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फासीवाद के खिलाफ मेहनतकश जनता का संयुक्त मोर्चो कैसे बने !

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प्रस्तुत आलेख  को भारत की अर्द्ध सामंती-अर्द्ध औपनिवेशिक भारत में क्रांतिकारी आंदोलन के मैदान में अपनी भूमिका निभा रहे आजाद राकेश ने तैयार किया है. जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है कि ‘भारत में आज की हालातों को देखते हुए ये लेख सिर्फ एक कोशिश है कि सच्चे क्रांतिकारी साथियों का एक मजबूत मोर्चा (संयुक्त मोर्चा – सं.) बने, जो इस वामपंथी एकता के जरिये क्रांति के सपने को पूरा करने में एक ऐतिहासिक योगदान दे.’
आजाद राकेश लिखते हैं कि ‘इस लेख में कुछ कमियां भी हो सकती हैं जो हम सब मिल के सुधार सकते हैं लेकिन इसके अलावा वामपंथी एकता के तरह-तरह के परीक्षण हो चुके हैं या हो रहे हैं तो इसको आजमाने में क्या समस्या है ?’ आजाद राकेश वर्तमान मौजूं वक्त में कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ताकतों की एकजुटता, उसकी समस्या और फासिस्ट शासक वर्ग की चुनौतियों को बेहतरीन तरीके से यहां प्रस्तुत किया है. साथ ही वे क्रांतिकारी ताकतों से अपील करते हैं कि ‘जो भी साथी सचमुच इस दिशा में कुछ करना चाहते हैं, अपने विचार व्यक्त करें और सुझाव दें. सही सुझावों को चर्चा में लाया जाएगा और शामिल किया जाएगा,’ एक महत्वपूर्ण घोषणा है. – सम्पादक
फासीवाद के खिलाफ मेहनतकश जनता का संयुक्त मोर्चो कैसे बने !
फासीवाद के खिलाफ मेहनतकश जनता का संयुक्त मोर्चो कैसे बने !
आजाद राकेश

अगर तानाशाही और फासीवाद का उदय पूंजीवाद के सड़ने की निशानी है तो साथ में ये वामपंथ की उस कमजोरी की भी निशानी है जिसकी वजह से ये पनपा है. जिस तरह RSS ने हर गली मोहल्ले में जाकर लोगों में साम्प्रदायिकता का ज़हर बीजने में मेहनत की है, अगर उस तरह से हम वामपंथियों ने जनता के बीच जाकर उस उस बीज से बने पेड़ की जड़ काटने में की होती तो शायद आज ये फासीवाद उस रूप में कभी दिखाई न देता जिस रूप में ये दिखाई दे रहा है. 1969 में जिस चिंगारी को बारूद बनाया जा सकता था उसपे हमारी कमियों ने पानी डालने का काम किया.

अब बात सिर्फ कमियों को समझने की है, हैं तो कमियां ही, पर मानने वाले इसको अपनी उपलब्धियां भी मान सकते हैं. इन कमियों की वजह से आज हम इतने टुकड़ों में बंटे हुए हैं कि शायद पूंजीवादी पार्टियां भी इतने टुकड़ों में न बंटी हों, बल्कि वे तो इस बात पे खुश होते होंगे कि किस तरह हर दिन एक नए वामपंथी संगठन का जनम होता है. आखिर वामपंथ का इतना कमजोर होने और इतने भागों में बंटने का कारण क्या है ? आइए, सब मिल के इसको समझने की कोशिश करें.

संसद के रास्ते क्रांति लाने वाले

सबसे बड़ी बंटवारे की रेखा संसदीय और गैर-संसदीय वामपंथी धड़ों में सीधे समझ आती है. सबसे पहले संसद के रास्ते क्रांति लाने वालों के बारे में बात करते हैं. जो भी कम्युनिस्ट ग्रुप या पार्टी ज्वाइन करता है, उसको सबसे पहले यही बात सिखाई जाती है दुनिया में सिर्फ दो ही वर्ग होते हैं – एक शोषक (पूंजीपति या जागीरदार) और दूसरा शोषित (मेहनतकश जनता जैसे मजदूर, किसान). जिसके हाथ में सत्ता होगी, उत्पादन के साधन (उद्योग-धंधे, खेत-खलिहान, जंगल-जायदाद आदि) पर कब्जा होगा, वही पूरे देश का भविष्य (रोज़गार, रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा-स्वास्थ्य आदि) तय करेगा.

