‘मज़दूर मोर्चा’ (26 मार्च- 1 अप्रैल), अंक में सुगत मुख़र्जी द्वारा लिखा, ‘नालंदा युनिवर्सिटी में क्या इस्लाम को चुनौती देने की वज़ह से लगाई गई थी आग ?’, लेख पढ़ा. तत्कालीन मगध राज्य के राजगृह (राजगीर) क्षेत्र में 427 इस्वी में प्रस्थापित, ‘नालंदा महाविहार’, दुनिया का सबसे पहला आवासीय विश्वविद्यालय था. इसके गौरवशाली इतिहास, ज्ञान-विज्ञान, तर्कशास्त्र के प्रमुख विश्वविख्यात केंद्र होने पर लेखक से पूर्ण सहमति है. यूनेस्को की हेरिटेज लिस्ट में शामिल, इस ऐतिहासिक संस्था पर हम, वाक़ई नाज़ कर सकते हैं. लगभग 750 साल तक यह गौरवशाली संस्थान समूचे एशिया में शिक्षा का प्रमुख केंद्र रहा ‘नालंदा महाविहार 1197 में नष्ट हो गया, ये भी एक ऐतिहासिक तथ्य है, भले कितना भी पीड़ादायक क्यों ना हो.
संग्रहालय के महानिदेशक शंकर शर्मा द्वारा दी गई जानकारी, ‘इस पर पांचवीं शताब्दी (मतलब प्रस्थापित होते ही) मिहिरकुल के नेतृत्व में हूणों द्वारा हमला किया गया था, इसके बाद बंगाल के गौण राजा के आक्रमण के दौरान भी काफी नुकसान हुआ था…हूण आक्रमणकारियों ने संपत्ति लूटने के लिए हमला किया था…उस समय शैव हिन्दू संप्रदाय और बौद्धों के बीच बढ़ती दुश्मनी का परिणाम था’, लिखने के बाद, सुगत मुखेर्जी ने, जज की कुर्सी पर बैठकर ये फैसला सुना दिया – ‘1190 के दशक में, तुर्क-अफगान सैन्य जनरल बख्तियार खिलजी के नेतृत्व में आक्रमणकारियों की सैन्य टुकड़ी ने विश्वविद्यालय को नष्ट कर दिया.’ ये निष्कर्ष ना सिर्फ़ ऐतिहासिक तथ्यों से अत्याचार है, बल्कि मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा, इतिहास के भगवाकरण द्वारा, फासीवादी परियोजना लागू करने के लिए बहुत ज़रूरी औज़ार है. आजकल कई ‘इतिहासकार’, इस तरह, फासीवादियों की सेवा कर रहे हैं. कार्ल मार्क्स की एक सीख बहुत महत्वपूर्ण है, ‘ग़लत बात का खंडन ना करना, बौद्धिक बेईमानी है’. इसी उद्देश्य से, इस अहम ऐतिहासिक घटना से सम्बंधित तथ्यों को पाठकों के समक्ष रखा जा रहा है, जिससे वे इस विषय पर सही फैसला ले सकें.
‘नालंदा विश्वविद्यालय किसने जलाया’, बिलकुल इसी मुद्दे पर 2014 में, भाजपा-संघ के एक वक़्त के थिंक टैंक और वाजपेयी मंत्रिमंडल में ‘विनिवेश मंत्री’ रहे, अरुण शौरी और देश के प्रख्यात और प्रतिष्ठित इतिहासकार, प्रो. डी. एन. झा के बीच बहुत तीखी बहस छिड़ी थी. सुगत मुख़र्जी ने उस डिबेट को क्यों नज़रंदाज़ किया, वे ही जानें. इस मुद्दे पर व्याप्त भ्रम दूर हों, इसलिए उसे संक्षेप में यहाँ दिया जा रहा है. मोदी जी के सत्तारूढ़ होते ही, 28 जून 2014 को, इंडियन एक्सप्रेस में, अरुण शौरी ने एक लेख, “नालंदा में इतिहास कैसे गढ़ा गया” लिखा, जिसमें, उन्होंने प्रो डी एन झा पर, नालंदा महाविहार के नष्ट होने के विषय पर, ना सिर्फ इतिहास में तथ्यात्मक घपला करने, दूसरों के विचारों को चुराकर, अपने बताने, बल्कि हिन्दुओं को ‘धर्मांध हिंदू’ बोलकर हिन्दू-विरोधी होने के गंभीर आरोप लगाए थे. दरअसल, 2004 में,‘भारतीय इतिहास कांग्रेस’ में, ‘ब्राह्मणों और बौद्धों के बीच संघर्ष’ विषय पर बोलते हुए, प्रो. डी. एन. झा ने, अकाट्य ऐतिहासिक प्रमाणों के साथ, अपने विचार विस्तार से रखे थे.
