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कैसे निर्मित होता है व्यापारी, नेता और धर्मगुरु का त्रिकोणीय संश्रय ?

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कैसे निर्मित होता है व्यापारी, नेता और धर्मगुरु का त्रिकोणीय संश्रय ?
कैसे निर्मित होता है व्यापारी, नेता और धर्मगुरु का त्रिकोणीय संश्रय ?
राम अयोध्या सिंह

बाजार में उपलब्ध आधुनिक सुख-सुविधाओं के लिए पैसों की प्राप्ति की अदम्य लालसा ने आज भारतीयों को पागलपन की हद तक पहुंचा दिया है. इस मानसिकता और लालच की भेंट सबसे अधिक वैसे लोग चढ़े हैं, जिनका जन्म 1990 के बाद निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में हुआ है, और जो अपनी आंख खोलते ही बाजार की चकाचौंध से अचंभित हुआ है. इनके लिए यही दुनिया का सच है और उनके जीवन का भी.

बाजार में हर चीज बिकती है और सबके लिए सुलभ है, पर बाजार की हर चीज की कीमत होती है. कुछ भी मुफ्त नहीं होता. मतलब बाजार सिर्फ पैसे वालों का है जो मेहनतकशों के खून और पसीने पर अपनी रफ्तार बनाये हुए है. बाजार में मानवीय मूल्य, आदर्श, सिद्धांत और संवेदना नहीं बिकते. ये बाजार में होते ही नहीं तो फिर बिकेंगे कहां से ?

आज बाजार की चकाचौंध और पैसे की खनक से सनक की हद तक पहुंचे लोगों में पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों के अलावा उच्च और उच्च मध्यमवर्गीय लोगों का छोटा सा समूह अपनी उपलब्धियों पर इतरा रहा है. वैसे जीवन का सच्चा सुख इन्हें भी प्राप्त नहीं है. हां, पैसे की खनक में ये अपने गमों को भूलाने में समर्थ हैं. निम्न मध्यमवर्गीय परिवार इससे सबसे ज्यादा पीड़ित, क्षुब्ध और प्रताड़ित हैं. न तो वे अपने लोभ का संवरण कर पाते हैं और न ही उनकी पूर्ति के साधन ही उनके पास उपलब्ध हैं.

बाजार की चकाचौंध को आंखें फाड़कर देखना, तरसना और कुढ़ना ही उनकी जिंदगी की असलियत बन गई है. जब लोभ का संभरण संभव नहीं हो पाता तो वे पैसे की प्राप्ति के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं. छोटे-मोटे चोरी-चकारी, ठगी, बेईमानी और उठाईगिरी से शुरू करते हुए अपराध की दुनिया में वे अपने कदम आगे बढ़ाते हुए चले जाते हैं. एक बार शुरू होने के बाद कदम वापस मोड़ना संभव नहीं होता. इसी क्रम में वह ऐसी दुनिया में प्रवेश कर जाता है, जहां से वापस आने के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं. ‘मरो या मारो या स्वयं खत्म हो जाओ या फिर दूसरे को खत्म कर दो’, सिर्फ यही विकल्प शेष बचता है.

यह स्थिति पूरे देश की है. देहात के गांव से लेकर शहर और महानगर तक यह सिलसिला चल रहा है. हर कोई अपने ‘और ज्यादा’ के मिशन में एक-दूसरे को धक्का देते हुए बढ़ता जा रहा है. कौन नीचे पैरों के पास गिरा, इसकी भी कोई चिंता नहीं. आज गांव की गली और बाजार भी इसी माहौल में जीने की कवायद कर रहे हैं. हर घर में एक अपराधी है या पल रहा है, जो भविष्य में अपनी तकदीर अपराध की दुनिया में तय करेगा.

इसमें 1980 के आसपास जवान हुए लोग भी शामिल हैं, जो अब नई पीढ़ी को प्रशिक्षित कर रहे हैं. ऐसे शुभ कार्यों की शुरुआत हमेशा घर से ही होती है. छोटी-छोटी चीजों को चुराकर बेचने से यह शुरू होता है, जो अंततः किसी की हत्या तक का अपना सफर तय करता है. किशोरावस्था तक आते-आते वह अपराध की पाठशाला से प्रशिक्षित हो चुका होता है. कुछ अपने सामर्थ्य के अनुसार वहीं पड़ाव डाल देते हैं और अपनी छोटी-सी सीमा तय कर लेते हैं. यहां आपसी सहयोग भी होता है और प्रतिद्वंदिता भी.

कोई छुटभैये नेताओं के पीछे लगता है तो कुछ उससे ऊपर वाले के साथ जुड़ता जाता है. कुछ स्थायी तौर से थाना, प्रखण्ड या पंचायत के मुखिया से जुड़कर समाज सेवा का पवित्र काम करने लगते हैं और अपना तयशुदा कमीशन या दलाली से अपने घर का खर्च चलाते हैं. इनका कोई निश्चित ड्रेस नहीं होता, पर नेता के रूप में अपने को प्रक्षेपित करने के लिए वैसा ही ड्रेस अमूमन ये लोग भी पहनते हैं.

