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दस्तावेज : अंग्रेजों ने कैसे भारतीय उद्योग धन्धों का सर्वनाश किया

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दस्तावेज : अंग्रेजों ने कैसे भारतीय उद्योग धन्धों का सर्वनाश किया

पं. सुन्दरलालपं. सुन्दरलाल (जन्म – 26 सितम्बर, 1886; मृत्यु – 8 मई, 1981)
पं. सुन्दरलाल महान देशभक्त और स्वतंत्रता सेनानी तथा गांधीवादी के रूप में विख्यात थे. ब्रिटिश शासन के जमाने में उन्होंने हलचल मचा देने वाली दो खण्डों में एक किताब लिखी थी ‘भारत में अंग्रेजी राज’, जिसे ब्रिटिश सरकार ने तुरंत जब्त कर लिया था. यहां हम उसी किताब के खण्ड – दो (पृष्ठ संख्या 882  से 928 तक) के एक अध्याय – ‘भारतीय उद्योग धन्धों का सर्वनाश‘ हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं, अंग्रेजों की साजिशों और उसके कार्यप्रणाली का बेहतरीन ऐतिहासिक दस्तावेज है, जिसका तुलनात्मक अध्ययन आज के मोदी सरकार की कार्यप्रणाली से की जा सकती है.

1947 की तथाकथित आजादी के बाद पं. सुन्दरलाल 1951 ई. में वे चीन जाने वाले भारतीय शिष्टमंडल के नेता भी थे. वहां से लौटकर उन्होंने चीन के संबंध में ‘आज का चीन’ प्रसिद्ध पुस्तक लिखी. अमरीकी साम्राज्यवाद के दबाव और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के उकसावे पर सन् 62 ई. में जो भारत-चीन सीमा की लड़ाई हुई, उस लड़ाई को रोकने के लिए पं. सुन्दरलाल ने बहुत-कुछ कोशिशें की थीं. सन् 62 की लड़ाई के दस वर्षों के बाद, 4 नवंबर 1972 ई. के ‘मेनस्ट्रीम’ पत्रिका में उन्होंने ‘भारत-चीन सीमा विवाद’ के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का उद्घाटन किया था, .

सन् 1813 का चार्टर एक्ट – लार्ड मिण्टो के बाद मार्किस ऑफ हेस्टिंग्स भरत का गवर्नर-जनरल हुआ, जिसे पहले अर्ल ऑफ मोयरा कहते थे. 14 अप्रैल सन् 1813 को इंग्लिस्तान से चल कर 11 सितम्बर सन् 1813 को हेस्टिंग्स भारत पहुॅंचा. गवर्नर जनरली के साथ-साथ कम्पनी की सेनाओं के कमाण्डर-इन-चीफ का पद भी हेस्टिग्स ही को दिया गया. 19वीें शताब्दी के उतरार्ध में तीन अंग्रेज गवर्नर जनरलों ने हिन्दोस्तान के अन्दर अंग्रेजी साम्राज्य को विस्तार देकर उसकी नींवों को पक्का किया. वेल्सली, हेस्टिंग्स और डलहौजी. इन तीनों में मार्किस ऑफ हेस्टिंग्स का समय एक दृष्टि से सब से अधिक महत्व का था. इस समय से ही भारत के प्राचीन उद्योग धन्धों को नष्ट करना और इंग्लिस्तान के उद्योग धन्धों को उन्नति देना अंग्रेजों की भारतीय नीति का एक विशेष अंग बन गया।

अंग्रेजों के भारत आने से हजारो वर्ष पूर्व भारत के बने हुए कपड़े तथा भारत का अन्य माल भारत के बने हुए हजारो जहाजो में लद कर चीन, जापान, लंका, ईरान, अरब, कम्बोडिया, मिश्र, अफ्रीका, इतालिया, मैक्सिको आदिक संसार के समस्त सभ्य देशों में जाकर बिकता था. अंग्रेजों के आगमन के सैकड़ों वर्ष बाद तक भी उद्योग धन्धों की दृष्टि से भारत संसार का सब से अधिक उन्नत देश था.

19वीें शताब्दी के प्रारम्भ तक, जब कि हिन्दोस्तान का बना हुआ तरह-तरह का माल और विशेषकर हिन्दोस्तान के बने हुए सुन्दर कपड़े इंग्लिस्तान में जाकर बिकते थे और खूब पसंद किए जाते थे, इंग्लिस्तान के बने हुए कपड़े भारत में लाकर बेचने का अंग्रेज इतिहासज्ञ लैकी लिखता है कि सन् 1688 की अंग्रेजी राज्यक्रान्ति के पश्चात् जब मलका मेरी अपने पति सहित इंग्लिस्तान आई तो ‘भारतवर्ष के रंगीन कपड़ों का शौक उसके साथ आया, और तेजी के साथ हर श्रेणी के अंग्रेजों में फैलता गया.’[1] और आगे चल कर लैकी लिखता है कि ’17वीं शताब्दी के अन्त में बहुत बड़ी संख्या में हिन्दोस्तान की सस्ती और नफीस कैलीको, मलमल और छीटें इंग्लिस्तान में आती थीं और इतनी पसंद की जाती थी कि इंग्लिस्तान के ऊनी और रेशमी कपड़ा अनाने वालों को उनसे बड़ा गहरा खतरा हो गया.’[2]

उस समय तक के भारत के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के विषय में प्रसिद्व अंग्रेज इतिहासज्ञ डॉक्टर रॉवर्टसन सन् 1817 में लिखता है –

‘हर युग में सोना और चांदी और विशेष कर चांदी दूसरे मुल्कों से हिन्दोस्तान में भेजी जाती थी जिससे हिन्दोस्तान को बहुत बड़ा लाभ था. पृथ्वी का कोई और भाग ऐसा नहीं है जहां के लोग अपने जीवन की आवश्यकताओं अथवा अपने ऐश आराम की चीजों के लिए दूसरे देशों पर इतना कम निर्भर हो. ईश्वर ने भारतवासियों को अत्यन्त उपयुक्त जलवायु दिया है, उनकी भूमि अत्यन्त उपजाऊ है, और इस पर वहॉं के लोग अत्यन्त दक्ष हैं, इन सब बातों के कारण हिन्दोस्तानी अपनी समस्त इच्छाओं को पूरा कर सकते हैं। नजीता यह है कि बाहरी संसार की उनके साथ सदा एक ही ढंग से तिजारत होती रही है, और उनके यहॉं के अद्भुत, प्राकृतिक तथा हाथ के बने हुए माल के बदले में कीमती घातें उन्हें दी जाती रही है.’[3]

यही लेखक एक दूसरे स्थान पर लिखता है कि हजरत ईसा के जन्म के समय से लेकर उन्नीसवीं सदी के शुरू तक भारत के साथ अन्य देशों का व्यापार बराबर इसी ढंग का बना रहा है.[4] 18वीं सदी के उत्तरार्ध तक इंग्लिस्तान के उद्योग धन्धे भारत के उद्योग धन्धों के मुकाबले में बहुत ही पिछड़े हुए थे. इंग्लिस्तान के कपड़ा बुननेवाले तथा अन्य कारीगर सुन्दरता, मजबूती, सस्तेपन अथवा निकासी, किसी बात में भी अपने माल की तुलना भारतीय माल के साथ न कर सकते थे. उस समय तक जो यूरोपियन व्यापारी भारत पहुंचे उन सबका केवल मात्र उद्वेश्य भारत का बना हुआ माल अपने देशों को ले जाना होता था. यही उद्वेश्य ईस्ट इण्डिया कम्पनी का भी था. पलासी के युद्ध के बाद से बंगाल की लूट के प्रताप अंग्रेजों को भारत का माल मुफ्त में अथवा कौड़ियों के दाम मिलने लगा, और बंगाल, कर्नाटक, अवध तथा अन्य प्रान्तों से खजाने लद-लद कर इंग्लिस्तान जाने लगे. इस अपूर्व लूट के कारण इंग्लिस्तान के पिछड़े हुए उद्योग धन्धों को उन्नति करने का अवसर मिला.[5] वेन्स नामक एक यूरोपियन लेखक लिखता है कि सन् 1760 तक इंग्लिस्तान मेें सूत कातने इत्यादि के यंत्र अत्यन्त प्रारम्भिक और अनघड़ थे. वाट नामक अंग्रेेज ने सन् 1768 में पहली बार भाप की शक्ति (स्टीम पावर) के उपयोग का आविष्कार किया और स्टीम इंजिन की ईजाद की. बंगाल की लूट के धन ने इस तरह की ईजादों को सफल होने का मौका दिया. ब्रुक्स ऐडम्स लिखता है कि – ‘यदि वाट 50 साल पहले पैदा हुआ होता तो वह और उसकी ईजाद दोनों साथ ही साथ मर जाते. सम्भवतः दुनिया के शुरू से अब तक कभी भी किसी भी पूंजी से इतना लाभ नहीं उठाया गया जितना कि भारतवर्ष की लूट से, क्योंकि लगभग 50 वर्ष तक इंग्लिस्तान का मुकाबला करने वाला कोई न था. 1760 और 1815 के बीच (इंग्लिस्तान के उद्योग धन्धों ने) बड़ी तेजी के साथ और आश्चर्यजनक उन्नति की.'[6]

अन्दाजा लगाया गया है कि पलासी से वाटरलू तक अर्थात् सन् 1757 से 1815 तक लगभग एक हजार मिलियन पाउण्ड अर्थात 15 अरब रूपया शुद्ध लूट का भारत से इंग्लिस्तान पहुॅंचा.[7] अर्थात् 58 वर्ष तक 25 करोड़ रूपया सालाना कम्पनी के मुलाजिम भारतवासियों से लूट कर अपने देश ले जाते रहे. निःसंदेह संसार के इतिहास में इस भयंकर लूट की दूसरी मिसाल नहीं मिल सकती. स्वंय भारत के अन्दर इस लूट के मुकाबले में महमूद गजनवी और मोहम्मद गोरी के प्रसिद्ध हमले केवल गुड़ियों के खेल थे. हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि उस समय के एक रूपए और आजकल के एक रूपए में कम से कम दस और एक अंतर है. इस भयंकर लूट ने ही ब्रुक्स ऐडम्स के अनेसार इंग्लिस्तान की नई ईजादों को फलने और वहॉं के कारखानों को जन्म लेने का अवसर दिया.