‘अरुण शौरी ने, अपनी प्रचंड मूर्खता को जिस तरह विद्वत्ता कहकर परोसा है,उसे पढ़ने के बाद उन पर दया और उनके पाठकों के प्रति सहानुभूति ही प्रकट की जा सकती है. पाठकों की आँखों में धूल झोंकने के लिए, वे मेरी बातों को अपनी मन-मर्ज़ी से गढ़ रहे हैं, ये कैसे मैगसेसे पुरष्कार विजेता हैं !!’ ज़ाहिर है,जिस लहज़े में आरोप लगे थे, झा का जवाब भी उसी लहज़े में आना था !!
नालंदा महाविहार का वक़्त, ब्राह्मणवादी कट्टरपंथी हिन्दुओं के वैष्णव और शैव के बीच, और दोनों सम्प्रदायों का ‘श्रमण’ धर्मों, मतलब बौद्ध-जैन धर्मों के बीच हुए कड़वे संघर्षों का काल-खंड था. इस हकीक़त का, एक-दो नहीं, बल्कि अनेकों इतिहासकारों ने विस्तृत वर्णन किया है. इतिहासविद बीएनएस यादव ने अपनी शोध पुस्तक, ‘बारहवीं शताब्दी में उत्तरी भारत का समाज व संस्कृति’ में, तिब्बती विद्वान, सुम्पा खान और पग-सैम-जन-जंग के हवाले से जो तथ्य सामने रखे हैं, उनसे इस दुश्मनी की गंभीरता उजागर होती है. बौद्ध लोग, हिन्दुओं को ‘तिर्थिका’ कहते थे. एक घटना के अनुसार, नालंदा के एक बौद्ध विहार में पूजा चल रही थी. तब ही कुछ तिर्थिका भिक्षु उसमें ज़बरदस्ती प्रवेश करने लगे. एक युवा बौद्ध ने उनके ऊपर पानी फेंक दिया. गुस्से में आग बबूला होकर,‘तिर्थिका’ भिक्षुओं ने, तीन बौद्ध स्थलों, रत्न-सागर, रत्न-रंजका और रत्नोदधि में आग लगा दी. इतना ही नहीं, उसके बाद वे तिर्थिका भिक्षु वहीं, अग्नि कुंड बनाकर,‘अग्नि-साधना’ के लिए बैठ गए और उस अग्निकुंड में से जलती हुई लकड़ियाँ बाक़ी स्मारकों पर फेंकते गए. वह अग्नि साधना 9 साल चलनी थी लेकिन उसे 3 साल और बढ़ा दिया गया. उसके बाद तीर्थकों ने घोषणा की कि उन्हें अग्नि-सिद्धि प्राप्त हो गई है. उसके बाद, अलग-अलग स्थानों पर आग लगने की वारदातें बढ़ती गईं.