अगर सत्ता पूंजीपतियों के हाथ में है (पूंजीवादी व्यवस्था में) तो एक दिन मानवता का अंत निश्चित है, जैसा कि आज हमारे देश में है. और अगर सत्ता मेहनतकश जनता के हाथ में आती है (समाजवादी व्यवस्था में) तो पूरा देश खुशहाल होगा और कोई भूखा, नंगा, बेरोजगार नहीं होगा. और समाजवादी व्यवस्था तो सिर्फ एक ही हालत में आ सकती है अगर उत्पादन के साधनों (उद्योग-धंधे, खेत-खलिहान, जंगल-जायदाद) को पूंजीपतियों के हाथों से छीन कर मेहनतकश जनता अपने हाथों में ले लें.

और ये काम तो संसद के रास्ते तो तब भी नहीं हो सकता अगर कन्हैया जैसे 543 ईमानदार वामपंथी भी संसद में आ जाएं और पूरी संसद में एक भी गैर-वामपंथी न हो ! क्योंकि कन्हैया जैसे 543 वामपंथी भी चुनाव जीतने के बाद संसद जाकर पहले दिन ही संविधान की कसम खायेंगे कि हम सिर्फ संविधान की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करेंगे ! और संविधान तो पूंजीपतियों (और सामंतों) ने अपने लिए ही बनाया है. तो जाहिर है उन्हीं की रक्षा करेगा.

संविधान में तो कहीं नहीं लिखा कि अगर संसद में वामपंथी बहुमत में आ गए तो पूंजीतियों के हाथों से उत्पादन के साधन (उद्योग-धंधे, खेत-खलिहान, जंगल-जायदाद) छीन कर मेहनतकश जनता को कटोरे में रख के दे दिए जायंगे ! चलो, कन्हैया तो संविधान का रखवाला है ! पर अगर मान लीजिये कन्हैया की जगह ऐसे 543 वामपंथी चुनाव जीत के सत्ता में आ जाएं जो इतनी हिम्मत रखते हों कि वे संसद में बिल पास कर दें कि अब उत्पादन के साधन (उद्योग-धंधे, खेत-खलिहान, जंगल-जायदाद) पूंजीपतियों के हाथों से छीन के मेहनतकशो के हाथों में दे दिए जायेंगे और अगर पूंजीपति नहीं माने तो सेना का इस्तेमाल करके उनको नेस्तनाबूद कर दिया जायेगा ! अब ऐसे बिल पास होने पे क्या होगा ?

तो जनाब सुनिए ! अगर ऐसी गलती कर दी तो वही होगा जो चिली देश की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ हुआ था, जब पूरी कमुनिस्ट पार्टी को ही मरवा दिया गया था. बिल तो पास कर दिया लेकिन ये भूल गये कि देश की करीब 90 प्रतिशत सम्पति का मालिक बड़े पूंजीपति (और उनकी झूठन पर पलने वाले चमचे) को देश की आर्मी के बड़े मेजर-जनरल को पैसे के साथ अपनी तरफ करने में कितनी देर लगेगी ? अम्बानी जी जो राफेल जैसे विमानों को खरीद रहे हैं उन्हें उन्होंने अपने बच्चों के खेलने के लिए नहीं लिया है ! ऐसे ही हालातों से निपटने के लिए लिया है !

तो क्या चुनाव के जरिये जीत कर संसद में पहुंच कर समाजवादी क्रांति करने वालों को ये सब नहीं पता ? अब इसके जवाब में ही सारे राज छुपे हैं. जिन्हें ये सब पता है फिर भी इस रास्ते पे चल रहे हैं, उसका सीधा अर्थ है कि उन्हें क्रांति से मतलब ही नहीं है बल्कि वे सिर्फ अपने निजी स्वार्थ और अंतहीन इच्छाओं को पूरा करने के लिए के लिए देश की मेहनतकश जनता को बेवक़ूफ़ बना रहे हैं और नए शामिल होने वाले कैडरों को भी इस रास्ते की शिक्षा देकर उनकी क्रांतिकारिता को खत्म करके पूंजीवाद के भक्त तैयार कर रहे हैं.

