‘अगर विदेशी सरकार की जगह स्वदेशी सरकार ले ले और साथ ही निहित स्वार्थी को बरकरार रखे तो वह आजादी की परछाईं भी नहीं होगी.’
– जवाहरलाल नेहरू, Whither India, 1933
‘सरकारी तौर पर स्वतंत्र भारत गरीबी के खिलाफ जंग लड़ रहा है’ यह मुहावरा अपने आप में सन्देहजनक है. क्योंकि इसे Lyndon B Johnson ने 1964 में वियतनाम में हमलावर जंग के पक्ष में शोषित लोगों का लोकप्रिय समर्थन हासिल करने के लिए लिखा था. लेकिन यह मुहावरा आज भी सुनने में अच्छा लगता है. सिमोन डेनियर 2009 में रायटर के लिए रिपोर्ट लिखते हैं – ‘अपनी 60वीं वर्षगांठ पर भारत गरीबी के खिलाफ जंग की आवश्यकता महसूस कर रहा है.’
नयी दिल्ली, 15 अगस्त (रायटर). भारत के प्रधानमंत्री ने अंग्रेजी राज से आजादी की 60वीं वर्षगांठ पर कहा कि ‘तेज आर्थिक विकास के बावजूद देश को गरीबी, अज्ञानता और बीमारियों के खिलाफ कठोर परिश्रम करने की जरूरत है. भारत उच्च विकास के टापू व विकास से अछूता विशाल क्षेत्र, जहां विकास सिर्फ थोड़े लोगों तक पहुंचा है, ऐसा देश नहीं बन सकता.’ उन्होंने यह बुधवार को ऐतिहासिक लाल किले से बुलेट प्रूफ कांच के पर्दे के पीछे से कहा.
उनके भाषण के दौरान कुशल निशानेबाज नजदीक के मकानों पर तैनात थे; जबकि सेना एवं सशस्त्र पुलिस बल पूरे देश में सड़कों और महत्वपूर्ण इमारतों पर पहरा दे रहे थे. इस दिन आम तौर पर भारत में अलगाववादियों तथा माओवादी पार्टी के हिंसक आक्रमण की घटनाएं घटती रहती हैं. उन्होंने कहा कि ‘कुपोषण की समस्या राष्ट्र के लिए शर्मनाक है. मैं पांच साल के अन्दर कठोर मेहनत कर कुपोषण को खत्म करने का राष्ट्र को संकल्प लेने की अपील करता हूं.
दरअसल मनमोहन सिंह ऐसे पहले प्रधानमंत्री नहीं हैं, जिन्होंने गरीबी के खिलाफ जंग की बात कही है. सच तो यह है कि 1947 में औपचारिक स्वतंत्रता के बाद ही राजनीतिक मतभेदों के बावजूद शासक, अभिजात वर्ग, प्रधानमंत्री एवं सम्पादकीय लिखने वाले सभी लोगों ने यह बात कही है. जबकि वास्तविकता में ये सभी 1929 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के इस प्रस्ताव को अलग-अलग शब्दों में कहते आ रहे हैं –
‘कांग्रेस समिति का मत है कि भारत की जनता की विशाल गरीबी एवं कंगाली सिर्फ विदेशियों के शोषण का परिणाम नहीं है, बल्कि हमारे समाज का आर्थिक ढांचा भी इसके लिए जिम्मेदार है. शोषण जारी रखने के लिए विदेशी शासक इसका समर्थन करता है. अतः भारतीय जनता की गरीबी और कंगाली को दूर करने के लिए और भारतीय जनता की स्थिति में सुधार लाने के लिए समाज में मौजूद आर्थिक एवं सामाजिक ढांचा में क्रान्तिकारी बदलाव लाना और भारी असमानता को दूर करना आवश्यक है.’
लेकिन भारतीय अभिजात शासकों की शुभ इच्छाओं की भारी बर्फबारी के बावजूद, सरकार के अलग-अलग विकास कार्यक्रमों में लाखों अधिकारियों की नियुक्तियां होने के बावजूद, झुंड के झुंड टिड्डी दलों के समान कम-ज्यादा आदर्शवादी एवं शुद्धतावादी मुनाफाखोर गैर-सरकारी संगठनों के बावजूद और नये बढ़े हुए विकास दर के बावजूद भारतीय समाज के निचले पायदान के लोगों में ऐसा कुछ भी बदलाव नहीं आया है. सच तो यह है कि यहां के आदिवासी और दलित उप-सहारा अफ्रीका के गरीबों से बदतर जिन्दगी जी रहे हैं. वास्तविकता में बहुतों के लिए सरकारी ‘गरीबी के खिलाफ युद्ध’ गरीबों के खिलाफ युद्ध है, क्योंकि उन्हें विकास के नाम पर जंगल एवं जमीन से खदेड़ दिया गया है.