19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में यूरोप की अवस्था बदली. फ्रांस के जगत प्रसिद्ध विजेता नेपोलियन बोनापार्ट का प्रभाव लगभग समस्त यूरोपियन महाद्वीप पर फैल गया. महाद्वीप की प्रायः समस्त राजशक्तियों नेपोलियन के इशारे पर चलने लगीं. केवल इंग्लिस्तान, जिसे अपने भारतीय साम्राज्य के निकल जाने का डर था, नेपोलियन के विरूद्ध डटा रहा. नेपोलियन को गिराने के लिए यूरोप की विधि राजशक्तियों के साथ साजिशें करने में और यूरोप के शासकों को बड़ी-बड़ी रिशवतें देने में इंग्लिस्तान ने पानी की तरह धन बहाया. इंग्लिस्तान के पास उस समय इतना धन कहॉं था ? धन कमाने का मुख्य उपाय अंग्रेजों के हाथों में व्यापार था. नेपोलियन ने समस्त यूरोपियन महाद्वीप में इंग्लिस्तान से माल का आना जाना बन्द कर दिया, जिससे इंग्लिस्तान के व्यापार को बहुत बड़ी हानि पहुॅंची. नेपालियन का मुकाबला करने के लिए इस हानि को पूरा करना आवश्यक था और हानि के पूरा करने के लिए भारत के सिवा अंग्रेजों को दूसरा देश उस समय नजर न आ सकता था.

ईस्ट इण्डिया कम्पनी इंग्लिस्तान की पार्लिमेण्ट के कानून द्वारा कायम हुई थी। कम्पनी के अधिकारों को जारी रखने के लिए पार्लिमेण्ट को हर बीस वर्ष के बाद नया कानून पास करना पड़ता था, जिसे ’चारटर एक्ट’ कहते थे. सन् 1813 के ’चारटर एक्ट’ के समय से इंग्लिस्तान का बना हुआ माल भारतवासियों के सिर मढ़ने और भारत के प्राचीन उद्योग धन्धों का नाश करने के विधिवत् प्रयत्न शुरू हुए. यहॉं तक कि सन् 1813 के इस ’चारटर एक्ट’ को ही वर्तमान भारत की भयंकर दरिद्रता और असहायता का मूल कारण कहा जा सकता है.

कम्पनी के व्यापार के तरीके

किन्तु इस नए कानून और उसके परिणामों को पूरी तरह समझने से पहले यह आवश्यक है कि हम भारत के अन्दर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के उस समय तक के व्यापार के वास्तविक रूप को जान लें. कम्पनी अपने व्यापार में जिस तरह के अन्याय और अत्याचार करती थी उसकी दो चार प्रामाणिक मिसालें नीचे दी जाती हैं –

रिचर्डस नामक एक अंग्रेज ने सूरत की अंगेजी कोठी को रोनामचे कुछ घटनाऐं उद्धृत की हैं, जो उसने सन् 1813 में पुस्तकाकार प्रकाशित की, और जिनसे मालूम होता है कि सन् 1796 और सन् 1811 के बीच सूरत में कम्पनी के व्यापार का ढंग किस प्रकार का रहा. वह लिखता है –

‘जो कपड़ा सूरत से विलायत भेजा जाता था, वह अत्यन्त कड़े और निष्ठुर अत्याचारों द्वारा वसूल किया जाता था. जुलाहों को उनकी इच्छा और हित दोनों के विरूद्ध कम्पनी से काम का ठेका लेने और उस ठेके के अनुसार काम कर देने के लिए मजबूर किया जाता था. कभी – कभी जुलाहे इस प्रकार जबरन काम करने की अपेक्षा भारी जुर्माना दे देना अधिक पसंद करते थे. कम्पनी अपने नमूने के अनुसार अथवा बढ़िया माल के लिए जुलाहों को जो दाम देती थी उससे कहीं घटिया माल की लिए डच, पुर्तगाली, फ्रांसीसी और अरब सौदागरों से उन जुलाहों को ज्यादा दाम मिल सकते थे. कम्पनी का व्यापारी रेजिडेण्ट साफ कहता था कि कम्पनी का उद्वेश्य यह है कि कम अथवा निश्चित दामों पर थान खरीद कर समस्त कपड़े के व्यापार का अनन्य अधिकार कम्पनी अपने हाथों में रक्खे. इस उद्वेश्य को पूरा करने के लिए इतनी जबरदस्ती की जाती थी और इतनी अधिक सजाएॅं दी जाती थीं कि अनेक जुलाहों ने मजबूर होकर अपना पेशा तक छोड़ दिया. इस बात को भी रोकने के लिए कि कोई जुलाहा अपना पेशा न छोड़ने पाए, यह नियम कर दिया गया कि किसी जुलाहे को फौज में भरती न किया जाय. एक बार यह भी हुकुम दे दिया गया कि कोई जुलाहा बिना अंग्रेज अफसर की इजाजत के शहर के दरवाजों से बाहर न निकल सके. जब तक जुलाहे सूरत के नवाब की प्रजा थे, उन्हें दण्ड देने और उन पर दबाव डालने के लिए नवाब को बार-बार अर्जियां दी जाती थी. नवाब अंग्रेज सरकार के हाथों में केवल एक कठपुतली था. आस-पास के देशी नरेशों पर भी जोर दिया जाता था कि वे अपने इलाकों में इस बात का हुकुम दे दें कि कपड़ों के थान केवल कम्पनी के सौदागरों और दलालों के हाथ ही बेचे जाय और कदापि किसी दूसरे के हाथ न बेचे जाय. इसके बाद जब सूरत अंग्रेजी अमलदारी में मिला लिया गया तब इसी तरह के अन्यायों और अत्याचारों को जारी रखने के लिए बार-बार अंग्रेजी अदालतों का उपयोग किया जाता था. जब तक कम्पनी सूरत में कपड़े का व्यापार करती रही, कम्पनी के मुलाजिमों का काम करने का ढंग बिलकुल इसी तरह का रहा. ठीक इसी ढंग से दूसरी कोठियों का भी व्यापार चलता था.'[8]

लार्ड वेल्सली ने 19 जुलाई सन् 1814 को मद्रास गवरमेण्ट के नाम एक पत्र लिखा, जिससे विस्तृत पता चलता है कि मद्रास प्रान्त की समस्त अंग्रेजी कोठियों में भी ये सब अत्याचार ठीक इसी तरह जारी थे.

बंगाल में भी इसी तरह जुलाहों को जबरदस्ती पेशगी रूपए देकर पहले से उनका माल खरीद लिया जाता था. सन् 1713 में बंगाल की सरकार ने एक कानून पास किया, जिसके अनुसार कोई मनुष्य जिसे कम्पनी को कुछ भी धन देना हो अथवा जो किसी तरह कम्पनी के कपड़े के व्यापार से संबंध रखता हो, न कभी कम्पनी का काम छोड़ सकता था, न किसी दूसरे के लिए काम कर सकता था, और न स्वंय अपने ही लिए काम कर सकता था. इस छोटे से नियम ने देश भर में प्रत्येक जुलाहे को कठोर से कठोर अर्थाें में कम्पनी का आजीवन गुलाम बना दिया. यदि कोई कारीगर अपना वादा पूरा न कर सकता था तो उसे हवालात में बंद कर दिया जाता था और उसका तमाम माल कच्चा और तैयार कम्पनी के नाम जब्त कर लिया जाता था. इस बात की भी बिलकुल परवा न की जाती थी कि वह किसी दूसरे का भी कर्जदार है या नहीं.

बंगाल के जिन जिलों में कम्पनी की रेशम की कोठियां थीं, उनमें कम से कम सन् 1829 तक प्रजा के ऊपर इससे भी अधिक अत्याचार होते रहे. सूरत की कोठी का पूरा ढंग वहां वर्ता जाता था. इसके अतिरिक्त सन् 1827 में बंगाल भर में रेशम के दाम कुछ बढ गए. अंग्रेज शासकों ने कम्पनी के रेशम खरीदने वाले गुमाश्तों को हुकुम दिया कि, बिना रेशम के कारीगरों से पूछे अथवा उनके हित का ख्याल किए, कीमत कम कर दी जाय और नियत कर दी जाय.[9]

हेनरी गूगर नामक एक अंग्रेज बंगाल के अन्दर कम्पनी के रेशम के व्यापार के इस ढंग को इस प्रकार बयान करता है –

‘जिन जिलों में रेशम तैयार होती थी उनमें जगह – जगह पर कम्पनी के व्यापारी रेजिडेण्ट रहते थे. आम तौर पर ये रेजिडेण्ट जितनी ज्यादा रेशम कम्पनी के लिए जमा कर सकते थे उतनी ही ज्यादा उनकी आमदनी होती थी…

‘दोनों ओर से इस प्रकार कार्रवाई होती थी, – हर फसल (बन्द) से पहले दो तरह के लोगों को पेशगी रूपया दिया जाता था, एक काश्तकारों को जो रेशम के कीड़े पालते थे और दूसरे उन करीगरों को जो रेशम लपेटने के काम करते थे. इन कारीगरों की संख्या बहुत बड़ी थी और आस-पास के ग्रामों में अधिकतर इन्हीं की आबादी थी. काश्तकारों को पेशगी देकर कच्चा माल निश्चित कर लिया जाता था, कारीगरों को पेशगी देकर उनकी लपेटने की मेहनत के विषय में कम्पनी पहले से निश्चित हो जाती थी…’’

‘…मै एक इस तरह की घटना बयान करता हूं कि जिस तरह की घटनाएॅं प्रतिदिन हुआ करती थी.