ऐसे संगठनों या पार्टियों को चाहिए कि वे अपनी पार्टी या संगठन का नाम कम्युनिस्ट पार्टी हटा कर मजदूर जनता पार्टी (MJP-भारतीय जनता पार्टी की तरह) या इंडियन मेहनतकश कांग्रेस (इंडियन नेशनल कांग्रेस पार्टी की तरह) कर लें ताकि मार्क्सवाद का नाम न डूबे. और जिन्हें ये सब पता नहीं है और ईमानदारी से ऐसे संगठनों में अपना दिन रात एक कर रहे हैं, उन्हें सबसे पहले मार्क्सवाद के मूल सिद्धांतों को पढ़कर अपने आपको इस चुनावी दलदल में गिरने से बचा लें और सही रास्ते को पकड़ के अपनी जिंदगी को गलत रास्ते से निकाल के सही पटरी पे ले आवें.

क्योंकि संसद के जरिये पूंजीवाद और फासीवाद के अंत की बात सोचना, ये बिलकुल ऐसा है जैसे कोई निहत्था इन्सान, दुश्मन सेना की तोप के सामने खड़ा हो कर दुश्मन को चेतावनी दे रहा हो कि मैं तुम सब को ख़तम कर दूंगा ! और संसदीय रास्ते से फासीवाद को खत्म करने वाले ‘संविधान बचाओ देश बचाओ’ का नारा देते हैं ! उनसे ये सवाल तो बनता है, इस संविधान और लोकतंत्र को बचा कर करोगे भी क्या ? क्योंकि इस फासीवाद को पैदा भी तो इसी संविधान और लोकतंत्र ने किया है !

गैर-संसदीय और अपने आपको सच्चे क्रांतिकारी कहने वाले

दूसरी तरफ अब गैर-संसदीय और अपने आपको सच्चे क्रांतिकारी मानने वाले संगठनों की बात करते हैं जो यह मानते हैं कि संसद के रास्ते क्रांति नहीं बल्कि मेहनतकश जनता अपनी ताकत से ही पूंजीपतियों के हाथों से सत्ता छीन कर उत्पादन के साधनों (उद्योग-धंधे, खेत-खलिहान, जंगल-जायदाद) पे कब्ज़ा करेगी. और तब हमारा देश एक समाजवादी देश बनेगा. हर कोई खुशहाल होगा. लेकिन अब इनके साथ क्या समस्या है, ये भी समझने की जरूरत है –