इसकी व्याख्या भारतीय अभिजात राजनीतिक की विरल रूप से ‘शैतान’ होने से नहीं की जा सकती. हम सभी जानते हैं कि इनमें से कुछ ऐसे भी हैं लेकिन सामान्यतः उनका इरादा नेक रहा है. लेकिन जैसा कि हमारे यूरोपीय संस्कृति में क्लेयरवाक के सन्त बर्नहार्ड के समय से नैतिकतावादी एवं धर्मशास्त्री कहते आये हैं, ‘नरक का द्वार नेक इरादों से होकर गुजरता है.’ जवाहरलाल नेहरू का ही उदाहरण लें. वह राजनीतिक एवं बौद्धिक रूप से मेरे माता-पिता की पीढ़ी के थे. वे लोग भी अंग्रेज उदारवादी, फेबियन (एक तरह के समाजवादी विचार वाले) एवं समाजवादी सोच से प्रभावित थे और उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक के अन्त एवं तीसरे दशक की शुरुआत में साम्राज्यवाद एवं फासीवाद विरोधी अन्तर्राष्ट्रीय मंडल में शामिल थे.
मैं बचपन में ही उनके बारे में सुना था और उनके लेखों को पढ़ा था. काली घोष जब मेरे रिश्तेदार बने तो उन्होंने मुझे भारत के सम्बन्ध में गहरी समझदारी प्रदान की. उन्होंने कहा था कि बंगाली होने के कारण मुझे लड़कपन में बंकिमचन्द के आनन्दमठ ने गहरे रूप से प्रभावित किया था. यह रोगग्रस्त अहिंसा का प्रवचन नहीं था. इसे पढ़ने पर मैं भागवतगीता के कृष्ण को नयी रोशनी में देख पाया. सामाजिक एवं राजनीतिक चेतना के विकास के बहुत सारे रास्ते हैं. उन दिनों के बंगाल में मेरे जैसे उम्र के लड़के के लिए यह रास्ता जागरुकता की ओर ले गया.
उस समय तक मैंने बकिमचन्द चटर्जी का कोई उपन्यास नहीं पढ़ा था. इस पुस्तक को मेरे द्वारा पढ़े जाने के बहुत पहले ही काली घोष की मौत हो चुकी थी. लेकिन मुझे लगता है कि ठीक-ठीक रूप में वे और उनके साथ इस पुस्तक से प्रभावित हुए थे. इस पर मुझे उनसे चर्चा करनी चाहिए थी. काली अपने बहुत सारे दोस्तों की तरह छात्रावस्था में बंगाल की एकता को बचाने के लिए अनुशीलन समिति के सदस्य बने थे, बाद में वे ‘युगान्तर’ नामक एक आतंकवादी संगठन के नजदीकी छात्र संगठन से जुड़ गये.
‘युगान्तर’ का ‘अनुशीलन समिति’ में विलय हो रहा था. वह कांग्रेस में भी सक्रिय रहे थे. दिसम्बर 1928 में अखिल भारतीय कांग्रेस का अधिवेशन कोलकाता में सम्पन्न हुआ. स्थिति जटिल थी. मोतीलाल नेहरू दूसरी बार कोलकाता में अध्यक्षता कर रहे थे. उन्होंने प्रादेशिक शासन स्वतंत्रता की वकालत की, क्योंकि उनकी नजर में वही एकमात्र वास्तविक सम्भावना थी लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने स्वतंत्रता के पक्ष में बोला. गांधी स्वतंत्रता प्रस्ताव के विरोधी थे, क्योंकि यह कांग्रेस को तोड़ सकती थी.
गांधी इस विभाजन से बचने के लिए यह प्रस्ताव दे रहे थे कि अगर अंग्रेज एक साल के अन्दर प्रादेशिक शासन स्वतंत्रता को नहीं मानते हैं तो कांग्रेस पूर्ण स्वतंत्रता की मांग करेगी और उसके लिए संघर्ष करेगी और जरूरत पड़ी तो नागरिक अवज्ञा आन्दोलन शुरू करेगी. लेकिन जवाहरलाल ने काली को स्वतंत्रता की मांग उठाने का वचन दिया था. जवाहरलाल नेहरू ने अपने भाषण के तयशुदा समय से एक घंटा पहले भाषण देने से इनकार कर दिया था.
काली और दो अन्य पार्टी कॉमरेड्स सुभाष चन्द्र बोस को दो घंटे में समझा पाये कि उन्हें अपना अवस्थान रखना चाहिए और मोतीलाल तथा जवाहरलाल नेहरू का विरोध करना चाहिए लेकिन बोस हार गये. इसके बाद काली ने ‘स्वाधीनता’ में लिखना शुरू किया. उस समय यह युगांतर का मुखपत्र था (बाद में चालीस के दशक में सी.पी.आई. ने इसे पुनर्जीवित किया). भुपेन्द्र कुमार दत्त और अरुण गुप्त मुख्य लेख लिखते थे और काली, ज्योतिष भौमिक के साथ सम्पादन करते थे.
