एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के शीर्षस्थ न्यायालय को कौन सा अधिकार है जिसके तहत वह सरकार को किसी समुदाय का पूजाघर बनवाने का निर्देश दे सके ॽ ऐसा निर्णय करते हुए सर्वोच्च न्यायालय एक दीवानी मुक़दमे में संपत्ति विवाद पर निर्णय की सीमा का अतिक्रमण करते हुए एक सांप्रदायिक विवाद की सीमा में घुस गया है और जिस तरह से 1976 के बंदी-प्रत्यक्षीकरण तथा कुछ अन्य मामलों में भी हुआ था, अपनी साख पर उसी तरह का धब्बा एक बार फिर लगा लिया है.
‘संविधान भले किसी झंडे के पीछे न चलता हो, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय का रुख चुनाव-परिणामों के हिसाब से जरूर बदल जाता है.’ इलिनॉयस के प्रतिभाशाली हास्य लेखक फिनले पीटर डन (1867-1936) ने अपनी क्लासिक कृति ‘मिस्टर डूली’ज़ ओपिनियन्सः दि सुप्रीम कोर्ट्’स डिसीजन्स’ में यह व्यंग्य किया था. सत्ता और राजनीतिक दबदबे में बदलाव का असर सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों पर भी पड़ता है और उन्हें संदेह की नजर से देखा जाता है, उसी को यह व्यंग्य अभिव्यक्त करता है.
जनवरी 1980 में इन्दिरा गांधी के सत्ता में वापस आने के बाद ‘क़िस्सा कुर्सी का’ मामले में जिस तरह से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपने पुराने निर्णयों में उलट-फेर किया गया था, उस पर एक लेख (इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली, 04 जुलाई 1980) में इस लेखक ने उपरोक्त व्यंग्य को उद्धृत किया था. जब यह प्रकाशित हुआ, संजय गांधी ज़िंदा थे. ईमानदार पुलिस अधिकारी एन. के. सिंह के हस्तक्षेप करने की दलील को न्यायालय ने इस तथ्य के बावजूद खारिज कर दिया था कि ‘अभियुक्त ही अब राज्य हो चुका है.’ बिल्कुल वही हालत आज बाबरी मस्ज़िद मामले में है.
9 नवंबर 2019 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बाबरी मस्ज़िद मामले में सुनाए गए ‘एकमत’ फैसले पर एक आम प्रतिक्रिया है कि यह आरएसएस और उसके वंशजों, भाजपा और विश्व हिंदू परिषद द्वारा पोषित बहुसंख्यकवादी माहौल को ही प्रतिबिंबित करता है. 24 जनवरी 1922 को, अपने ऊपर लगाए गए राजद्रोह के अभियोग के जवाब में, मौलाना अबुल कलाम आजाद के बयान को यह बहुत ही प्रासंगिक बना देता है. यह बयान बचाव में नहीं अवज्ञा में दिया गया था. उन्होंने कहा, ‘दुनिया के इतिहास में, युद्ध के मैदानों के बाद सबसे ज्यादा अन्याय अदालतों में ही हुए हैं.’
अपने बयान के अंत में आजाद ने मजिस्ट्रेट से कहा, ‘यह कटघरा हम लोगों के हिस्से में आया है, और आप लोगों के हिस्से में न्यायाधीश की कुर्सी. मैं स्वीकार करता हूं कि इस काम के लिए यह कुर्सी उतनी ही जरूरी है, जितना यह कटघरा. चलिए इस यादगार काम को अंजाम तक पहुंचाते हैं. इतिहासकार और भविष्य दोनों लंबे समय से हमारा इंतजार कर रहे हैं. आप हमें बार-बार यहां आने का मौक़ा देते रहें और आप भी अपने फैसले लिखना जारी रखें. यह सब तब तक चलेगा जब तक कि एक और अदालत के दरवाजे धड़ाक से खुल नहीं जाते. यह अल्लाह के क़ानून की अदालत होगी. इसका न्यायाधीश वक़्त होगा और वही फैसला लिखेगा. और उसका फैसला ही अंतिम फैसला होगा.’
हमारे सर्वोच्च न्यायालय के 9 नवंबर के फैसले पर इतिहास क्या फैसला सुनाएगा, यह सोचकर सिहरन होती है. समकालीन राय विभाजित है. काफी लोग इसकी प्रशंसा कर रहे हैं, जिनमें वे लोग भी शामिल हैं जिन्हें मुसलमानों में ‘अंकल टॉम’ (अपने दोयम दर्जे को स्वीकार कर लेने वाले) कह कर ‘अमूमन संदिग्ध’ माना जाता है. लेकिन बड़ी संख्या में महत्वपूर्ण लेखकों ने, जिनमें सभी धर्मों तथा राजनीतिक विचारों के लोग शामिल हैं, इसमें साफ-साफ दिख रहे बहुसंख्यकवादी रुझान के लिए इसकी तीखी आलोचना की है.
भारत के पहले अटॉर्नी जनरल एम. सी. सीतलवाड़ ने गोलकनाथ मामले (1967) में अदालत के बहुमत फैसले को ‘एक राजनीतिक फैसला’ बताते हुए इसकी निंदा किया था (माइ लाइफ, पृ. 587-588). लेकिन वह एक फैसला था. यह वाला तो और जो कुछ हो, फैसला नहीं है. यह घटिया तरीक़े से किया गया एक घटिया काम है.
ब्रिटिश शासन के साथ ही भारत में न्याय के लिए अदालतों की यह प्रणाली आई. ऐसी प्रणाली जिसे ब्रिटिश अदालतें सदियों से अपनाए हुए थी. इसमें मुख्य फैसले के लेखक के साथ ही उन जजों के नाम का भी उल्लेख होता है जो फैसले से सहमत या असहमत होते हैं.
सदियों से स्थापित दस्तूर का बिल्कुल अप्रत्याशित उल्लंघन करके यह फैसला अंतिम पृष्ठ 929 पर, मामले की सुनवाई करने वाले पांचों जजों के हस्ताक्षर से ठीक पहले, उतने ही अस्वाभाविक तरीक़े से थोड़े शब्दों में फुसफुसाता है – ‘हममें से एक ने, उपरोक्त तर्कों और निर्देशों से सहमत होते हुए भी, हिंदू भक्तों की आस्था और विश्वास के अनुसार विवादित ढांचे के भगवान राम का जन्मस्थान होने के प्रश्न पर अपनी अलग राय दर्ज कराया है.’
इस मामले के केंद्र में एक अचल संपत्ति, मस्जिद, के मालिकाने का प्रश्न था. इसे ऐसे अन्य सभी विवादों की तरह ही भूमि-क़ानून के अनुसार निपटाया जाना चाहिए था. इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने खुले आम क़ानून के ऊपर आस्था को तरजीह दिया था. सर्वोच्च न्यायालय ने भी बिल्कुल वही काम अपनी एक खास स्टाइल में किया है.
हमारे इन अतिरिक्त जज महोदय ने दाल में जो काला था उसे साफ-साफ दिखा दिया है —कि यह फैसला बहुसंख्यक समुदाय, यानि हिंदुओं, की ‘आस्था और विश्वास’ पर आधारित है. धन्य हो, इस सारी अप्रासंगिकता को भला बताने की क्या जरूरत थी ?
यह संदेह और पुष्ट हो जाता है जब हम 116 पृष्ठ के इस दस्तावेज़ को, और उसे अलग से जोड़े जाने के कारण पर उन जज महोदय की अपनी टिप्पणी पढ़ते हैं. शुरुआत में ही वे सवाल उठाते हैं, ‘क्या विवादित ढांचा हिंदुओं की आस्था, विश्वास और भरोसे के अनुसार भगवान राम का पवित्र जन्मस्थान है ?’ बात यह काफी हद तक फैसले वाली ही है, बस भाषा बदली हुई है. न्यायिक घोषणा में यह एक अक्षम्य ग़लती है.
इस जोड़े गये हिस्से को आगे और फैला कर ‘हिंदुत्व के विचार और उसके पवित्र नगरों के उल्लेख’ तक ले जाया गया है. आगे इसमें धार्मिक जोश भरते हुए एक शानदार पैराग्राफ में नतीजा निकाला गया है कि ‘इस तरह से यह निष्कर्ष निकलता है कि मस्जिद के निर्माण से पहले से ही, और बाद में भी, हमेशा हिंदुओं की आस्था और विश्वास रहा है कि भगवान राम का जन्मस्थान वही स्थल है जहां मस्जिद बनाई गई है, और इस आस्था और विश्वास को ऊपर वर्णित दस्तावेज़ी और मौखिक साक्ष्य सिद्ध भी करते हैं.’ ये दस्तावेज़ी साक्ष्य अधिकांशतः धार्मिक किताबें हैं. विश्वासों के मौखिक साक्ष्यों का कोई मतलब नहीं होता. लेकिन यह सारी कसरत इसी तरीक़े की है.