  1. सबसे बड़ी समस्या यह है कि ऐसे अनगिनत छोटे-छोटे संगठन हैं जो इस रास्ते को मानते हैं और सभी ने क्रांति करने के लिए अपने-अपने रास्ते की खोज कर रखी है और ये मानते हैं कि उन्होंने जो लाईन या दिशा अपना रखी है बस उसी के जरिये ही क्रांति होगी, मतलब उनकी लाईन ही सर्वश्रेष्ठ है ! हालत तो ये है कई जगह दो या तीन आदमी की पार्टी बनी हुई है. उनमें भी अगर कोई छोटा-मोटा विचारधारात्मक फर्क आ गया तो वे चर्चा करने के बजाए, अपने आपको सर्वश्रेष्ठ समझने के घमंड की वजह से वे भी अलग हो जाते हैं और एक अलग नई पार्टी बना लेते हैं. मतलब फिर ‘ONE MAN ARMY’ वाली पार्टी बन जाती है. मतलब गैर-संसदीय धड़े वाले संगठन इतने छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटे हुए हैं कि उनसे क्रांति की कोई उम्मीद ही नहीं की जा सकती. अब सवाल ये है कि सभी संगठन लगभग एक ही तरीके से मजदूरों, किसानों या युवाओं के संगठन बनाते हैं, एक ही तरह की मांगें उठाते हैं. और अगर दुश्मन की बात करें तो सबका (माओवादी, नवजनवादी या समाजवादी क्रांति को मानने वाले) कम से कम एक सांझा दुश्मन पूंजीवाद है. जब इतना कुछ सांझा है तो कम से कम सब अपने एक सांझा दुश्मन के खिलाफ एकजुट क्यों नहीं हो सकते ? अब असल समस्या यहीं पर है कि एकजुट क्यों नहीं होते ? इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि ऐसे हर एक संगठन का जो भी नेता है, उसने अपने इर्द-गिर्द कुछ लोगों को यूनियन बना कर इकट्ठा कर रखा है जो अपने उस नेता का सुबह-शाम महिमामंडन करते हैं और उस नेतृत्व ने उन्हें तार्किक बनाने की जगह ये रटा रखा है कि सिर्फ मैंने जो लाईन दे रखी है, बस उसी को मानना है, उससे बाहर जो भी है उसको सोचने की जरूरत नहीं, क्योंकि वो गलत ही होगा. और इसके लिए वे लेनिन का उदहारण भी देंगे कि वे शुरू में अल्पमत (MINORITY) में थे पर उनकी लाईन बिलकुल सही थी इसलिए उन्होंने क्रांति कर दी ! और इस उदहारण का असर भारत में यह रहा है कि देश के हर गली-मोहल्ले में बने ऐसे अनगिनत वामपंथी संगठनों में से ज्यादातर अपने आपको एकमात्र सच्ची क्रांतिकारी पार्टी समझने लगे हैं और उनके नेता अपने आपको महान लेनिन ! लेकिन वे ये बात भूल जाते हैं कि लेनिन के वक्त 1905 से लेकर 1917 तक तीन-तीन क्रांतियां हुईं जिनमें दो पूरी तरह सफल रही और हमारे यहां 1970 से लेकर अब तक वामपंथ हर दिन टूटता तो आ रहा है पर क्रांति के आसपास भी कोई नहीं फटक रहा, जबकि देश की जनता हद से ज्यादा त्रस्त है. और ऐसे नेताओं की ये चमक-दमक वाली जिंदगी छिन न जाये इसलिए किसी दुसरे ग्रुप की विचारधारा को चर्चा के लिए अपने लोगों तक पहुंचने भी नहीं देते ताकि कहीं वे दूसरे संगठन के साथ एकता की बात न शुरू कर दें और उनका वर्चस्व ही न छिन जाये ! इसी का असर है कि इन सभी संगठनों के लोग जब किसी दुसरे संगठन के लोगों से बात करते हैं तो उनके तर्क से की गयी सही बात को वे सुनना भी पसंद नहीं करते हैं. और अगर कहीं थोडा-सा भी किसी ने उसके संगठन की विचारधारा का विरोध कर दिया तो समझो उसकी खैर नहीं !
  2. कुछ ऐसे माननीय नेता हैं जो लगता है फेसबुक पर ही क्रांति कर देंगे ! उनका काम है बस फेसबुक पर अपनी बौद्धिकता का दिखावा करना और ऐसे दिखाना जैसे पूरे भारत की क्रांति का कार्यभार सिर्फ उनके कन्धों पे हैं ! और फेसबुक पर लिख कर ऐसे पोस्ट करेंगे जैसे भारत की मेहनतकश जनता पर बहुत बड़ा एहसान कर रहे हों ! ऐसे लोग फेसबुक से बाहर असल जिंदगी में क्रांति के आसपास भी नहीं फटकते बल्कि अपनी पूंजीवादी जिंदगी में मजे लूट रहे होते हैं. ऐसे लोगों से तो क्रांति की उम्मीद करना मतलब शेखचिल्ली वाले सपने देखने की बात है.