अप्रैल 1930 में राष्ट्रवादियों ने चटगांव शस्त्रागार पर कब्जा कर लिया. 1857 के बाद यह अंग्रेजों की सबसे बड़ी पराजय थी. अंग्रेजों ने बड़े पैमाने पर तुरन्त गिरफ्तारियां शुरू की. स्वाधीनता ने तुरन्त ‘शाबाश चटगांव’ प्रकाशित करने का फैसला लिया. इस अखबार को प्रतिबंधित होना ही था, इसलिए भूमिगत होने के पहले हिंसक हथियारबंद बगावत की वकालत करने वाला लेख छापना बेहतर था. काली तब बंगाल टेलिग्राफ लाइन में तोड़फोड़ करने के काम में भी लगे हुए थे.
कांग्रेस नेता मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल के पिता, जिन्हें उन्होंने गुप्त रूप से इस काम के लिए पैसा देने के लिए राजी कर लिया था, ने इस गुप्तता को उजागर कर दिया. उन्होंने खामोशी नहीं बरती, साजिश में पूरी तरह खामोशी की जरूरत महसूस नहीं की. कुछ कॉमरेड्स गिरफ्तार कर लिये गये. हालांकि मनोरंजन गुप्त, रसिक दास एवं काली आबाद थे और उन्होंने बंगाल टेलिग्राफ से सभी लाइनों को एक ही समय में काट डालने का इन्तजाम कर लिया था. डॉक्टर नारायण राय के साथ काली ने बम बनाने का काम किया. उन बमों की मारक क्षमता अच्छी थी, लेकिन उन बमों को पहने हुए कपड़ों में छुपाकर रखना मुश्किल काम था.
उन दिनों काली कम्युनिस्ट नहीं बने थे. काली अपने अन्य सभी आतंकवादी दोस्तों की तरह कहते थे कि कम्युनिस्ट सिर्फ क्रान्ति की बात करते हैं, जबकि तात्कालिक जरूरत क्रान्ति में हिस्सा लेने की है. लेकिन काली एवं उनके जैसे दूसरों के भीतर मेरठ षड्यंत्र केस ने उनमें बदलाव लाया और वे कम्युनिस्ट बन गये. यह षड्यंत्र केस भारत का सबसे बड़ा राजनीतिक मुकदमा था.
अंग्रेज पुलिस ने 20 मार्च सन् 1929 को 32 समाजवादी एवं ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया. उन पर कम्युनिस्ट होने के साथ ‘रानी को बर्तानवी भारत की सम्प्रभुता से वंचित’ करने की साजिश करने का आरोप लगाया गया. जैसे जैसे केस आगे बढ़ता गया, आरोपी कम्युनिस्टों ने कोर्ट का उपयोग भारतीय जनता के बीच अपने विचार को प्रचारित करने में किया. 1933 के वसन्त में 31 कॉमरेडों पर आरोप सिद्ध हुआ, लेकिन अपील के बाद उसी साल गर्मी के मौसम में कैदियों को जेल से रिहा कर दिया गया.
इस केस का मकसद कम्युनिस्ट आन्दोलन को शुरुआती दौर में ही ध्वस्त करना था लेकिन इसके विपरीत असर हुआ. वास्तविकता में इस मुकदमे के बाद देश में कम्युनिस्ट पार्टी अपने केन्द्रीकृत ढांचे के साथ अस्तित्व में आयी. व्यवहार में उसने 1934 में भारत में कम्युनिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट अन्तर्राष्ट्रीयता के एक हिस्से के रूप में, काम करना शुरू किया. काली एवं उनके साथी अन्य कॉमरेडों ने मध्य कोलकाता के एक हिस्से को मुक्त कराने एवं उस पर आजाद भारत का झंडा फहराने की योजना बनायी.
उनका मानना था कि अंग्रेजों को हटाने के लिए बमबारी करनी होगी और तोप के इस्तेमाल करने होंगे. इससे दुनिया यह समझेगी कि साम्राज्य रेत पर खड़ा है. लेकिन 25 अगस्त को अमिय सेन एवं दिनेश मजूमदार ने जब कोलकाता पुलिस प्रमुख पर दो बम फेंके तो उसमें उन्हें कोई कामयाबी नहीं मिली. अमिय सेन पकड़े गये और बाद में मार दिये गये. पुलिस यह तरीका तब भी अपनाती थी और आज भी अपनाती है. हम इसे मुठभेड़ कहते हैं.