अरुण शौरी ने इन ऐतिहासिक तथ्यों को, ग़लत साबित करने के लिए, ‘सही’ ऐतिहासिक तथ्य प्रस्तुत करने की बजाए, वही तरीका अपनाया जिसे भाजपा-संघ ‘चिंतक’ अक्सर अपनाते हैं, ‘बीएनएस यादव की बात झूठ है क्योंकि वे मार्क्सवादी हैं !!’.’भले अरुण शौरी ‘मार्क्सवाद’ से ऐसे बिदकते हैं, जैसे लाल रुमाल देखकर सांड बिदकता है, लेकिन ऐसा प्रतिपादित करने वाले यादव अकेले नहीं हैं, बल्कि अनेक इतिहासविद, जैसे आर. के. मुख़र्जी, सुकुमार दत्त, बुद्ध प्रकाश और एस. सी. विद्याभूषण ने भी इन ऐतिहासिक तथ्यों की ताकीद की है और इनमें कोई भी मार्क्सवादी नहीं है’. बेहूदे,भड़काऊ आरोपों का एकमुश्त भुगतान कैसे करना है, प्रतिष्ठित इतिहासकार प्रो. झा अच्छी तरह जानते थे !! प्रो. विद्याभूषण ने, और साक्ष्यों द्वारा साबित किया कि नालंदा विश्वविद्यालय में पूरे 12 साल तक चली ‘अग्नि दीक्षा’, ‘सूर्य पूजा’, जिसमें से जलती हुई सामग्री दूर-दूर तक बिखेरी जाती थी, का मक़सद इस ऐतिहासिक और प्रतिष्ठित संस्थान को जलाकर नष्ट करना ही था ?? प्रो विद्याभूषण भी मार्क्सवादी नहीं हैं, अरुण शौरी को फिर याद दिलाया गया.
तत्कालीन ब्राह्मणवाद, बौद्ध धर्म को बिलकुल बरदाश्त नहीं करता था, ये तथ्य इतिहासकारों में निर्विवाद है. अपना मन-पसंद ‘इतिहास’ गढ़ने वाले ‘विचारकों’ को, प्रो. झा द्वारा बताई,जॉर्ज बरनार्ड शा की उक्ति, ‘आधा-अधूरा ज्ञान, अज्ञानता से ज्यादा ख़तरनाक होता है’, लगता है सुगत मुखर्जी पर भी फिट बैठती है. ऐतिहासिक प्रमाण ये ज़रूर बताते हैं कि बख्तियार खिलजी ने बिहार के एक किलेनुमा शहर पर, 200 घुड़सवारों से हमला किया था और क़ब्ज़ा कर उसे लूटा था. खिलजी की उस टुकड़ी में निज़ामुद्दीन और शमशुद्दीन नाम के दो भाई थे जिन्होंने लिखा है कि उस शहर में अधिकतर ब्राह्मण थे. वहां बहुत सारी क़िताबें भी मिली थीं. उन किताबों और दस्तावेजों पर हुए शोध से पता चलता है कि वह स्थान नालंदा नहीं था. इस बात से, संघ परिवार के सबसे चहेते इतिहासकार, जदुनाथ सरकार भी सहमत हैं. ऐसा इतिहास, जो मुस्लिम घृणा फ़ैलाने की परियोजना में काम ना आए, आज के सत्ताधीशों के किस काम का !! इसलिए ऐतिहासिक तथ्य कुछ भी कहें, ‘नालंदा में आग तो बख्तियार खिलजी ने ही लगाई थी !!’ पंचों की बात सर माथे पर खूंटा वही गड़ेगा !! सामाजिक ध्रुवीकरण में सहायक इतिहास,कट्टरपंथी मज़हबी उन्मादियों को इतना रसीला लगता है कि उन्हें इस बात से भी कोई मतलब नहीं कि बख्तियार खिलजी के, दिल्ली से बंगाल के आक्रमण के रास्ते में ना पड़ने के कारण ही नालंदा उसके आक्रमण से बच पाया.
मंदिर, उस ज़माने में बैंक की तरह इस्तेमाल होते थे. धनि लोग अपने जेवर मंदिरों में ही रखते थे. इसीलिए इस्लामी आक्रमणकारियों की लूट में पहले नंबर पर रहते थे. मंदिरों के अलावा अनेक शिक्षण संस्थानों को भी तहस-नहस किया गया लेकिन बगैर किसी प्रमाण के, बल्कि उलटे प्रमाण होते हुए भी, ‘नालंदा विश्वविद्यालय को बख्तियार खिलज़ी ने ही जलाया’, कहते जाना, इतिहास को मनगढ़ंत तरीक़े से प्रस्तुत करना है. स्वयंघोषित ‘चिंतकों’ को इस बात की भी चिंता नहीं रहती कि उनका ‘चिंतन’ अपने पैरों पर खड़ा हो पा रहा है या नहीं. इसीलिए वे गुरुनानक, गोरखनाथ और विवेकानंद की ‘बैठकें’ कराते रहते हैं, भले उनके जीवन के बीच कई सौ साल का अंतर क्यों ना हो !! किसी भी इतिहासकार को वे अपने बराबर समझने को तैयार नहीं होते. इसी का नतीज़ा है कि वाजपेयी काल में आई, अरुण शौरी की ‘इतिहास’ की पुस्तक, ‘Eminent Historians’, इतिहास की कम, उपन्यास ज्यादा दिखाई पड़ती है. प्रो. झा के 1907 के बयान का, 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद, बेहद कड़वी और भड़काऊ जुबान में किया गया उनका खंडन, ये संशय भी पैदा करता है कि उनकी नज़र कहीं मंत्री की कुर्सी पर तो नहीं गड़ी थी !!