  3. कुछ ऐसे भी लोग हैं जो मध्यमवर्गीय नौकरीपेशा लोगों को रिझाने के लिए मार्क्सवाद का पूरा फायदा उठाते हैं ताकि मध्यमवर्गीय लोग आकर्षित होकर उनके संगठन से जुड़ें और उनकी रोज़ी-रोटी मजे से चलनी शुरू हो जाये. और इस तरह वे सिर्फ मध्यमवर्गीय लोगों को ही जोड़ कर संगठन तैयार करते हैं और फिर मार्क्सवाद के नाम पे अपना धंधा चलाते हैं ! अब ऐसे लोगों से क्रांति की उम्मीद करना मतलब खुद अम्बानी को अपने संगठन में शामिल करके बोलना कि हमें समाजवाद लाना है ! और ऐसे लोगों के संगठन के हर एक आदमी को आप देखोगे तो हर किसी में मध्यमवर्गीय घमंड और अपने इस नेता के लिए अंधभक्ति कूट-कूट के भरी होती है.
  4. कुछ ऐसे भी संगठन हैं जो मज्दूर-मुक्ति के नाम पर मजदूरों के बीच काम करके दो-चार यूनियन बना लेते हैं और फिर उन यूनियनों से आने वाले पैसे पर अपनी जिंदगी मजे से चलाते हैं. और अगर ऐसे लोगों से कहीं क्रांति की बात कर दो तो वे थर-थर कांपने लगते हैं. ये लोग सबसे खतरनाक लोग होते हैं क्योंकि मजदूरों की ताकत से ही क्रांति संभव है, लेकिन जब ऐसे पैसा एंठने वाले संगठनों से धोखा खाते हैं तो उनका विश्वास हमेशा के लिए टूट जाता. फिर अगर कोई सच्चा क्रांतिकारी संगठन भी उनके बीच में काम करने कोशिश करेगा तो वे उसको भी वे धोखेबाज समझते हैं.
  5. ऐसे भी जनरल सेक्रेटरी हैं जो फेसबुक पर तो दिन रात बहुत बड़े बौद्धिक-क्रांतिकारी होने का दिखावा करते हैं पर अपने घर में दिवाली-दशहरा सब सिर्फ इसलिए मनाते हैं क्योंकि उन्हें डर है कि कहीं उनके मोहल्ले में लोगों को ये न पता लग जाये कि ये कमुनिस्ट है ! ऐसे लोगों से क्रांति की उम्मीद करना मतलब गीध्ड को शेरों के झुण्ड की रखवाली के लिए आगे करना.
  6. अब कुछ गैर संसदीय संगठनों में भी ऐसे संगठन मिल जायेंगे जो आपको दिन रात एकमात्र सही क्रांतिकारी होने का दावा करेंगे और संसदीय रास्ते का सबसे जायदा विरोध करेंगे. पर उनकी असलियत ये है कि वे लेनिन का उदाहरण देकर टुच्चे से टुच्चे चुनाव में सबसे पहले नामांकन भरने की लाईन में खड़े होते हैं और चुनाव होने पर अपनी जमानत जब्त करवाकर अपनी रही-सही इज्ज़त का भी फलूदा करवा लेते हैं और कहेंगे कि हमने अच्छा प्रदर्शन किया ! जबकि लेनिन ने कहा था कि जरूरत पड़ने पर चुनाव में भाग लेना चाहिए. लेकिन ऐसे संगठन हर चुनाव को अपनी जरूरत बना लेते हैं, अपनी छुपी हुई इच्छाओं की पूर्ति के लिए और वो भी सच्ची क्रांतिकारिता की आड़ में ! अब जिनका मकसद ही सिर्फ चुनाव के जरिये अपना नाम चमकाना हो उनसे क्रांति की क्या उम्मीद की जा सकती है !
  7. ऐसे भी बहुत सारे लोग हैं जो गांधीवादी कम्युनिस्ट हैं. जो कहेंगे कि अगर कोई फासीवादी एजेंट आपके एक गाल पर तमाचा मारे तो तुम दूसरा गाल आगे कर दो ! तो इस तरह फासीवादी एजेंट का दिल पसीज जायेगा और एक दिन फासीवाद अपने आप ख़तम हो जायेगा. अब वो दिन कब आएगा आप खुद समझ सकते हैं !
  8. और कुछ थोड़े बहुत छोटे ग्रुप या लोग जो सच में फासीवाद को लड़ के मिटाना चाहते हैं तो वे अभी संख्या बल में इतने छोटे हैं कि अभी एकदम से फासीवाद से सीधा मुकाबला संभव नहीं लगता.
  9. ऐसे भी बहुत सारे संगठन हैं जो सिर्फ नाम बनाये रखने के लिए महीने – दो महीने बाद अपने या दूसरे संगठन के साथ मिल कर सेमिनार या बैठक रुपी ਟੀ-पार्टी (TEA PARTY) रख लेते हैं जिसमें घूम फिर के वही 10-12 लोग सूट-बूट पहन बाबू बन के आते हैं और सजी सजाई स्टेजों पे किसी हीरो की तरह भाषण दे कर चले जाते हैं. और उसके बाद अगली मीटिंग तक भूल ही जाते हैं कि क्रांति किस चिडिया का नाम है ! लेकिन आदर्शवाद का ऐसा ढोंग रचेंगे कि अच्छे खासों की छुट्टी करवा दें ! और अगर कहीं आपने उनके इस ढोंग की पोल खोल दी तब वोह अपने असली तानशाही रूप में इस तरह सामने आ जायेंगे कि मोदी भी शरमा जाये. ऐसे वामपंथी सामंतों के हाथ में क्रांति की डोर देने का सीधा मतलब है कि एक तरह की तानाशाही का अंत करके दूसरी तरह की तानाशाही देश पे थोप देना. और ऐसे लोग आपको ये भी उपदेश देंगे कि क्रांति कोई मजाक नहीं है बल्कि कम से कम 30-40 साल मेहनत करेंगे, तब ही सोच सकते हैं !

