार तुम्हारी जय बोलें ?
हिंदू-मुस्लिम सिख-ईसाई लड़ा दिए
बेग़ैरत बदकार तुम्हारी जय बोलें ?
अर्थव्यवस्था को पटरी से कुदा दिया
तुमपे है धिक्कार तुम्हारी जय बोलें ?
मां की आंखें रोते रोते सूख गईं
बेटा है मुरदार तुम्हारी जय बोलें ?
नीरो को वहशत में पीछे छोड़ दिया
ऐ घटिया फ़नकार तुम्हारी जय बोलें ?
भूखे-प्यासे सारे फ़रिश्ते हैं फिरते
शैतानों के यार तुम्हारी जय बोलें ?
पढ़ने-लिखने से तुमको चिढ़ है इतनी
झूठ का कारोबार तुम्हारी जय बोलें ?
जित देखो उत दहक़ां आंसू पीते हैं
लाखों हैं बेकार तुम्हारी जय बोलें ?
नाक रगड़ने पर भी काम नहीं करती
दोटकिया सरकार तुम्हारी जय बोलें ?
गद्दी छोड़ो गर आंखों में पानी है
होंगे शुक्रगुज़ार तुम्हारी जय बोलें ?
- विजयशंकर चतुर्वेदी
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