Home पुस्तक / फिल्म समीक्षा ‘Hitler and the Nazis: Evil on Trial’ : हमारे समय के लिए एक चेतावनी

‘Hitler and the Nazis: Evil on Trial’ : हमारे समय के लिए एक चेतावनी

34 second read
0
0
152
'Hitler and the Nazis: Evil on Trial' : हमारे समय के लिए एक चेतावनी
‘Hitler and the Nazis: Evil on Trial’ : हमारे समय के लिए एक चेतावनी
मनीष आजाद

पिछले दिनों ‘यूरोपियन यूनियन’ के चुनाव में दक्षिणपंथी पार्टियों को भारी बढ़त मिली है. फ़्रांस की ‘ली पेन’, इटली की ‘मेलोनी’ के साथ साथ जर्मनी की AfD पार्टी को भारी सफलता मिली है, जो अपने फासीवादी नजरिये के लिए जानी जाती है. भारत में मोदी ने अपना तीसरा टर्म शुरू कर दिया है और अमेरिका में पूरी संभावना है कि ट्रम्प चुनाव जीत जाय. ऐसे समय में नेटफ्लिक्स सीरीज ‘Hitler and the Nazis: Evil on Trial’ हम सब के लिए एक चेतावनी की तरह है कि फासीवाद हमारे दरवाजे तक दोबारा पहुच चुका है.

वैसे तो नाजी जर्मनी, हिटलर और होलोकॉस्ट पर फिल्मों, दस्तावेजी फिल्मों की कमी नहीं है. बावजूद इसके 2018 में Conference on Jewish Material Claims Against Germany द्वारा 1980-95 के बीच पैदा हुए लोगों के बीच किये गए सर्वेक्षण में चौकाने वाले नतीजे सामने आये थे. इस रिपोर्ट के अनुसार 66 प्रतिशत लोग ‘आश्विच’ के बारे में नहीं जानते थे. इस सीरीज के निर्देशक Berlinger (जो खुद एक यहूदी हैं) ने एक इंटरव्यू में कहा कि वैश्विक स्तर पर यह सही समय है कि आज की नयी पीढ़ी को एक चेतावनी के रूप में यह कहानी दोबारा से बताई जाय.

6 भागों वाली इस सीरीज की शुरुआत हिटलर की प्रेमिका एवा ब्राउन के साईनाइड खाने और इसके अगले ही क्षण हिटलर द्वारा अपने आपको गोली मारे जाने से होती है. यानी निर्देशक पहले ही फ्रेम में यह स्पष्ट कर देता है कि फासीवादी हत्यारों का अंतिम हश्र क्या होता है. इसके बाद फिल्म बहुत ही खूबसूरती से 1945-46 में नाजी हत्यारों पर चले बहुचर्चित न्युरेनबर्ग मुकदमे और हिटलर के नाजी दौर के इतिहास में आवा जाही करती रहती है.

इसी दरम्यान यह Omer Bartov, Devin Pendas और Anne Berg जैसे प्रसिद्ध इतिहासकारों के साक्षात्कारों के माध्यम से हिटलर और थर्ड राइख के उत्थान पतन को रेशा रेशा खोलती चलती है. Archival footage और ड्रामा के माध्यम से हिटलर और नाजियों द्वारा किये गए जनसंहार को अपने पूरे परिपेक्ष्य में रखने का प्रयास करती है.

ये फुटेज देखकर आपको निश्चित ही गज़ा की याद आएगी और फिर यह सवाल भी मन में जरूर उठेगा कि गज़ा जनसंहार के लिए जिम्मेदार इजरायलियों/अमेरिकियों पर ‘न्युरेनबर्ग’ का मुक़दमा कब चलेगा ? हिटलर अपने शुरूआती वर्षों में एक बेरोजगार कुंठित नौजवान था जो जीविका के लिए पेंटिंग बनाया करता था. लेकिन आश्चर्य कि उसने कभी किसी इंसान का चित्र नहीं बनाया. क्या उसे इंसान मात्र से कोई प्यार नहीं था, या वह इतना अहंकारी था कि वह किसी इंसान का चित्र बना ही नहीं सकता था ?