निष्कर्ष

उपरोक्त चर्चा से अब सवाल ये उठता है कि तो फिर वामपंथी एकता और फासीवाद का अंत कैसे होगा ? अगर चुनाव के जरिए फासीवाद को हराने के लिए संसदीय और गैर संसदीय संगठनों की चुनावी संयुक्त मोर्चे की बात करें, फिर तो बात बिलकुल ही हास्यास्पद बात हो जाएगी क्योंकि संसदीय संगठन तो पूंजीवादी पार्टियों के साथ ही गठजोड़ कर रहे हैं, मतलब फासीवाद को हराने के लिए फासिस्टों के ही साथ मिल रहे हैं ! मतलब एक गुंडे को हराने के लिए दूसरे गुंडे को अपने सर पर बैठा लेना और अपना दोस्त बना लेना.

और ये दोस्त गुंडा आपको किस दिन आम की तरह चूस कर गुठली की तरह बाहर डस्टबिन में फेंक देगा, आपको पता भी नहीं लगेगा ! और अगर मान लीजिये कि संसदीय रास्ते से आप बीजेपी को हरा भी देते हैं तब भी क्या फासीवाद का अंत हो जायेगा ? कुछ लोग ये कहते हैं कि इस वक्त फासीवाद है तो हमारा मुख्य काम फासीवाद को भगाना है ना कि क्रांति का सोचना ! इसलिए संसदीय और गैर संसदीय धड़े एकजुट हो के चुनाव लडें तो इसको भगा सकते हैं !

ये बात सही है कि हमारा मुख्य काम फासीवाद को भगाना है, लेकिन यहां यह सवाल भी तो उठता कि सिर्फ बीजेपी के हार जाने से RSS, बजरंग दल, ABVP आदि फासीवादी संगठन जो जनता के अंदर तक अपना जाल बिछा रहे हैं, का भी अंत हो जायेगा ? नहीं, बिलकुल नहीं ! बल्कि कांग्रेस भी तो फासीवाद की समर्थक है. हां बस फर्क इतना-सा पड़ेगा कि फासीवाद की जो गाडी 100 की स्पीड से दौड़ रही है वो 70 की रफतार से दौड़ेगी. हां अगर संसदीय धडा संघर्षों के जरिये फासीवाद को हराने के लिए गैर संसदीय धड़े से गठबंधन करता है, तब कुछ फायदा हो सकता है.

अब अगर गैर संसदीय धड़े की बात करें तो उनको संसदीय धड़े के साथ एकता की जरूरत इसलिए है क्योंकि वे अकेले खुद बहुत कमजोर हैं और उनकी कमजोरी के अनेकों कारण उपर दिए गये हैं. इसलिए अब जो हालात हैं इन हालतों में सिर्फ चुनाव के लिए एकता नहीं, बल्कि क्रांति के लिए एकता होनी चाहिए और इस एकजुट ताकत से पूरी जनता के बीच उतर कर एक समान मकसद के साथ जनता को खड़े करना चाहिए और क्रांति के लिए तैयारी करनी चाहिए.