30 सितंबर 1990 को लालकृष्ण आडवाणी ने स्वीकार किया था, ‘कोई भी यह सिद्ध नहीं कर सकता कि श्रीराम यहीं पैदा हुए थे. यह विश्वास का मामला है’ (द इंडिपेंडेंट, 1 अक्टूबर 1990). क्या इस विश्वास को इस हद तक न्यायिक स्वीकृति दी जा सकती है, जहां यह अन्य लोगों के नैतिक और क़ानूनी अधिकारों को निरस्त कर दे ? अदालत ने 22-23 दिसंबर 1949 को जबरन और कपटपूर्ण तरीक़े से मस्ज़िद में मूर्तियां रखने और 6 दिसंबर 1992 को उसे गिराए जाने की निंदा किया है.
5 जून 1989 को प्रो. हीरेन मुखर्जी को लिखे एक पत्र में वाजपेयी ने स्वीकार किया है कि – ‘राम बिल्कुल इसी स्थान पर पैदा हुए थे, ऐसा सटीक निर्धारण नहीं किया जा सकता’ (ऑर्गेनाइज़र, 24 सितंबर 1989). आरएसएस प्रमुख एम. डी. देवरस ने कहा – ‘यह ऐसा मामला नहीं है जिसमें न्यायपालिका फैसला सुना सके. हिंदुओं से कैसे साक्ष्य प्रस्तुत करने की उम्मीद की जाती है ? यह कि राम पैदा हुए थे, और उनका जन्मस्थान अयोध्या में हुआ था ?’ (ऑर्गेनाइज़र, 12 मार्च 1989). इस मामले में वे ईमानदार थे— कोई साक्ष्य था ही नहीं. इसी वजह से भाजपा ने अपने पालमपुर संकल्प में कहा – ‘मुक़दमेबाजी निश्चित रूप से कोई हल नहीं है’ (11 जून 1989).
तो आखिर बदलाव किस चीज ने लाया ? क्या फर्जी पुरातात्विक अभियानों ने ? आरएसएस और भाजपा अब भी अपनी 1989 की अवस्थिति पर क़ायम रहे हैं. इस साल नाटकीय तरीक़े से इसे बदला गया है. क्यों ? क्यों ? 30 अक्टूबर 2019 को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने एक बैठक बुलाई और लोगों को सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को ‘पूरे दिल से’ स्वीकार करने को कहा’ (एशियन एज, 31 अक्टूबर 2019). इतने उग्र लोगों को, जो अदालतों पर भरोसा ही नहीं करते, इतना परिवर्तित होने की प्रेरणा कहां से मिली ?
पारदर्शिता न्यायिक प्रक्रिया की सत्यनिष्ठा की कसौटी होती है. इस मामले में इसे क्यों त्याग दिया गया ? फैसले के, या उसमें अलग से जोड़े गए हिस्से के, लेखक की पहचान क्यों नहीं दर्ज की गई ? इन दोनों चूकों के लिए खुद उन जजों के साथ-साथ दल के अगुआ, भारत के प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, सीधे-सीधे जवाबदेह हैं. उन्हें फैसले तथा उसमें अलग से जोड़े गए हिस्से के लेखक का उल्लेख करना चाहिए था. इसका लेखक एक नैतिक चूक का अपराधी है, साथ ही प्रधान न्यायाधीश तथा अन्य चारों लोग भी, जिन्होंने उसे अज्ञात रहने दिया और जानबूझकर आंखें मूंद लीं. वह जज कोई शर्मीला शख्स तो है नहीं. अपने नाम का उल्लेख करने में शर्मा जाना ही उसका भंडाफोड़ कर देता है. इन चूकों ने पूरी प्रक्रिया को दूषित कर दिया है.
घातक ग़लती को नज़रअंदाज़ किया गया
फैसले पर हुई पूरी बहस के दौरान एक घातक ग़लती को नज़रअंदाज़ किया गया. इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय की पांच जजों की पीठ के 1994 के सर्वसम्मत फैसले की ढिठाई के साथ तौहीन किया था. 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने उस तौहीन को नज़रअंदाज़ करके उससे भी ज्यादा बुरा काम किया है. उसने इस मुद्दे पर उसे मौन सहमति दे दिया है. आइए, इसके अकाट्य तथ्य देखते हैं.
मस्ज़िद गिराए जाने के बाद संसद ने ‘एक्वीजिशन ऑफ सर्टेन एरिया ऑफ अयोध्या एक्ट, 1993’ को पास करके विवादित जमीनों का अधिग्रहण किया. इसके साथ ही राष्ट्रपति ने एक प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय की राय मांगा. यह 7 जनवरी 1993 की बात है. इसी दिन वह अध्यादेश भी, जो अधिनियम बन चुका था, लागू हुआ. न्यायालय से पूछा गया सवाल था कि क्या मस्ज़िद के निर्माण से पहले वहां कोई हिंदू मंदिर था ? अधिनियम के खंड 4(3) ने अधिगृहीत भूमि के मालिकाने से संबंधित सभी क़ानूनी कार्यवाहियों को समाप्त कर दिया. 14 सितंबर 1994 को सरकार ने न्यायालय के सामने बयान दिया कि यदि पूछे गए सवाल का जवाब ‘हां’ में आता है तो जमीन हिंदुओं को दे दी जाएगी; अगर जवाब ‘नहीं’ में आता है ‘तो सरकारी कार्यवाही मुस्लिम समुदाय की इच्छाओं के समर्थन में होगी.’
इस्माइल फारुक़ी एवं अन्य बनाम भारत सरकार एवं अन्य (1994; 6 सुप्रीम कोर्ट केसेज़ 360) में न्यायालय ने उस खंड 4(3) को निरस्त कर दिया, जिसने क़ानूनी कार्यवाहियों को समाप्त कर दिया था. इस पर न्यायालय एकमत था. न्यायालय इस मुद्दे पर विभाजित था कि क्या खंड 4(3) शेष अधिनियम से पृथक्करणीय था ?
न्यायमूर्ति ए. एम. अहमदी और एस. पी. भरूचा का मत था कि यह पृथक्करणीय नहीं है और उन्होंने पूरे अधिनियम को ही समाप्त कर दिया. प्रधान न्यायाधीश एम. एन. वेंकटचेलैया और न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा तथा जी. एन. रे का मत था कि यह पृथक्करणीय है और शेष अधिनियम को बनाए रखा. सभी पांचों ने राष्ट्रपति के सवालों के जवाब देने से मना कर दिया.
न्यायमूर्ति जे.एस.वर्मा की राय प्रासंगिक है. ‘विवादित क्षेत्र पर प्रतिद्वंद्वी दावों का निस्तारण लंबित मुकदमों की संख्या कम करके नहीं किया जा सकता. इस न्यूनीकरण के परिणामस्वरूप तो मुस्लिम पक्ष द्वारा प्रस्तुत बचाव के कई साक्ष्य समाप्त हो जाएंगे, जैसे सन 1528 ई. में मीर बाक़ी द्वारा मस्ज़िद के निर्माण के बाद 400 साल से ज्यादा समय से मुस्लिम पक्ष के क़ब्ज़े में रहने का ‘प्रतिकूल क़ब्ज़ा’ का साक्ष्य़. जाहिर है कि विवाद के समाधान के लिए अपनाई गई यह वैकल्पिक व्यवस्था वास्तव में संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत सर्वोच्च न्यायालय को उसी दिन निर्णय के लिए प्रश्न भेजे जाने वाली समकालिक संदर्भ (Simultaneous Reference) व्यवस्था ही है.
उन मुकदमों में उठाए गए मुद्दों से स्पष्ट है कि उनके निर्धारण के मूल प्रश्न को तो राष्ट्रपति द्वारा निर्णय के लिए अदालत को भेजे गए संदर्भ समेटते ही नहीं हैं, और न ही वे मुस्लिम समुदाय द्वारा बचाव में प्रस्तुत साक्ष्यों को ही अपने दायरे में समेटते हैं. यह भी स्पष्ट है कि संदर्भित प्रश्न का उत्तर भी, चाहे वह जो भी हो, लंबित मुकदमों के निर्धारण के मूल प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाएगा और यह विवादित क्षेत्र के लिए लंबे समय से चल रहे इस झगड़े का निपटारा नहीं कर पाएगा. अतः लंबित मुकदमों, जिनका इस अधिनियम के अनुच्छेद 4(3) के तहत न्यूनीकरण किया जा रहा है, उनके व्यवस्थित क़ानूनी प्रक्रिया के तहत समाधान की जगह अनुच्छेद 143(1) के तहत संदर्भ को विवाद-निपटान की प्रभावी प्रणाली नहीं माना जा सकता.