‘एक हिन्दोस्तानी काश्तकार अपने उस फसल के पले हुए कीड़े मेरे हाथ बेचना चाहता है और मुझसे कुछ पेशगी ले जाता है. इसी तरह एक गॉंव भर के रेशम लपेटने वाले मिल कर मुझसे पेशगी ले जाते हैं (मुझसे मतलब यहॉं पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अतिरिक्त किसी बाहरी सौदागर से है). इस सौदे के पक्का हो जाने के बाद कम्पनी के रेजिडेण्ट के दो नौकर उस गॉंव में पहंॅंुचते हैं, एक के हाथ में रूपयों की एक थैली, दूसरे के हाथ में एक रजिस्टर – जिसमें रूपया पाने वालों के नाम लिखे जाते हैं. जिस आदमी को रूपया दिया जाता है, वह लेने से इनकार करता है और कहता है कि मैं पहले अमुक पुरूष के साथ सौदा पक्का कर चुका हूं, किन्तु उसकी एक नहीं सुनी जाती. यदि वह धन लेने से इनकार ही करता रहता है तो एक रूपया उसके मकान में फेंक दिया जाता है, उसका नाम रजिस्टर में लिख दिया जाता है, जो आदमी थैली लाया था उसकी गवाही करा ली जाती है और समझा जाता है कि जाब्ते की कार्रवाई हो गई. इस अन्याय द्वारा रेजिडेण्ट को अधिकार है कि वह मेरे दरवाजे से मेरा माल और मेरे कारीगरों का जबरदस्ती मुझसे छीन के जाय और वह छीन ले जाता है.

वह अन्याय यहां पर ही खत्म नहीं होता. यदि मैं अपने रूपए की वापसी के लिए उस आदमी पर अदालत में दावा करता हूं तो जज का फर्ज है कि मेरे हक में डिग्री देने से पहले रेजिडेण्ट से यह पता लगा ले कि कर्जदार को कम्पनी का तो कुछ रूपया नहीं देना है. यदि देना होता है तो पहले रेजिडेण्ट के हक में डिग्री मिलती है और मुझे अपने रूपए से हाथ धोना पड़ता है.'[10]

आगे चल कर हेनरी गूगर लिखता है कि माल की कीमत तय करने का पूरा अधिकार रेजिडेण्ट को होता है.

सिराजुद्दौला के समय से लेकर बंगाल के अन्दर कम्पनी का यह प्रयत्न बराबर जारी था कि देश का सारा व्यापार कम्पनी ही के हाथों में आ जाय. एक प्रसिद्ध अंग्रेज वोल्ट्स, जिसकी पुस्तक पलासी के केवल दस वर्ष के बाद प्रकाशित हुई थी, इस प्रयत्न के परिणामों को इस प्रकार बयान करता है –

‘इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए देश के गरीब कारीगरों और मजदूरों के साथ इस तरह के अत्याचार और अन्याय किए गए हैं, जिनका अनुमान तय नहीं किया जा सकता. वास्तव में इन करीगरों ओर मजदूरों के उपर कम्पनी ने इस तरह अपना अनन्य अधिकार जमा रक्खा है कि मानो वे सब कम्पनी के खरीदे हुए गुलाम हैं … गरीब जुलाहों को सताने के अनेक और असंख्य तरीके हैं और देश के अन्दर कम्पनी के एजेन्ट और गुमाश्ते इन तरीकों का प्रतिदिन उपयोग करते रहते हैं. उदाहरण के लिए जुर्माने करना, कैद कर देना, कोड़े मारना, जबरदस्ती इकरारनामे लिखवा लेना इत्यादि. इन सबका परिणाम यह है कि देश के अन्दर कपड़ा बुनने वालों की संख्या बेहद कम हो गई है … इसलिए कपड़ा बुनने वाले अपनी मेहनत का उचित मूल्य लेने की इच्छा से प्रायः निजी तौर पर अपना कपड़ा दूसरों के हाथ बेचने की कोशिश करते हैं … इस पर अंग्रेज कम्पनी का गुमाश्ता जुलाहे पर निगाह रखने के लिए अपने सिपाही नियुक्त कर देता है और बहुधा ज्योंहि कि थान पूरा होने के करीब आता है, ये सिपाही थान को जबरदस्ती करघे में से काट कर निकाल लेते हैं … देश भर के अन्दर हर पेशे के कारीगरों के साथ हर किस्म का अत्याचार प्रतिदिन बढ़ता जाता है, यहॉं तक कि बुनने वाले यदि अपना माल किसी को बेचने का साहस करते हैं और दलाल और पैकार यदि इस तरह की बिक्री में सहायता देते हैं अथवा उससे आंख बचा जाते हैं तो कई बार ऐसा हो चुका है कि कम्पनी के एजेन्ट उन्हें पकड़ कर कैद कर लेते हैं, उनके बेड़ियां. और हथकड़ियां डाल देते हैं, उनसे बड़ी – बड़ी रकमें जुर्माने की वसूल करते हैं, उन्हें कोड़े लगाते हैं और अत्यंत लज्जाजनक तरीकों से उनसे वह चीज भी छीन लेते हैं जिसे वे सबसे अधिक मूल्यवान समझते हैं, अर्थात् उन्हें जाति भ्रष्ट कर देते हैं … गुमाश्तों द्वारा इस तरह के अत्याचार सिराजुद्दौला के समय से अंग्रेज कम्पनी की सत्ता बढने के साथ साथ शुरू हुए … सिराजुद्दौला के समय में जंगलवादी के इलाके के आस- पास से कपड़ा बुनने वालों के सात सौ से उपर कुटुम्बों ने इस तरह के अत्याचारों के कारण अपना पेशा और अपना देश दोनों को एक साथ छोड़ दिया … बंगाल में लॉर्ड क्लाईव के पिछले शासन में इस जोश में कि कम्पनी की काफी रेशम की आमदनी को बढ़ाया जाय, रेशम के लपेटने वालों को इतना अधिक सताया गया कि मानव समाज के पवित्रतम नियमों का घोर उलंघन किया गया … [11]

विद्वान लेखक ने सम्भवतः लज्जा अथवा शालीनता के विचार से यह साफ नहीं लिखा कि बंगाल के बुनने वालों को किस प्रकार ‘जातिभ्रष्ट’ किया जाता था अथवा ‘मानव समाज के’ किन ‘पवित्रतम नियमों’ का और किस प्रकार ‘घोर उलंघन’ किया जाता था.

एक दूसरे स्थान पर यही लेखक लिखता है –

‘यदि हिन्दोस्तानी जुलाहे उतना काम पूरा नहीं कर सकते जितना कम्पनी के गुमाश्ते जबरदस्ती उन पर मढ़ देते हैं, तो कमी को पूरा कराने के लिए उनका माल असबाव लेकर उसी जगह नीला कर दिया जाता है, और कई रेशम के लपेटने वालों के साथ इतना अधिक अन्याय किया गया है कि इस तरह की मिसालें देखी गई है जिनमें उन्होंने स्वंय अपने अंगूठे काट डाले, ताकि कोई उन्हें रेशम लपेटने के लिए विवश न कर सके.’[12]

रेशम लपेटने का काम बिना अंगूठे के नहीं हो सकता.

एक और स्थान पर यही लेखक लिखता है कि रैयत को एक ओर कम्पनी के व्यापारी गुमाश्ते माल के लिए इस तरह दिक करते थे जिससे वे अपनी भूमि को ठीक रखने और सरकारी लगान तक देने के असमर्थ हो जाते थे, दूसरी ओर लगान वसूल करने वाले अफसर उन्हें लगान के लिए सताते थे, ‘और अनके ही बार ऐसा हुआ है कि इन निर्दय लुटेरो ने उन्हें मजबूर कर दिया कि वे लगान अदा करने के लिए या तो अपने बच्चों को बेच डालें अथवा देश छोड़ कर भाग जायं. [13]

18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तथा 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के कम्पनी के इन अत्याचारों के विषय में ही सुप्रसिद्ध अंग्रेज तत्ववेत्ता हरबर्ट स्पेन्सर ने लिखा है –

‘कल्पना कीजिए कि उन लोगों के कारनामें कितने काले रहे होंगे जब कि कम्पनी के डायरेक्टरों ने इस बात को स्वीकार किया कि – ’भारत के आन्तरिक व्यापार में जो असंख्य धन कमाया गया है, वह सब इस तरह के घोर अन्यायों और अत्याचारों द्वारा प्राप्त किया गया है जिनसे बढ़ कर अन्याय ओर अत्याचार कभी किसी देश अथवा किसी जमाने में भी सुनने में न आए होंगे.'[14]

उपर के उद्धरणों से जाहिर है कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन-काल में कमपनी की भारतीय प्रजा के जान माल, उनकी मानमर्यादा अथवा उनकी ’पवित्रतम भावनाओं’ किसी का अणुमात्र भी मूल्य न था. निःसंदेह संसार के किसी भी देश और किसी भी युग में प्रजा की वह भयंकर दुर्दशा न हुई होगी जो कम्पनी के शासन-काल में भारतीय प्रजा की हुई.

सन् 1813 की नई व्यापारिक नीति

अब हम फिर सन् 1813 के नए कानून की ओर आते हैं. इस कानून के पास होने से पहले भारत तथा इंग्लिस्तान के बीच व्यापार करने का अनन्य अधिकार ईस्ट इण्डिया कम्पनी को प्राप्त था. सन् 1813 के कानून में सत्र से पहली बात यह की गई कि यह अनन्य अधिकार कम्पनी से छीन लिया गया और भारत के साथ व्यापार करने का दरवाजा प्रत्येक अंग्रेज व्यापारी और प्रत्येक अंग्रेज व्यक्ति के लिए खोल दिया गया. इसका अर्थ यह था कि भारतीय प्रजा के ऊपर अत्याचारों के करने और उन्हें इस प्रकार लूटने का अधिकार अब आम तौर पर सब अंग्रेजों को दे दिया गया.

