1 अक्टूबर 1949 को चीन के मज़दूरों की क्रांतिकारी पार्टी ‘चीन की कम्युनिस्ट पार्टी’ के नेतृत्व में सामंतवाद–साम्राज्यवाद विरोधी नव–जनवादी क्रांति को अंजाम दिया गया था. इसके बाद आर्थिक–सामाजिक लिहाज़ से बेहद पिछड़े इस देश में बड़े बदलाव हुए, नए सिरे से समाज का निर्माण की शुरूआत हुई. साल 1956 में चीन में समाजवादी व्यवस्था क़ायम की गई. मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में हुई इन जन–क्रांतियों की बदौलत चीन में ग़रीबी, बेकारी, वेश्यावृति, आतशक रोग (यौन रोग) समेत अन्य अनेकों शारीरिक–मानसिक रोगों का ख़ात्मा किया गया.
1976 में कॉमरेड माओ–त्से तुङ की मौत के बाद पूंजीपति वर्ग चीन की राज्यसत्ता पर क़ाबिज़ होने और चीनी समाज की पूंजीवादी कायापलट करने में कामयाब हो गया. इसके कारण चीनी मज़दूर–मेहनतकश जनता फिर से अमीरी–ग़रीबी की भयानक असमानता, तमाम तरह की शारीरिक–मानसिक गंभीर बीमारियां, वेश्यावृति समेत अन्य सामाजिक–आर्थिक समस्याओं का सामना कर रही है. चीन में क्रांति–प्रतिक्रांति यह सिद्ध करते हैं कि चीन ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की मज़दूर–मेहनतकश जनता का भला मज़दूर वर्ग के राज के तहत समाजवादी व्यवस्था क़ायम होने में ही है.
चीन की नव–जनवादी क्रांति के 75 वर्ष (1 अक्टूबर 1949 – 1 अक्टूबर 2024) पूरे होने पर हम यहां डा. जोशुआ हॉर्न की 1969 में प्रकाशित किताब ‘अवे विद ऑल पेस्ट्स’ (महामारियों का ख़ात्मा) का अंश दे रहे हैं, जिससे हमें 1949 की क्रांति के बाद चीनी समाज में हुए क्रांतिकारी बदलाव के बारे में अहम जानकारी मिलती है. शीर्षक हमने दिया है. ब्रिटिश सर्जन डा. जोशुआ हॉर्न चीन में 1954 से 1969 तक रहे. उन्होंने चीन में समाजवादी निर्माण को बहुत नज़दीक से देखा–समझा. वे चीन के प्रसिद्ध ‘नंगे पैरों वाले’ डॉक्टरों को प्रशिक्षण देने वालों में भी शामिल रहे – संपादक
आतशक एक सामाजिक रोग है – यानी ऐसा रोग जिसका अस्तित्व और फैलाव (और जैसा कि हम देखेंगे, इसका ख़ात्मा) सामाजिक और राजनीतिक कारणों का मोहताज है. इसके द्वारा चीन को अपनी गिरफ़्त में लेने के जि़म्मेदार कौन-से राजनीतिक और सामाजिक कारण थे ?
- पहला कारण, साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद, हमलावर देशों द्वारा इसके क्षेत्र पर जबरन क़ब्ज़ा, इसकी जनता की ग़ुलामी और इसकी अर्थव्यवस्था की तबाही.
- दूसरा कारण, साम्राज्यवाद से अटूट रूप से जुड़ा हुआ युद्ध और इसके नतीजे के तौर पर चीनी समाज का विघटन. शोषकों और दमनकारियों की सेवा करती हमलावर और स्थानीय सेनाओं का दस्तूर, लूट-खसोट, उजाड़ा और बलात्कार. चीन के गांवों में आतशक का घटनाक्रम अमेरिकी, जापानी और कोमिंगतांगी हमलावर सेनाओं की संख्या और ठहराव के समय से सीधे अनुपात से जुड़ा हुआ था.
- तीसरा कारण, सामंती और पूंजीवादी लूट के कारण ग़रीबी, आर्थिक पिछड़ापन और असुरक्षा थी.
- चौथा कारण था, नशे की आदत. नशीले पदार्थों और वेश्यावृत्ति दोनों बुरे संगी हैं.