इसके बावज़ूद 23 अक्टूबर 2002 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को निर्देश जारी किया कि जमीन छेदने वाली तकनीक़ से या रेडियोलॉजी (जीपीआर) पद्धति से वह विवादित स्थल का सर्वेक्षण करे. किंतु उसकी 17 फरवरी 2003 की रिपोर्ट में असंगतियां थी. 5 मार्च 2003 को अदालत ने एएसआई को उस स्थल की खुदाई का निर्देश दिया.
दरअसल, राष्ट्रपति के संदर्भ के माध्यम से की गई पूछताछ पिछले दरवाजे से की गई थी. राष्ट्रपति का सवाल, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था, यह है – ‘…क्या राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के निर्माण से पहले उस ढांचे के नीचे कोई हिंदू धार्मिक ढांचा था ?’ इसके बावजूद उच्च न्यायालय ने एएसआई को 5 मार्च 2003 को उसी सवाल पर इन शब्दों में आदेश दिया – ‘क्या उस विवादित जगह पर कोई मंदिर या ढांचा था जिसे गिराया गया था और मस्जिद बनाई गई थी.’ एकमात्र इसी अवज्ञा के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द कर दिया जाना चाहिए था, जो नहीं किया गया.
क्या आज तक कभी भी किसी मालिकाना हक़ के दीवानी मुक़दमे में ऐसी खुदाई कराई गई है ? इस बार ऐसा हुआ, और पूरी पारदर्शिता के साथ हुआ, कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में अपने ही सर्वसम्मत निर्णय के ऐसे उल्लंघन की निंदा का एक भी लफ़्ज नहीं है.
फ्रेडरिक महान पर अपने निबंध में मैकॉले लिखता है – ‘क्या यह बिल्कुल स्पष्ट नहीं है कि अगर वर्तमान अनुबंधों और स्वामित्व पर पुरातन दावों को तरजीह दी जाने लगे तो दुनिया में एक दिन भी शांति नहीं रहेगी ? सभी राष्ट्रों के क़ानूनों ने परिसीमन की निश्चित तारीख तय करने की समझदारी दिखाया है जिसके बाद के सभी मालिकाने के हक़, चाहे उनका आरंभ कितना भी नाजायज़ हो, उन पर सवाल नहीं खड़े किए जा सकते. सभी यह महसूस करते हैं कि किसी शख्स को किन्हीं पूर्वजों के जमाने में किए गए किन्हीं अन्यायों के आधार पर उसकी संपत्ति से बेदखल करना, ऐसी सभी बुराइयों की जड़ बन जाएगा जो मनमाना जब्ती से पैदा होती हैं और हर तरह की संपत्ति को असुरक्षित बना देगा. गणतंत्र की भी यह चिंता है, और उसका क़ानूनी आदर्श वाक्य भी ऐसा ही है, कि मुक़दमेबाजी का कहीं न कहीं अंत होना चाहिए. और निश्चय ही यह आदर्श वाक्य कम से कम राज्यों के महान कॉमनवेल्थ (राष्ट्रमंडल) पर भी उसी तरह लागू होता है; क्योंकि उसके लिए मुक़दमेबाजी का मतलब होगा राज्यों का विनाश और व्यापार तथा उद्योग का ठप हो जाना.’ (लॉर्ड मैकॉले के क्रिटिकल एंड हिस्टोरिकल एस्सेज़ से, लांगमैन्स ग्रीन एंड कं., 1877, पृ.666).
शहीदगंज केस
लाहौर में शहीदगंज केस में मामला अयोध्या के ठीक उलट था. परिसीमन क़ानून से बाधित होने के कारण मुसलमानों के दावे सीधे-सीधे खारिज कर दिए गए थे. तीन अदालतों ने मुसलमानों के इस दावे को सही माना कि 1722 में फलक बेग खान ने एक वक्फ (ट्रस्ट) बनाया था और उस जमीन को मस्ज़िद बनाने के लिए सौंप दिया था. लेकिन सभी तीनों अदालतों ने माना, और सही माना, कि सिखों के ‘प्रतिकूल क़ब्ज़ा’ हक़ के हिसाब से 1762 के बाद मुसलमानों ने उस जमीन और मस्जिद पर से मालिकाने का हक़ खो दिया था.
इसमें अयोध्या मामले के सभी तत्व मौज़ूद थे— एक मस्ज़िद जो अन्य समुदाय, सिखों, के प्रतिकूल क़ब्ज़े में थी; उनके द्वारा इसे गिराया जाना; मुसलमानों के आक्रोशपूर्ण आंदोलन; इसमें धार्मिक नुमाइंदों की भागीदारी; अदालतों से मुसलमानों की मायूसी और उस स्थल के अधिग्रहण के लिए पंजाब विधानसभा में क़ानून पारित कराने के लिए अभियान…, सभी असफल हो गए. आज के दिन, 15 अगस्त 1947 से पहले की ही तरह लाहौर में गुरुद्वारा शहीदगंज खड़ा है, जहां शायद ही कोई जाता हो. (शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी; 67 इंडियन अपील्स 251 में मस्ज़िद शहीद गंज)
16 मार्च 1938 को पंजाब के प्रधानमंत्री (जिस रूप में उस समय के मुख्यमंत्रियों को जाना जाता था), सर सिकंदर हयात खान ने विधानसभा में एक बयान दिया. उन्होंने ध्यान दिलाया कि ‘अगर मुस्लिम क़ब्ज़े में चले गए पंजाब में गैर-मुस्लिम अपने पूजा गृहों की इसी तरह से सुरक्षा चाहते हैं तो ऐसी मांग का विरोध अतार्किक होगा.’
उन्होंने दृढ़तापूर्वक अपना तर्क रखा – ‘अगर गवर्नर महोदय अपने मंत्रालय की सहमति से मुस्लिम आधिपत्य वाले पंजाब में गैर-मुस्लिम ऐतिहासिक एवं महत्वपूर्ण पूजास्थलों के पुनरुद्धार के लिए विधेयक लाने की अनुमति देते हैं, तो उन प्रांतों में भी ऐसा विधेयक लाने को प्रोत्साहन मिलेगा जहां गैर-मुस्लिम बहुसंख्या में हैं. और इस तरह से पंजाब में प्रस्तुत मिसाल की रोशनी में मुसलमानों को भारत सरकार अधिनियम के अंतर्गत ऐसे विधेयक लाने के विरोध का आह्वान करना असंभव हो जाएगा…’.
पांच दिन बाद, 21 मार्च को मुस्लिम लीग की कौंसिल ने इस बयान का समर्थन किया. 17-18 अप्रैल 1938 को कलकत्ता के इसके खास सत्र में जिन्ना ने कहा, ‘दोनों पक्षों के कुछ लोग एक-दूसरे के प्रति आक्रामक रहे हैं, और ऐसे ही लोगों ने एक ऐसी परिस्थिति पैदा कर दिया है जिसमें दोनों महान समुदाय एक कठिन स्थिति में पड़ गए हैं. मैं दोनों पक्षों द्वारा की गई ज्यादतियों की भर्त्सना करता हूं.’ वह आडवाणी नहीं थे.
पालकीवाला की चेतावनी
आडवाणी एवं उनके समूह ने राजनीतिक लाभों के लिए बिल्कुल विपरीत रुख अपनाया. एन. ए. पालकीवाला ने 1993 में टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा, ‘अदालतें केवल तथ्यों या क़ानून के सवालों का निर्णय कर सकती हैं. मत या विश्वास या राजनीतिक बुद्धिमत्ता के सवालों का न वे निर्णय कर सकती हैं, न ही उन्हें ऐसे सवालों के निर्णय के लिए कहा जाना चाहिए. अदालत कार्यपालिका की ही एक विस्तारित भूमिका नहीं होती. कार्यपालिका के साथ सरकारी नीतियों को आकार देने में जनमत या जनविश्वास का महत्व हो सकता है. लेकिन यह तय करना अदालतों का काम नहीं है कि इन मतों और विश्वासों के लिए ठोस आधार हैं अथवा नहीं जिन्हें जनता अपना मन बहलाने के लिए चुन सके…अखबारों की हालिया रिपोर्टें बताती हैं कि कुछ कैबिनेट मंत्रियों की राय है कि इन प्रश्नों पर फैसला करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को कहा जाना चाहिए –
- विवादित स्थल पर अस्थायी मंदिर में रामलला के दर्शन के लिए भक्तों को जाने देना चाहिए या नहीं ?
- ढहाई गई मस्ज़िद को सरकार को फिर से बनवाना चाहिए या नहीं ?
- अयोध्या में मंदिर और मस्ज़िद दोनों साथ-साथ रह सकते हैं या नहीं ?