बौद्ध धर्म को किसने नहीं पनपने दिया ? बौद्ध स्मारक कैसे नष्ट हुए ? ‘नालंदा विहार’ किसने तबाह किया ?
प्रो. डी. एन. झा के अतिरिक्त जिन इतिहासकारों ने, अपने वस्तुपरक शोध द्वारा, प्राचीन भारतीय इतिहास की विशिष्टताओं को उजाले में लाने का काम किया है, वे हैं डी. डी. कौशाम्बी, और कई वर्ष तक ‘भारतीय इतिहास परिषद’ के चेयरमैन रहे, प्रो. आर. एस. शर्मा. प्राचीन भारत में ब्राहमणवादी सनातनी हिंदू धर्म की दो शाखाएँ, वैष्णव और शैव के बीच तीखे संघर्ष चलते थे और उस सामाजिक अराजकता ने, बौद्ध और जैन धर्मों के उद्भव की ज़मीन तैयार की. उसके बाद, लेकिन, इन दोनों ब्राह्मणवादी सम्प्रदायों ने मिलकर, बौद्ध और जैन धर्म का विस्तार होने से रोकने में पूरी ताक़त लगा दी.
दूसरी शताब्दी ईशा पूर्व हुए, ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र शुंग ने, अपनी शक्तिशाली सेना को, श्रमण धर्मों, अर्थात बौद्ध और जैन धर्मावलम्बियों को मार डालने और उनके धार्मिक स्थलों को नेस्तनाबूद कर डालने का हुक्म सुनाया था. किसी भी ‘श्रमण’ का सर काट कर लाने पर, ईनामों की घोषणा की थी. व्याकरणविद पतंजलि (150 ईसा-पूर्व) ने भी ‘महाभाष्य’ में लिखा है कि ब्राह्मण और श्रमण (बौद्ध और जैनी) के बीच सांप और नेवले वाला बैर है, ये दोनों एक साथ कभी नहीं रह सकते. यही वज़ह है कि भारत में पैदा हुआ, बौद्ध धर्म, समूचे पूर्वी एशिया में दूर-दूर जापान तक फैला, लेकिन यहाँ अपनी जड़ें नहीं जमा पाया. डॉ. अम्बेडकर ने अगर बौद्ध धर्म ना अपनाया होता, तो जो कुछ नज़र आता है, वह भी ना रहा होता. इसके अलावा, अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध संस्थाओं ने भी बौद्ध धर्म को भारत में नष्ट ना होने देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. ‘मैं गौतम बुद्ध की धरती से आया हूँ’, विदेशों में जाकर, साहिब-ए-मसनद की ये उद्घोषणा कपटपूर्ण है.