अगर सबसे पहले गैर-संसदीय धड़े के उन वामपंथी संगठनों की बात करें जो सच में क्रांति चाहते हैं और लड़ कर फासीवाद का अंत करना चाहते हैं तो उनकी फ़िलहाल की ताकत को देखते हुए अभी ये संभव नहीं लगता. और अगर ये भी कहें कि सिर्फ गैर-संसदीय धड़े के सभी संगठन भी आपस मिल कर एक संयुक्त मोर्चा बना लें और फासीवाद को हरा दें, तो भी इनकी एकता होना इतना आसान नहीं लगता. क्योंकि जिस तरह की उपरोक्त कमियां कई वामपंथी सगठनों के नेतृत्व में आ गयी हैं, वो उनको ये मोर्चा कभी भी कामयाब नहीं होने देगी.

दूसरी बात यह भी है कि हर कोई अपनी एक विशिष्ट विचारधारा से जुड़ा हुआ है, पार्टी अनुशासन के नाम पर उससे अलग होकर क्रांति की सही दिशा के बारे में सोचने का कष्ट कोई बहुत ही कम उठाता है. इसका मतलब ये बिलकुल नहीं कि पार्टी अनुशासन नहीं होना चाहिए, लेकिन ये भी आपको सोचना होगा कि आप क्रांति के लिए अनुशासन चाहते हैं या अनुशासन के लिए क्रांति ? क्योंकि अभी तक ऐसा कौन सा संगठन या पार्टी है जिसको आप सच में भारत की एकमात्र जांची-परखी कम्युनिस्ट पार्टी मान सकते हैं. अभी तो सभी सिर्फ परीक्षण ही कर रहे हैं.

और ये भी तो हो सकता है कि इसी पार्टी-अनुशासन के नाम पर पार्टी या संगठन के नेतृत्व जालसाजी करके जानबूझ कर अपने कैडरों को तार्किक बनाने की जगह अंधभक्ति का पाठ पढ़ा रहा हो ताकि उसके संगठन के कैडर अंधभक्त बन के उसका महिमामंडन करते रहे ताकि उसकी दुकान चलती रहे ! अब ऐसे एक-दो लोगों ने मिल-मिल के जो छोटे-छोटे गुट बना रखे हैं, जिसे पार्टी का नाम दे दिया जाता है और फिर पार्टी-अनुशासन के नाम पर कैडरों को अपना अंधभक्त बना लिया जाता है, तो वहां उनके खुद के ऊपर भी तो ये सवाल उठता है आखिर ये गुटबंदी क्यों ?

अब ये बात हर कैडर को ही सोचनी होगी कि क्या वे सच में तार्किक बन रहे हैं या फिर अपने नेतृत्व के अंधभक्त ? क्योंकि इतिहास गवाह है कि किस तरह भारत में नेतृत्व ने इतने बड़े स्तर पर पूरी-पूरी पार्टी को तबाह किया है. अनगिनत कैडरों को बली का बकरा बना दिया गया. और जब तक कैडरों को ये बात समझ आती थी तब तक बहुत देर हो चुकी होती थी. इसलिए किसी भी संगठन का कैडर तभी सच्चा कम्युनिस्ट क्रांतिकारी हो सकता है, अगर वह पूरी तरह तार्किक हो और हर जगह हर गैर-तार्किक चीज़ पर सवाल उठाता हो, चाहे वो उसके संगठन या पार्टी में ही क्यों न हो. और वह उसके लिए तब तक लड़ता है जब तक कि उस गैर तार्किक चीज़ को जड़ से ख़तम नहीं करता.

और ये भी हो सकता है कि ऐसे वामपंथी या कैडर को उसका नेतृत्व उसे गैर-कम्युनिस्ट, अराजक आदि तरह-तरह की उपाधियों से भी नवाजे क्योंकि अगर आप किसी मठाधीश से उसके साम्राज्य को छीनने वाले सवाल करेंगे तो ऐसे पुरस्कार मिलने स्वभाविक ही हैं. लेकिन अगर आप सच में क्रांति के दीवाने हैं तो इतनी कुर्बानी तो देनी ही पड़ेगी कि या तो आपको अपनी पार्टी या संगठन को सही दिशा में लाना होगा या फिर खुद को.

तो साथियों, ये बात तो है कि उपरोक्त सारे हालात हमें निराशा की ओर लेकर जाते हैं. इन हालातों को देख कर लगता है वामपंथी एकता होना मुश्किल है क्योंकि हर एक वामपंथी गुट अपनी खोजी हुई विचारधारा और अपने गुट के नाम से फेविकोल की तरह चिपका हुआ है और किसी भी हालत में अपने गुट के वर्चस्व और अपने आभा-मंडल को छोड़ना नहीं चाहता. लेकिन फिर भी जो सच में इस देश में क्रांति और फासीवाद का अंत चाहता है वह जरुर क्रांति के सही रास्ते को तलाश भी करेगा और अपनाएगा भी.