क्या ऐसे सवालों का निर्णय करना अदालतों का काम है ?
इस सवाल पर कि बाबर द्वारा बनवाई गई मस्ज़िद से पहले क्या उस जगह पर मंदिर था, इतिहासकारों की राय काफी अलग-अलग है. इस सवाल पर कि क्या राम वहीं पैदा हुए थे, उनकी राय में और भी कम सहमति है. क्या राम वास्तव में एक इंसान थे अथवा केवल एक परामानसिक आदर्श थे जिसे धर्म ने एक संपूर्ण मनुष्य के प्रतीक के तौर पर तैयार किया था, इस सवाल पर तो और भी ज्यादा मतभेद हैं. धर्म या इतिहास के ऐसे सवालों, अथवा धर्म और इतिहास के मिश्रित सवालों पर फैसला देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय या इलाहाबाद उच्च न्यायालय को कहना हमारी राजनीतिक संस्थाओं के दिवालियेपन का साक्ष्य प्रस्तुत करना है…किसी भी देश के इतिहास में अदालतों को फैसले के लिए कभी भी ऐसे सवाल नहीं भेजे गए हैं जैसे अयोध्या मामले में भेजे जाने की सलाह दी जा रही है.
‘सर्वोच्च न्यायालय या इलाहाबाद उच्च न्यायालय को फैसले के लिए ऐसे सवाल भेजे जाने के परिणाम आगे चल कर विनाशकारी साबित होंगे. पहले तो इस तरह अदालत के ऊपर ऐसा कार्यभार थोप दिया जाएगा, जिसके लिए प्रशिक्षण या अनुभव की योग्यता उनमें नहीं है. अदालतें क़ानून या तथ्य संबंधी सवालों पर काम कर सकती हैं. पुरातत्व अथवा इतिहास जैसे अन्य क्षेत्रों के सवालों से निपटने की निपुणता उनमें नहीं है. जज केवल दस्तावेज़ी साक्ष्य अथवा गवाह ने जो कुछ खुद देखा हो या सुना हो ऐसे साक्ष्य पर ही फैसला सुना सकता है. यह स्थापित बात है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत न्यायालय में सुनी-सुनाई बातों के साक्ष्य अमान्य हैं…
‘क्या किसी धर्म के पूजा-स्थल को इस आधार पर ढाह देना चाहिए कि इससे पहले यहां किसी अन्य धर्म का कोई ढांचा था ? पुरातत्व विज्ञान प्राचीन समय की कला, रिवाजों और विश्वासों का अध्ययन है. यह किसी विश्वास अथवा मत का आधार तो हो सकता है किंतु सार्वभौमिक सत्य का नहीं. क्या किसी एक ही पुरातात्विक साक्ष्य से दो अलग-अलग लोग दो अलग-अलग निष्कर्षों पर नहीं पहुंच सकते हैं ? किसी जज द्वारा निकाला गया निष्कर्ष उन लोगों पर बाध्यकारी कैसे हो सकता है जो उस जज के विपरीत मत और विश्वास रखते हों ? क्या यह अलग-अलग और भिन्न सवालों को गड्डमड्ड करने में सहायक होता है ? क्या यह सवाल कि राम खास इसी जगह पैदा हुए थे, इस सवाल से बिल्कुल अलग और भिन्न है कि उस जगह पर मंदिर था अथवा नहीं ? इसलिए, क्या जो लोग एक खास स्थान को राम का जन्मस्थल मानते हैं उन लोगों के विश्वासों को हम किसी तरह से यह कह कर बेदखल कर रहे हैं, कि वहां किसी मंदिर का अस्तित्व नहीं था ?’
एकतरफा नज़रिया
सर्वोच्च न्यायालय का नज़रिया मूलतः ग़लत और एकतरफा है. मस्ज़िद के बाहर लेकिन अहाते में ही एक चबूतरा था जिसे राम चबूतरा या जन्मभूमि मंदिर कहा जाता था. इस बात के जबर्दस्त साक्ष्य हैं कि मस्ज़िद नहीं, बल्कि यही चबूतरा है जिसकी रामचंद्र जी के जन्मस्थान के रूप में मान्यता रही है.
मूर्तियों के वहां रखे जाने के कुछ दिनों पहले चबूतरे वाले स्थान पर ‘विशाल मंदिर’ बनाने की योजनाएं बनाई जा रही थीं. मुंबई में एक ट्रैफिक आइलैंड (सड़क का विभाजक निरापद क्षेत्र) है, जिस पर एक मंदिर, एक गिरजाघर और एक मस्ज़िद, तीनों आपस में सटे हुए हैं. 1855 में मस्ज़िद के अहाते के ठीक बाहर हनुमानगढ़ी को लेकर विवाद हुआ था, लेकिन खुद मस्ज़िद को लेकर नहीं. प्रो. के. एन. पणिक्कर ने ‘एन हिस्टोरिकल रिव्यू’ लिखा जो सर्वपल्ली गोपाल द्वारा संपादित एनाटॉमी ऑफ ए कन्फ्रंटेशन में प्रकाशित हुआ था. (पेंग्विन, 1991, पृ.22-80)
पणिक्कर लिखते हैं, ‘राम का पंथ बारहवीं सदी से ही लोकप्रिय हुआ प्रतीत होता है. फिर भी पंद्रहवीं और सोलहवीं सदी तक भी रामानंदी लोग उल्लेखनीय संख्या में अयोध्या में नहीं बसे थे. अयोध्या रामानंदी व्यवस्था से नियंत्रित राम पंथ का केंद्र अठारहवीं सदी से ही बनी. अधिकांश राम मंदिर उसके बाद के ही हैं…
‘हनुमानगढ़ी प्रकरण का एक महत्वपूर्ण आयाम यह है कि यह उस समय की हिंदू चेतना में बाबरी मस्ज़िद और जन्मस्थान के बीच किसी भी संबंध के अभाव की ओर इशारा करता है. हलांकि जब मस्ज़िद में मुसलमानों ने शरण लिया था उस समय इस पर बैरागियों ने अधिकार कर लिया लेकिन उन्होंने न तो इस पर क़ब्ज़ा किया, न ही इस पर अपना दावा किया. बल्कि वे लगभग तत्काल हनुमानगढ़ी तक पीछे हट गए. यह भी महत्वपूर्ण है कि तहकीकात के दौरान किसी भी हिंदू ने मस्ज़िद वाली जगह पर पहले मंदिर के अस्तित्व का जिक्र नहीं किया था, यहां तक कि हनुमानढ़ी पर मुसलमानों के दावों के विरोध के लिए भी नहीं. जन्मस्थान मंदिर के बारे में स्थानीय परंपरा, जिसका जिक्र ब्रिटिश अधिकारियों ने किया है, वह 1855 में मौजूद नहीं दिखती.’
चबूतरा
चबूतरा 1855 में स्थापित किया गया. इसे मस्ज़िद से अलग करने के लिए एक रेलिंग और एक दीवार बनाई गई. 29 जनवरी 1855 को महंत रघुबर दास ने भारत के राज्य सचिव के यहां फरियाद किया; ‘वादी को अयोध्या स्थित एक चबूतरा जनम अस्थान के ऊपर एक मंदिर बनवाने की अनुमति के लिए मुकदमा…’.
उन्होंने कहा – ‘…फैजाबाद शहर में अयोध्या स्थित जनम अस्थान हिंदुओं के लिए पूजा का एक पुराना और पवित्र स्थल है और वादी उस पूजा-स्थल का महंत है….उल्लिखित चबूतरा वादी के कब्जे में है और इसके ऊपर भवन न होने के कारण वादी तथा अन्य लोगों को गर्मी के मौसम में भीषण गर्मी, जाड़े में भीषण ठंड और बरसात में भींगने जैसी काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. इस चबूतरे के ऊपर मंदिर बन जाने से किसी को भी कोई हानि नहीं होगी. बल्कि अगर मंदिर बन जाता है तो वादी को तथा अन्य फक़ीरों को और तीर्थयात्रियों को हर तरह से सुविधा हो जाएगी.’
उप-न्यायाधीश ने कहा, ‘1855 में, हिंदुओं और मुसलमानों में झगड़े के बाद, एक चारदीवारी का निर्माण करा दिया गया था, ताकि भविष्य में विवाद न हों, और मुसलमान उस दीवार के अंदर पूजा करें और हिंदू उस दीवार के बाहर पूजा करें. इसलिए चबूतरा और चारदीवारी के बाहर की जमीन हिंदुओं और वादी की है.’