इसके अतिरिक्त सन् 1813 में ही पहली बार यह तय हुआ कि भारत के उद्योग धन्धों को नष्ट किया जाय, इंग्लिस्तान के उद्योग धन्धों को बढ़ाया जाय ओर इंग्लिस्तान का बना हुआ माल जबरदस्ती भारतवासियों के सिर मढ़ा जाय. जिस समय इस विषय पर बहस हो रही थी पालमेण्ट के एक सदस्य मिस्टर टीरने ने पार्लिमेण्ट में व्याख्यान देते हुए स्पष्ट कहा-

‘आम असूल अब से यह होगा कि इंग्लिस्तान अपने यहां का बना हुआ तमाम माल जबरदस्ती भारत में बेचे और उसके बदले में हिन्दोस्तान की बनी हुई एक भी चीज न लें. यह सच है कि हम रूई अपने यहां आने देंगे, किन्तु जब हमें यह पता लग गया है कि हम मशीनों के जरिए हिन्दोस्तानियों की निरस्त सस्ता कपड़ा चुन सकते हैं तो हम उनसे यह कहंेगे कि ’तुम बुनने का काम छोड़ दो, हमें कच्चा माल दो और हम तुम्हारे लिए कपड़ा बुन देंगे.’ सम्भव है कि व्यापारियों और कारीगरों की दृष्टि से यह बहुत ही स्वाभाविक सिद्धान्त हो. किन्तु इसमें फिलासफी छांटना अथवा इस असूल के समर्थकों को विशेष तौर पर हिन्दोस्तान के हितचिन्तक गिनना जरा ज्यादती है. यदि हिन्दोस्तान के दोस्त कहने के बजाय हम अपने तई हिन्दोस्तान के दुश्मन कहें तो तमाम हिन्दोस्तानी कारीगरी के नाश करने की इस सलाह से बढ़ कर दुश्मनी की सलाह और हम हिन्दोस्तान को क्या दे सकते हैं ?’[15]

निःसंदेह मिस्टर टीरने की स्पष्टवादिता सराहनीय है. केवल एक वाक्य ऊपर के उद्धरण में असत्य था. वह यह कि ‘हम मशीनों के जरिए हिन्दोस्तानियों की निस्बत सस्ता कपड़ा बुन सकते हैं.’ आगे की घटनाओं से साफ जाहिर हो गया कि ‘मशीनों’ और ‘भाप’ की मदद से भी इंग्लिस्तान के कारीगर भारत के कारीगरों के मुकाबले में सस्ता अथवा अच्छा कपड़ा न बुन सकते थे, और यदि अनसुने महसूलों, अन्यायों, बहिष्कारों और असंख्य राजनैतिक हथकण्डों द्वारा भारत के उद्योग धन्धों को नष्ट न किया गया होता तो माप की ताकत के लिए इंग्लिस्तान के कपड़े के कारखानों को चला सकता सर्वथा असम्भव था. अब देखना यह है कि किन-किन उपायों द्वारा अंग्रेजों ने उस समय अपनी इस नीति को सफल बनाया.

सन् 1813 का कानून पास होने से पहले पार्लिमेण्ट की दो खास (one blank page here, we edit some time ago)

  1. और काम करने के लिए धन की सहायता और अन्य विशेष सुविधाएं दी जाय.
  2. भारतीय कारीगरों पर हर तरह का दबाव डाल कर उनकी कारीगरी के रहस्यों का पता लगाया जाय, जैसे थानों को धोना, रंगना इत्यादि, और इंग्लिस्तान के व्यापारियों और करीगरों को उन रहस्यों की सूचना दी जाय. तथा प्रदर्शिनियों के जरिए भारतवासियों की आवश्यकताओं और उनकी कारीगरी के भेदों का पता लगाया जाय.
  3. माल के लाने ले जाने के लिए भारत में रेलें जारी की जाय.
  4. अपनी मण्डियों को पक्का करने के लिए ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य को विस्तार दिया जाय और भारतवर्ष को इंग्लिस्तान का गुलाम बना कर रक्खा जाय.

सन् 1830-32 में पार्लिमेण्ट की ओर से एक कमेटी नियुक्त की गई, जिसका उद्देश्य यह तहकीकात करना था कि पूर्वाेक्त उपाय कहां तक सफल हुए और सन् 1814 से उस समय तक भारत के अन्दर इंग्लिस्तान का व्यापार कहां तक बढ़ा. कमेटी के सामने अनेक गवाहों के बयान हुए. पहला प्रश्न जो प्रत्येक गवाह से किया गया वह यह था कि सन् 1814 से अब तक भारत के अन्दर महसूल की तबदीलियों द्वारा अंग्रेज व्यापारियों को व्यापार के लिए क्या – क्या सुविधाएं दी जा चुकी हैं ? इस प्रश्न के कुछ उŸारों से प्रस्तुत विषय पर खासी रोशनी पड़ती है.

1. अंग्रेजी माल पर महसूल माफ

लारपैण्ट नामक एक अंग्रेज गवाह ने इस प्रश्न के उत्तर में कहा –

‘इंग्लिस्तान का बना हुआ जो माल हिन्दोस्तान के अन्दर आता है, उस पर महसूल घटा कर कुल कीमत पर 2 1/2 (2.5 – editor) फीसदी महसूल कर दिया गया है, और बहुत से खास- खास तरह के माल पर बिलकुल ही महसूल उड़ा दिया गया है.

*        *        *

‘चुंगी की दर बदल दी गई है और कई चीजों पर चुंगी उड़ा दी गई है.’

‘जो अंग्रेज कहवा (कॉफी) या नील का काम करना चाहते हैं, उन्हें 60 साल के पट्टे पर जमीनें मिलने की इजाजत दे दी गई है, इत्यादि.’

एक दूसरे अंग्रेज गवाह सलीवन ने बयान किया –

‘सन् 1814 में व्यापार का द्वार खुल जाने के समय से रूई के उपर महसूल बिलकुल हटा लिया गया है, जो रूई हिन्दोस्तान से चीन भेजी जाती है उस पर महसूल घटा कर पांच फीसदी कर दिया गया है, और जो रूई हिन्दोस्तान से इंग्लिस्तान भेजी जाती है उस पर महसूल बिलकुल नहीं लिया जाता.’

का्रॅफर्ड नामक गवाह ने बयान किया –

‘महसूल के मामले में सन् 1813 के कानूनू में यह बात दर्ज कर दी गई थी कि बिना इंग्लिस्तान के अधिकारियों से पूछे हिन्दोस्तान में बाहर के माल पर कोई नया महसूल न लगया जाय. इसी के अनुसार पुराने महसूलों को कम करके और उनकी एक सूची तैयार करके इंग्लिस्तान से हिन्दोस्तान भेजी गई और हिन्दोस्तान की सरकार ने सन् 1815 में उसी को कानून का रूप दे दिया इत्यादि.’

ग्लासगो चैम्बर ऑफ कॉमर्स ने अपने बयान में लिखा –

‘उनी कपड़ों, धातुओं और जहाजी समान के ऊपर हिन्दोस्तान में बिलकुल महसूल नहीं लिया जाता, जिससे निःसंदेह इंग्लिस्तान के इन चीजों के व्यापार को बहुत बड़ी सुविधा प्राप्त हुई है.’

2-भारतीय माल पर निषेधकारी महसूल

दूसरा उपाय जो भारतीय उद्योग धन्धों को नष्ट करने का किया गया वह इंग्लिस्तान के अन्दर भारत के बने हुए माल पर जबरदस्त महसूल लगा देना था, ताकि भारत का माल इंग्लिस्तान में इंग्लिस्तान के बने हुए माल से सस्ता न बिक सके.

सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ लैकी लिखता है कि भारत के बने हुए कपड़े उन दिनों इतने सुन्दर, सस्ते और मजबूत होते थे कि 18वीं शताब्दी के शुरू ही में इंग्लिस्तान के कपड़ा बुनने वालों को हिन्दोस्तान के कपड़ों के मुकाबले में अपने रोजगार के नष्ट हो जाने का डर हो गया. उसी समय से इंग्लिस्तान की पार्लिमेण्ट ने कानून बना कर कई तरक के भारतीय कपड़ों का इंग्लिस्तान आना बन्द कर दिया और दूसरे कई तरह के कपड़ों पर भारी महसूल लगा दिए. यह उपाय भी काफी साबित न हुए तब लैकी के बयान के अनुसार सन् 1766 में इंग्लिस्तान के अन्दर यदि कोई अंग्रेज स्त्री हिन्दोस्तानी कपड़े को पोशाक पहनती थी तो उसे राजदण्ड दिया जाता था.[16]

सन् 1813 में पार्लिमेण्ट की एक कमेटी के सामने गवाही देते हुए रॉबर्ट ब्राउन नामक एक अंग्रेज व्यापारी ने, जो हिन्दोस्तान से सूती कपड़े मंगाया करता था, बयान किया कि उन दिनों हिन्दोस्तान से जाने वाले कपड़ों पर इंग्लिस्तान में दो तरह का महसूल लिया जाता था. एक, अंग्रेजी बन्दरगाहों में माल के जहाजों से उतरते ही और दूसरे इंग्लिस्तान निवासियों के उपयोग के लिए इंग्लिस्तान की मण्डियों में माल के पहुंचने के समय. इसके अतिरिक्त तमाम हिन्दोस्तानी माल को तीन श्रेणियों में बांट दिया गया था. पहली श्रेणी में मलमल इत्यादि थीं, जिन पर बन्दरगाह में उतरते समय 10 फीसदी और इंग्लिस्तान की मण्डियों में जाते समय 27 1/2 (27.5 – editor) फीसदी महसूल लिया जाता था. दूसरी श्रेणी में कैलिको (कालीकट का एक खास कपड़ा) इत्यादि थे जिन पर बन्दरगाहों में उतरते समय 3 1/2 (3.5 – editor) फीसदी महसूल लिया जाता था. तीसरी श्रेणी में वे कपड़े थे जिनका बेचना या पहनना इंग्लिस्तान के अन्दर जुर्म समझा जाता था. इस तरह के माल पर बन्दरगाहों में उतरते समय 68 1/2 फीसदी महसूल लिया जाता था. और व्यापारियों के लिए आवश्यक था कि उस माल को फौरन दूसरे मुल्कों को भेज दें. इतनी कड़ाई के होते हुए भी दूसरी श्रेणी के कपड़े 72 फीसदी महसूल देने के पश्चात् उस प्रकार के अंग्रेजी कपड़ों के मुकाबले में इंग्लिस्तान के बाजारों के अन्दर 60 फीसदी तक कम दाम में मिलते थे.

