कैसे हो सकता है
कि लोग अपने घरों में बंद कर दिए जाएं
और कवि, कवि ही रहे ?
थोड़ी तो घिस जानी चाहिए शब्दों की गोलाइयां
थोड़े से तो बढ़ जाने चाहिए कवि के नाखून.
क़त्ल किसी और का न सही
ख़ामोशी का तो किया ही जा सकता है.
कैसे हो सकता है कि मनुस्मृति को रख दिया जाए
संविधान की जगह
मुंसिफ आ बैठें भगवा चोलों में
और वकील काले कोट में ही रहें ?
चाहे थोड़ा सही
गुस्सा तो आना चाहिए.
कैसे हो सकता है कि
बलात्कार कर बेटियों का
ज़ोरावर बच निकलते रहें
और मांएं घरों में बर्तन मांजती
रसोई में ही सुलगती रह जाएं ?
थोड़ी गर्मी तो सरों पर चढ़ना ही चाहिए
कोई बर्तन तो सड़क पर फूटना ही चाहिए.
कैसे हो सकता है कि
अचानक खींच ली जाए
अल्पसंख्यकों के पैरों तले की ज़मीन
और हम अपने आप को बहुसंख्यक समझ कर
डरावनी कथा का हुंकारा देते रहें ?
थोड़ी तो कांप जानी चाहिए हमारी आत्मा
कुछ तो क्रोध दिखाएं कथावाचक को
हुंकारा ही न दें.
कैसे हो सकता है कि
हमारे हाथों में सिलेबस बदल दिए जाएं
और हम उसी लगन से पढ़ाते जाएं ?
कक्षाओं में करवाने लगें हवन और कैम्पस में योग
उसी उत्साह के साथ
जैसे पढ़ाते थे
सिद्धांत बेशी मूल्य का
या डार्विन का सिद्धांत ?
थोड़ा तो इंकार करें
एक बार तो सवाल करें.
ये कैसे हो सकता है
कि अपने अपनों को मारते रहें
और हम थोड़ा भी उदास न हों ?
ज़रा भी गुस्सा न हों ?
ज़रा भी न बदले हमारा जीवन ?
हम टस से मस न हों ?
ये कैसे हो सकता है
यदि हम ज़िंदा हैं ?
- नीतू अरोड़ा
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