31 अगस्त 1930 को कोलकाता के खुफिया विभाग की विशेष शाखा ने काली को गिरफ्तार किया. पुलिस ने 3000 बंगाली आतंकवादियों को गिरफ्तार किया. भारत तब भी अर्धसामन्ती विचारों के लिए विशिष्ट स्थान रखता था और आज भी रखता है. वास्तव में खुफिया ब्यूरो के प्रधान काली के रिश्तेदार थे, दूर के भाई. उसने काली को कहा कि ‘परिवार तुम्हारे कारण शर्मिन्दा है.’ उसने आगे कहा – ‘तुम्हें सात साल की जेल होगी या कम से कम पांच साल की. पर यह शर्मनाक होगी !’ परिवार को इस ‘शर्म’ से बचाने के लिए, इंगलैंड में निर्वासित होने के लिए काली तैयार हो जाते हैं. उन्हें 1931 के वसंत में एक जहाज में बैठा दिया गया, जो उन्हें लंदन ले गया.
यह समझना महत्वपूर्ण है कि यह एक सामान्य उपाख्यान नहीं है, बल्कि स्वतंत्रता के पहले और बाद के समय में सत्ताधारियों की सोची-समझी नीतियों का नमूना है. सुनीति कुमार घोष, जो 1967 में ‘लिबरेशन’ के सम्पादक थे, ने अपने संस्समरण ‘नक्सलबाड़ी : पहले और बाद में’ (पृष्ठ 286-289), न्यू एज पब्लिशर, 2009 कोलकाता, में लिखा है :
’21-22 अगस्त 1971 को सरोज दत्त की गिरफ्तारी और उनकी शहादत के कुछ दिनों बाद मेरी पत्नी और बड़ी बेटी को पुलिस कोलकाता पुलिस की विशेष शाखा के लार्ड सिन्हा रोड स्थित ऑफिस में ले आयी. विशेष शाखा के उपायुक्त ने मेरी पत्नी से कहा कि मेरे जैसे पढ़े-लिखे लोगों को हत्या की राजनीति में शामिल होना शोभा नहीं देता. अतः आपको अपने पति को इंगलैंड भेजने के लिए मनाना चाहिए और इसका इन्तजाम हम लोग कर देंगे. (कुछ दिनों बाद असीम चटर्जी के एक सहयोगी को पुलिस ने देवघर में गिरफ्तार किया तो पुलिस ने उसे जेल भेजने के बदले इंगलैंड जाने दिया.)
‘मेरी पत्नी ने उपायुक्त से कहा ‘अगर वे विद्वान हैं और इस रास्ते को पसन्द करते हैं तो मेरे लिए उन्हें इस रास्ते को छोड़ने के लिए मनाना सम्भव नहीं होगी.’ मेरी पत्नी ने यह भी जोड़ा कि ‘पुलिस भी लोगों की हत्या कर रही है.’ उपायुक्त ने जवाब में कहा कि ये हत्याएं बदले की कार्रवाइयां हैं. मेरी पत्नी के जवाबों से निराश होकर उसने कहा कि ‘हम लोग अगले तीन महीने या उसके पहले ही उसकी लाश आपको दिखाएंगे.’
उन दिनों लातिन अमेरिका और दक्षिण एशिया के देशों में क्रान्तिकारी बागियों की हत्या कर दी जाती थीं और आज भी यह जारी है. राजनीतिक रूप से सक्रिय किसान एवं निम्नमध्य वर्ग के बुद्धिजीवियों की ‘मुठभेड़’ में हत्याएं करने की पूरी सम्भावना रहती है. लेकिन सुनीति और काली जैसे शासक वर्ग के परिवार के काले /लाल भेंड़ को सिर्फ निर्वासित किया जाएगा. काली ने निर्वासित होना स्वीकार किया.
इंगलैंड में काली कम्युनिस्ट बन गये. हालांकि मैं यह नहीं जानता कि वह अपनी स्वीडिश मूल की अमेरिकी पत्नी की तरह कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने अथवा नहीं ! काली ने कांग्रेस के वामपंथी धड़े के पत्रकार के रूप में काम किया. बाद में स्वतंत्र भारत सरकार के दौर में ‘ब्लीट्ज’ पत्रिका के लिए बॉम्बे संवाददाता के तौर पर काम किया. इसी दौरान उनमें बहुत बदलाव आया और वे जवाहरलाल नेहरू के प्रशंसक बन गये.
1950 के दशक में कई कार्यक्रमों में मुलाकात के दौरान मैंने नेहरू को मिलनसार पाया. पहली जनवरी 1959 को भुवनेश्वर में अखिल भारतीय लेखकों के सम्मेलन में मैं और पत्नी गुन केसल नेहरू एवं उपराष्ट्रपति राधाकृष्णन के साथ देर तक चलने वाले नाश्ते में शामिल थे. हमारी बातचीत शुरुआत में सुखकर रही. मैंने ऑर्थर लूंङ्कविस्ट जो 1959 में ‘जनता में शांति को मजबूत करने के लिए लेनिन पुरस्कार’ पानेवालों में शामिल थे, के बारे में विस्तार से अपनी बात रखी.