एक नक्शा तैयार किया गया था. इसमें राम चबूतरे से अलग एक ‘मस्ज़िद’ है. विस्तृत विवरण और स्थल का मुआयना गंभीरता को दिखाता है. 24 दिसंबर 1885 को फैजाबाद के उप-न्यायाधीश पंडित हरि किशन ने इस आधार पर मुकदमे को खारिज कर दिया कि चबूतरे पर मंदिर के निर्माण से झगड़े बढ़ेंगे. 18 मार्च 1886 को जिला जज एफ. ई. ए. चैमियर ने यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि ‘कहा जा रहा है कि यह चबूतरा राम चंद्र के जन्मस्थान को इंगित करता है. अंदर जाने के रास्ते के सामने ही मस्ज़िद के पक्के चबूतरे का प्रवेश द्वार है. एक दीवार, जिसमें जगह-जगह रेलिंग घुसी हुई है, मस्ज़िद के चबूतरे को उस अहाते से अलग करती है जिसमें राम चबूतरा है.’
अवध के जुडीशियल कमिशनर डब्ल्यू. यंग ने भी अपील खारिज कर दिया. ‘मामला महज इतना है कि अयोध्या के हिंदू उस कथित पवित्र स्थल पर, जिसे श्री राम चन्दर का जन्मस्थान कहा जाता है, एक नया मंदिर या संगमरमर का चंदोवा बनाना चाहते हैं. यह स्थल लगभग 350 साल पहले बनी एक मस्ज़िद के परिसर के आस-पास की जमीन की सीमा में ही स्थित है.
‘हिंदुओं को मस्ज़िद के बगल की सटी हुई जमीन की कुछ निश्चित जगहों पर पहुंच के बहुत सीमित अधिकार मिले हुए प्रतीत होते हैं, और वे वर्षों से लगातार इन अधिकारों को बढ़ाने की और उस अहाते के दो स्थलों पर भवन बनाने की कोशिश करते रहे है – 1. सीता की रसोई, 2. राम चंदर की जनम भूमि.’ (इन दस्तावेज़ों के मूल पाठ के लिए देखें ए. जी. नूरानी संपादित द बाबरी मस्ज़िद क्वेश्चन 1528-2003, तूलिका बुक्स, वॉल्यूम 1, पृ. 175-185)
दिसंबर 1885 से नवंबर 1886 के बीच तीन न्यायाधीशों ने सराहनीय गहनता से इस मामले को सुना और फैसले दिए. हर मामले में चबूतरे को ही राम जन्मस्थान के रूप में पेश किया गया; एक बार भी, कहीं भी, मस्ज़िद को नहीं. यह मुकम्मल तौर पर सिद्ध करता है कि –
- राम मंदिर की मांग बाद की और राजनीति से प्रेरित मांग है, और
- मस्ज़िद मुसलमानों के अधिकार में थी और वहां वही पूजा करते थे.
सर्वोच्च न्यायालय का यह मानना ठीक है कि पूर्वन्याय (रेस जुडिकेटा) का क़ानून यहां लागू नहीं होगा; अर्थात लगभग 65 साल बाद किए गए मुकदमों को यह रोकता बिल्कुल नहीं है. इस बारीकी में न जाएं, तो भी 1885 की कानूनी कार्यवाही से क्या मतलब निकलता है ? यह मस्ज़िद मामले में हिंदू दावे को उसकी योग्यता के आधार पर मना करता है. क्या 1885 से ही राम मंदिर की कोई मांग कभी उठी थी ? नहीं; बाल गंगाधर तिलक, मदन मोहन मालवीय या लाला लाजपत राय जैसे नेताओं की बात छोड़िए, यहां तक कि सावरकर के द्वारा भी नहीं.
1984 में विश्व हिंदू परिषद का आह्वान
आरएसएस ने 29-30 अगस्त 1964 को विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) का गठन किया. इसके संस्थापक आरएसएस के मुखिया एम. एस. गोलवलकर, एस. एस.आप्टे और के. एम. मुंशी थे. वीएचपी ने 1984 में बजरंग दल का स्थापना किया. वीएचपी को अग्रिम मोर्चे की तरह काम करना था. अपवित्र कर दी गई मस्ज़िद के ताले खुलवाने के लिए इंदिरा गांधी के साथ समझौते के बारे में आधिकारिक स्रोतों पर आधारित रिपोर्ताज के लिए हम नीरजा चौधरी के आभारी हैं. वीएचपी ने इसके लिए ठीक 8 अप्रैल 1984 को आह्वान किया कि—मस्ज़िद को ही हटाना होगा.
25 सितंबर को एक रथयात्रा शुरू हुई. 31 अक्टूबर को इंदिरा गांधी की हत्या के कारण इसे रोकना पड़ा. राजीव गांधी के साथ यह समझौता फिर से जिंदा किया गया—शिवरात्रि, मार्च 1986 के पहले दरवाजों के ताले खुलने होंगे. 1 फरवरी 1986 को, एक दिखावटी अदालती आदेश के तहत, ताले खोल दिए गए. मुसलमानों को कोई नोटिस नहीं दी गई थी (देखें ए.जी.नूरानी; द आरएसएस; लेफ्टवर्ड; पृ.207-208). जैसा कि सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ने स्वीकार किया, पूरा आंदोलन ही राजनीतिक था.
वीएचपी ने यह बीड़ा अपनी स्थापना के बीस साल बाद, 7-8 अप्रैल 1984 को उठाया, जब नई दिल्ली के विज्ञान भवन में इसकी धर्म संसद बैठी और अयोध्या, मथुरा और वाराणसी की तीन मस्ज़िदों को हटाने की मांग की. बीजेपी ने, जिसकी चुनावों में हवा निकल चुकी थी, फटाफट इस मुद्दे को लपक लिया.
अदालतें राजनीति में नहीं घुसतीं, लेकिन कोई भी अदालत मस्ज़िद के बारे में 1964 तक आरएसएस की खामोशी को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती. सर्वोच्च न्यायालय कहता है, ‘साक्ष्यों के बयानों (हलांकि ये बयान मौखिक, बाद के और काट-छांट कर अनुरूप बनाए गए हैं) के आधार पर पूजा और प्रार्थना की एक पद्धति उभर कर आती है. हिंदू पहले चबूतरे पर राम की मूर्ति की पूजा करते थे उसके बाद वे तीन गुंबदों वाले ढांचे के भीतरी और बाहरी आंगन को विभाजित करने वाली लोहे की रेलिंग के बाहर से ही चढ़ावा चढ़ाकर अंदर स्थित ‘गर्भ गृह’ को प्रणाम करते थे” (पृ.629).
1885-86 के अदालत के निर्विवाद और प्रामाणिक अभिलेख के बावज़ूद यह मौखिक साक्ष्य स्वीकार किया गया है. मस्ज़िद पर तो कभी कोई दावा ही नहीं था. चबूतरा खुद ही राम का जन्मस्थान था.
अदालत ने कहा – ‘ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो विष्णु के अवतार के रूप में भगवान राम के जन्मस्थान में उनकी आस्था और विश्वास ही हिंदुओं के दावे की आधारशिला है. उनकी आस्था का आधार मुख्यतः अयोध्या के माहात्म्य के ये दो स्रोत हैं – (1) वाल्मीकि रामायण, स्कंद पुराण और रामचरितमानस जैसे धर्मग्रंथ जो भगवान राम को ईश्वर के रूप में वर्णित करते हैं, और जिनमें मुख्यतः अयोध्या (नगर, न कि मस्ज़िद) का उल्लेख है… और (2) यात्रा-वृत्तांत, गज़ेट और पुस्तकें.’
लेकिन राम के भक्त तुलसीदास अपने रामचरितमानस (1574) में मस्ज़िद के सवाल पर बिल्कुल मौन हैं. मस्ज़िद 1528 में बनी थी. तुलसीदास का लेखन कोई अकेला उदाहरण नहीं है. ग्यारहवीं सदी के गहदवाला शासक के एक शिलालेख में उसकी अयोध्या की तीर्थयात्रा का उल्लेख है, जिसमें उन स्थलों की सूची है जहां उसने अनुष्ठान और पूजा किया. इस सूची में राम जन्मभूमि नहीं है.
इस दौर के बड़ी संख्या में संस्कृत लेखन, जैसे लक्ष्मीधर, मित्र मिश्र, जिनप्रभा सूरि के ग्रंथों या भुशुंडि रामायण और पुराण जिनमें अयोध्या सहित बड़े तीर्थस्थलों का वर्णन है, उनमें कहीं भी राम जन्मभूमि का उल्लेख नहीं है. अयोध्या में सबसे महत्वपूर्ण तीर्थस्थल गोप्रतार तीर्थ था. जान पड़ता है कि अयोध्या माहात्म्य (चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी) पहला ग्रंथ था जिसने जन्मस्थान का निर्धारण किया और एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल के रूप में चिह्नित किया. लेकिन इस ग्रंथ में भी तीर्थयात्रियों को पूजा और चढ़ावे के बारे में विस्तृत निर्देशों में कहीं भी मंदिर का कोई संदर्भ नहीं है.
