गुरूचरण सिंह
मेरे एक दोस्त ने पूछा था कभी. दोस्त वह था भी खाकी निक्करधारी जिसने मुझे भी अपने सांचे में ढालने का संकल्प उठाया हुआ था. अक्सर ‘आर्गेनाइजर’ की प्रति दे जाया करता था किसी खास लेख को पढ़ने के अनुरोध के साथ इसलिए सीधे फर्क बताने का अर्थ था वाद-विवाद में उलझना इसलिए मैंने एक कहानी सुना दी. आपके लिए इसे फिर से दोहरा देता हूं.
कॉलेज में मेंढक की चीर-फाड़ न कर पाने के कारण प्री-मेडीकल छोड़ दिया था इसलिए जब भी किसी प्रयोग की बात होती है तो मुझे मेंढक याद आ जाता है. परिस्थितियों से साम्य बिठाना आदमी ने मेंढ़क से ही सीखा है; जमीन और पानी दोनों में आराम से रह सकता है यह प्राणी और खुद को हर तरह के पानी में रहने के अनुकूल बना लेता है शायद इसलिए आदमी की विकास यात्रा की यह एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है.
खुद को जलवायु के मुताबिक ढाल लेने की इस कुदरती खासियत के बावजूद उसे यदि खौलते हुए पानी में उसे डाल दिया जाए तो जाहिर है वह मर जाएगा और उसका ऐसे मरना दूसरे मेंढकों के लिए एक सबक हो जाएगा; बचने के लिए उनकी उछल-कूद बंद हो जाएगी और विरोध का जज्बा भी खत्म कर जाएगा. हिटलर ने भी जर्मनी की जनता के साथ कुछ ऐसा ही व्यवहार किया. गजब का प्रभावशाली वक्ता था वह; लोग मंत्रमुग्ध हो कर सुनते रहते, तालियां पीटते रहते ठीक गोकुल की ग्वालबालाओं की तरह. बस फिर क्या था देखते ही देखते उसके समर्थक अपनी आर्य श्रेष्ठता की तुरही बजाने लग पड़े और पूरे संसार पर राज करने के सपने देखने लगे.
जर्मनी के कारखानों में क्या बनेगा, क्या नहीं यह फैसला भी खुद को ‘हरफनमौला’ मानने वाले हिटलर के सैन्य सलाहकार करने लगे. विरोध की हर आवाज या तो बंद हो गई या फिर कर दी गई. बुद्धिजीवियों, कम्युनिस्टों और वहां के अल्पसंख्यक यहूदियों को जरा-जरा-सी बात पर ‘यातना शिविरों’ (Concentration Camps) में जानलेवा मजदूरी के लिए भेजा जाने लगा. यहूदियों को तो उनमें बने गैस चैंबर में तड़पा -तड़पा कर मौत के घाट उतार दिया और पगलाए घोड़े की तरह फासीवादी उन्माद ने पूरे संसार को विनाश की भट्टी में झौंक दिया.
कहा तो यह भी जाता है वह अपने सैनिकों को उनमें डर और असुरक्षा का भाव पैदा करने के लिए एक खास तरह की दवाई भी दिया करता था, जिसे खाने से थकावट महसूस नहीं होती थी और वे चार गुणा ताकत से लड़ाई करते थे. दक्षिण में बनी एक फिल्म ‘इंटरनेशनल राऊडी’ में इसका खुलासा किया गया है.
लेकिन ठीक इसके उलट उसी मेंढक को अगर आम पानी में डाल कर बहुत उसे धीरे-धीरे गर्म किया जाए तो अनुकूलन की अपनी क्षमता के चलते वह इसे सहन करता रहेगा और उसे पता भी नहीं चलेगा कि उसके साथ हो क्या रहा है. बस ध्यान यह रखना है कि वह पानी उबलने की स्थिति में न आए वरना वह मेंढक मर भी सकता है, यही काम दरअसल संघ ने किया है. पिछले नौ दशकों से भी ज्यादा समय से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लोगों के दिलो-दिमाग को धीरे-धीरे गर्म करता रहा है, यानी कंडीशन करता रहा है इतिहास को तोड़ मरोड़ कर.
आर्य प्रजाति की श्रेष्ठता की तुरही यहां भी बजना शुरू हो जाती है. सारा समाज जैसे बंट-सा जाता है; तर्कबुद्धि और विवेक उसका पहला शिकार बनते हैं, संविधान बनने के साथ ही हिंदू-मुसलमान से हम बन चुके हम शब्द का फिर से संधि विच्छेद हो जाता है, हम ‘ह’ और ‘म’ में बंट जाते हैं, एक बार फिर से हिंदू और मुसलमान हो जाते हैं.
‘मसीत’ में सोने वाले जिस गोस्वामी तुलसीदास के लिखे रामचरितमानस को काशी के स्वयंभु पंडितों ने मान्यता तक नहीं दी थी, उसी तुलसीदास के गढ़े हुए मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम पर ही उस ‘मसीत’ को तोड़ कर अल्पसंख्यकों में डर और बहुसंख्यकों में स्वाभिमान पैदा किया जाता है. विरोध की हर आवाज, चाहे वह राजनीतिक हो या बौद्धिक, खामोश कर दी जाती है, संसद हो या फिर मीडिया, केवल अपनी ही बात सुनाई जाती है, किसी की भी सुनी नहीं जाती. भीड़तंत्र ही लोकतंत्र का दूसरा नाम बन जाता है और अचानक एक दिन पूरा देश गृह युद्ध के कगार पर आकर खड़ा हो जाता है.
यही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का फासीवाद है.
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