भारत भ्रमण एवं 1952 में भारतीय लेखकों से मिलने के बाद उन्होंने स्वीडेन में श्रोताओं के समक्ष मुल्कराज आनन्द की ‘कुली’ एवं भवानी भट्टाचार्य की ‘सो मेनी हंगर्स’ जैसे भारतीय उपन्यास प्रस्तुत किया. नेहरू ने कहा कि इस तरह के उपन्यासों के जरिए स्वीडेन के पाठक को भारत की वास्तविकता के बारे में बेहतर समझदारी हो सकती है. आर्चर लुंड्कविस्ट के बारे में लिखने के पीछे कई कारण हैं. लेखक के रूप में वे यूरोप एवं अमेरिका के उस समय के लाक्षणिक वामपंथी थे. उनका भारत, ‘जिसे तीसरी दुनिया कहा जाता है’, से सम्पर्क था. उन्होंने अफ्रीका, लातिन, अमेरिका, चीन तथा भारत की अपनी यात्राओं पर पुस्तकें लिखी है. ये सभी पुस्तकें उस समय के पूरे ‘पूर्वी समूह’ में प्रकाशित हुई. अब वे फ्रायड के दृष्टिकोण के तहत लिख रहे हैं और भारत में यौन निग्रह को अर्थनीति के समान महत्वपूर्ण समझते हैं.
जवाहरलाल नेहरू की तरह वे भी 1930 के शुरुआती सालों से मेरी जिंदगी का हिस्सा रहे हैं. वे गरीब किसान पृष्ठभूमि के बालक थे. वे स्टॉक होम गये और अकादमिक क्षेत्र के बाहर रहते हुए भी अग्रणी आलोचक, कवि, उपन्यासकार और साहित्य तथा कला में आधुनिकतावादी आन्दोलन के संगठनकर्ता बन गये. वे मेरे माता-पिता के साथ साहित्यिक, राजनीतिक समूह में बहुत सक्रिय थे. वे फ्रायडवादी थे. कुछ हद तक मार्क्सवादी एवं पूरा आधुनिकतावादी. हमारे घर में भी उनकी पुस्तकें रहती थी. आलोचक के रूप में अमेरिका, यूरोप, लातिन अमेरिका और भारतीय साहित्य को स्वीडेन के पाठकों के समक्ष उपस्थित करने के कारण कई पीढ़ी तक उनका स्वीडेन में महत्वपूर्ण प्रभाव रहा.
आर्थर एवं मैं एक दूसरे को जानते थे. जब युवा लेखक के रूप में प्रतिष्ठित हो रहा था तो हम तरह-तरह के राजनीतिक एवं साहित्यिक बैठकों में एक साथ हिस्सा लेते थे. वे उस समय मुझमें काफी सम्भावनाएं देखते थे. भुवनेश्वर के सम्मेलन में उनकी तरह काम करने की जरूरत के बारे में मैंने कहा और ट्रेड यूनियनों के साथ मिलकर साहित्य के प्रसार की बात की ताकि ‘आम लोगों’ के लिए दुनिया को समझना आसान हो सके.
साहित्यिक और राजनीतिक परिवेश को जन साहित्य की जरूरत है. आलोचक के रूप में अपनी हैसियत की बदौलत लुंङ्कविस्ट ने भावशून्य स्वीडिश सामाजिक जनवादी ट्रेड यूनियनों को भवानी भट्टाचार्य जैसे लेखकों की 65-70 हजार प्रति छापने के लिए आर्थिक सहयोग देने के लिए तैयार किया.
बाद में स्वीडेन में हम कुछ साल तक घनिष्ठ रहे. 4 जुलाई 1967 को हम दोनों स्टॉक होम में अमेरिकी दूतावास के समक्ष विशाल जनसभा में वक्ता के रूप में उपस्थित थे. हमने कहा कि राजदूत एवं दूतावास के अन्दर के लोगों ने क्रान्ति को धोखा दिया है. दक्षिण पूर्व एशिया के लोग आजादी के लिए वाशिंगटन की हमलावर सेनाओं के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष द्वारा क्रान्ति की हिफाजत कर रहे हैं. ऑर्थर लुंडकविस्ट चमकते तारे का बैनर (अमेरिकी राष्ट्र ध्वज) को खुलेआम जला देने के समर्थन में अपनी बात करते हैं. उन्होंने कहा है कि यह एक कारगर संकेत था.
मनोवैज्ञानिक कारणों से अमेरिकी सरकार ने इसके खिलाफ उग्र प्रतिक्रिया व्यक्त की. इसके बाद राजनीतिक एवं सांस्कृतिक दोनों रूपों में हमारे रास्ते अलग हो गये. यह भी लाक्षणिक ही था. वे विश्व शान्ति परिषद के उपाध्यक्ष बन गये, जबकि मास्को में मेरी भर्त्सना हो रही थी. वे स्वीडिश अकादमी से जुड़ गये और नोबेल पुरस्कार के मामलों को देखने लगे (‘राजा को हाथ मिलाने में मदद करना’ जैसा कि हम कहते थे). लेकिन हम दोनों को स्टॉकहोम के बहुत ही दक्षिणपंथी अखबार में अपने लेख छपवाने होते थे. सामाजिक जनवादी अखबार की नजर में मैं अमेरिका एवं सोवियत संघ दोनों का बहुत बड़ा आलोचक था. अर्थर स्वीडिश अकादमी में शामिल हो गये थे इसलिए उदारवादी अखबार की नजर में वे प्रतिक्रियावादी बन गये थे.