अर्थात आज से लगभग सौ वर्ष पहले तक भारत में जो कपड़ा हाथ के सूत से और हाथ के करघों पर तैयार होकर 100 रूपए से कम में मिल सकता था, उतना सुन्दर और उतना मजबूत कपड़ा इंग्लिस्तान के पुतलीघर वाले भाप और मशीनों की मदद से 450 रूपए में भी तैयार करके न बेच सकते थे.

हिन्दोस्तान से उन दिनों तरह – तरह के सूती, ऊनी और रेशमी कपड़ों के अतिरिक्त हाथ की छड़ियां जिन पर सोने चांदी की मूठें और तरह – तरह का काम होता था, चीनी मिट्टी के बरतन, चमड़े और लकड़ी की चीजें, शराब, अरक, बारनिश का काम, नारियल का तेल, सींग, रस्सियां, चाय, अरारूट, चटाइयां, चीनी, साबुन, कागज इत्यादि अनेक तरह का माल इंग्लिस्तान जाता था. सन् 1813 से 1832 तक इंग्लिस्तान की आवश्यकतानुसार बराबर इंग्लिस्तान के अन्दर इन तमाम चीजों पर महसूल घटना बढ़ता रहा. कई तरह के भारतीय कपड़ों, खास कर रेशमी रूमालों और रेशम की बनी हुई चीजों का बिकना इंग्लिस्तान में सन् 1826 तक कानूनन बन्द रहा. बहुत सी चीजों पर 100 फीसदी से भी ज्यादा महसूल लिया जाता था. कई पर 600 फीसदी तक और रिकर्ड नामक एक अंग्रेज ने सन् 1832 की पार्लिमेण्ट की कमेटी के सामने बयान किया कि किसी चीज पर 3,000 फीसदी सैकड़ा तक महसूल लिया जाता था. अर्थात् एक रूपए की चीज पर तीस रूपए महसूल. सारांश यह कि जब कि एक ओर इंग्लिस्तान के बने हुए माल पर हिन्दोस्तान में अधिक से अधिक ढाई फीसदी महसूल लिया जाता था और बहुत सा माल बिना महसूल अपने दिया जाता था, दूसरी और इंग्लिस्तान के अन्दर हिन्दोस्तान के माल पर भयंकर कानूनी तथा सामाजिक बहिष्कार जारी था.

इतिहास लेखक बिलसन इंग्लिस्तान के कपड़े के व्यापार की उन्नति और भारत के कपड़ा बुनने के धन्धे के इस प्रकार सर्वनाश के विषय में लिखता है –

‘हमारे सूती कपड़े के व्यापार का यह इतिहास इस बात की एक शोकप्रद मिसाल है कि हिन्दोस्तान जिस देश के आधीन हो गया था उसने हिन्दोस्तान के साथ किस तरह अन्याय किया. गवाहियों में यह बयान किया गया था कि सन् 1813 तक हिन्दोस्तान के सूती ओर रेशमी कपड़े इंग्लिस्तान के बाजारों में इंग्लिस्तान के बने हुए कपड़ों के मुकाबले में 50 फीसदी से 60 फीसदी तक कम दाम पर फायदे के साथ बिक सकते थे. इसलिए यह आवश्यक हो गया कि हिन्दोस्तान के माल पर 70 और 80 फीसदी महसूल लगाकर अथवा उसका इंग्लिस्तान में आना सर्वथा बन्द करके इंग्लिस्तान के व्यापार की रक्षा की जाय. यदि ऐसा न होता यदि इस तरह की आज्ञाएं न दी गई होती और भारत के माल पर इस तरह के भारी निषेधकारी महसूल न लगाए गए होते, तो पेजली और मैनचेस्टर के पुतलीघर खुलते ही बंद हो गए होते और फिर भाप की ताकत से भी दोबारा न चलाए जा सकते. इन पुतलीघरों का निर्माण भारतीय कारीगरों के बलिदान पर किया गया.

‘यदि भारत स्वाधीन होता तो वह इसका बदला लेता, इंग्लिस्तान के बने हुए माल पर निषेधकारी महसूल लगाता और इस प्रकार अपने यहां की कारीगरी को सर्वनाश से बचा लेता. किन्तु उसे इस प्रकार की आत्मरक्षा की इजाजत न थी. वह विदेशियों के चंगुल में था. इंग्लिस्तान का माल बिना किसी तरह का महसूल दिए जबरदस्ती उसके सिर मढ दिया गया और विदेशी कारीगरों ने एक ऐसे प्रतिस्पर्धी को दवा कर रखने और अंत में उसका गला घोंट देने के लिए जिसके साथ वे बराबरी की शर्ताें पर मुकाबला न कर सकते थे, राजनैतिक अन्याय के शस्त्र का उपयोग किया.'[17]

इंग्लिस्तान और यूरोप की मण्डियां हिन्दोस्तान के बने हुए माल के लिए निषेधकारी महसूलों द्वारा बंद कर दी गई. इंग्लिस्तान के बने हुए माल की बिक्री के लिए भारत में विशेष सुविधाएं कर दी गई. किन्तु असंख्य भारतीय कारीगरियों के सर्वनाश के लिए यह भी काफी न था. भारतवर्ष की विशाल मण्डियां अभी तक भारत के बने हुए माल की खपत के लिए मौजूद थीं. भारत की इन मण्डियों में इंग्लिस्तान के बने माल के लिए जगह बनाने के वास्ते उनमें भारत ही के बने हुए माल का पहुंच सकना और बिक सकना असम्भव कर देना आवश्यक था. इसके लिए मुख्य उपाय यह किया गया कि भारतवर्ष के अन्दर चुंगी के पुराने तरीकों को बदला गया और चुंगी का एक नया नाशकारी महकमा कायम किया गया.

3-नई चुंगी

फ्रेड्रिक शोर नामक उस समय के एक अंग्रेज विद्वान ने चुंगी के पुराने हिन्दोस्तानी तरीके और इसके बाद के अंग्रेजी तरीके की तुलना करते हुए लिखा है कि चुंगी वसूल करने का पुराना हिन्दोस्तानी तरीका अर्थात मुगलों या नवाबों के समय का तरीका यह था कि हर चालीस, पचास अथवा साठ मील के उपर चुंगीघर बने हुए थे. हर चुंगीघर को पार करते समय व्यापारी को अपने माल पर चुंगी देनी पड़ती थी जो एक लदे हुए बैल पर एक खास रकम, टट्टू पर उससे कुछ ज्यादा, ऊंट पर और कुछ ज्यादा, बैलगाड़ी पर उससे कुछ अधिक इत्यादि, इसी हिसाब से नियत थी. माल की कीमत या किस्म से चुंगी का कोई संबंध न था. इसके अतिरिक्त चु्रंगी इतनी हलकी होती थी कि कोई उससे बचने की कोशिश न करता था. न किसी को माल खोल कर देखने की आवश्यकता होती थी, न किसी ’पास’ या ’रवन्ने’ की जरूरत, और न किसी व्यापारी को कोई कष्ट होता था. जो व्यापारी अपना माल अधिक दूर ले जाता था उसे हर 50 या 60 मील के बाद वही बंधी हुई रकम देनी होती थी.

इसकी जगह जो नया तरीका अंग्रेजों ने जारी किया, वह यह था –

चुंगीघरों के अलावा देश भर में अनेक ’चौकियां’ बना दी गई , जिनमें हर व्यापारी के तमाम माल को खोल कर देखा जाता था. चुंगीघर में व्यापारी से एक बार चुंगी ले ली जाती थी और उसे एक ’पास’ या ’रवन्ना’ दे दिया जाता था ताकि उस व्यापारी को दोबारा कहीं चुंगी न देनी पड़े. माल की कीमत ओर किस्म के अनुसार हर तरह के माल पर अलग- अलग चुंगी रक्खी गई. चाहे व्यापारी को अत्यंत दूर जाना हो और चाहे अत्यंत निकट, किन्तु चुंगी की रकम वह नियत की गई जो इससे पहले दूर से दूर जाने वाले व्यापारी को रास्ते भर के तमाम चुंगीघरों पर मिला कर देनी पड़ती थी. इस प्रकार पहली बात तो यह हुई कि देश के आंतरिक व्यापार पर चुंगी पहले की अपेक्षा कई गुनी बढ़ गई.

दूसरी बात इस नए तरीके में ’रवन्ना थी. व्यापारी के किसी एक स्थान से चलते समय उसके तमाम माल पर एक रवन्ना दिया जाता था. यदि कहीं पर व्यापारी अपना आधा माल बेच दे तो बचे हुए माल के लिए उसे पास के चुंगीघर पर जाकर, पिछला रवन्ना दिखला कर, माल का रवन्ने के साथ मिलान करवाकर और आठ आने सैकड़ा नया महसूल देकर आवश्यकतानुसार एक या अधिक नए रवन्ने ले लेने होते थे. यदि एक साल तक माल का कोई हिस्सा न बिका हो तो भी बारह महीने के बाद हर रवन्ना रद्दी हो जाता था. व्यापारी के लिए जरूरी था कि बारह महीने खत्म होने से पहले किसी पास के चुंगीघर पर जाकर पिछले रवन्ने से अपने माल का मिलान करवा कर और आठ आने सैकड़ा नया महसूल देकर नया रवन्ना हासिल कर ले, अन्यथा बारह महीने समाप्त होने के बाद उसे अपने समस्त माल पर नए सिरे से चुंगी देनी पड़ती थी.