- पांचवां कारण, वर्ग समाज की ख़ासियत – महिलाओं के प्रति बुरा रवैया, जो महिलाओं को मर्दों से घटिया समझता है, उन्हें अपनी ग़ुलाम और खिलौना मात्र समझता है. बहुपत्नी प्रथा, रखैल प्रथा और बाल विवाह वाले सामंतवादी समाज और महिलाओं के लिए क़ानूनी और संपत्ति के अधिकारों की पूर्ण ग़ैर-मौजूदगी में मर्दों-औरतों में स्पष्ट दिखाई देती असमानता.
चीनी मज़दूर वर्ग द्वारा राजनीतिक सत्ता पर जीत प्राप्त करने के कुछ ही सालों में आतशक रोग पर जीत, बड़ी सेहत सेवाओं को निभाने में राजनीतिक निर्णायक भूमिका की बहुत बड़ी उदाहरण है.
चीन में आतशक रोग के ख़ात्मे के लिए दो मुख्य पूर्व शर्तें थीं – पहली थी समाजवादी व्यवस्था की स्थापना, जिसने लूट-शोषण का ख़ात्मा कर दिया और उत्पीड़ित जनता को अपनी नियति का मालिक बना दिया. दूसरा था, इस अभियान में शामिल उन सभी को, चाहे वे आम जनता हो या मेडीकल क्षेत्र के – लोगों की सेवा और समाजवाद के निर्माण में मदद करने के दृढ़ संकल्प से लैस करना था, ताकि वे उनके सामने आने वाली कठिनाइयों को दूर करने के योग्य हो जाएं. इसके अनुसार निम्नलिखित क़दम उठाए गए थे –
वेश्यावृत्ति का अंत
मुक्ति के कुछ हफ़्तों के भीतर ही लोगों द्वारा सीधी कार्रवाई के ज़रिए वेश्यालयों को बड़ी संख्या में बंद कर दिया गया था. ज़्यादातर लोगों ने मान लिया था कि वेश्यावृत्ति नुक़सानदेह थी. इससे वेश्याओं की अंधी लूट होती है, जिन्हें आमतौर पर ग़रीबी या क्रूरता से ज़बरदस्ती इस काम में धकेल दिया जाता है. आक्रोश में आई जनता ने नशों के तस्करों, बदमाशों और वेश्यालयों के गुंडे मालिकों को ख़ुद सीधा किया या सुरक्षा दस्तों को सौंप दिया. 1951 में वेश्यावृत्ति को ग़ैर-क़ानूनी घोषित करके सरकारी आदेशों के अनुसार बंद कर दिया गया.
वेश्याओं को सबसे पहले लैंगिक रोगों से ठीक करना ज़रूरी था, जिनकी 90 प्रतिशत से ज़्यादा संख्या इन रोगों से प्रभावित थी. यह उनके सामाजिक पुनर्वास का काम हाथ में लेना था. वेश्याओं को बुरी सामाजिक व्यवस्था का शिकार माना गया. उनको घर वापिस जाने के लिए प्रोत्साहित किया गया और उनके लिए काम की तलाश की गई. उनके परिवारों को धैर्यपूर्वक समझाया गया कि पुराने समाज से दबाए गए होना निराशा की बात नहीं और अब हर कोई जो भी अच्छा काम करता है, सम्मान का हक़दार है.
वेश्यावृत्ति में गहरी फंसी हुई महिलाओं को पुनर्वास केंद्रों में भर्ती कराया गया. वहां सरकार की उनके प्रति नीति ने राज्य प्रणाली के स्वरूप, उनके वेश्या बनने के कारणों और उनके लिए खुले नए अवसरों पर, बशर्ते वे ख़ुद से योगदान करने के लिए सहमत हों, बारे में उनके साथ विचार-विमर्श किया जाता था. इसके साथ-साथ उन्हें किसी ना किसी काम-धंधे का प्रशिक्षण दिया गया, उत्पादक कार्य में लगाया गया, जिसका अन्य मेहनतकशों के बराबर भुगतान किया जाता था.
शिक्षा, काम और मनोरंजन के लिए ख़ुद अपनी समितियों को संगठित करने के लिए उन्हें प्रोत्साहित किया गया और जब भी वे चाहें वह केंद्र छोड़ने के लिए आज़ाद थीं. जो नाच और गा सकती थीं, नाटक कर सकती थीं या लिख सकती थीं, उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में, अन्य केंद्रों में अभिनय किए. पारिवारिक सदस्यों द्वारा मुलाक़ातों को प्रोत्साहित किया गया. जब उनका पुनर्वास का कार्य पूरा हो गया, उनके लिए शहर में काम ढूंढ़ा गया या गांवों में वापस भेज दिया गया. उनकी आर्थिक सुरक्षा की गारंटी की गई.