बौद्ध और जैन, दोनों धर्म परलोकीय ईश्वर की धारणा को नकारते हुए पैदा हुए थे. आज उनके मानने वालों ने, बुद्ध और महावीर को ही भगवान बना डाला है, ये अलग बात है. चीनी यात्री फाहियान ने, जो चौथी शताब्दी में, गुप्त काल में भारत आए, स्वयं अनेक बौद्ध स्थलों का दौरा करने के बाद लिखा कि, श्रावस्ती में, जहाँ गौतम बुद्ध ने काफ़ी दिन निवास किया, कैसे बौद्ध धार्मिक प्रतीकों को नष्ट किया गया और वहां मंदिर बना दिए गए. अकेले सुल्तानपुर (यू.पी.) में कुल 49 बौद्ध स्थलों को नष्ट कर, बौद्ध धर्म पर ब्राह्मणों की विजय का जश्न मनाया गया था. फाह्यान के बाद, आए वैगुओ-शी नाम के चीनी यात्री ने भी इन तथ्यों की पुष्टि की है. हुवेंत्संग नाम के चीनी यात्री, जो 631- 645 ई, मतलब 14 साल भारत में रहे और 5 साल नालंदा महाविहार (विश्वविद्यालय) में रहे, लिखते हैं कि 502- 30 ई में, शिव भक्त मिहिरकुल नाम के हूण राजा ने 1600 बौद्ध स्मारकों को नष्ट कर हज़ारों बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला गया था. मिहिरकुल को चीन में ‘शैतान’ राजा बोला जाता है. ह्वेंत्संग ये भी लिखते हैं कि गौड़ के राजा शशांक ने बोध गया में स्थित बोधि वृक्ष को भी काट डाला था और वहां से बुद्ध की प्रतिमा हटाकर, महेश्वर की प्रतिमा प्रस्थापित की थी. गुप्त काल में बौद्ध और जैन धार्मिक स्थलों पर ब्राह्मणों ने सबसे ज्यादा हमले किए, इसीलिए शायद, हिन्दुत्ववादी इतिहासकार गुप्त काल को प्राचीन भारत का स्वर्ण काल कहते हैं.
ह्वेत्संग ने ये भी लिखा है कि 7 और 8 नंबर के बौद्ध स्मारकों के बीच एक शैव मंदिर स्थापित हुआ था. बौध इमारतें जहाँ ईटों की बनी हैं,वहीं ये मंदिर मार्बल का बना है. बौद्ध मठों के बीच, इस शैव मंदिर के होने का कोई तुक समझ नहीं आता. इसे बौद्ध स्मारक को तोड़कर तामीर किया गया है. उसके आलावा 1 और 4 नंबर के बौद्ध मठों में व्यापक तौर पर तोड़-फोड़ हुई है. उसके बाद जब 1197 में नालंदा की शान, विशाल एवं समृद्ध पुस्तकालय में आग लगी और हमारे देश का ये गौरवशाली संस्थान तबाह हुआ, उससे पहले के 12 वर्षों तक विश्वविद्यालय के बीचोंबीच विशाल अग्निकुंड बनाकर, ब्राह्मणों-पंडों-पुजारियों द्वारा लगातार अग्नि साधना होती रही. कई बार, उन पुजारियों को ‘अग्नि सिद्धी’ प्राप्त होने के पाखंड रचे गए और आग लगने की अनेक घटनाएँ हुईं, जिन्हें सूर्य देवता की मर्ज़ी बताया गया !! इसी मज़हबी ज़हालत के वर्तमान संस्करण ने, रामनवमी, 30 मार्च 2023 को ना सिर्फ़ बंगाल और बिहार में व्यापक तौर पर हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़काए, बल्कि उसी नालंदा में स्थित, मदरसा अज़ीज़िया और ऐतिहासिक पुस्तकालय को भी फूंक डाला जिससे 3000 से ज्यादा दुर्लभ दस्तावेज़ और पुस्तकें खाक़ हो गईं.
इस्लामी आक्रमणकारियों ने देश में, कई विनाशकारी हमले किए, अनेक मंदिरों, किलों को लूटा, नष्ट किया, तबाही मचाई, इसमें कोई शक़ नहीं. बख्तियार खिलजी को चरित्र प्रमाण-पत्र ज़ारी करना, इस लेख का क़तई मक़सद नहीं. इस लूटमार को, लेकिन उसी तरह लिया जाना चाहिए, जैसे बाक़ी राजा-महाराजा किया करते थे, चाहें वे देसी हों या विदेशी. उस वक़्त शोषण का ये ही तरीका था, रियासतों पर हमले करो, उनका ख़जाना लूट लो, सुंदर औरतें लूटो, ज़मीन हथिया लो या ज़मीन हारे हुए राजा को ही लौटा दो और उससे मासिक या वार्षिक कर वसूल कर, दरबार में हाज़री लगाने को मज़बूर करो. आज की तरह, सरकारों से सांठ-गाँठ कर पूंजी द्वारा लूटमार का अदानी-अम्बानी काल तब तक आना बाक़ी था, ना.
