प्रियदर्शन, एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर, NDTV इंडिया
पिछले कई दिनों से अपने ‘वामपंथी’ या ‘कम्युनिस्ट’ होने की तोहमत झेल रहा हूं. जब भी मैं कोई ऐसी टिप्पणी करता हूं जिसमें भावुकता की जगह संवेदना की बात होती है, उन्माद की जगह विवेक का पक्ष होता है, अंधविश्वास की जगह तार्किकता की दलील होती है, मंदिर-मस्जिद झगड़ों को व्यर्थ बताने का उपक्रम होता है, इतिहास के तथ्यों पर बात करने की कोशिश होती है, धार्मिक और जातिगत वर्चस्ववाद की जगह लोकतांत्रिक सहमति की वकालत होती है. राष्ट्रवाद के हुजूमी अतिरेक की आलोचना और स्वस्थ आधुनिक नागरिकता का बचाव होता है तो अचानक कई विद्वान लोग किसी कुएं से प्रगट होते हैं और मुझे ‘वामपंथी’ करार देते हैं.
यह बहुत मज़ेदार स्थिति है. आप सरकार का विरोध करें तब भी वामपंथी हैं, पेट्रोल-डीज़ल के बढ़ते दाम का सवाल उठाएं, तब भी वामपंथी हैं, सांप्रदायिकता की निंदा करें तब भी वामपंथी हैं, मानवाधिकार का सवाल उठाएं, तब भी वामपंथी हैं, हिंसा का विरोध करें तब भी वामपंथी हैं और नक्सलियों के नाम पर गांववालों के उत्पीड़न के ख़िलाफ़ बोलें, तब तो पक्के वामपंथी हैं. यहां तक कि बुकर सम्मान प्राप्त लेखिका के समर्थन में लिखना भी वामपंथ है. एक प्रगतिशील लेखिका को बुकर दिया जाना भी वामपंथ की निशानी है और अमेरिका में बंदूक संस्कृति की निंदा करना भी वामपंथ ही है.
तो वामपंथी होना इतना आसान कभी नहीं था. लेकिन इससे पता चलता है कि वामपंथ को लेकर हाल के नवहिंदूवादियों की समझ कितनी लचर है. उन्हें पता ही नहीं कि वामपंथ क्या होता है ? एक कारपोरेट कंपनी में नियमित वेतन पर काम करने वाला, अपनी कार से दफ़्तर आने-जाने वाला, टीवी-फ़्रिज-एसी से लैस मध्यवर्गीय जीवन जीने वाला कोई शख़्स वामपंथी विचार से प्रभावित तो हो सकता है, कम्युनिस्ट नहीं हो सकता. कम्युनिज़्म की कसौटी पर तो यह जीवन पेटी बूर्जुवा जीवन ठहरता है जिसके उदारवाद को ढुलमुलपन की श्रेणी में रखा जाता है.
सच तो यह है कि आज कम्युनिस्ट होना आसान नहीं है. दुनिया भर में कम्युनिज़्म विरोधी लहर-सी दिखती है. चीन का साम्यवाद पथभ्रष्ट साम्यवाद नज़र आता है, जिसने निजी पूंजी और बाज़ार से गठजोड़ कर रखा है. भारत में कम्युनिस्टों के पांव हर जगह से उखड़ते दिख रहे हैं. बंगाल जैसा क़िला उनके हाथ से निकल गया. अकेला केरल बचा हुआ है जहां एक लाल दीया टिमटिमा रहा है. फिर ऐसा भी नहीं कि कम्युनिस्टों का कोई एक प्रकार रहा है.
वामपंथ के कई रंग रहे हैं. वाम मोर्चे के नाम पर चार पार्टियां आज भले एक हों, लेकिन इनके बीच तीखे टकराव रहे हैं. बल्कि जिस नक्सलवाद को दक्षिणपंथी राजनीति वामपंथ की ही एक शाखा मानती है, उसने पहली लड़ाई कम्युनिस्टों से ही लड़ी और पहली मार उन्हीं के ख़िलाफ़ लड़ते हुए खाई. यही नहीं, वामपंथ की एक अन्य भारतीय शाखा समाजवाद का भी कम्युनिस्टों से टकराव रहा. राम मनोहर लोहिया का यह कथन मशहूर है कि साम्यवाद और पूंजीवाद दोनों एशिया पर हमले के आख़िरी यूरोपीय हथियार हैं.
लेकिन जो कम्युनिज़्म इतना कमज़ोर हो चुका है, वह हर विवाद पर हिंदूवादियों को क्यों याद आता है ? क्योंकि एक राजनीतिक संगठन के तौर पर मार्क्सवादी दल भले पीछे छूटे हों, एक विचार के रूप में मार्क्सवाद अब भी एक चुनौती बना हुआ है. हालांकि मार्क्सवाद का विचार भी इनकी समझ में नहीं आता, लेकिन कुछ उक्तियां उन्होंने ज़रूर गांठ रखी हैं. इन्हीं में से एक मार्क्स का यह प्रसिद्ध कथन है- धर्म अफीम है. भारत जैसे धर्मपरायण देश में धर्म को अफ़ीम कहने वालों को- नशा बताने वालों को- कैसे सहन किया जा सकता है ?