जब 2006 में सरकारी स्तर पर उनकी जन्म सदी मनायी गयी तो मुझे उनकी पत्नी कवि मारिया वाइन ने इस अवसर पर भाषण देने के लिए आमंत्रित किया. उस समय मैंने कहा और स्वयं भी समझता था कि वे अपने पूरे समूह में लाक्षणिक थे. यह सही है कि हम लोगों के बीच यूरोपीय वामपंथ के वे भी बुद्धिजीवी थे, लेकिन अब न सिर्फ समय बदला है, बल्कि नये युद्धों के साथ यूरोपीयन बौद्धिक मापदंड भी बदला है. स्वीडिश अकादमी के उनके रक्षणशील सहयोगियों ने इस कार्यक्रम में शिरकत नहीं किया. वे आज भी और उनके जवानी में भी उन्हें अप्रासंगिक ही समझते थे. यह भी लाक्षणिक था. सार्त्र या लैक्सनेस या ड्रेकर और ब्रेख्त को साम्राज्य-विरोधी लेखक होने के कारण माफ नहीं किया गया.
मैंने डॉक्टर राधाकृष्णन को धन्यवाद दिया. 1953 में युनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में उन्होंने मेरे अधिकारों का समर्थन किया, जब अमेरिका ने सरकारी तौर पर ‘यान मिर्डल के बारे में छानबीन’ की घोषणा की. उन्होंने मेरी मां युनेस्को के समाज विज्ञान डिपार्टमेंट की निदेशक थीं, को उनके पेरिस से आइडलवाइल्ड हवाई अड्डे आने पर रोक दिया.
अमेरिका की मेरे बारे में स्वीडेन में छानबीन करने की घोषणा हैरान करने वाली थी. मैं तब अमेरिका में नहीं रहता था. मैंने अमेरिकी बीजा के लिए आवेदन नहीं किया था. उस समय के वैध स्वीडिश अपराध संहिता के अनुसार, स्वीडेन के किसी नागरिक या स्वीडेन में रहनेवाले के बारे में विदेशी सरकार का जांच में शामिल होना अपराध है, जिसके लिए दो साल तक जेल की सजा हो सकती है. अमेरिकी अधिकारियों ने स्वीडिश कानून का उल्लंघन कर मुझ पर छानबीन के लिए एजेंट लगाया था और आइडलवाइल्ड में मेरी मां को रोका क्योंकि मैं बुखारिस्ट में 2 से 14 अगस्त 1953 में आयोजित तीसरी दुनिया के युवा और छात्र समारोहों के लिए काम कर रहा था. यह एक नाजी सोच थी.
युवा पीढ़ी को यह जानना चाहिए कि शीत युद्ध के सबसे सर्द साल में 111 देशों के 30,000 युवाओं ने इस आयोजन में हिस्सेदारी की थी. हमारा सिद्धान्त था : ‘नहीं ! कतई नहीं. हमारी पीढ़ी मौत एवं तबाही की सेवा नहीं करेगी !!’ विशेष तौर पर कोरिया की जनता के खिलाफ अमेरिकी युद्ध और वियतनाम तथा अल्जीरिया पर फ्रांसीसी औपनिवेशिकों के विरोध में यह एकजुटता के लिए सचेत संघर्ष था. नाश्ते की मेज पर माहौल अचानक बदल गया. नेहरू डॉ. राधाकृष्णन से चीनियों के बारे में बात करने लगे.
ताशकंद (Tashkent) के अफ्रीकी-एशियाई लेखकों के सम्मेलन में एक चीनी प्रतिनिधि ने साहित्य में साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और नस्लवाद के खिलाफ वैचारिक संघर्षों के महत्व पर बल देते हुए जातिवाद के खिलाफ भी आवश्यक संघर्ष की बात कही. नेहरू जितना ही चीनी प्रतिनिधि द्वारा जातिवाद के खिलाफ कही गयी बात की चर्चा कर रहे थे, उतना ही वे ‘ठंडे गुस्से’ से ग्रस्त हो रहे थे : ‘ये चीनी लोग हमें हमेशा परेशान करते हैं ! ये लोग सचेत रूप से भारत विरोधी हैं !’ मुझे आश्चर्य हुआ.