बख्तियार खिलजी के नालंदा जाने, लूटमार करने और नालंदा में आग लगाने के ऐतिहासिक प्रमाण दीजिए; प्रो. डी. एन. झा द्वारा दी गई इस चुनौती पर अरुण शौरी अभी तक चुप्पी साधे हुए हैं. संघी कुनबे के दूसरे ‘इतिहासकार’ भी उनकी इस मामले में मदद नहीं कर पाए, लेकिन समूचा कुनबा चाहता है कि ऐतिहासिक तथ्यों को नकार कर, उनके गपोड़ों को ही इतिहास मान लिया जाए क्योंकि यह उनके हिन्दू-मुस्लिम ज़हरीले अजेंडे को बढ़ाता है. हम, भारत के लोग, ये फतवा मानने से इंकार करते हैं. सन्दर्भ प्रो. डी. एन. झा, डी. डी. कौशाम्बी और आर. एस. शर्मा लिखित पुस्तकें व लेख.
नालंदा विश्वविद्यालय को किसने जलाया ? प्रमाण इतिहासकार डीएन झा ने प्रस्तुत किया
डी. एन. झा पूर्व मध्यकालीन इतिहास के संदर्भ में भी फैलाए गए अन्य झूठे मिथकों को साक्ष्यों के आधार खारिज करते हैं. इन झूठे मिथकों में आम तौर स्वीकृत एक मिथक है यह है कि नालंदा विश्वविद्यालय और उसके पुस्तकालय को बख्तियार खिलजी ने जलाया और नष्ट किया था.
डी. एन. झा ने तिब्बती बौद्ध धर्मग्रंथ ‘परासम-जोन-संग’ को उद्धृत करते हुए बताया है कि हिंदू अंधश्रद्धालुओं द्वारा नालंदा को पुस्तकालय जलाया गया था. ( स्रोत- हिदू पहचान की खोज, पृ.38, डी. एन. झा) उनके इस मत की पुष्टि इतिहासकार बी. एन. एस. यादव भी करते हैं, उन्होंने लिखा है कि ‘आमतौर पर यह माना जाता है कि नालंदा विश्वविद्यालय को बख्तियार खिलजी ने नष्ट किया था, जबकि उसे हिंदुओं ने नष्ट किया था.’ इतिहासकार डी. आर. पाटिल को उद्धृत करते हुए वे लिखते हैं कि ‘उसे ( नालंदा विश्वविद्याल) शैवों ( हिंदुओं) ने बर्बाद किया.’ (स्रोत, एंटीक्वेरियन रिमेंन्स ऑफ बिहार, 1963, पृ.304) इस संदर्भ में आर. एस. शर्मा और के. एम. श्रीमाली ने भी विस्तार से विचार किया है (ए कम्प्रिहेंसिव हिस्ट्री ऑफ इंडिया, खंड, भाग-2 ( ए. डी. 985-1206) आगामी अध्याय XXX ( b) बुद्धिज्म फुटनोट्स 79-82
असल में डी. एन. झा प्राचीनकालीन और पूर्व मध्यकालीन इतिहास को ब्राह्मण-श्रमण विचारों-परंपराओं के संघर्ष के रूप में देखते हैं और साक्ष्यों के आधार पर यह स्थापित करते हैं कि ब्राह्मणवादियों ने बड़े पैमाने पर बौद्ध मठों, स्तूपों और ग्रंथों को नष्ट किया और बौद्ध भिक्षुओं की बड़े पैमाने पर हत्या की. नालंदा विश्वविद्यालय और पुस्तकालय को जलाया जाना भी इस प्रक्रिया का हिस्सा था. ब्राह्मणों और श्रमणों के बीच संघर्ष का क्या रूप था.
इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध वैयाकरण पंतजलि (द्वितीय शताब्दी) लिखते हैं कि ‘श्रमण और ब्राह्मण एक दूसरे के शाश्वत शत्रु ( विरोध: शाश्वतिक:) हैं, उनका विरोध वैसे ही है, जैसे सांप और नेवले के बीच. ( उद्धृत डी. एन. झा, पृ. 34, हिंदू पहचान की खोज). यह शत्रुता लंबे समय तक जारी रही है और बड़े पैमाने पर बौद्धों-जैनों और श्रमण पंरपरा के अन्य वाहकों के खिलाफ ब्राह्मणवादियों द्वारा हिंसा जारी रही. हिंसा के इस स्वरूप का साक्ष्यों द्वारा उद्घाटन करते हुए डी. एन. झा यह स्थापित करते है, हिंदू धर्म का इतिहास सहिष्णुता और अहिंसा का इतिहास रहा है, यह गढ़ा गया झूठा मिथक हैं. हिंदू धर्म का इतिहास हिंसा और असहिष्णुता से भरा पड़ा है.
