राम अयोध्या सिंह
अपने के नाम पर हर कोई अपनी गंदगी, गलतियों, स्वार्थों और भ्रष्टाचार को न सिर्फ छुपाता रहा है, बल्कि उनका औचित्य भी सिद्ध करता रहा है. नतीजतन देश में गलतियों, गंदगियों और भ्रष्टाचार का अंबार लगता गया, और उन्हें दूर करने के नाम पर भी लोग पाप की कमाई खाते रहे.
अगर ऐसा नहीं है, तो क्यों नहीं कभी कोई पूंजीपति अपने समूह के लोगों की कारगुज़ारियों, देश की संपत्ति की लूट और उन भ्रष्ट तरीकों का पर्दाफाश किया, जिसके द्वारा इन्होंने अकूत संपत्ति जमा की है ? इन्हीं पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों के हितों की रक्षा और संवर्द्धन के लिए देश के कर्णधार, भारत भाग्य विधाता और राष्ट्र निर्माता नेता अपने उन कार्यकलापों, तरीकों और प्रक्रियाओं के बारे में क्यों नहीं कभी खुलकर बता सके कि उन्होंने देश में कैसे भ्रष्टाचार, दुराचार, लूट और शोषण को बढ़ावा दिया ?
किसी भी नौकरशाह या कोई अन्य अफसर भी क्यों कभी नहीं बता सका कि पूंजीपतियों के हित के लिए नेताओं के साथ मिलकर ये लोग भ्रष्टाचार, तिकड़म और जालसाज़ी का कौन-सा खेल खेलते हैं ? कभी बुद्धिजीवियों का समूह भी यह नहीं बता पाया कि व्यवस्था के काले कारनामों में वह किस हद तक शामिल है, और वैचारिक, सैद्धांतिक और दार्शनिक स्तर पर उन्होंने कितने घपले किये हैं ?
इसी तरह मजदूर संघ के नेता हों, खेल के प्रबंधक हो, फिल्मी कलाकार हों, क्रिकेट के खिलाड़ी हों, आईएएस और आईपीएस हों, या फिर कोई अन्य कर्मचारी, किसी ने भी कभी व्यवस्था की सड़ांध के वास्तविकता को उजागर करने की हिम्मत नहीं जुटाई. सभी एक दूसरे को लांछित करते रहे और जिम्मेदार ठहराते रहे, पर स्वयं को उन कारगुजारियों से अपने को अलग रखा.
और, आश्चर्य तो इस बात का है कि ये सभी समाज के उन्नायक हैं, देश के विकास और प्रगति की जिम्मेदारी इनके ही कंधों पर है, धर्म और राष्ट्र के नाम पर ही सब काम करते हैं, फिर भी अपनी गंदगी को छुपाने का हर संभव प्रयास करते हैं.
ये समाज में सम्मानित हैं, इनकी जयजयकार होती है, पूष्पाहार पहनाया जाता है, इन्हें वीआईपी और वीवीआईपी मानकर इनके लिए सुरक्षा और सुख-सुविधाओं का अंबार लगाया जाता है, जिंदगी की हर सुविधा इन्हें मिलती है, फिर भी इन्होंने यह जानने का कभी प्रयास भी नहीं किया कि देश की जनता को ये लोग क्या दे रहे हैं.
सच तो यह है कि इन्होंने स्वयं अपने ही को राष्ट्र समझ लिया है, और देश की जनता को अपना सेवक या गुलाम. आज ये सभी राम, राममंदिर, रामराज्य और मनुस्मृति का गुणगान कर रहे हैं, और आगे भी अपने को राष्ट्र का कर्णधार समझकर राष्ट्र की संपत्ति, संपदा और प्राकृतिक संसाधनों को दोनों हाथों से लूटते रहेंगे, और जनता इनकी जयजयकार करते हुए अपने अंधकारमय भविष्य के लिए जतन कर रही होगी. आखिर गुलाम को गुलाम बनाते देर ही कितनी लगती है !
क्या आजादी की लड़ाई लड़ने वालों ने कभी यह भी सोचा होगा कि एक दिन भारत में ऐसी भी सरकार आयेगी, जो आजादी के दिवानों को गाली देगी, और जनता ताली बजायेगी ? सचमुच ही देश की जनता के खून में ही भगवतभक्ति और राजभक्ति के नाम पर गुलामी रची-बसी है. इंसान से बड़ा पत्थरों को समझने वाले कभी भी विकास का दावा न कर विनाश की ही गारंटी दे सकते हैं.
राजनीतिक पतनशीलता की यह पराकाष्ठा है कि इक्कीसवीं सदी में भी देश की जनता देश और देश के लोगों की प्रगति, आधुनिकता, संपन्नता, विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, विवेकशीलता और वैज्ञानिक दृष्टिसंपन्नता और आविष्कार के लिए नहीं, बल्कि देश के विनाश, प्रतिगामी नीतियों, अर्थव्यवस्था की बर्बादी, मंदिरों, मूर्तियों, लूट, भ्रष्टाचार, पाखंड और अंधविश्वास के लिए सरकार की जयजयकार कर रही है.
अब पिछड़ों, अतिपिछड़ों, दलितों, महा दलितों के नेताओं को भारतरत्न मिलेगा, और पिछड़ों, अतिपिछड़ों, दलितों और महा दलितों को मिलेगी भूख, गरीबी, अशिक्षा, जलालत, शोषण और गुलामी, फिर भी ये उस सरकार की जयजयकार करेंगे, जो इनके नेताओं को तो भारतरत्न देगी, और इन्हें मिलेगा आपमान, तिरस्कार और गाली. राजसत्ता को अपनी राजनीतिक हैसियत को स्थापित करने के लिए इससे बेहतर और सस्ता उपाय और क्या हो सकता है ?
जो लोग भी अब अपनी जाति के नेताओं के लिए भारतरत्न की मांग करेंगे, सबको मिल जायेगा, इससे आसान और सस्ता सौदा और क्या होगा ? कांशीराम, मायावती, रामबिलास पासवान, जगदेव प्रसाद, नीतीश कुमार और जिन लोगों के लिए भी मांग की जायेगी. पर, वैसे लोगों को कभी भी नहीं मिलेगा, जिन्होंने पिछड़ों, अतिपिछड़ों, दलितों और महि दलितों की लड़ाई तो लड़ी है, पर संघ, भाजपा और मोदी सरकार के तलवे नहीं सहलाये हैं. आज देश के बौने, घिनौने और भ्रष्ट राजनीतिक नेतृत्व पर जनता जैसा गर्व कर रही है, यह देश के उत्थान की नहीं, बल्कि पतन की निशानी है.
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