तीसरी और सब से बढ़ कर बात इस नए तरीके में तलाशी की ’चौकियां’ थीं. ये चौकियां देश भर में जगह जगह बना दी गई थी. चौकियों के छोटे से छोटे मुलाजिम को किसी भी माल को रोक लेने, उसे खुलवा कर देखने और रवन्ने से मिलान करने आदि का अधिकार था. यदि माल रवन्ने के मुलाबिक न होता था अथवा व्यापारी के पास रवन्ना न होता था तो इन चौकियों पर सारा माल कानूनन जब्त कर लिया जा सकता था. इस पर तारीफ यह कि यदि कोई व्यापारी किसी ऐसे स्थान से माल ले कर चलता था कि जहां से आगे के चुंगीघर तक पहुंचने से पहले उसे किसी तलाशी की चौकी पर से जाना पड़े तो उससे यह आशा की जाती थी कि वह अपने घर से माल लेकर निकलने से पहले ही किसी चुंगीघर से अपने माल के लिए रवन्ना हासिल कर ले. इस विचित्र और असम्भव नियम का परिणाम यह था कि जो साधारण व्यापारी अपने घर से कुछ दूर खास मेलों या बाजारों से माल खरीद कर दूसरे स्थानों पर जाकर बेचते थे उन्हें प्रायः अपने घर के पास के चुंगीघर वालों को पहले से यह बता देना होता था कि हम क्या, कितना और किस कीमत का माल खरीदेंगे और पहले ही से उसके लिए रवन्ना ले लेना होता था. जिस व्यापारी को यह पता न हो सकता था कि मुझे कौन सा माल और किस पड़ते पर मिल सकेगा, उसके व्यापार और रोजगार के लिए यह नियम सर्वथा घातक था.

एक तो चुंगी बेहद बढ़ा दी गई थी, दूसरे इन चौकियों पर प्रायः इतना समय नष्ट होता था, माल के मिलान करवाने में इतनी कठिनाई होती थी, चौकी के छोटे मुलाजिमों के लिए माल को पहचान सकता, उसकी कीमत का अन्दाजा लगा सकता अथवा व्यापारी के लिए यह साबित कर सकना कि माल ठीक वही है जो रवन्ने में दर्ज है – इतना कठिन होता था और चौकियों और चंुगीघरों के मुलाजिमों के अधिकार इतने विस्तृत होते थे कि इस तमाम नई पद्धति के कारण देश के व्यापारियों और कारीगरों की कठिनाइयां बेहद बढ़ गई, उनके हौसले टूट गए ओर असंख्य देशी दस्तकारियों का तथा देश के आन्तरिक व्यापार का सत्यानाश हो गया.

यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि इंग्लिस्तान का बना हुआ माल, जो अंग्रेजों और उनके एजेण्टों द्वारा बिकता था, इन समस्त असुविधाओं से सुरक्षित रक्खा गया.

फ्रेड्रिक शोर लिखता है –

‘हम इस बात की बड़ी – बड़ी शिकायतें सुनते हैं कि इस देश के लोग गरीब होते जा रहे हैं, देश का आंतरिक व्यापार नष्ट होता जा रहा है और देश की दस्तकारियां बजाय उन्नति करने के, गिरती जा रही हैं. इसमें आश्चर्य ही क्या है ? हमारी इस चुंगी की प्रणाली के कारण समस्त व्यापारियों को जिन असह्य क्लेशों का सामना करना पड़ता है, क्या उनसे किसी और नतीजे की आशा की जा सकती थी ?’[18]

फ्रेड्रिक शोर ने मिसालें दी हैं कि किस प्रकार देहली और बनारस के दुशालों के व्यापारियों का काम इस पद्धति द्वारा नष्ट हो गया. बुखरा, रूस, पेशावर और काबुल के व्यापारियों को इससे कितना नुकासान पहंुचा और वे किस प्रकार शिकायतें करते थे. भारत की दस्तकारियों पर तो कई कई बार चुंगी देनी पड़ती थी, कच्चे माल पर अलग और बने हुए माल पर अलग. यहां तक कि दुशालों के व्यापारियों को दो बार, चमड़े के व्यापारियों को तीन बार और सूती कपड़े के व्यापारियों को चार बार चुंगी देनी पड़ती थी. अन्त में फ्रेड्रिक शोर लिखता है –

‘यदि यह हालत बहुत दिनों जारी रही, तो थोड़े ही दिनों में हिन्दोस्तान सिवाय इतने अन्न के कि जो उसकी आबादी के गुजारे के लिए ठीक काफी हो, उसे पकाने के लिए थोड़े से मोटे मिट्टी के बरतनों के, और थोड़े से मोटे कपड़ों के और कुछ न बना सकेगा. यदि हम केवल इस बोझ को हिन्दोस्तान की छाती पर से हटा लें तो अब भी थोड़े ही दिनों में भारत और इंग्लिस्तान के बीच व्यापार का तख्ता बिलकुल पलट जाय.’[19]

4-अंग्रेज व्यापारियों को सहायता

जो सात उपाय सन् 1813 में नियत किए गए उनमें पहले तीन का विस्तृत बयान दिया जा चुका है. चौथा उपाय अंग्रेजों को भारत में रहने और काम करने की विशेष सुविधाएं देना था. भारत की दृष्टि से यह गलती वास्तव में उस समय से शुरू हुई जब कि दिल्ली के सम्राट ने एशियाई उदारता में आकर इन विदेशियों को व्यापार करने के लिए भारत में इस तरह के अधिकार प्रदान कर दिए जिस तरक के कि आज कल का कोई ईसाई शासक किसी भी दूसरे देश के लोगों को अपने देश के अन्दर प्रदान ने करेगा. वास्तव में उस समय से ही भारतीय व्यापार तथा उद्योग धन्धों के नाश और भारत की राजनैतिक पराधीनता का बीज रोपन हुआ. बंगाल के अन्दर अंग्रेज व्यापारियों को जो रियायतें दी गई उन्हीं का परिणाम नवाब सिराजुद्दौला के विरूद्ध षडयंत्रों का रचा जाना और पलासी का निर्णायक संग्राम था. इसके बहुत दिनों बाद भारत की अंग्रेजी सरकार ने भारतवासियों के खर्च पर आसाम और कुमायूं के अन्दर चाय की काश्त के अनेक तजरूवे किए, इसलिए कि तजरूवे सफल होने के बाद वहां के चाय के सब बागीचे ऐसे अंग्रेजो के हवाले कर दिए जायं तो वहां रद्द कर काम करना चाहें, बाद में ऐसा ही किया भी गया. भारतवासियों के खर्च पर कई अंग्रेजों को तरह तरह की चाय के बीज लाने के लिए चीन भेजा गया. और चीनी काश्तकार हिन्दोस्तान में लाए गए ताकि अंग्रेज उनसे चाय की बागीचों में काम करने वालों की कभी कमी न होने पाए, वहां पर शुद्ध गुलामी की प्रथा कानूनन प्रचलित की गई. अपने भारतीय गुलामों पर इन गोरे मालिकों के अत्याचारों की कथा भी एक पृथक कहानी है. इसी प्रकार लोहे के काम करने वाले और नील की काश्त करने वाले अंग्रेजों को भी भारतवासियों के खर्च पर समय समय पर धन और कानून. दोनों की सहायता दी गई. इसी तरह के और भी असंख्य उदाहरण दिए जा सकते हैं, किन्तु इस विषय को विस्तार देना व्यर्थ है.

5-भारतीय कारीगरी के रहस्यों का पता लगाना

पांचवां उपाय भारतीय कारीगरी के रहस्यों का पता लगाना था. इन रहस्यों और भारतवासियों की आवश्यकताओं का पता लेने के लिए अनपेक प्रदर्शनियां की गई. लन्दन में भारतवासियों के खर्च पर एक विशाल अजायवघर बनाया गया, जिसमें अग्रेज कारीगरों की जानकारी के लिए भारतीय कारीगरी के नमूने इत्यादि जमा किए गए. इससे भी बढ़ कर भारत के बने हुए कपड़ों के सात सौ भिन्न -भिन्न नमूने अठारह बड़ी – बड़ी जिल्दों में जमा किए गए. इस समस्त संग्रह की बीस प्रतियां तैयार कराई गई. इनमें अठारह अठारह विशाल जिल्दों की तेरह प्रतियां इंग्लिस्तान के कारीगरों की जानकारी के लिए उस देश के विविध औद्योगिक केन्द्रों में रक्खी गई, और शेष सात प्रतियां भारत में आने जाने वाले अंग्रेज व्यापारियों के लिए भारतवर्ष के सात मुख्य मुख्य केन्द्रों में रक्खी गई वास्तव में वे बीस प्रतियां बीस औद्योगिक अजायबघर हैं. यह तमाम विशाल कार्य इंग्लिस्तान की करीगरी को बढ़ाने और भारत की कारीगरी को नष्ट करने के लिए किया गया, किन्तु इसके खर्च का एक एक पैसा गरीब हिन्दोस्तानियों की जेब से लिया गया. अक्षरशः जिन पैनी छुरियों से भारतीय कारीगरों के गले काटे गए उन छुरियों को उन्हीं कारीगरों के खर्च पर तैयार किया गया.

हिन्दोस्तानी कारीगरी के रहस्यों का पता लगाने के लिए और भी अनेक तरह की जबरदस्तियां की गई. मेजर कीथ नामक एक अंग्रेज लिखता है-

‘प्रत्येक मनुष्य जानता है कि कारीगर अपने औद्योगिक रहस्यों को कितनी सावधानी के साथ छिपा कर रखते हैं. यदि आप डूल्टन कम्पनी (इंग्लिस्तान की एक कम्पनी) के मिट्टी के बरतनों के कारखाने को देखने जायं तो सौजन्य के साथ आपको टाल दिया जायगा. तथापि हिन्दोस्तानी कारीगरों को जबरदस्ती मजबूर किया गया कि वे अपने थानों को धोकर सफेद करने के तरीेके और अपने दूसरे औद्योगिक रहस्य मैन्चेस्टर वालों पर प्रकट कर दें, और उन्हेे मानना पड़ा. इण्डिया हाउस के महकमें ने एक कीमती संग्रह तैयार किया, इसलिए ताकि उसकी मदद से मैन्चेस्टर दो करोड़ पाउण्ड (अर्थात तीस करोड़ रूपए) सलाना हिन्दोस्तान के गरीेबों से वसूल कर सके. इस संग्रह की प्रतियां ’चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स’ को मुफ्त भेंट की गई और हिन्दोस्तानी रैयत को उनकी कीमत देनी पड़ी. सम्भव है कि सम्पत्ति विज्ञान (पोलिटिकल इकॉनामी) की दृष्टि से यह सब जायज हो, किन्तु वास्तव में इस तरह के काम में और एक दूसरी चीज (लूट) में अत्यंत आश्चर्यजनक समानता है.’[20]

6-रेलें

इंग्लिस्तान के व्यापार को फैलाने तथा कच्चे माल को बाहर ले जाने के लिए भारत भर में रेलों का जाल बिछा दिया गया. दूसरें देशों को पराधीन करने और उनकी पराधीनता को बनाए रखने में मिश्र, भारत, चीन, मंचूरिया, कोरिया तथा साइबेरिया में सब जगह रेलों ने बहुत जबरदस्त काम किया है.