वाङदुङ के बाद ‘हिन्दी चीनी भाई भाई’ के नारे पर मैं राजनीतिक रूप से यकीन नहीं करता था, लेकिन पहली बार में शीर्ष स्तर पर भारत एवं चीन के बीच बढ़ रही टकराहट के बारे में प्रत्यक्ष सुन रहा था. तीन महीने बाद तिब्बत में बगावत हुई और उसके बाद खुल कर सामने आया सीमा विवाद. गुन केसल और मैंने जातिवाद से मुकाबला करने की आवश्यकता सम्बन्धी चर्चा पर नेहरू की तीखी प्रतिक्रिया के कारणों पर बात की.
भारत पर जाति एवं जातिगत भेदभाव की विभीषिका को हम लोगों ने भारत में रहते हुए देखा था. साथ ही प्रतिदिन हम इसके खिलाफ अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे. लेकिन जाति के सम्बन्ध में आश्चर्यचकित होने वाली कोई बात नहीं थी. भारत में जाति विशिष्ट रूप से भारतीय नहीं थी. अगर आप जातीय विवाद पर गौर करें और उसका विश्लेषण करें तो आप सीधे वर्ग पर पहुंचेंगे. वास्तविकता में हम बुद्धिजीवी एवं कम्युनिस्ट लोग इसे इसी रूप में देखते हैं.
पांचवें दशक के आखिरी वर्षों में किसी के साथ मैंने जातिवाद, जैसे यहूदी विरोधिता या रूस के जार शासकों द्वारा ‘बांटो और शासन करो’ की नीति का जिक्र किया था. इस पर सारदा मित्रा, जिसे मैं 1953 से जानता था, और उनके साथ काम कर चुका था, भी कम्युनिस्ट एवं बुद्धिजीवी के लाक्षणिक रूप थे, ने पहले कोलकाता में 1947 में जिस तरह से साम्प्रदायिक हत्याओं को संगठित किया गया, पर बात की. साथ ही, उन्होंने 1875 में दक्षिण के दंगों और मारवाड़ी सूदखोरों के सम्बन्ध में चर्चा की.
भारत में मारवाड़ी एवं पूर्वी यूरोप में यहूदियों की सामाजिक इतिहास एवं भूमिका एक समान थी और शासकों ने एक ही तरह से इन टकराहटों का इस्तेमाल किया. गुन केसल ने बताया कि नेहरू ने 1936 में लखनऊ के अपने अध्यक्षीय भाषण में दलितों की वास्तविक स्थिति के बारे में इस तरह समझाया था :
‘छुआछूत एवं हरिजनों की समस्याओं को अलग-अलग तरीके से देखा जा सकता है. एक समाजवादी के लिए यह कोई कठिन समस्या नहीं है, क्योंकि समाजवाद में किसी तरह का विभेद नहीं रहेगा, न ही किसी को प्रताड़ित किया जाएगा. आर्थिक रूप से हरिजन भूमिहीन सर्वहारा है. हमारा आर्थिक समाधान परम्परा और आचार के सामाजिक रुकावटों को हटा देगा.’
हम इन पर चर्चा भी कर सकते हैं और विश्लेषण भी लेकिन 1959 में हमारे इर्दगिर्द हो रहा जातिगत संघर्ष और जातीय उत्पीड़न जितना विनाशकारी और घृणित था, उतना ही तब था जब 1936 में नेहरू ने इस पर बात की थी. फर्क सिर्फ इतना आया है कि नेहरू भारत में बढ़ रही इस समस्या को देख नहीं पा रहे थे. वे यह विश्वास करते थे या विश्वास करना चाहते थे कि कानूनी कलम की लकीर से जड़मूल से इस समस्या का समाधान हो जाएगा. भारत औपचारिक तौर पर राजनीतिक रूप से स्वतंत्र है, लेकिन जैसा कि नेहरू ने 1933 में ‘Whither India?’ में लिखा : ‘अगर विदेशी सरकार की जगह देशी सरकार सभी निहित स्वार्थ को 44 बरकरार रखती है तो यह आजादी की परछाई भी नहीं होगी.’
वे सही थे. इतिहास ने इसे साबित किया है. क्या दलितों को आज के औपचारिक रूप से स्वतंत्र भारत में आजाद कहा जा सकता है ? भारत के इर्दगिर्द एक निगाह डालने की जरूरत है. यह आजादी मुट्ठी भर विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए है, न कि बहुसंख्यक भारतीय जनता के लिए. उनके लिए भारत आज भी स्वतंत्र नहीं है. यह उतना आश्चर्यजनक नहीं है. यह वर्ग एवं वर्गीय शासन का सवाल है और इसकी व्याख्या भारत के स्वतंत्रता के इतिहास में है.