‘बाबरी मस्ज़िद किसी मंदिर के स्थान पर बनाई गई थी, यह अपेक्षाकृत नया विश्वास है. इसकी जड़ें उन्नीसवीं सदी में औपनिवेशिक शासकों द्वारा इस उप महाद्वीप के इतिहास की पुनर्रचना में थीं. इस पुनर्रचना में धार्मिक समुदायों के इतिहास और उनके आपसी मनमुटावों को अहम स्थान दिया गया. फैजाबाद का इतिहास भी कोई अपवाद नहीं था.’ (पणिक्कर, पृ.29)
अंग्रेजों द्वारा संकलित यात्रा-वृत्तांतों और विवरणिका पर निर्भरता सुरक्षित नहीं है; दोनों सुनी-सुनाई बातों पर निर्भर हैं. टेफेन्थैलर (1770), जिस पर उच्च न्यायालय निर्भर रहा है, और सर्वोच्च न्यायालय भी, उसका विश्वास था कि औरंगजेब ने मंदिर गिराया था और उस पर मस्ज़िद बनवा दिया था. जबकि 1885 में मुकदमा लड़ने वाले श्रद्धालु हिंदुओं ने ऐसा कुछ नहीं कहा. मूलतः, जैसा कि पालकीवाला ने इशारा किया है, कोई भी अदालत, खास कर के 1885 के मुकदमे की रोशनी में, ऐसी रचनाओं को न महत्व दे सकती है, न देना चाहिए.
साक्ष्य का असंगत मूल्यांकन
दुःख के साथ कहना पड़ता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने साक्ष्यों के मूल्यांकन के निर्णायक अवसर पर पैमाने का इस्तेमाल निष्पक्ष और न्यायपूर्ण तरीक़े से नहीं किया. 22 दिसंबर 1949 को मस्ज़िद में मूर्तियां स्थापित करने तथा 6 दिसंबर 1992 को मस्ज़िद गिराए जाने की घटनाओं पर मुसलमानों के पक्ष में इसके निष्कर्षों से आश्वस्त होने का कोई मतलब नहीं. निश्चय ही, इस पर किसी को कोई संदेह भी नहीं है.
मामला मस्ज़िद पर मुसलमानों के अधिकार का है. अदालत मानती है, ‘हिंदुओं ने 1877 में अंदर के आंगन से अपने निष्कासन के खिलाफ तात्कालिक और निरंतर प्रतिरोध जारी रखा.’ धन्य हो, कब ? क्योंकि अगला वाक्य है, ‘ब्रिटिश सरकार द्वारा बाहरी आंगन के उत्तर तरफ एक अन्य दरवाजा खोला गया, जिसका नियंत्रण और प्रबंध हिंदुओं को सौंपा गया.’ वही रास्ता चबूतरे को भी जाता है.
कोई भी सोच सकता है कि जब हिंदू मुकदमा कर सकते थे, जैसा कि उन्होंने 1885 में किया, तो वे मालिकाने के लिए मुकदमा उसके बाद भी कर सकते थे. अदालत ‘न्याय, समता और अच्छे अंतःकरण’ की बात करते हुए इस स्थापित पूर्वशर्त को नज़रअंदाज़ कर देती है कि समता की मांग करने वाले के अपने हाथ भी साफ होने चाहिए.
अभी दिल थाम कर रखिए. सर्वोच्च न्यायालय के पांच जज दावा करते हैं कि साक्ष्यों का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि ऐसे साक्ष्य मौजूद नहीं हैं जो यह बताएं कि उस मस्ज़िद का इस्तेमाल 1856-57 तक नमाज पढ़ने के लिए किया जाता रहा हो (पृ.791).’ यह मस्ज़िद फैजाबाद में थी, न दिल्ली में थी, न लखनऊ में. निश्चित रूप से यह दूसरे पक्ष का काम है कि 1528 में जिस काम के लिए वह मस्ज़िद बनाई गई थी, उसमें नमाज नहीं पढ़ी जाती थी, इसके साक्ष्य जुटाए. नमाज पढ़े जाने का कौन सा प्रमाण दिया जा सकता है ?
यह चीज 1964 तक हिंदुओं का कोई दावा न होने की स्थिति में मुस्लिमों के ‘प्रतिकूल क़ब्ज़े’ के अधिकार को प्रभावित करती है. कुछ पृष्ठ आगे (पृ.798) हमें बताया जाता है कि ‘ब्रिटिश सरकार द्वारा मस्ज़िद के रख-रखाव के लिए दी जा रही… वित्तीय मदद… यह सिद्ध करने के लिए नाकाफी है कि इस ढांचे का इस्तेमाल नमाज पढ़ने के लिए किया जा रहा था.’
क्या ब्रिटिश सरकार एक ऐसी मस्ज़िद के रख-रखाव के लिए पैसे खर्च कर रही थी जिसमें कोई नमाज ही नहीं पढ़ रहा था ? वास्तव में इस बात के साक्ष्य हैं कि मुसलमानों ने 1860 में चबूतरे के निर्माण का विरोध किया था और इसके लिए किराए का मांग किया था. अदालत ने टिप्पणी किया है कि ‘चबूतरा 1857 में बना था और मुसलमानों ने इसका विरोध किया था.’
पृष्ठ 852 पर सर्वोच्च न्यायालय ज्यादा जोर देकर कहता है कि, ‘कथित रूप से मस्ज़िद के 1528 में निर्माण से लेकर 1857 में औपनिवेशिक सरकार द्वारा रेलिंग के निर्माण के बीच 325 वर्षों में इस मस्ज़िद में पूजा या विवादित संपत्ति पर आधिकारिक नियंत्रण को सिद्ध करने वाला कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया है. इसलिए किसी साक्ष्य के अभाव में ऐसा निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि 1857 से पहले विवादित भूमि यहां के निवासी मुस्लिम समुदाय द्वारा पूजा के लिए इस्तेमाल की जाती थी.’
जजों ने यह भी माना कि ‘भगवान राम के हिंदू भक्तों ने विवादित संपत्ति पर अधिकार का लगातार दावा किया है.’ मुसलमानों द्वारा इस्तेमाल के साक्ष्य न होने वाले अंश को घृणास्पद होने की हद तक दुहराया गया है (पृ.858). प्रतिकूल क़ब्ज़े के उनके दावे को निष्फल करने के लिए ऐसा किया गया है.
पृष्ठ 882 पर चिंतन और धार पकड़ लेता है. ब्रिटिश सरकार द्वारा रेलिंग दोनों हिस्सों को अलग करने के लिए नहीं लगाई गई थी बल्कि ‘हिंदुओं के मस्ज़िद के अहाते के भीतर पूजा करने’ के दावे के कारण लगाई गई थी. हिंदुओं ने ‘अंदर के आंगन पर अपने अधिकार के निरंतर दावे’ किए. कितनी अजीब बात है कि फिर उन्होंने 1885 में या उसके बाद मस्ज़िद के लिए मुकदमा क्यों नहीं किया और 1964 तक, या यहां तक कि 1984 तक भी इस बारे में एक भी शब्द नहीं कहा. ‘रेलिंग के भीतर के क्षेत्र का मुसलमानों द्वारा इस्तेमाल विवादास्पद था.’ यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाने पर कि 1949 तक इस पर कोई विवाद नहीं था, निश्चित रूप से मुसलमानों का प्रतिकूल क़ब्ज़ा सिद्ध हो जाता.
पृष्ठ 891 पर अदालत कहती है, ‘1856-57 से पहले अंदर के आंगन के अहाते में पूजा से हिंदुओं का निष्कासन नहीं हुआ था’—यानि खुद मस्ज़िद के भीतर. क्या कभी भी किसी मुस्लिम द्वारा अपनी मस्ज़िद में किसी ग़ैर-मुस्लिम के प्रार्थना करने देने की रज़ामंदी की कल्पना आप कर सकते हैं ? इस्लाम के समूचे इतिहास में क्या ऐसा कोई दृष्टांत है ? अदालत ने मुसलमानों से कहा कि वे साबित करें कि 1528 से 1857 के बीच वहां नमाज पढ़ी जाती थी. हिंदुओं के इस दावे को बिना किसी विश्वसनीय सबूत के स्वीकार कर लिया गया है कि वे उसी मस्ज़िद में पूजा करते थे.