7-भारतवासियों को चरित्र – भ्रष्ट करना

सन् 1813 का नया ’चारटर’ भारतवासियों के लिए केवल आर्थिक दृष्टि से ही घातक न था, नैतिक दृष्टि से भी वह भारतवासियों के अधिकाधिक पतन का कारण हुआ. भारतीय जीवन की सरलता और शुद्धता को भंग करने ही में उस समय के धन-लोलुप अंग्रेज व्यापारियों को अपना हित दिखाई देता था. सन् 1832 की पार्लिमेण्टरी कमेटी के सामने जो गवाह पेश हुए उनमें से एक मिस्टर ब्रेकन ने अपने बयान में कहा –

‘अब कलकत्ते में उन हिन्दोस्तानियों के अन्दर, जो शराब पर खर्च कर सकते हैं, तरह तरह की शराबें बहुत बड़ी मिकदार में खपती है.’

इसी गवाह ने एक दूसरे प्रश्न के उत्तर में कहा –

‘मैनें कलकत्ते के एक देशी दूकानदार से, जो वहां के बड़े से बड़े खुर्दाफरोश में से है, सुना हे कि उसके शराबों, ब्राण्डी और बियर, के ग्राहकों में से अधिकांश ग्राहक हिन्दोस्तानी है.’

इस गवाह से पूछा गया कि –

हिन्दोस्तानियों को कौन सी शराब सब से ज्यादा पसंद है ? उसने उत्तर दिया – शैम्पैन. फिर पूछा गया कि – क्या हिन्दोस्तानी पहले बिल्कुल शराब नहीं पीते थे ? उसने जवाब दिया – मैं समझता हूं, बहुत ही कम. पूछा गया – क्या शराब पीना उनके धर्म के विरूद्ध नहीं है ? जवाब मिला – मुझे नहीं मालूम कि उनके धर्म के विरूद्ध है या नहीं, किन्तु उनकी आदतों के विरूद्ध अवश्य है, वे खुले तौर पर शराब नहीं पीते. किन्तु जब कभी पीते हें तो उनका पीना धर्म के विरूद्ध हो या न हो उनके यहां के सामाजिक रिवाज के विरूद्ध अवश्य होता है.[21]

दूसरे अंग्रेज गवाहों ने भी बड़े हर्ष के साथ बयान किया कि यूरोपियनों के संसर्ग द्वारा भारतवासियों में शराब पीने की आदत और यूरोप के ऐश आराम के तथा अन्य दिखावटी सामान खरीदने की आदत बढ़ती जाती है जिससे अंग्रेजी व्यापार को लाभ है. निःसंदेह भारतीयों को चरित्रभ्रष्ट करने में उस समय के विदेशी व्यापारी शासकों का स्पष्ट लाभ था.

भारतीय उद्योग धन्धों का अंत

अब हम इन समस्त प्रयत्नों के परिणामों की ओर नजर डालते हैं. नीचे के अंकों से साबित है कि अपने इन प्रयत्नों में इंग्लिस्तान के व्यापारी शासकों को पूरी सफलता प्राप्त हुई.

सर चार्ल्स ट्रेवेलियन ने सन् 1834 में प्रकाशित किया कि सन् 1816 में जो सूती कपड़े बंगाल से विदेशों को गए उन का मूल्य 1,65,94,380 रूपए था. उसके बाद घटते घटते सन् 1832 में केवल 8,22,891 रूपए का कपड़ा बंगाल से बाहर गया. इसके विपरीत इंग्लिस्तान का बना हुआ कपड़ा बंगाल के अन्दर सन् 1814 में केवल 45,000 रूपए का आया, सन् 1816 में 3,17,602 रूपए का और सन् 1828 में 79,96,383 रूपए का केवल सूती कपड़ा इंग्लिस्तान से बंगाल में आकर खपा. सन् 1823 तक एक गज विदेशी सूत भी बंगाल के अन्दर न आता था, किन्तु सन् 1828 में लगभग अस्सी लाख रूपए के कपड़े के अतिरिक्त 35,22,640 रूपए का सूत इंग्लिस्तान से बंगाल में आया.

सर चार्ल्स ट्रेवेलियन लिखता है कि सन् 1833 तक एक करोड़ रूपए साल का विलायत का बाजार और लगभग 80 लाख रूपए का स्वंय बंगाल का बाजार बंगाल के कपड़ा बुनने वालों के हाथों से छीना जा चुका था. सर चार्ल्स ने अत्यंत मर्मस्पर्शी शब्दों में कहा कि –

‘1,80,00,000 रूपए सालाना की इस विशाल रकम को पैदा करने में जितने लोग लगे हुए थे उनकी अब क्या हालत होगी?’[22]

गांठों के हिसाव से सन् 1814 में 3,842 गांठे कपड़े की हिन्दोस्तान से इंग्लिस्तान भेजी गई. सन् 1824 में 1,878 और सन् 1828 में केवल 433 गांठे. यदि थानों की संख्या को देखा जाय तो सन् 1924 में 1,67,524 थान कपड़े के हिन्दोस्तान से इंग्लिस्तान गए और सन् 1829 में केवल 13,043 थान.

इंग्लिस्तान के बने हुए कुल सूती माल का दाम जो सन् 1814 में भारतवर्ष आया 16,15,315 रूपए था. सन् 1828 में यह रकम बढ़कर 3,01,46,615 रूपए तक पहुंच गई, अर्थात् 14 वर्ष के अन्दर हिन्दोस्तान में आने वाले इंग्लिस्तान के सूती माल की कीमत लगभग 19 गुनी बढ़ गई. ऊनी कपड़ा सन् 1914 में इंग्लिस्तान से हिन्दोस्तान केवल 6,70,680 रूपए का आया. उसी वर्ष कुल माल कपड़े, लोहा, तांबा, शराब, कागज, कांच इत्यादि मिलाकर इंग्लिस्तान से हिन्दोस्तान 6,14,87,475 रूपए का आया. सन् 1830 में कल माल इंग्लिस्तान से हिन्दोस्तान 30,11,00,310 रूपए का आया, जिसमें से 2,13,88,770 रूपए का उनी माल और 13,10,43,240 रूपए का सूती माल था.[23]

सन् 1830-32 की पार्लिमेण्टरी कमेटी के सामने जो गवाह पेश हुए उन्होंने एक स्वर से बयान किया कि हिन्दोस्तान के अन्दर लंकाशायर के बने हुए कपड़ों की खपत में 15 वर्ष के अन्दर अपूर्व और आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है.

कपड़े का धन्धा किसी भी देश के उद्योग धन्धों में सदा सब से अधिक महत्वपूर्ण होता है. किन्तु जिस प्रकार कम्पनी द्वारा इस भारतीय धन्धे को नष्ट किया गया ठीक उसी प्रकार उस समय के अन्य अनेक उद्योग धन्धों के भी नाश का पता चलता है. उदाहारण के लिए सर जॉर्ज वाट ने इंग्लिस्तान के भारत मंत्री की आज्ञानुसार सनफ 1908 में ’’दी कमर्शियल प्राक्टस ऑफ इण्डिया’’ नामक एक पुस्तक प्रकाशित की थी, जिसमें लिखा है कि किसी समय हिन्दोस्तान की बनी हुई चीनी इंग्लिस्तान जाया करती थी. इंग्लिस्तान की सरकार ने उस पर इतना अधिक टैक्स लगाया कि जिससे धीरे-धीरे उसका भेजा जाना बंद हो गया. सर जॉर्ज वाट का कथन है कि इस प्रकार जान बूझ कर हिन्दोस्तान के चीनी के धन्धे को नाश किया गया. आज कल कपड़े से उतर कर दूसरी चीज, जिस पर भारत का सबसे अधिक धन विदेश चला जाता है, विदेशी चीनी ही है.

दूसरी बात इस पुस्तक में सर जॉर्ज वाट ने लिखा है कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी के दिनों में भारत के अन्दर अनेक कारखानें कागज बनाने के थे. भारतीय कागज अधिकतर सन से बनाया जाता था. कम्पनी सरकार ने इसी तरह के प्रयत्नों द्वारा भारत के इस धन्धे का भी नाश कर दिया.

सर जॉर्ज वाट ने इसी पुस्तक में प्राचीन भारत के लोहो और फौलाद के कारखानों का भी जिक्र किया है, और लिखा है कि ऐतिहासिक काल से पहले इस देश में बढ़िया से बढ़िया फौलाद तैयार की जाती थी, जबकि यूरोप के किसी देश में इस तरह के कारखाने मौजूद न थे. विशेष कर दक्षिण भारत की तलवारें संसार भर में प्रख्यात थीं. किन्तु अंग्रेज कम्पनियों को इस तरह के कारखानों का ठेका देकर तथा अन्य जबरदस्तियों द्वारा इस भारतीय धन्धे का भी सर्वनाश कर दिया गया और लाखों भारतीय लोहारों तथा कोलों की जीविका का अंत कर दिया गया.[24]

सन् 1830-32 की पार्लिमेण्टरी कमेटी के मेम्बरों ने बयान किया कि उस समय दो करोड़ पाउण्ड अर्थात् तीस करोड़ रूपए सालाना की आमदनी इंग्लिस्तान के कारीगरों और मजदूरों को भारत के व्यापार से हो रही थी. इसके बाद इंग्लिस्तान की यह आय प्रति वर्ष बढ़ती चली गई और उसी औसत से पराधीन भारतवर्ष की दरिद्रता भी बढ़ती गई, यहां तक कि 19चीं शताब्दी के अंत में भारत के प्राचीन उद्योग धन्धे इतिहास मात्र रह गए और जो देश लगभग सौ वर्ष पहले संसार का सबसे अधिक धनवान देश था वह सौ वर्ष के विदेशी शासन के परिणाम-स्वरूप संसार का सबसे अधिक निर्धन देश हो गया.