लेकिन दरअसल धर्म को लेकर मार्क्स का पूरा कथन कहीं ज़्यादा अर्थवान है. वे लिखते हैं- ‘धर्म जनता की अफ़ीम है. वह उत्पीड़ित प्राणियों की आह है, हृदयहीन विश्व का हृदय है और हमारी आत्महीन स्थितियों की आत्मा है.’ मार्क्स यहां अफ़ीम को नशे की तरह नहीं, दर्दनाशक दवा की तरह देख रहे थे. उन दिनों दर्द से निजात पाने के लिए आज वाले पेन किलर नहीं होते थे, लोग अफ़ीम लेकर ही दर्द से लड़ते थे.
तो साम्यवाद, मार्क्सवाद या कम्युनिज़्म या फिर इनसे कुछ व्यापक अर्थों वाला वामपंथ वह नहीं है जो हिंदूवाद के समर्थक समझते हैं. इन दिनों वे भारत की हर सामाजिक-आर्थिक समस्या के लिए कांग्रेस को ज़िम्मेदार मानते हैं और हर बौद्धिक समस्या के लिए कम्युनिस्टों को. उनको लगता है कि सारा का सारा इतिहास बस कम्युनिस्टों ने लिखा है और जान-बूझ कर उनके आराध्य देवों की छवि ख़राब की है.
उनका दिल यह मानने को नहीं करता कि सावरकर कभी अंग्रेज़ों से पेंशन लेते थे और गांधी की हत्या के मुजरिम थे जिनके ख़िलाफ़ कपूर आयोग की रिपोर्ट में बिल्कुल पुष्ट ढंग से आरोप लगाए गए हैं. उनका दिल यह मानने को नहीं करता कि इस देश की आज़ादी के लिए गांधी, नेहरू, तिलक और पटेल ने जेल काटी, उनके संघी माफ़ीवीरों ने नहीं. वे यह देखने को तैयार नहीं होते कि भगत सिंह कम्युनिस्ट थे, नास्तिक थे और हिंदूवाद की राजनीति के सख़्त ख़िलाफ़ थे.
निस्संदेह आज़ादी की लड़ाई में एक धारा ऐसी रही जिसके भीतर हिंदुत्व की परंपरा को पुनर्स्थापित करने का सपना था, लेकिन एक तो वह इतना कट्टर नहीं था कि उसमें दूसरे अल्पसंख्यकों की जगह नहीं होती और दूसरे उसके समानांतर एक दूसरी धारा इतनी बड़ी थी कि उसे इसके आगे मंद पड़ना ही था.
इसी तरह मध्यकाल में पूरा मुगल शासन इतना क्रूर और धर्मांध होता कि हर बात पर हिंदू-मुस्लिम कर रहा होता तो उन कारोबारी शहरों का उदय नहीं होता, जिनकी समृद्धि की कहानियां बनती रहीं और जिससे खिंच कर दुनिया भर के कारोबारी यहां आते रहे. औरंगजेब ने यह कट्टरता दिखाई तो 50 साल राज करने के बावजूद वह मुगल शासन का पतन नहीं रोक सका.
बहरहाल, यह विषयांतर है. प्रश्न यह है कि यह सारा इतिहास क्या सिर्फ़ कम्युनिस्टों ने लिखा है ? वे सारे अंग्रेज़ कौन थे जिन्होंने भारतीय शास्त्रीय ग्रंथों को इतिहास की धूल से झाड़-पोछ कर निकाला, उनका अनुवाद किया और भारतीयों को उनकी संपदा लौटाई ? निश्चय ही अंग्रेज़ों का साम्राज्यवादी अहंकार उनके क्रूर औपनिवेशिक दमन के साथ मिलकर एक विडंबना भरा इतिहास बनाता है, लेकिन जैसा नकली अहंकार ब्रिटिश या यूरोपीय श्रेष्ठता का था, वैसा ही खोखला दर्प क्या हिंदुत्व का नहीं है ?
और क्या ऐसे ही खोखले दर्प के मारे लोगों ने तुलसीदास को रामचरित मानस लिखने से रोकने की कोशिश नहीं की थी ? यह कहानी भी किसी कम्युनिस्ट ने नहीं, अमृतलाल नागर ने अपने उपन्यास ‘मानस का हंस’ में लिखी थी. और क्या इसी दर्प का नतीजा यह नहीं था कि शिकागो के जिस विश्व धर्म सम्मेलन से विवेकानंद अपनी कीर्ति पताका फहरा कर लौटे, वहां हिंदुत्व के प्रतिनिधि के रूप में कोई और गया था- विवेकानंद नहीं ? वे तो एक ईसाई महिला की मदद से कुछ बीमार हालत में शिकागो पहुंच सके थे.