महिलाओं की हालत में बदलाव
बिना शक वेश्यालयों का अंत और वेश्यावृत्ति पर क़ानूनी प्रतिबंध को वेश्यावृत्ति के ख़ात्मे या महिलाओं की पूर्ण मुक्ति का समानार्थी नहीं माना जा सकता. इसका एकमात्र बुनियादी तरीक़ा है कि पहले समाज की संरचना को बदला जाए, फिर उनकी सोच को बदला जाए जो इसके सृजक हैं. लाखों लोगों की नैतिक मूल्य-मान्यताओं और लोगों के दिलों-दिमाग़ में गहरे धंसे रीति-रिवाजों को बदलने के लिए बहुत लंबा समय लगता है. लेकिन मुक्ति के बाद भारी विकास हुआ. … यह दावे से कहा जा सकता है कि इतिहास में महिलाओं की स्थिति में ऐसा बदलाव देखने को नहीं मिला, जो 1949 के बाद माओवादी चीन में हुआ था.
ग़रीबी का ख़ात्मा
हालांकि चीन अभी एक ग़रीब देश है, लेकिन ग़रीबी के ख़ात्मे के बारे में बात की जा सकती है. किसी विशेष समय में किसी देश में सामाजिक व्यवस्था और उत्पादन के स्तर के संदर्भ में ही इसका कुछ अर्थ होता है. लेकिन निश्चित रूप से ऐसी हालत का निर्माण किया गया है, जिसमें शहरों में औरतों को वेश्यावृति ना करनी पड़ी, उन्हें ऐसी ग़ुलामी ना झेलनी पड़े. लाखों की संख्या में नए रोज़गार पैदा किए गए हैं और सामाजिक सुरक्षा के विशाल ढाँचे का निर्माण किया गया. चीन में किसी को भी गुज़ारे के न्यूनतम स्तर से नीचे गिरने, भूखे रहने, बेघर होने या शरीर के लिए ज़रूरी कपड़ों से वंचित नहीं होने दिया जाता. चीन के संविधान की धारा यह कहती है कि ‘लोक गणराज चीन में मेहनतकश जनता को बुढ़ापे में, बीमारी की हालत में और विकलांग हो जाने की हालत में भौतिक सहायता का अधिकार है.’
इस प्रकार वेश्यावृत्ति और अपराध की जड़ें हमेशा के लिए काट दी गई हैं.
आतशक रोगों के ख़िलाफ़ जन अभियान
अगस्त 1950 में पहले अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य सम्मेलन ने मार्गदर्शक सिद्धांत पारित किए –
- स्वास्थ्य सेवाओं का प्रमुख काम मेहनतकश जनता की सेवा होना चाहिए.
- मुख्य ज़ोर रोग की रोकथाम होनी चाहिए.
- पारंपरिक और आधुनिक डॉक्टरों के बीच गहरी एकता विकसित करनी चाहिए.
- स्वास्थ्य सेवाओं का काम जन अभियानों के ज़रिए चलाया जाना चाहिए.
- आतशक रोग के ख़िलाफ़ सेनानियों की सेना संगठित करना.
लंबी-चौड़ी और कभी-कभी जोशीली बहसों के ज़रिए कुल मिलाकर यह स्पष्ट हो गया कि लैंगिक रोगों का ख़ात्मा करने की चुनौती का सामना करने के लिए स्वास्थ्यकर्मियों को माओ त्से-तुंग के विचारों पर आधारित नए दर्शन को और काम करने के नए तरीक़े अपनाने की ज़रूरत है. चीन में, राजनीतिक और पेशेवर क्षमताओं के मेल-जोल को ‘लाल और विशेषज्ञ’ बनना कहा जाता है. जब इन बुनियादी सिद्धांतों पर सहमति हो गई, तो प्रशिक्षण के तरीक़ों और भर्ती के बारे में उलटे-पुलटे सवालों के जवाब देना आसान हो गया.