यह हिंसा न केवल श्रमण विचारों के वाहकों के खिलाफ हुई, इसके साथ वैदिक-ब्राह्मणवादी परंपरा के विभिन्न संप्रदायों के बीच भी व्यापक हिंसा हुई, जिसमें वैष्णवों और शैवों के बीच हिंसा भी शामिल है. अपनी किताब ‘हिंदू पहचान की खोज’ में डी. एन. झा श्रमणों के खिलाफ ब्राह्मणवादियों की व्यापक हिंसा के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं. वे लिखते है कि ‘बौद्ध रचना दिव्यावदान ( तीसरी शताब्दी) में पुष्यमित्र शुंग को बौद्धों का बहुत बड़ा उत्पीड़क बताया गया है: वह चार गुना सेना के साथ बौद्धों के विरुद्ध निकल पड़ता है, स्पूतों को नष्ट करता है, बौद्ध विहारों को जला देता है और शाकल ( सियालकोट) तक भिक्षुओं की हत्या करता जाता है और जहां वह प्रत्येक श्रमण के सिर लिए एक सौ दीनार के इनाम की घोषणा करता है.’ ( दिव्यावदान, सं. ई. बी. कोवेल और आर.ए. मील, कैम्ब्रिज, 1886, पृ.433-34)
डी. एन. झा लिखते हैं कि बौद्ध एवं जैन संप्रदायों और ब्राह्मणवादियों के बीच शत्रुता मध्ययुग के आरंभ में तीखी होती जाती है. यह हमें धर्मशास्त्रीय वैमनस्व संबंधी पाठों तथा उन्हें मानने वालों के बीच उत्पीड़न से पता चलता है. कहा जाता है कि उद्योत्कर (सातवीं शताब्दी) ने बौद्ध तर्कशास्त्रियों नागार्जुन और दिगनाग के तर्कों का खंड़न किया था और उनके तर्कों को वाचस्पति मिश्र ने अधिक दृढ़ बनाया. सनातनी-ब्राह्मणवादी दार्शनिक कुमारिल भट्ट (आठवीं शताब्दी) ने सभी गैर-परंपरावादी आंदोलनों (खासकर बौद्ध और जैन) के दर्शनों को मानने से इंकार कर दिया.
बौद्धों-जैनों के बारे में कुमारिल कहता है कि ‘वे उन अकृतज्ञ और अलग हो गए बच्चों के समान हैं, जो अपने अभिवावकों द्वारा की गई भलाई स्वीकार करने से इंकार करते हैं, क्योंकि वे वेद-विरोधी प्रचार के लिए ‘अहिंसा’ के विचार का प्रयोग एक औजार के रूप में करते हैं. बुद्ध के संदर्भ में शंकर (आदि शंकराचार्य) कहते हैं कि ‘वे (बुद्ध) असंबद्ध प्रलाप (असंबद्ध-प्रलापित्वा) करते हैं, यहां तक कि वे जानबूझकर और घृणापूर्वक मानवता को विचारों की गड़बड़ी की ओर ले जाते हैं.’ सोलहवीं बंगाल के भगवद्गीता के टिप्पणीकार मधुसूदन सरस्वती यहां तक कहते हैं कि भौतिकवादियों, बौद्धों तथा अन्य के विचार म्लेच्छों के विचारों के समान हैं. ब्राह्मणवादी दार्शनिकों को अनुकरण करते हुए पुराण (सौर पुराण) यह मत प्रकट करता है कि ‘चार्वाकों, बौद्धों और जैनियों को साम्राज्य में रहने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.’ (सौर पुराण, 64.44, 38.54)
डी. एन. झा लिखते हैं कि बौद्धों और जैनियों के विरुद्ध शैव तथा वैष्णव अभियान सिर्फ जहरीले शब्दों तक सामित नहीं थे. उन्हें प्रथम सहस्राब्दी के मध्य से प्रताड़ित कि जाने लगा, जिसकी पुष्टि आरंभिक मध्ययुगीन स्रोतों से होती है. ह्यूआन सांग को उद्धृत करते हुए वे लिखते हैं कि ‘हर्षवर्धन के समकालीन गौड़ राजा शशांक ने बुद्ध की मूर्ति हटाई थी. यह भी बताते हैं कि शिवभक्त हूण शासक मिहिरकुल ने 1600 बौद्ध स्तूपों और मठों को नष्ट किया तथा हजारों बौद्ध भिक्षुओं तथा सामान्य जनों की हत्या की.’ (सैमुअल बील, सी-यू: बुद्धिस्ट रेकॉर्डस ऑफ द वेस्टर्न वर्ल्ड, दिल्ली, 1969, पृ. 171-72, उद्धृत डी. एन. झा) कश्मीर में बौद्धों के दमन का महत्वपूर्ण प्रमाण राजा क्षेमगुप्त (950-58) के शासन में मिलता है.
