उधड़े
आख़िरश
जाना ही पड़ा
उसके घर तक
मन तो नहीं था
लेकिन पांव ले गये
मन आदतें नहीं पालता
शरीर पालता है
जैसे कान के पास भिनभिनाते
मच्छर को मारने के लिये
उठ जाता है
सोया हुआ हाथ
अब चूंकि मन नहीं था
और आदतन चला गया था
उसके घर
तैयार भी नहीं था
पार्टी के लिये
वो तो भला हो उसका
जब मैं अंदर आ रहा था
ठीक दरवाज़े पर खड़ी थी
(अब मत पूछना, आदतन ?)
मुझे बदरंग, उधड़े हुए
आंधी में उड़ते हुए
चिथड़े की तरह
आते देख
सतर्क हो गई वो
सबकी नज़रों से बचाकर
खींच कर ले गई
घर के उस हिस्से में
जिसे बस हम दोनों जानते थे
जहां बस हम दोनों होते थे कभी
जब ये बड़ा सा मकान
भरा हुआ था
शरणार्थियों से
मुझे झिड़क कर बोली
देखती हूं तुम्हें रोज़
बड़े चले थे अकेले रहने
पोशाक तो ठीक से बदल नहीं सकते
किस मौक़े पर क्या जंचेगा नहीं पता
उस दिन
जब पड़ोस वाले चाचा गुज़रे
तुम पहुंच गये कंधा देने
रंगीन कपड़ों में
मानती हूं मरी आंखें
रंग नहीं देख पाती
लेकिन ज़िंदा आंखें तो
रुह को सफ़ेद मानती हैं
इसलिये, तुम रंगीन कपड़ों में
श्मशान जाते हुए फब तो रहे थे
बिल्कुल एक युवा प्रेमी की तरह
लेकिन लोग
लोग अजीब नज़रों से
घूर रहे थे तुम्हें
आज ज़ब कि ज़माना बदल गया है
लोग डाइपर की तरह बदल रहे है
चेहरे की किताब पर डी पी
तुम चिपकाये बैठे हो
पांच साल पुरानी तस्वीर
क्या जताना चाहते हो
इन पांच सालों में तुम
ज़रा भी नहीं बदले
कोई बादल नहीं बरसा तुम्हारे उपर
कोई हवा नहीं सुखाई
कोई आग नहीं जलाई
अनश्वर हो
आत्मा हो
आख़िर समझते क्या हो ख़ुद को
और आज तो हद कर दी तुमने
बिन बुलाये आ गये पार्टी में
वो भी इस तरह उधड़े हुए
मैं चुपचाप सुनता रहा उसे
उसकी सारी शिकायतें वाजिब थी
हक़ भी था उसका
मैं क्या कहता
पारोमिता
आंधी के विरुद्ध उड़ते हुए पहुंचा था
तुम्हारे घर तक
अंधेरे और आँधियों के नाख़ून
बढ़े हुए थे
और उधेड़ रहे थे मुझे
तभी याद आया
सालों पहले गांव के मेले से
हम दोनों ख़रीदे थे
ऐसी ही रात के लिये
एक नेलकटर
जो साथ ले जाना
भूल गया था मैं
घर छोड़ने के पहले
वही लेने आया था
कैसा भी सूट पहनता
नोच ही देती
आंधियों और अंधेरों के नाख़ून
सो उनको काटे बग़ैर
रास्ता क्या था
ख़ैर
मुझे नहीं पता
कहां तक समझी पारोमिता
अंतिम बार विदा लेते समय
उसके पीछे तेज़ रोशनी थी
और चेहरा
अंधेरे में गुम था.
- सुब्रतो चटर्जी
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