हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
नीतीश कुमार ने नौ मिनट के अपने भाषण में आठ बार नरेंद्र मोदी का नाम लिया और सात बार उन्हें धन्यवाद दिया. अपने भाषण के दौरान वे बार बार सामने की भीड़ का आह्वान करते रहे कि ‘मोदी जी के सम्मान में खड़े होकर वे उनका अभिनंदन करें, बिहार के विकास में मोदी जी लगे हैं, इसलिए उनका धन्यवाद करें.’ उसके बाद नीतीश जी ने अपना भाषण खत्म किया और सीधे मोदी जी के चरणों पर जा गिरे. भक्तवत्सल मोदी जी ने आह्लादित होकर अपने चरणों पर गिरने के पहले ही नीतीश जी को दोनों हाथों से थाम लिया और उनकी निर्धारित कुर्सी पर उन्हें बैठा दिया. मौका था दरभंगा में एम्स के उदघाटन समारोह का.
फिर, दो ही दिन बाद मोदी जी फिर बिहार पधारे. इस बार जमुई में बिरसा मुंडा के सम्मान में आयोजित समारोह में फिर नीतीश जी उनके साथ मंच पर थे. अपने भाषण में वे कातर स्वरों में मोदी जी को कहते सुने गए कि ‘अब हम कहीं नहीं जाएंगे, अब हमेशा हम आपके साथ रहेंगे, कुछ लोग उन्हें भरमा कर ‘उधर’ ले गए थे, अब ऐसी गलती फिर नहीं दोहराएंगे.’ बीते ग्यारह महीनों में सातवीं बार नीतीश जी सार्वजनिक मंच पर अपनी इस सफाई को दोहराते सुने गए.
ये वही नीतीश कुमार थे, जो तब नरेंद्र मोदी के बरक्स तन कर खड़े हुए थे, जब मोदी जी का राजनीतिक प्रताप अपने चरम पर था. जब देश का मीडिया, भाजपा और मोदी की नीतियों और कार्य कलापों के विरुद्ध राय रखने वाले लोगों की नजर में नीतीश कुमार, मोदी विरोध के प्रतीक पुरुष बन गए थे. अब वहीं नीतीश जी हैं. याद आती है किसी कवि की ये पंक्तियां, ‘वहि अर्जुन वहि बाण.’
2012- 13 के नीतीश जी. वैसा ही उजला कुर्ता पहने हुए, चेहरे पर आत्मसम्मान और आत्मविश्वास के दमकते भाव, वाणी में ओज… ‘इस देश का नेतृत्व वही कर सकता है जो सबको मिला कर चले, जो समन्वय की बात करे, जो अवसर आने पर टोपी भी पहने, वक्त आने पर साफा भी पहने.’
‘…मिट्टी में मिल जाएंगे लेकिन अब उधर नहीं जाएंगे.’ ये असल नीतीश कुमार थे जिन पर बिहारियों को नाज था, जिन पर देश के समन्वयवादी लोगों को एक भरोसे का अहसास होता था. सच है कि उस चुनाव में नीतीश जी की पार्टी को सिर्फ दो सीटें मिली लेकिन उन्हें डटे रहना था. संभव है वो मिट्टी में मिल जाते लेकिन तब भी एक इतिहास बनाते, राजनीतिक और वैयक्तिक चरित्र की एक चमकदार रेखा खींच देते. उनमें वह जीवट था, वह राजनीतिक कौशल था, वह तेज था कि मिट्टी में मिलने के बावजूद वह उद्भिज की तरह सख्त चट्टानों का सीना चीर कर उग आते और फिर से विशाल वटवृक्ष की तरह छा जाते. बिहार उन पर गर्व करता.
आज कौन ऐसा बिहारी है जो नीतीश जी की इस हालत को देख कर दु:खी नहीं हो रहा होगा, सिवाय प्रादेशिक स्तर के उन टुटपूंजिए भाजपा नेताओं के, जो मोदी के चरणों पर गिरते नीतीश जी को देख कर मंच पर खीसें निपोड़ रहे थे. आखिर कितने दिन कोई तख्त पर रहेगा ? उसके लिए कितनी कीमतें अदा करेगा ? अपने आत्मसम्मान और अपने प्रशंसकों के गौरव को धूल में मिलाते तख्त पर बने रहने का क्या औचित्य है ?
इधर उधर से दबी ढकी बातें आ रही हैं कि नीतीश जी बहुत स्वस्थ नहीं हैं और किसी ऐसी चौकड़ी से घिर गए हैं जिनमें कुछ घुटे हुए नौकरशाह हैं, कुछ घिसे हुए राजनीतिज्ञ हैं. पता नहीं, सच क्या है, लेकिन जिस तरह बिहार के राज काज पर ब्यूरोक्रेसी हावी है, लगता तो ऐसा ही है कि सूरज अब मद्धिम हो रहा है. यह कोई साधारण बात नहीं है कि बतौर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार स्कूलों की टाइमिंग को लेकर विधान सभा में अपनी बात रखें और ब्यूरोक्रेसी उनके कहे की ऐसी की तैसी कर दे. यह उनके प्रताप के घटने का ही स्पष्ट संकेत है.
और, इस बात की भी अनदेखी नहीं हो सकती कि समाजवादी विचारक और नेता शिवानंद तिवारी जी, जो दशकों से नीतीश जी के सहचर रहे हैं, ने अभी दो तीन दिनों पहले मोदी के चरणों की ओर बार बार झुकते नीतीश जी के बारे में सार्वजनिक मंच पर लिखा, ‘नीतीश कुमार हमारे लिए अतीत हो चुके हैं.’ अतीत तो एक दिन संसार की हर शै हो जाती है, लेकिन इतिहास उन्हें सलाम करता है जो वर्तमान से मुठभेड़ करते अतीत बनते हैं. पता नहीं, इतिहास नीतीश जी को किस रूप में याद करेगा.
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