इस वेब सिरीज में मशहूर पत्रकार William L. Shirer की निजी डायरी का भी शानदार इस्तेमाल किया गया है. William L. Shirer 1934 से 40 तक जर्मनी में एकमात्र अमेरिकी पत्रकार थे. जो बाते वे नाजी सेंसर के कारण प्रसारित नहीं कर पाते थे, उसे वे अपनी डायरी में लिख लेते थे. इस डायरी को वे गुपचुप तरीके से अपने साथ अमेरिका ले आ पाने में सफल रहे जो बाद में प्रकाशित भी हुई.

मजेदार बात यह है कि AI के मध्यम से William L. Shirer की आवाज बनाकार उनकी डायरी के कई महत्वपूर्ण अंश को ‘उन्हीं की आवाज’ में इस सिरीज में इस्तेमाल किया गया है, जिससे इसकी प्रमाणिकता बढ़ जाती है.

इसके अलावा पहली बार न्युरेनबर्ग मुकदमे की मूल आडिओ फाइल का इस्तेमाल इस सिरीज को और भी खास बना देता है. William L. Shirer न्युरेनबर्ग मुकदमे में भी एक पत्रकार की हैसियत से शामिल थे. इसलिए उनकी नज़र से उन नाजी अफसरों देखना एक अलग ही अनुभव होता है, जहां वे कटघरे में खड़े उन नाजी हत्यारों की आज की स्थिति की तुलना उस दौर से करते हैं, जब इन नाजी हत्यारों को लगता था कि वे पूरी दुनिया को अपने क़दमों से कुचल देंगे.

Leni Riefenstahl जैसे फिल्मकारों और गोयबल्स ने किस सुनियोजित तरीके से हिटलर का मिथक खड़ा किया था, उसे भी आप इस सीरीज में देख सकते है और आज हमारे समय से उसकी तुलना भी कर सकते हैं. मोदी का ‘बायोलाजिकल’ होने से इनकार करना महज यूं ही नहीं है बल्कि एक सुनियोजित प्रोजेक्ट का हिस्सा है.

यह सिरीज यह स्थापित करने में कामयाब रहती है कि चीजे रातों रात नहीं बदलती, वे एक प्रक्रिया में आगे बढ़ती हैं. जर्मनी में धीरे धीरे जब एक के बाद एक यहूदियों पर प्रतिबन्ध लगाया जा रहा था तो ज्यादातर ‘शांतिप्रिय लिबरल’ यही सोच कर अपने को दिलासा देते थे कि शायद यह अंतिम होगा. बाबरी मस्जिद टूटने के बाद यहाँ के ज्यादातर ‘लेफ्ट लिबरल’ लोगों ने यही सोचा था कि यह अंतिम होगा. लेकिन हम जानते हैं कि उसके बाद क्या हुआ.

इस सिरीज की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि जब लाल सेना या स्टालिन का जिक्र आता है तो यह ऐतिहासिक साक्ष्यों से पीछा छुड़ाकर साम्राज्यवादियों द्वारा फैलाये गए झूठ/अफवाह की शरण में चली जाती है. सिरीज में यह दिखाना बेहद आपत्तिजनक है कि बदले की भावना से लाल सेना ने भी जर्मन महिलाओं के साथ बड़े पैमाने पर बलात्कार किया.

वास्तव में यह विडम्बना ही है कि अक्सर लिबरल कहे जाने वाले लोग दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादियों और क्रांतिकारी कम्युनिस्टों को एक ही तराजू में रखते हैं और जाने अनजाने प्रतिक्रियावादियों/फासीवादियों को मजबूत करते हैं. यही उस वक़्त के जर्मनी में हुआ और यही आज के भारत में हो रहा है. फिर भी इन कमियों के बावजूद इस सिरीज को एक चेतावनी के तौर पर देखा जाना चाहिए.

Read Also –

पेरिस कम्यून पर एक महत्वपूर्ण फिल्म – ‘ला कम्यून’
गंभीर विषय पर सतही फ़िल्म – बस्तर (द नक्सल स्टोरी)
‘मदाथी : अ अनफेयरी टेल’ : जातिवाद की रात में धकेले गए लोग जिनका दिन में दिखना अपराध है 

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

scan bar code to donate
scan bar code to donate
G-Pay
G-Pay
Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In पुस्तक / फिल्म समीक्षा

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

अलीगढ़ में माॅब लीचिंग के जरिए सांप्रदायिक जहर फैलाने की भाजपाई साजिश : पीयूसीएल की जांच रिपोर्ट

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में 18 जून की रात को एक शख्स की मॉब लिंचिंग के बाद से माहौल…