बुर्कापोशों की गुंडागर्दी अब खुलकर सामने आ गई है जब कश्मीर की एक छात्रा अरुसा परवेज ने बिना बुर्कापोशी या हिजाब पहने एक इंटरव्यू दिया और उसकी तस्वीर मीडिया में छपी. बिना बुर्कापोशी के छपी अरुसा की तस्वीरों ने बुर्कापोशों की गुंडागर्दी सामने ला खड़ी की, जिसने मुस्कान के बुर्कापोशी का समर्थन यह कहकर किया कि बुर्का पहनना या ना पहनना उसका मौलिक अधिकार है.
अब इसी मौलिक अधिकार के नाम पर बुर्कापोशों की बोलती तब बंद हो गई जब कश्मीर की छात्रा अरुसा की तस्स्वीर बिना बुर्कापोशी के छपी और बुर्कापोशों के गुंडों ने बुर्कापोशी न होने के उसके मौलिक अधिकार का हनन करते हुए उसका सर कलम करने का फतबा जारी कर दिया.
दरअसल अरुसा परवेज़ जम्मू-कश्मीर में श्रीनगर के इलाहीबाग इलाके की रहने वाली है, जो साइंस स्ट्रीम में 500 (99.80 फीसदी) में से 499 अंक हासिल की है. श्रीनगर के उपायुक्त मोहम्मद एजाज असद ने उनके कार्यालय कक्ष में आयोजित एक सम्मान समारोह के दौरान उनका सम्मान किया और उनकी सफलता के लिए प्रोत्साहन के रूप में उत्कृष्टता प्रमाण पत्र, एक ट्रॉफी और 10,000 रुपये के चेक से सम्मानित किया गया था, जिसकी तस्स्वीर मीडिया में छपी थी. इससे बौखलाया बुर्कापोशों का गिरोह सोशल मीडिया पर अरुसा को जमकर न केवल ट्रोल ही किया अपितु सर काटने की धमकी भी दी.
यही पर बुर्कापोशों की सारी दलीलें धरी रह जाती है जब वह मुस्कान के बुर्कापोशी के अधिकार का तो समर्थन करता है जबकि वह अरुसा के बुर्कापोशी न करने के अधिकार को कुचल डालना चाहता है. यह दरअसल महिलाओं को सदियों पुरानी गुलामी और घर के सजावट की वस्तु मानने के पितृसत्तात्मक सोच का ही परिणाम है. याद होगा भारत की मशहूर टेनिस खिलाड़ी सानिया मिर्जा के शॉर्ट्स ड्रेस पहनने का भी इसी सोच के कारण विरोध किया था.
आज भी दुनिया भर की मुस्लिम औरतें बुर्कापोशी का विरोध कर रही है और इसके बदले में अपनी जान तक दाव पर लगा रही है, तब मौलिक अधिकारों के नाम पर भारत में बुर्कापोशी का समर्थन करना या समर्थक बनना, प्रतिक्रियावादी पितृसत्तात्मक सामंती व्यवस्था को ही मजबूत करना या उसे बढ़ावा देना होगा. मुस्कान बुर्कापोशी हो, यह उसका अधिकार हो सकता है तो अरुसा का बुर्कापोशी न होना भी उसका मौलिक अधिकार होना चाहिए.
क्या हम भूल गये है कि सती प्रथा के नाम पर औरतों को जिन्दा जलाने की क्रूरता को ? जब राजाराम मोहन राय ने सती प्रथा की क्रूरता का विरोध किया तो ऐसे ही कट्टरपंथी ताकतों ने राजा राम मोहन राय के खिलाफ विरोध का झंडा बुलंद कर दिया था, वह भी समाजिकता और परम्परा के नाम पर, जो असलियत में ‘मौलिक अधिकार’ का ही पुरातन शैली था. उसी तरह दलित महिलाओं पर स्तन टैक्स लगाने की भी प्रथा थी, जिसके खिलाफ आन्दोलन होने पर कट्टरपंथियों ने भी यही ‘समाजिकता और परम्परा’ का राग अलापा था.
ऋयह एक सामान्य सा विज्ञान है कि महिलाओं को पर्दा या बुर्कापोशी कराने से न केवल उसकी प्रतिभा पर ही प्रतिकूल असर पड़ता है बल्कि महिलाओं को एक ‘वस्तु’ बनाने की प्रतिक्रियावादी सोच को भी बल मिलता है. यही कारण है कि तुर्की के अतातुर्क मुस्तफा कमाल पाशा ने बड़ी ही बेरहमी से न केवल बुर्कापोशी का विरोध किया अपितु इसके समर्थक कट्टरपंथी ताकतों को कुचल भी दिया.
आज जो प्रगतिशील और उदारतावादी ताकतें जो बुर्कापोशी का समर्थन कर रहे हैं दरअसल कल वे सती प्रथा और स्तन टैक्स का समर्थन करते नजर आये तो कोई अचंभा नहीं होगा. दरअसल ये लोग वे लुढ़कने वाले लोटा हैं जिनका पेंदा नहीं है और जिधर सुविधापूर्वक लुढ़कने का सहुलियत मिलता है उधर लुढ़क जाते हैं. इसको गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है.
हां, बुर्कापोशी का उलट नंगा होना नहीं होता. मुस्तफा कमाल पाशा ने अपने देश के लिए यूरोपीय परिधान को अपने देश का राष्ट्रीय परिधान घोषित किया था, ठीक वैसे ही जैसे भारतीयों का राष्ट्रीय परिधान धोती कुर्ता, साड़ी, लुंगी को बनाया गया था. परन्तु, भारतीयों का यह राष्ट्रीय परिधान जिस सामंतकालीन वक्त के लिए ठीक था, अब वही राष्ट्रीय परिधान आज के औद्योगिक काल में अनुपयुक्त हो गया है. इसलिए भारतीयों को भी एक राष्ट्रीय परिधान औद्योगिकीकरण के इस दौर में पश्चिमी सभ्यता की ही भांति बदलना चाहिए, न कि मूर्खों और पाखंडियों की भांति परम्परा के नाम पर पुरातन से चिपका रहना चाहिए.
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