सन्दर्भ –

1. “A passion for coloured East Indian calicoes, which speedily spread through all classes of the community.”- Lecky’s History of England in the Eighteenth Century, vol.ii,p. 158.

2. “At the end of the seventeenth century great quantities of cheap and graceful Indian Calicoes, muslins, and chintzes were imported into England, and they found such favour that the woolen and silk manufacturers were seriously alarmed.”-Ibid,vol. vii, pp. 255-266.

3. “In all ages, gold and silver, particularly the latter have been the commodities exported with the greatest profit to India. In no part of the earth do the natives depend so little upon foreign countries, either for the necessaries or luxuries of life. The blessing of a favourable climate and a fertile soil, augmented by their own ingenuity, afford them whatever they desire. In consequence of this, trade with them has always been carried on in one uniform manner, and the precious metals have been given in exchange for their peculiar production, whether of nature or art.”- A historical Disquisition Concerning India, New edition (London 1817), p. 180.

4. Ibid,p. 203.

5. The Law of Civilization and Decay, by Brooks Adams, pp. 263-64.

6. “ …. Had Watt lived fifty years earlier, he and his invention that have perished together. Possibly since the world began, no investment has ever yielded the profit reaped from the Indian plunder, because for nearly fifty years Great Britain stood without a competitor. … Between 1760 and 1815 the growth was very rapid and prodigious.” – The Laws of Civilization and Decay, pp. 263, 264.

7. Prosperous British India, by William Digby, C.I.E. p. 33.

8. “That the Surat investment was provided under the most rigorous and oppressive system of coercion; that the weavers were compelled to enter into engagements and to work for the Company; contrary to their own interests, and of course to their own inclinations, choosing in some instances to pay a heavy fine rather than be compelled so to work; that they could get better prices from Dutch, Portuguese, French and Arab merchants for inferior goods, than the Company pad them for standard or superior goods; .. that the object of the commercial resident was, as he himself observed, to establish and maintain the complete monopoly.. of the whole of the piece goods trade at reduced or prescribed prices; that in the prosecution of this object compulsion and punishment were carried to such a height, as to induce several weavers to quit the profession; to prevent which, the were not allowed to enlist as Sepoys, or even on one occasion to pass out of city gates without permission from the English chiefs; that so long as the weavers were the subjects of the Nawab, frequent application was made to him to punish and coerce weavers,.. the Nawab who was but a tool in the hands of the British Government … Neighbouring Prices were also prevailed on to give order in their districts, that the Company’s merchants and brokers should have a preference to all others, and that on no account should piece goods be sold to other persons; that subsequently to the transfer of Surat to the British Government, the authority of the Adalat (our own Court of Justice) was constantly interposed to enforce a similar series of arbitrary and oppressive acts.

“As long as the Company continued to trade in piece goods at Surat this was the uniform practice of their commercial servants. It may be taken as a specimen of the practice of other factories. .. “ – As quoted in The Ruin of Indian Trade and Industries, By Major B. D. Basu, pp. 78, 79.

9. Mr Saunder’s evidence in March, 1831, before the Parliamentary Committee.

10. “The East India Company .. had their commercial residents established in the different parts of the silk districts, whose emoluments mainly depended on the quantity of silk they secured for the Company..

“The system pursued by both parties was thus: – Advances of money before each bund or crop were made to two classes of persons – first, to the cultivaors who reared the cocoons: next, to the large class of winders who formed the mass of the population of the surrounding villages. By the first the raw material was secured: by the last the labor for working it ..

“ .. I will state a case of every day occurrence

“ … A native wishing to sell me the cocoons he produces for the season takes my advance of money; a village of winders dues the same. After this contract is made, two of the Resident’s servants are dispatched to the village, the one bearing a bag of rupees, the other a book, in which to register the names of the recipients. In vam does the man to whom the money is offered protest that he has entered into a prior engagement with me. If he refuses to accept it, a rupee is thrown into his house, has name is written before the witness who carries the bag, and that is enough. Under this inqiquitous proceeding the Resident, by the authority committed to him, foreibly seizes my property and my laborers even at my door.

“ Nor does the oppression stop here. If I sued the man in court for repayment of the money I had thus been defrauded of, the judge was compelled, before granting a decree in my favour, to ascertain from the commercial Resident whether the defaulter was in debt to the East India Company. If he was a prior decree was given to the Resident, and I lost my money.” – A Personal Narrative of Two Year’s Imprisonment in Burma, 1824-26, by Henry Gouger, p. 2.

11. To elect the inconceivable oppretions and hardships have been preactised towards the poor manufacturers and workmen of the country, who are, in fact monopolized by the Company as so many slaves… Various and innumerable are the methods of oppressing the poor weavers, which are daily practiced by the Company’s agents and gomasthas in the country, such as by lines imprisonments, floggince, forcing bonds from them, etc, by which the number of weaver in the country has been greatly decreased .. The weaver, therefore, destroy of obtaining the price of his labour frequently attents to well his cloth to others.. thus occasions the english company gomastha to set his peons over the weaver to watch him, and not infrequently to cut the piece out of the loom when nearly … therefore every kind of oppression to manufacturers of all denominations throughout the whole country has duly increased; in to much that weavers, for daring to sell their goods, and dallals and pykars for having contributed to and connived at such sales, have by the Company’s agents, been frequently seized and imprisoned, confined in irons, fined considerable sums of money, flogged and deprived, in the most ignominious manner, of what they esteem most valuable, their castes… It was not till the time of Serajuddowla that oppressions of the nature now described, from the employing of gomasthas, commenced with the increasing power of the English Company.. in Serajuddowla’s time.. above seven hundred families of weavers, in the districst round jungalbarry, at once abandoning their country and their prorfessions on account of oppressions of this nature.. winders of raw silk were pursued with such rigour during Lord Clive’s late Government in Bengal, froma zeal for increasing the Company’s investment of raw silk, that the most sacred law of society were atrociously violated. .. “ – Considerations on Indian Affiars, by Bolts, pp. 72, 74, 192-195.

12. “ … upon their inability to perform such agreements as have been forced upon them by the Company’s agents, … have had their goods seized and sold on the spot to make good the deficiency; and the winders of raw silk … have been treated also with such injustice, that instances have been known of their cutting off their thumbs to prevent their being borced to wind silk.” – Ibid.

13. “ And not infrequently have by those harpies been necessitated to sell their children in order to pay their rents or otherwise obliged to fly the country.” – Ibid.

14. “Imagine how black must have been their deeds, when even the directors of the Company admitted that the vast fortunes acquired in the inland trade have been obtained by a scene of the most tyrammical and oppressive conduct that was ever known in any age or country.” – Social Statics. By Herbert Spencer, 1st edition, p. 367.

15. “The general principle was to be that England was to force all her manufactures upon India, and not to take a single manufacture of India in return. It was true they would allow cotton to be brought; but then, having found out that they could waeve, by means of machinery, cheaper than the people of India, they would say, – ‘Leave off weaving; supply us with the raw material and we will weave for you.’ This might be a very natural principle for merchants and manufacturers to go upon, but it was rather too much to talk of the philosophy of it, or to rank the supporters of it as in a peculiar degree the friends of India. If instead of calling themselves the friends of India, they had professed themselves its enemies, what more could they do than advise the destruction of all India manufacturers?” – Mr. Tierney in the House of Commons, 1813.

16. Lecky’s History of England in the Eighteenth Century, vol, vii, pp. 255-266, 320.

17. “The history of the trade of cotton cloths with India .. is … a melancholy instance of the wrong done to India by the country on which she had become dependent. It was stated in evidence, that the cotton and silk goods of India up to this period (1813) could be sold for a profit in the british market, at a price from fifity to sixty per cent, lower than those fabricated in England. It consequently became necessary to protect the latter by duties of seventy and eighty per cent on their value, or by positive prohibition. Had this not been the case, had not such prohibitory duties and decrees existed, the mills of Paisley and of Manchester would have been stopped in their outset, and could scarcely have been again set in motion even by the powers of steam. They were created by the sacrifice of the Indian manufacture. Had India been independent, she would have retaliated would have imposed preventive duties upon British goods, and thus would have preserved her own productive industry from annibilaton, this act of self-defence was not permitted her; she was at the mercy of the stranger. British goods were forced upon her without paying any duty, and the foreign manufacturer employed the arm of political injustice to keep down and ultimately strangle a competitor with whom he could not have contended on equal terms.” _ Mill’s History of British India., vol, vii, p. 385.

18. “We hear loud complaints of the impoverishment of the people, the falling off the internal trade, and the decline intead of the increase of manufactures. Is it to be wondered at? Could any other result be anticipated from the intolerable vexation to which all the merchants are exposed by our internal customs?”—Notes on Indian Affairs, By Hon. Frederick Shore.

19. “…if this be continued much longer, India will, ere long, produce nothing but food just sufficient for the population, a few coarse earthen-ware pots to cook it in, and a few coarse cloths. Only remove this incubus and the tables will very soon be turned.”—Ibid.

20. “Every one knows how jealously trade sercrets are guarded. If you went over Messrs Doulton’s Pottery Works, you would be politely overlooked. Yet under the force of compulsion the Indian workman had to divulge the manner of his bleaching and other trade secrets to Manchester. A costly work was prepared by the India House Department to enable Manchester to take twenty millions a year from poor of India: copies were gratuitously presented to Chambers of Commerce, and the Indian Raiyat had to pay for them. This may be political economy, but it is marvelously like something else.”—Major J.B. Keith in the Pioneer, September 7, 1891.

21. Mr Bracken before the Commons Committee on 24th March, 1832.

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