हालातों को देख कर लगता है कि यह समय की मांग है कि देश में सिर्फ और सिर्फ क्रांति के लिए समर्पित; क्रांति को सर्वोपरि समझने वाले; ONE MAN ARMY वाले सिद्धांत को नकारने वाले, संकीर्णता, अंधभक्ति और पूंजीवादी इच्छाओं से मुक्त, भगत सिंह, चे ग्वेरा, लेनिन जैसे क्रांतिकारियों की तरह अपना सर्वस्व न्योछावर करने के जज्बे से लैस; सच्चे कम्युनिस्ट कार्यकर्त्ता (या संगठन) अगर मिल कर एक ऐसे मोर्चे या प्लेटफार्म से शुरुआत करें जो सबके सांझा (common) दुश्मन के खिलाफ संघर्ष पर आधारित हो (जैसे सारी विचारधाराओं के दुश्मनों में कम से कम एक दुश्मन पूंजीपति तो है ही हैं). इस प्लेटफार्म को आप कुछ भी नाम दे सकते हैं जैसे पूंजीवाद विरोधी मोर्चा (PVM) या फासीवाद विरोधी मोर्चा (FVM) या क्रांतिकारी मोर्चा आदि.

पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष की शुरुआत करते हुए यह मोर्चा साथ-साथ में गांवों का अध्ययन करते हुए वहां पर संघर्षों की शुरुआत कर सकता है. पुराने कार्यकर्ताओं के साथ-साथ ये मोर्चा मेहनतकश जनता के बीच जाकर नए कैडर तैयार करेगा और मेहनतकश जनता को अपने साथ जोड़ेगा, जिससे वहां पर भी अपने आप समझ आना शुरू हो जायेगा कि लड़ाई कैसी होनी चाहिए या वहां हमारा असली दुश्मन कौन है – पूंजीवाद या सामन्तवाद !

सबसे जरूरी बात यह मोर्चा जनता के अन्दर जाकर संघर्ष के साथ साथ हालातों का अध्ययन करेगा ना कि पहले सालों-साल अध्ययन और फेसबुक पर लम्बी-लम्बी बहसों में ही गुजार देगा. क्योंकि ऐसी बहसों का नतीजा आमतौर पे यही निकलता है कि एक कहता है मैं सर्वश्रेष्ठ हूं, सिर्फ मेरी ही लाईन सही है और दूसरा कहता है सिर्फ मेरी.

इस मोर्चे का फासीवाद के खिलाफ लड़ने का एक ही सिद्धांत रहेगा-FASCISM IS NOT TO BE DEBATED, IT IS TO BE SMASHED. इस तरह से संघर्षों द्वारा जनता का खोया हुआ विश्वास दोबारा हासिल करना होगा और नौजवान पीढ़ी को एक नया रास्ता देना होगा. और इस तरह से हमें उस फासीवाद के खिलाफ लड़ने में भी महारत हासिल होगी और संसदीय रास्ते से फासीवाद को हराने वाले वामपंथियों का भी दोबारा से KARL MARX के लेख THE ROLE OF FORCE IN HISTORY के अनुसार अपनी ताकत और हिम्मत पे विश्वास जागेगा. साथ में गांधीवादी या रस्म-अदायगी के लिए फासीवाद के खिलाफ दो चार सेमिनार करके फासीवाद भगाने वालों की भी पोल खुलेगी.

अगर सबने अपना घमंड और अंधभक्ति छोड़ कर संघर्ष और अध्ययन के साथ निकाले निष्कर्ष को अपनी लाईन मान लिया तो हो सकता है कि यही प्लेटफार्म हम सबके लिए भारत की सच्ची क्रांतिकारी पार्टी का काम करे और उस क्रांति का अध्याय लिखे, जिसके बारे में शायद आज तक हम सिर्फ अपने ख्यालों में या फेसबुक पर ही सोचते हैं लेकिन खुद भी विश्वास नहीं कर पाए.

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