भारत ने अंग्रेजों से औपचारिक स्वतंत्रता कैसे हासिल की ? भारत में अंग्रेजों के राज का पूरा इतिहास भारतीय जनता के विद्रोह और बगावतों का इतिहास रहा है. शासकों की ‘कानून का शासन’ जैसे खूबसूरत शब्दों के साथ ही गैरकानूनी निर्मम और खूनी दमन की परम्परा रही है. जवाहरलाल नेहरू इसे अच्छी तरह जानते थे. कैदी के तौर पर जवाहरलाल नेहरू ने अहमदनगर में ‘India Revaged’ नामक बुकलेट पढ़ा था. इसे ‘Free India’ 1943 में प्रकाशित किया गया था.
यह पुस्तक 9 अगस्त 1942 को भारतीय नेतृत्व की गिरफ्तारी के बाद हुई बगावत को कुचलने के नाम पर भारत पर अंग्रेजी हुकूमत द्वारा ढाये गये आतंक की सपाट वास्तविक तस्वीर पेश करना चाहता है लेकिन इतना कहना ही काफी होगा कि अत्याचार के ऐसे किसी भी रूप जिसे ‘दूसरी सभ्य सरकारों’ के खाते में डाल दिया जाता है, जिसे अंग्रेजों ने बदले की कार्रवाई के रूप में भारत में नहीं किया हो, चाहे 1857 हो या 1919 या अगस्त-दिसम्बर, 1942. सन् 1942 में सरकारी पक्षों से 70 लोगों की जानें गयी हैं, इसके विपरीत जनता की ओर से मुठभेड़ में या मनमाने तरीके से 25,000 आम और बेगुनाह लोग गोलीबारी में मार दिये गये.’ इसे पढ़कर लगता है कि नक्सलियों ने 2010 में मौजूदा सरकार की नीतियों पर लिखा है.
किस तरह से स्वतंत्रता आन्दोलन जिसे लोकप्रिय समर्थन हासिल था और जिसका नेतृत्व जवाहरलाल नेहरू की तरह बुद्धिमान एवं बहुत सारे मायने में ईमानदार व्यक्ति कर रहे थे, का अन्त इस रूप में हुआ. क्या स्वतंत्रता आन्दोलन ने भारतीय गणराज्य की स्थापना की ही इसलिए थी कि स्वतंत्रता के 60 साल बाद भी गरीबी के समुद्र के बीच सरकार सीमित तबके के लिए 8-9 प्रतिशत विकास दर पर गर्व करे ?
एक आजाद भारत जहां की सरकार बहुसंख्यक आबादी को गरीब बनाये रखने वाली नीतियों को बरकरार रखने के लिए हिंसक व सशस्त्र बल का प्रयोग करती हो और अपने मुनाफे के लिए देश की एक-चौथाई आबादी को पशुओं के स्तर पर बदहाली के लिए धकेल कर उन्हें पीस रही हो ! वास्तव में, जवाहरलाल नेहरू ने खुद इस स्थिति की व्याख्या अपनी ‘आत्म जीवनी’ में कांग्रेस के विकास के बारे में की है :
‘हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रारम्भ हमारे उच्चमध्य वर्ग की आत्म अभिव्यक्ति एवं विकास का जरिया तलाशने के कारण हुआ. इसके पीछे राजनीतिक एवं आर्थिक आवश्यकता काम कर रही थी. बाद में यह निम्नमध्य वर्ग तक फैल गया. यह देश में एक ताकत बनकर उभरा इसके बाद इसने ग्रामीण जनता को आन्दोलित किया, जिनके लिए समग्रता में उनके दयनीय जीवन स्तर को भी बरकरार रख पाना लगातार मुश्किल हो रहा था.’
जवाहरलाल नेहरू उस रूप में अपवाद थे, जिनका नजरिया इतना स्पष्ट था कि वह अंग्रेजों से उत्तराधिकार में मिलने वाले भारतीय समाज के वर्गीय विरोध को देख पा रहे थे. यही वर्ग स्वतंत्र भारत में अब तक अपने हाथ में शासन की बागडोर थामे हुए है. बौद्धिक रूप से वे यह समझते थे कि वे इस वर्ग और इसके परवरिश की उपज है. इंगलैंड में उनके अध्ययन ने उनके विचारों को निरूपित किया लेकिन अपनी छाया से भाग नहीं सकते थे, ‘मेरी राजनीति मेरे वर्ग की राजनीति है, बुर्जुआ की राजनीति. उस समय की सभी मुखर एवं बहुत हद तक आज भी वे मध्य वर्ग के, चाहे उदारवादी हों या उग्रवादी, प्रतिनिधि हैं. वे अलग-अलग तरीकों से इस वर्ग की तरक्की चाहते हैं.’
- प्रकाशित लेख ‘भारत के आसमान में लाल तारा’ नामक किताब से लिया गया है, जो ‘यान मिर्डल’ द्वारा लिखित किताब ‘RED STAR OVER INDIA’ का हिंदी अनुवाद है. हिंदी भाषा में इसे सेतु प्रकाशन, कोलकाता की ओर से अर्चना दास एवं सुब्रतो दास द्वारा 2013 में प्रकाशित किया गया है.
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