नरेन्द्र कुमार
अंबेडकर ने अपनी राजनीतिक यात्रा ब्राह्मणवाद के कर्मकांडी तथा घृणित जाति- व्यवस्था के खिलाफ मुखर आवाज के रूप में शुरू की. फ्रांसीसी क्रांति तथा पश्चिमी लोकतंत्र से प्रभावित अंबेडकर की समझ थी कि भारत में ब्राह्मणवाद की जड़ों को नष्ट कर पूंजीवाद एक लोकतांत्रिक समाज का निर्माण करेगा. इसी समझ के कारण ब्रिटिश साम्राज्यवाद तथा भारतीय पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष के प्रति या तो वे उदासीन रहे या कई अर्थों में उनका समर्थन भी किया.
ब्राह्मणवाद, जिसकी जड़ें भारतीय भूमि-संबंध यानी कि अर्ध-सामंती सामाजिक संबंधों से रक्षित था, इसकी गहराई में जाकर विचार करने की कोशिश वे नहीं करते हैं. उस दौर में भारत के 90% अछूत जातियां जो बंधुआ मजदूर, दस्तकार, गरीब किसान व सफाई कर्मी थे जो पूंजीवादी व सामंती आर्थिक तथा सामाजिक उत्पीड़न की पीड़ा झेल रहे थे. उनकी मुक्ति की लड़ाई के लिए आवश्यक था कि पूंजीवादी व सामंती भू संबंध को ध्वस्त कर उन्हें साधनों का मालिक बनाया जाए. लेकिन अंग्रेज प्रशासन तथा पूंजीपतियों ने इसे सुरक्षित रखा.
सामंती भू-संबंध व सामंतों ने इन मेहनतकश अछूत जातियां को अपने पैरों तले दबाए रखने में ब्रिटिश साम्राज्यवाद तथा उसके प्रशासन से भरपूर सहयोग पाया, बदले में टैक्स के रूप में और मजदूर वर्ग को दबाए रखने में सामंती समाज ने उनकी मदद की. उनकी मुक्ति के लिए संघर्ष की आवाज विभिन्न क्षेत्रों में कम्युनिस्ट पार्टी के द्वारा ही उठाया गया, जिसमें अंबेडकर की भागीदारी नहीं रही, जबकि ठीक इसी दौर में भगत सिंह ने अछूत तथा सांप्रदायिकता की समस्या के समाधान के तौर पर सामंती शक्तियों के द्वारा मेहनतकशों के शोषण तथा पूंजीपतियों के द्वारा कारखाने में मजदूरों के शोषण के खिलाफ आवाज को प्राथमिकता देकर उठाया.
भगत सिंह ने स्पष्ट तौर पर बात रखी कि सामंतवाद और भारतीय पूंजीपति साम्राज्यवादी शक्तियों से संरक्षित हैं. भगत सिंह से कहीं अधिक पढ़ने और विद्वान होने के बावजूद पूंजीवादी लोकतंत्र के प्रति मोह ग्रस्त होने के कारण वे जमीनी हकीकत से नहीं जुड़ पाए. इसीलिए आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में भी उनकी सीधी भागीदारी नहीं हुई और न ही सामंती शक्तियों के खिलाफ उन्होंने आवाज उठाया.
कुछेक जगह कुएं और तालाब के पानी के उपयोग के तौर पर सुधारात्मक आंदोलन उन्होंने अवश्य चलाया. यदि इस आंदोलन को भी आगे वे बड़े पैमाने पर संगठित करते, तो जन आंदोलन के रूप में सामंतवाद विरोधी दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होता लेकिन यह भी सिंबॉलिक बनकर ही रह गया.
भारतीय संविधान के निर्माण में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की, इस मायने में उन्हें भारतीय पूंजीवादी लोकतंत्र के एक महत्वपूर्ण स्तंभ के रूप में याद किया जाना चाहिए. पूंजीवादी लोकतंत्र के संरक्षक होने के कारण ही तेलंगाना जैसे महत्वपूर्ण किसान आंदोलन पर नेहरू सरकार के द्वारा भयंकर दमन के समय वे चुप रहे. लेकिन जीवन के अंतिम समय में भारतीय पूंजीवादी लोकतंत्र से उनका मोह भंग हो गया और अपनी निराशा की स्थिति में उन्होंने अपने कई भाषणों में यह वक्तव्य दिया कि मेहनतकश दलित समाज की मुक्ति का रास्ता समाजवाद से निकलेगा.
इस रूप में अंबेडकर अपने जीवन के अंतिम समय में भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन का समर्थन किया लेकिन विश्व दृष्टिकोण के तौर पर विश्व के अन्य पूंजीवादी देशों के लिए उन्होंने पूंजीवादी लोकतंत्र की व्यवस्था को ही सही ठहराया. भारत की स्थिति ने उन्हें भले ही भारतीय दलित समाज की मुक्ति के लिए समाजवाद के पक्ष में खड़ा होने के लिए वाध्य किया, लेकिन वह अंतिम समय तक पूंजीवादी लोकतंत्र के पक्षधर रहे. इस मायने में एक विचारक के तौर पर उनकी तुलना सार्त्र से करना उचित होगा.
सार्त्र ने अस्तित्ववाद के सिद्धांतकार के रूप में साम्राज्यवाद के खिलाफ मुखर होकर आवाज उठायी. मध्य वर्ग तथा निम्न पूंजीवादी वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर अपनी वैचारिक यात्रा के अंतिम दौर में वह समाजवाद के समर्थक बने और अंत में मार्क्सवाद लेनिन्वाद को भी अपनी सीमाओं में स्वीकार किया. यह तथ्य उन्हें मार्क्सवाद लेनिनवाद का समर्थक तो बनाता है, लेकिन विचारक के तौर उन्हें अस्तित्ववादी दार्शनिक के रूप में ही याद किया जाता है.
जाति उत्पीड़न को मुखर होकर उठाने तथा मार्क्सवाद व समाजवाद का समर्थन करने के लिए हम अंबेडकर का अभिनंदन करते हैं. लेकिन इसी पक्ष को सामने रखकर उनके पूरे जीवन काल की रचनाओं के अंतर्विरोधों तथा पूंजीवादी लोकतंत्र की पक्षधरता पर चुप नहीं रहना चाहिए, उसकी भी उतनी ही निर्माता के साथ आलोचना की जानी चाहिए. आज के दौर में यह इसलिए भी आवश्यक है कि बहुत सारे संगठन उनके समाजवाद के समर्थन वाले पक्ष को सामने रखकर उनके पूरे जीवन काल की रचना तथा व्यवहार पर चुप्पी साध लेते हैं.
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