पृष्ठ 899 पर फैसले का लेखक इस बात को दुहराता है कि 1528 से 1856 के बीच ‘325 साल के दौरान” मस्ज़िद में नमाज पढ़ने के सबूत नहीं हैं. इसे भी पढ़ेः ‘1856 से पहले नमाज के मामले में मुसलमानों का ब्योरा स्पष्ट रूप से खामोश है, जबकि इसके विपरीत हिंदुओं के पास उनके द्वारा पूजा किए जाते रहने के ब्योरे मौजूद हैं.’ जबकि इनमें से किसी ब्योरे में हिंदुओं द्वारा मस्ज़िद के अंदर नहीं, केवल चबूतरे पर पूजा करने का उल्लेख है.
अदालत बार-बार इस बात पर जोर देती है, जो उचित भी है, कि ये दीवानी मुकदमे हैं जिनका फैसला ‘संभावनाओं की बहुलता’ के आधार पर होना है. लेकिन मस्ज़िद के पक्ष में जबर्दस्त सबूत मौजूद होने के बावजूद इस कसौटी को त्याग दिया गया है. 1994 में इसी अदालत द्वारा सर्वसम्मत निर्णय के बावजूद मौजूदा न्यायपीठ ने निर्णय दिया कि ‘जमीन के नीचे की संरचना के संबंध में पुरातात्विक निष्कर्ष इसके बारहवीं सदी का, हिंदू धर्म से संबंधित होने का संकेत देते हैं.’ यद्यपि मालिकाना इस सबूत के आधार पर नहीं तय किया गया.
पूरा फैसला इस तरह के रत्नों से जड़ित है, ‘ऐसे सबूत नहीं हैं…जो संकेत करते हों…कि नमाज हिंदुओं की मौजूदगी के बिना पढ़ी जाती थी’—धन्य हो ! मुस्लिमों के नमाज के वक़्त हिंदू मौजूद रहते थे ?! यह सदियों से विख्यात है कि नमाज बिल्कुल शांत माहौल में पढ़ी जाती है; इसी वजह से तो मस्ज़िद के सामने संगीत बजने को लेकर दंगे होते रहे हैं.
अदालत बार-बार कहती है कि ‘विवादित स्थल एक संयोजित समग्र इकाई’ है. मुसलमानों को पांच एकड़ आबंटित किया गया है (पृ. 923, पैराग्राफ 801). गुजराती कहावत है ‘गला कापी ने पगड़ी पेनाव’ (गला काट कर पगड़ी पहनाना).
अदालत जमीन का मालिकाना तय करने तक ही नहीं रुकी. वह आगे बढ़कर (पृ. 924, पैरा. 803) सरकार को एक न्यास बना कर उसे जमीन सौंपने का ‘निर्देश देती है.’ यह भी निर्देश देती है कि वह उस न्यास की रूपरेखा बना कर ‘न्यासियों की शक्तियों, जिनमें मंदिर का निर्माण भी शामिल हो’, को भी परिभाषित करे.
बेशक एक भव्य मंदिर बनेगा लेकिन यह दुनिया को, और भारतीयों को, क्या संदेश देगा ? अदालत 22 दिसंबर 1949 और 6 दिसंबर 1992 के अपराधों के प्रति काफी कृपालु है. ‘कथित’ शब्द का इस्तेमाल तत्परता से किया गया है. मूर्तियों की स्थापना ने ‘मुसलमानों के अनुसार मस्ज़िद को अपवित्र कर दिया.’ (पृ. 903)
विनम्र लोगों को ऐसी द्विअर्थी भाषा की जरूरत नहीं होती. 23 दिसंबर 1949 को अयोध्या थाने की सब इंसपेक्टर रानी दूबे द्वारा दर्ज एफआईआर में लिखा है, ‘माता प्रसाद के अनुसार (कागजात सं.7), जब सुबह लगभग 8 बजे मैं जनम भूमि पहुंचा तो मुझे जानकारी हुई कि 50-60 लोगों का एक समूह परिसर के गेट का ताला तोड़ कर या उसकी दीवार फांद कर एक सीढ़ी के साथ मस्ज़िद के अंदर घुस गया था और वहां अंदर, बाहरी तथा भीतरी दीवार पर श्री भगवान की और पेंट की हुई सीता, राम इत्यादि की मूर्तियां स्थापित कर दिया है…राम दास, राम शक्ति दास तथा 50-60 अन्य अज्ञात लोग मस्ज़िद में चोरी-चोरी घुस गए और इसकी पवित्रता को नष्ट कर दिया। ड्यूटी पर तैनात सरकारी कर्मचारी तथा अनेक अन्य लोग इसके गवाह हैं. अतः यह लिखा और दर्ज किया जाता है.’
25 अप्रैल 1950 को उत्तर प्रदेश राज्य के लिखित बयान, जिस पर फैजाबाद के डिप्टी कमिश्नर जे. एन. उगरा के दस्तखत हैं, के अनुसार ‘जिस संपत्ति पर मुकदमा है उसे बाबरी मस्ज़िद के नाम से जाना जाता है और यह लंबे समय से मुसलमानों द्वारा पूजा के उद्देश्य से इस्तेमाल होती रही है. यह श्री राम चंद्र जी के मंदिर के रूप में कभी इस्तेमाल में नहीं रही. 22 दिसंबर 1949 की रात को श्री राम चंद्रजी की मूर्तियां चोरी-चोरी और गलत तरीक़े से अंदर रख दी गई थीं.
चबूतरे पर मंदिर बनाने की योजनाओं पर 22 दिसंबर 1949 से पहले से काम कर रहे अफसरों की सोच बिल्कुल स्पष्ट थी. 10 अक्टूबर 1949 को सिटी मजिस्ट्रेट की दर्ज रिपोर्ट के मुताबिक – ‘मस्ज़िद और मंदिर अगल-बगल स्थित हैं और हिंदू और मुसलमान दोनों अपने अनुष्ठान और धार्मिक उत्सव मनाते हैं…हिंदू अवाम जहां भगवान राम चंद्र जी पैदा हुए थे वहां एक सुंदर मंदिर के लिए बहुत उत्सुक है.’ हिंसा न हो इस वजह से ये योजनाएं नाकाम कर दी गई थी. इस तरह से 1949 में भी हिंदू राम जन्मस्थान के रूप में चबूतरे पर ही मंदिर चाहते थे लेकिन 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने अलग निर्णय सुनाया है.
मोदी ने अयोध्या, अनुच्छेद 370 और मुस्लिम पर्सनल लॉ संबंधी आरएसएस-बीजेपी की मांगों की तिकड़ी को पूरा कराने के लिए क़ानूनी रास्ते का इस्तेमाल किया है लेकिन ये भी गुजर जाएगा. मुसलमानों को इस मामले में कामयाबी का मौका नहीं मिला. उन्हें वे पांच एकड़ भी अस्वीकार कर देना चाहिए और हिंदुत्व के बहुआयामी हमलों से मुकाबले पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. और ऐसा ही उन जजों को भी करना चाहिए.
हम एक विभाजित राजनीतिक व्यवस्था में रह रहे हैं और न्यायाधीश भी इस के भंवर में फंस चुके हैं. उन्हें महानतम न्यायाधीश लर्नेड हैंड, जो कभी सर्वोच्च न्यायालय नहीं गए, उनसे बेहतर मार्गदर्शन कहीं और से नहीं मिल सकता. उन्होंने कहा था कि न्यायपालिका को ‘इन विनाशकारी लड़ाइयों से परे रह कर संतुष्ट रहना होगा. अगर वे इससे बच कर नहीं रहे तो वे दो तरीक़े से अपनी स्वतंत्रता गंवा बैठेंगे. यदि वे सिद्धांतनिष्ठ किंतु ईमानदार हैं तो उन्हें रोक दिया जाएगा; किन्तु अगर वे हवा के रुख के हिसाब से अपने को ढालना सीख लेते हैं तो इससे ज्यादा दुर्भाग्य उनके लिए कुछ भी नहीं हो सकता. एक ऐसा समाज जिसे उसके न्यायाधीशों ने समर्पण की उम्मीद करना सिखा दिया है, वह समर्पण करा लेगा, और व्याख्या की खोल में समर्पण तो सड़न है. अगर न्यायाधीश इस चीज को मारना चाहते हैं जिसे वे प्यार करते हैं, तो वे करें, लेकिन कायरों की तरह से चुंबन से न मारें, बल्कि बहादुरों की तरह से तलवार से मारें.