उन्होंने श्रीनगर में स्थित बौद्ध विहार जयेंन्द्र विहार नष्ट करके उसकी सामग्री का प्रयोग श्रेमगौरीश्वर के निर्माण के लिए किया. ( राजतरंगिणी ऑफ कल्हण, 1.140-144,उद्धृत डी. एन. झा) ‘उत्तर प्रदेश के सुलतानपुर जिले में नष्ट किए गए सैंतालिस किलेबंद नगर के अवशेष मिले हैं, जो वास्तव में बौद्ध नगर थे और जिन्हें ब्राह्मणवादियों ने बौद्धवाद पर अपनी जीत की खुशी में आग लगाकर बर्बाद किया था.’ (उद्धृत, डी. एन. झा, सोसायटी एंड कल्चर इन नादर्न इंडिया इन द टवेल्फ्थ सेंचुरी, इलाहाबाद, 1973, पृ.436)
बौद्धों के प्रति ब्राह्मणवादियों में किस कदर नफरत थी, इसका एक बड़ा उदाहरण देते हुए डी. एन. झा लिखते हैं कि दक्षिण भारत में मिलता है. तेरहवीं शताब्दी के एक अल्वार ग्रंथ के अनुसार वैष्णव कवि-संत तिरुमण्कई ने नागपट्टिनम में एक स्तूप से बुद्ध की एक बड़ी सोने की मूर्ति चुराई और उसे पिघलाकर एक अन्य मंदिर में प्रयुक्त किया, कहा गया कि वह मंदिर बनाने का आदेश स्वयं भगवान विष्णु ने उन्हें दिया था.’ ( रिचर्ड एव. डेविस, लाइव्स ऑफ इमेजेज, प्रथम संस्करण, दिल्ली, 1999, पृ.83) डी. एन. झा प्रमाणों के साथ यह प्रस्तुत करते हैं कि ब्राह्मणवादियों ने बौद्धों से कहीं अधिक ज्यादा जैनियों का दमन किया है.
निष्कर्ष रूप में डी. एन. झा लिखते हैं कि ब्राह्मणवाद निहित रूप से असहिष्णु था…अक्सर ही हिंसा का रूप धारण करने वाली असहिष्णुता सैन्य-प्रशिक्षण प्राप्त ब्राह्मणों से काफी सहायता पाती रही होगी. इसलिए यह दावा (हिंदुओं का दावा) पचाना कठिन है कि हिंदूवाद तिरस्कार करने के बजाय समावेश करता है. यह भी मानना असंभव है कि हिंदूवाद के रूप में हिंदूवाद का सार ही सहिष्णुता है. इसी तरह यह कहना कि इस्लाम ने ही इस देश में हिंसा लाई है, जिसे इसका पता नहीं ही नहीं था, ऐसा कहना प्रमाणों की उपेक्षा है. भारत में इस्लाम के आगमन काफी पहले सन्यासी-योद्धाओं और साधु फौजियों के दल बन चुके थे और वे आपस में खूब मारा-मारी करते थे. ( डेविड एन. लोरेन्जेन, ( वॉरियर एसोटिक्स इन इंडियन हिस्ट्री, जर्नल ऑफ द अमेरिकन सोसायटी, पृ.61-75, उद्धृत डी. एन. झा, पृ.42)
- सत्यवीर सिंह
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