वैसे यह लेख न हिंदुत्व की निंदा के लिए लिखा जा रहा है और न कम्युनिस्टों-कांग्रेसियों की तारीफ़ के लिए. आजादी के बाद की कांग्रेस का हाल बीजेपी से बेहतर नहीं रहा है. दरअसल यह कांग्रेस के पापों का ही नतीजा है कि बीजेपी सत्ता में आ सकी है और अपने हर धत्तकरम को सही साबित करने के लिए कांग्रेस का एक उदाहरण खोज लाती है कि उसके समय भी यही होता रहा. बेशक, बीजेपी-कांग्रेस में फिर भी एक फ़र्क है- गुण सूत्र का.
कांग्रेस आज़ादी की लड़ाई की कोख से निकली है इसलिए अंततः उसके गुणसूत्र उसकी व्यवहारगत सारी गड़बड़ियों के बावजूद एक मिले-जुले भारत के खयाल से नाभिनालबद्ध हैं, जबकि संघ की कोख से निकली बीजेपी लोकतांत्रिक मजबूरियों में धर्मनिरपेक्षता और सांस्कृतिक बहुलता की जितनी भी बात करे, एक हिंदू राष्ट्र का स्वप्न उसे बीच-बीच में सताता रहता है, अतीत की कृत्रिम भव्यता से अभिभूत उसकी चेतना उसे मंदिर बनाने-मस्जिद गिराने के एजेंडा तक ले जाती रहती है.
कम्युनिस्टों के भी संकट हैं. मार्क्स और लेनिन के विराट मानवीय स्वप्न को धरती पर उतारने की कोशिश में और चारों ओर से हो रहे पूंजीवादी प्रहारों से मुक़ाबले की मजबूरी में उनकी राजनीति के अपने विद्रूप रहे हैं, महत्वाकांक्षाओं के घोर टकराव रहे हैं और उनकी व्यवस्था से भी स्टालिन से लेकर चाउशेस्कु तक जैसे लोग निकले हैं. बरसों बाद उन्होंने अपनी सांस्कृतिक क्रांतियों के नाम पर किए गए रक्तपात के लिए अफ़सोस जताया है. भारत में वे लोकतांत्रिक उदारता की मजबूरी में वैचारिक ढुलमुलपन के वरण को मजबूर हुए हैं.
लेकिन इसके बावजूद कम्युनिस्टों ने दुनिया को महान मानवीय स्वप्न दिए और समानता की ऐसी वैचारिकी दी जो अब तक प्रासंगिक बनी हुई है. आज जो भी विचारधारा रोटी और रोज़गार की बात करती है, बराबरी और न्याय की बात करती है, वह अपना नाम जो भी रख ले, उसके पीछे मार्क्सवादी विचारधारा का बल ही रहता है.
यह लिखने के बावजूद यह दुहराना ज़रूरी है कि इन पंक्तियों का लेखक कहीं से कम्युनिस्ट नहीं है, बेशक, वह कम्युनिस्टों का सम्मान करता है. हमारी तरह के लोगों को मार्क्स-लेनिन भी लुभाते हैं, गांधी और लोहिया भी और गांधी के सबसे बड़े विरोधी बना दिए गए अंबेडकर भी. भारत में यह यूटोपिया धीरे-धीरे लोकप्रिय हो रहा है कि काश मार्क्स, अंबेडकर और गांधी को जोड़ता हुआ कोई वैचारिक संगठन आए. लेकिन यह भी बताना ज़रूरी है कि ये सारे लोग अपनी तर्कप्रवणता, अपनी संवेदनशीलता और अपने मानवीय विवेक की वजह से हमें लुभाते हैं, अपनी कहीं-कहीं दिखने वाली कट्टरताओं की वजह से नहीं. बल्कि इन सारी विचारधाराओं के बीच जहां आलोचना के तत्व मिलते हैं, वहां इनकी आलोचना भी होती है.
लेकिन यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि दुर्भाग्य से ऐसी प्रेरणा गोलवलकर, सावरकर या दीनदयाल उपाध्याय का साहित्य कम जगाता है, उल्टे उसमें बहुत सारे तत्व ऐसे हैं जो हमें कट्टरता की ओर, पिछड़ेपन की ओर, राष्ट्रवादी जुनून की ओर, स्त्री-वैमनस्य की ओर धकेलते हैं.
दरअसल कभी ग्राहम ग्रीन को पढ़ा था जिसने लिखा था कि लेखक को विचारधारा के दुर्गों का प्रहरी नहीं होना चाहिए, उसे उनके बीच की दरार देखनी चाहिए. जब आप यह दरार देखते हैं तो आप पर हमले शुरू होते हैं. कांग्रेसी बताते हैं कि आप भाजपाई हैं, भाजपाई बताते हैं कि आप तो कम्युनिस्ट हैं. अब यह लेखक क्या बताए कि वह किस तरह हर जगह अकेला है.
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