अध्यापक, ज़्यादातर पुराने राज्य के शिक्षित निजी पेशेवर थे. शिक्षकों के साथ मिलकर उन्होंने राजनीति का अध्ययन किया. विशेष रूप से तीन पुराने लेखन (नॉर्मन मेथ्यून की याद में, लोगों की सेवा करें, मूर्ख बूढ़ा आदमी जिसने पहाड़ों को हटा दिया). आम लोगों के साथ घुलने-मिलने की शिक्षा और अहंकार और उत्कृष्टता के पुराने विचारों से छुटकारा पाने की कोशिशें की गईं, जैसा कि माओ कहते हैं, ‘लोगों के अध्यापक बनने के लिए, सबसे पहले लोगों से सीखना ज़रूरी है.’
धीरे-धीरे, एकजुट राजनीतिक दृष्टिकोण के आधार पर शिक्षकों और शिष्यों के बीच, पारंपरिक (स्वदेशी) और आधुनिक डॉक्टरों के बीच, लोगों और मेडिकल एवं पैरामेडिकल कामकाजियों के कुल समूह के बीच एकता स्थापित हो गई थी, और व्यावहारिक काम के दौरान यह और भी मज़बूत हो गई.
केस ढूंढ़ने के नए तरीक़े
देश-भर में जगह-जगह बिखरे हुए गुप्त आतशक रोग के लाखों रोगियों की तलाश एक बड़ा काम था, जिसे पारंपरिक तर्ज पर नहीं निपटाया जा सकता था. यह कैसे हो सकेगा, राय अलग-अलग थी. रूढ़िवादी और कट्टरपंथी विचारकों ने कार्य कुशलता बढ़ाने, कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने, परीक्षण के बेहतर और तेज़ तरीक़ों और अधिक ख़र्चा करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया. यह उनका बिल्कुल तकनीकी दृष्टिकोण था. जो लोग साहसी थे और क्रांतिकारी तरीक़े से सोच सकते थे, उन्होंने सफलता की कुंजी के रूप में लोगों की पहलक़दमी पर भरोसे करने के राजनीतिक दृष्टिकोण पर ज़ोर दिया. राजनीतिक दृष्टिकोण की जीत हुई, बेशक संघर्ष के बिना नहीं…
इसके लिए ज़ोरदार प्रचार-प्रसार और शिक्षा अभियान चलाया गया. गांवों की गलियों में प्रचार पोस्टर चिपकाए गए, बाज़ारों में एकल पात्र वाले नाटक खेले गए, ग्रामीण रेडियो पर चर्चाएं चलाई गईं, रात में बार-बार छोटी-बड़ी मीटिंगें की जातीं और प्रश्नावली की व्याख्या की जाती. इस तरह धीरे-धीरे किसानों का समर्थन हासिल हो गया.
शुरू में कम समर्थन मिला. कुछ ग्रामीणों ने ही प्रश्नावली भरी. कइयों नें कुछ ना कुछ संकेत छिपा लिए. और ज़्यादा प्रचार किया गया, और ज़्यादा बैठकें आयोजित की गईं, जिनमें मुख्य वक्ता वे थे, जो पहले आतशक रोगी थे और टीकाकरण से ठीक हो गए थे. उन्होंने उस मानसिक संघर्ष के बारे में भी बात की, जिसमें से बीमारी के संकेतों को स्वीकार करने से पहले गुज़रे थे और ठीक होने के बाद अपनी भावनाओं के बारे में बताया.
शिनाख़्त किए गए केसों की छोटी-सी संख्या बढ़कर बाढ़ बन गई. जनदिशा के रंग का महत्व निर्णायक रूप से साबित हो गया.
आतशक रोग के प्रति नया दृष्टिकोण ठीक हो जाने की अवधारणा की मांग करता था, जो व्यक्ति के मुक़ाबले पूरे समुदाय पर लागू होता हो. समुदाय की अरोग्यता की कसौटी सख़्त थी. उसमें शामिल था – सभी मौजूदा रोगियों की तलाश और इलाज. समुदाय में नए मामलों का पूरी तरह ख़ात्मा. नवजात शिशुओं में जन्मजात आतशक का ख़ात्मा. इलाज करवा चुकी मांओं के सही-सलामत गर्भ और बच्चों का जन्म. जब ये मापदंड पांच साल तक बने रहे, तो यह स्वीकार कर लिया जाता था कि समुदाय आरोग्य है.
इस तरह किसी समय ‘एशिया के रोगी’ के तौर पर जाना जाने वाला चीन आतशक पर जीत प्राप्त करने वाला दुनिया का पहला देश बना.
- मुक्ति संग्राम से
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