‘अतः सार में कहा जाए तो मेरा विश्वास है कि हमारी व्यवस्था की सफलता के लिए शर्त है कि न्यायाधीश स्वतंत्र हों और मैं इस बात में यक़ीन करता हूं कि उनके सांवैधानिक कामकाज के लिए जरूरी है कि उनकी स्वतंत्रता को कमजोर न किया जाए. लेकिन मैं फिर जोर देकर कह रहा हूं कि इस कवच की कीमत यह है कि उन्हें उन बुनियादी संघर्षों में अंतिम निर्णय नहीं देना चाहिए जिनमें (शेक्सपियर के शब्दों में) ‘सही और गलत—जिसके अंतहीन टकरावों के बीच कहीं न्याय का बसेरा है.’ आप पूछ सकते हैं कि ऐसे में निष्पक्षता और ईमानदारी के उन बुनियादी सिद्धांतों का क्या होगा जिन्हें हमारा संविधान प्रतिष्ठित करता है; और क्या मैं इस बात पर संजीदगी से यकीन करता हूं कि समर्थन के अभाव में ये सिद्धांत महज सब्र की परामर्श बन कर रह जाएंगे ?
‘मैं नहीं समझता कि कोई बता पाएगा कि ऐसे में उन सिद्धांतों में बचेगा क्या; मैं नहीं जानता कि क्या वे केवल परामर्श बन कर रह जाएंगे; लेकिन इतना तो मैं जरूर ही जानता हूं—कि एक समाज जो इतना विभाजित हो जिसमें सब्र की भावना खत्म हो चुकी हो उसे कोई भी अदालत बचा नहीं सकती; और यह कि एक समाज जिसमें यह भावना फलती-फूलती है, उसे किसी अदालत को बचाने की जरूरत नहीं पड़ती; कि एक समाज जो अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ते हुए उन्हें अदालतों के मत्थे मढ़ दे उसमें उस भावना की परवरिश नहीं हो सकती, और अंततः वह भावना ही नष्ट हो जाती है’ (लेक्चर ऑन द कॉन्ट्रीब्यूशन फॉर इंडिपेंडेंट जुडीशियरी, 1941)
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मुसलमानों को उनकी मस्ज़िद का एक तिहाई दिया था. सर्वोच्च न्यायालय ने उनको वहां से बिल्कुल ही निकाल दिया है. इसने केंद्र सरकार को इस जमीन पर राम मंदिर बनाने के स्पष्ट निर्देश के साथ पूरी जमीन हिंदुओं को दे दिया है. पढ़ें – ‘जहां तक अंदर के आंगन का सवाल है, 1857 में ब्रिटिश सरकार द्वारा अवध के अधिग्रहण से पहले हिंदुओं द्वारा पूजा को सिद्ध करने के लिए जबर्दस्त संभावनाओं के साक्ष्य हैं. मुसलमानों ने ऐसे कोई साक्ष्य नहीं प्रस्तुत किए हैं जो संकेत देते हों कि अंदरूनी ढांचे पर, सोलहवीं सदी में इसके निर्माण से लेकर 1857 के बीच, उनका अनन्य कब्जा था…(मुसलमानों को 450 साल से भी ज्यादा पहले बनाई गई मस्ज़िद से गलत तरीक़े से वंचित कर दिया गया है.)
‘हमारे विचार से केंद्र सरकार को निर्देश देना जरूरी होगा कि (न्यास अधिनियम के) अनुच्छेद 6 और 7 के तहत इसे प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए एक न्यास अथवा किसी अन्य ढांचे की योजना बनाए जिसे मुकदमा सं. 5 के हुक्मनामे की शर्तों के तहत जमीन सौंप दी जाए. इस योजना में सभी आवश्यक प्रावधान शामिल होंगे जो उस न्यास अथवा ढांचे, जिसको जमीन सौंपने के लिए चुना गया है, को प्रबंध से संबंधित शक्तियां और सत्ता सौंप दी जाए.
‘केंद्र सरकार इस फैसले के तीन महीने के भीतर ‘एक्वीजिशन ऑफ सर्टेन एरिया ऑफ अयोध्या एक्ट, 1993′ के अनुच्छेद 6 और 7 के तहत निहित शक्तियों के अनुसार एक योजना का निरूपण करेगी. यह योजना अनुच्छेद 6 के तहत न्यासियों के बोर्ड सहित एक न्यास अथवा किसी अन्य उपयुक्त ढांचे के गठन पर विचार करेगी. केंद्र सरकार द्वारा तैयार की जाने वाली योजना न्यास अथवा उस ढांचे के कामकाज, जिसमें उसका प्रबंध तथा न्यासियों की शक्तियों, जिनमें मंदिर के निर्माण सहित सभी आकस्मिक एवं पूरक मामले शामिल हैं, के संबंध में सभी आवश्यक प्रावधान तैयार करेगी.’ (पृ.926)
अगर मस्ज़िद ध्वस्त न की गई होती तो क्या अदालत यह आदेश पारित करती या कर पाती ? 1949 और 1992 के दोनों घिनौने कृत्य थे और दंड संहिता के तहत अपराध थे. ‘क़ानून का शासन’ उपद्रवी भीड़ नहीं तोड़ती है, राज्य तोड़ता है. एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के शीर्षस्थ न्यायालय को कौन सा अधिकार है जिसके तहत वह सरकार को किसी समुदाय का पूजाघर बनवाने का निर्देश दे सके ? ऐसा निर्णय करते हुए सर्वोच्च न्यायालय एक दीवानी मुक़दमे में संपत्ति विवाद पर निर्णय की सीमा का अतिक्रमण करते हुए एक सांप्रदायिक विवाद की सीमा में घुस गया है और जिस तरह से 1976 के बंदी-प्रत्यक्षीकरण तथा कुछ अन्य मामलों में भी हुआ था, अपनी साख पर उसी तरह का धब्बा एक बार फिर लगा लिया है.
याद करिए, गांधी सोमनाथ मंदिर के निर्माण में राज्य के हस्तक्षेप के बिल्कुल खिलाफ थे. अपराध के परिणाम के तौर पर बनाया गया राम मंदिर भारत और दुनिया के समक्ष कैसा कौतुक प्रदर्शित करेगा ? श्री रामचंद्र जी मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में सदियों से नैतिक न्याय के शिखर माने जाते रहे हैं. लेकिन हमारे यहां एक भाजपा-पक्षधर लेखक गर्व से घोषित करता है कि ‘6 दिसंबर 1992 की घटनाओं के बिना राम मंदिर का निर्माण संभव नहीं था.’
माधव गोडबोले, जो एक श्रद्धालु हिंदू थे और उस दौर में केंद्रीय गृह सचिव थे, अलग तरीक़े से सोचते हैं – ‘दर्शन की अनुमति देने के पूर्व के फैसले के संबंध में प्रस्तावित जमीन के अधिग्रहण करने तथा कानून और व्यवस्था की समीक्षा के लिए मैं 29 दिसंबर 1992 को अयोध्या गया. मुझसे पहले दिल्ली से गए अन्य लोगों, जिन्होंने राम लला मंदिर के दर्शन और पूजा किया था, के विपरीत मैंने ऐसा नहीं किया, और न ही मैंने प्रसाद स्वीकार किया. हलांकि मैं एक निष्ठावान व्यक्ति हूं, मेरा विश्वास है कि धर्म इंसान का निजी मामला है. खैर, मैंने अयोध्या को काफी समझा और मेरा तहे दिल से यह विश्वास बन गया कि जिस मंदिर के निर्माण में इतना ज्यादा कपट और भीषण हिंसा शामिल हो उसमें भगवान कत्तई नहीं रह सकता था.’ (अनफिनिश्ड इनिंग्स, पृ. 406)
भारत की शानदार मंदिर स्थापत्य कला दुनिया के लिए ईर्ष्या का विषय है. एक मस्ज़िद को ध्वस्त करके बनाए गए मंदिर के बारे में उस दुनिया की प्रतिक्रिया क्या होगी ? जब सांप्रदायिक बुखार और अवसरवाद का उफान उतर जाएगा तब भारतीय लोग पीछे मुड़ कर ताकत और कपट द्वारा बनाए गए इस ढांचे को शर्म के साथ देखेंगे.
आने वाले वर्षों में किसी रोज, जब जुनून कम हो चुका होगा, भारतीय लोग 1949 और 1992 की घटनाओं को याद करेंगे, और उन्हें पवित्र करार देने वाले सर्वोच्च न्यायालय के 2019 के फैसले को भी उसी तरह याद करेंगे जैसे वे अदालत और उसके 1976 के आदेशों को याद करते हैं. तब इंदिरा गांधी की तानाशाही थी जिसने भय का माहौल बनाया था. 1978 में उनमें से एक जज ने भारतीय प्रेस क्लब में स्वीकार किया कि हम कायर थे. वह जज जस्टिस वाई. वी. चंद्रचूड़ थे.
- ए. जी. नूरानी
89 वर्षीय श्री ए.जी.नूरानी वरिष्ठ वकील, संविधान विशेषज्ञ और राजनीतिक टिप्पणीकार हैं। वे सर्वोच्च न्यायालय में और बॉम्बे उच्च न्यायालय में वकालत करते रहे हैं।
अनुवाद: शैलेश शरण शुक्ल
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