किसी की जमीन की रजिस्ट्री हो रही हो, या प्रखण्ड में वृद्धावस्था पेंशन, किसान जीवन बीमा, किसान सम्मान निधि, प्रधानमंत्री आवास योजना, जमीन का दाखिल खारिज, लगान कटवाना, मनरेगा, शौचालय अनुदान जैसे न जाने कौन-कौन सी योजनाएं हैं, जिनके लिए बिजौलिया बनकर कमाई का रास्ता ऐसे लोग खोज ही लेते हैं. कुछ लोग पैसे वालों के साथ जुड़कर खुशामद के माध्यम से भी काम चलाउ पैसे कमा लेते हैं. कुछ ठेकेदारी, तस्करी, छिनतई, शराब बिक्री तथा अपराध के अन्य तरीकों से जुड़ जाते हैं. ऐसे लोग जरूरत पड़ने पर अपने मां-बाप को भी नहीं बख्शते. कभी खेत या गहने भी बेचने के लिए मजबूर करते हैं.

सुखमय जीवन की लालसा में कुछ लोग गांव से शहर की ओर पलायन करते हैं और वहां सबसे पहले किसी छोटे अपराधी गिरोह से जुड़ते हैं और वहीं से किसी बड़े गिरोह के लिए रास्ते की तलाश करते हैं. यहां नशाखोरी में पारंगत होने के साथ-साथ हर तरह के अपराध की उच्च स्तरीय प्रशिक्षण दिया जाता है. अगर कोई अपने काम में माहिर हो गया तो समझ लीजिये कि वह थोड़े ही समय के बाद किसी गिरोह का लीडर हो जाता है या अपना खुद का गिरोह बना लेता है.

सबसे पहले होटलों में निर्मित बेहतरीन डिश, अच्छे या डिजाइनर कपड़े, डिजाइनर जूते, हाथ की उंगलियों में सोने की अंगूठी, विदेशी शराब, ड्रग्स, स्मैक या हेरोइन जैसे मादक पदार्थों का सेवन भी अनिवार्य हो जाता है. अपराध की दुनिया में नाम कमाने के बाद ऐसे लोग स्थायी संपत्ति बनाने के लिए जी-तोड़ मेहनत करते हैं. किसी कमजोर या अनुपस्थित जमीन या घर के मालिक की मजबूरी या कमजोरी का फायदा उठाते हुए घर पर कब्जा करते हैं.

इसके बाद आवासीय इलाकों में जमीन पर जबर्दस्ती दखल और फिर आवासीय जमीन की बिक्री की दलाली शुरू कर देते हैं. यहां तक पहुंचते-पहुंचते ऐसे लोग उच्च सरकारी पदाधिकारियों, नेताओं और बड़े व्यापारियों से भी निकट का संबंध बनाने में सफल हो जाते हैं. पत्नी को हर आधुनिक सुविधाओं की आपूर्ति करने के बाद बच्चों को बेहतर शिक्षा दिलाने के लिए ये लोग किसी अच्छे स्थानीय प्राइवेट स्कूलों या फिर महानगरों में अच्छे स्कूलों में प्रवेश दिलाते हैं. इनमें से कुछ राजनीति के क्षेत्र में भी पदार्पण करते हैं और पैसे के बल पर विधायक या सांसद बनकर राज्य और देश का नाम रौशन करते हैं.

ठेकेदारी, दलाली और तस्करी को इज्जतदार पेशा माना जाता है. इनके शोहबत में दर्जनों लखैरे, गुंडे, बदमाश और हत्यारे पलते हैं. इन्हीं लोगों में से कोई-कोई तो राष्ट्रीय स्तर तक भी पहुंच जाता है, जो दिन में अपराध करते हैं और जिनकी रातें किसी पांच सितारे होटल की रंगीनियों में बीतती हैं. इतना सब कुछ अर्जित करने के बाद किसी न किसी धार्मिक गुरु या बाबा का शिष्य कहलाना भी जरूरी हो जाता है और ऐसे लोगों को अपना आशीर्वाद देने के लिए बाबाओं की कोई कमी तो है नहीं ?

इस तरह व्यापारी, नेता और धर्मगुरु का त्रिकोणीय संश्रय निर्मित होता है और राष्ट्रीय स्तर पर राजसत्ता, अर्थसत्ता और धर्मसत्ता के संश्रय का आधार होता है. यही संश्रय आज हमारे देश के नीचे से लेकर ऊपर तक कायम हो गया है. ऐसे ही अपराधी चरित्र के नेता हमारे किशोरवय या नवजवानों के आदर्श और प्रेरणास्रोत हैं, और गाडफादर भी. आज का हमारा भारत इसी माफिया के चंगुल में फंसा तड़प रहा है, फड़फड़ा रहा है और इस फड़फड़ाहट पर अंधभक्त ताली बजाकर जयश्रीराम का नारा लगाते हुए भारतीयों को खामोश रहने का आदेश दे रहे हैं. और, हम सचमुच ही खामोश हो गए हैं.

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ROHIT SHARMA

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