कनक तिवारी
एनसीईआरटी की ओर से हुए नए बदलावों पर देश में बहस छिड़ी है. बच्चों की किताबों से गांधी, मुगलों का इतिहास तथा निराला और फैज़ अहमद फैज़ आदि की कविताएं हटाने को लेकर देश में गुस्सा और चिंता का इजहार किया जा रहा है. यह बात सामने आई है कि ऐसे परिवर्तन पिछले जून 2022 में कर दिए गए थे लेकिन पिछली किताबें छप गई थीं इसलिए इन परिवर्तनों को मौजूदा सत्र में लागू किया गया है.
एनसीईआरटी को 1961 में केन्द्र ने गठित किया था. उसका काम रिसर्च के आधार पर समय समय पर शिक्षा और इसलिए पाठ्यक्रम में बदलाव करना है. इस प्रक्रिया में काउंसिल को कभी प्रशंसा तो कभी आलोचना का शीकार होना पड़ा है. कक्षा बारह की किताब से ‘किंग्स एण्ड क्राॅनिकलः द मुगल कोर्स‘ चैप्टर को हटाया गया है. इसके अलावा कक्षा सात की किताब से अफगानिस्तान से महमूद गजनबी के आक्रमण और सोमनाथ मंदिर पर हमले की बात को बदला गया है.
आलोचकों का कहना है कि मुगलों के इतिहास को हटाने से 200 वर्षों का इतिहास तो जानकारी के अभाव में शून्य हो जाएगा. मुगल शासकों और उनके इतिहास पर आधारित अध्यायों को थीम्स आफ इंडियन हिस्ट्री पार्ट दो नामक किताब से हटा दिया गया है. इस तरह छात्रों को मुगल साम्राज्य का इतिहास नहीं पढ़ना होगा.
एनसीईआरटी ने इसको लेकर अपनी सफाई में कहा है कि भारत में कोविड जैसी महामारी के आक्रमण के बाद पूरे पाठ्यक्रम को रेशनलाइज़ और डिजिटल भी किया जाने का विचार है. इस तरह भी कि छात्रों पर पढ़ाई का अतिरिक्त बोझ नहीं आए. पूरे का पूरा मुगलकाल इतिहास की जिल्दों से गायब कर दिया जाए, इसकी तो कोई सफाई हो ही नहीं सकती. जिसे भी भारत और इतिहास जैसे विषयों में समझ और दिलचस्पी होगी, वह पूरे मुगलकाल को ब्लैकआउट करने के तर्क को कभी समर्थन नहीं दे पाएगा.
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केन्द्र सरकार के फैसले के कारण राष्ट्रीय पाठ्यक्रम में अब इतिहास के कई परिच्छेद हटा दिये जाएंगे. विद्यार्थी अब उन्हें नहीं पढ़ पाएंगे. शायद सरकार की समझ है कि इतिहास के ऐसे हिस्से अपने आपमें गैर ज़रूरी अतिरिक्तता हैं. शायद यह भी कि वह अन्य देश के भारत में हमलावर होकर बस गए अन्य धर्म के शासकों को गैर आनुपातिक रूप से इतिहासकारों ने ज़्यादा महत्व दिया है.
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा बुलंद करने वाली मौजूदा सरकार वे सब ठनगन कर रही है जिससे भारत पर मसलन मुगलिया सल्तनत के असर की पढ़ाई तो दूर उस पर युवा पीढ़ी में कहीं गु़फ्तगू तक नहीं हो सके. तमाम शहरों के नाम सरकार ने बदलकर मानो मुस्लिम कालखंड को भारत से दफा करने का अभियान कायम कर रखा है.
उसे औरंगजेब का नाम नहीं चाहिए. बाबर से लेकर बहादुरशाह ज़फर तक के नाम भी नहीं. मुगलसराय स्टेशन या नगर का नाम तक बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है. पता नहीं मुगलाई खाने का नाम आगे क्या रखा जाएगा ? संस्थानों, अकादेमियों, विश्वविद्यालयों और शोध प्रकल्पों के नाम भी धीरे-धीरे कथित राष्ट्रवादी ट्रेडिंग के जरिए बदले जा रहे हैं.
मौजूदा विचारधारा या सरकार से बहस करने का कोई मतलब नहीं है. उसका हिन्दू राष्ट्र बनाने का एजेंडा इसी तरह आगे बढ़ाया जाता रहेगा. हासिल यह तो है कि देश का वोट बैंक उनकी गिरफ्त में आ गया है. अशिक्षित, गरीब, रोजगारविहीन, भावुक, मासूम और हर तरह के तिकड़मी लोग भी उस जमावडे़ में शामिल होते जा रहे हैं. उन्हें इतिहास, संस्कृति, सामाजिक मूल्य, भविष्य, अंतर्राष्ट्रीय समझ और मजहबविहीन इंसानियत से मतलब ही नहीं है.
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मुगलकाल में भारतीय मध्ययुगीनता रचनात्मकता के उफान पर थी. भारत वैसे तो कभी भी औपचारिक इतिहास लेखन का देश नहीं रहा. इतिहासकारों से कहीं ज्यादा कवियों ने इस देश को जीवन्त और उर्वर किया है. कबीर, रहीम, तुलसीदास, सूरदास, जायसी और रसखान को मुगलकालीन होने के कारण नहीं पढ़ाया जाएगा, तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बताए कि उनके वर्णन की राम और कृष्ण कथाओं को अवाम की यादों से कैसे निकाल फेंका जा सकेगा. इन छह कवियों में चार तो मुसलमान है.
इस देश का सबसे बड़ा मध्यकालीन कवि कबीर अंतर्राष्ट्रीय शोहरत का है. अकबर के समकालीन तुलसीदास ने वाल्मीकि से कहीं आगे बढ़कर रामचरित मानस को घर घर की आवाज बना दिया. पोंगा पंडितों ने तुलसीदास की रामचरित मानस को अवाम की पुस्तक बनाने का विरोध किया. तब तुलसी भीख मांगकर खाते रहे. उन्हें रचनारत रखने के लिए मन्दिरों ने नहीं मस्जिदों ने पनाह दी.
रसखान के लिखे कृष्ण के बाल चरित्र को कोई कैसे खारिज कर सकेगा. बीरबल तो मुहावरा बनकर लोगों की जवाब पर चस्पा हैं. बीरबल की खिचड़ी जैसा मुहावरा भारतीय जुबान से क्या नोच लिया जाएगा ? तानसेन और बैजूबावरा संगीत का व्यक्तिवाचक नहीं भाववाचक नाम हो गए हैं.
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स्थापत्य कला में फतेहपुर सीकरी, आगरा और सबसे बढ़कर ताजमहल के बारे में सरकारी हुक्म के कारण नहीं पढ़ना दुनिया के सांस्कृतिक इजलास में भारत को अभियुक्त की श्रेणी में खड़ा कर देगा. ताजमहल जैसी कृतियां तो विश्व धरोहर हैं. जहांगीरी न्याय जैसा मुहावरा तो 75 वर्षों में भारतीय सुप्रीम कोर्ट भी हासिल नहीं कर सका है. अकबर ने दीन-ए-इलाही मजहब चलाया था.
धर्मनिरपेक्षता तो यूरोपीय बुद्धि से उत्पन्न होकर संविधान निर्माताओं ने शामिल की है. मुगलों ने हिन्दुओं के साथ रोटी-बेटी के तमाम संबंध बराबरी के स्तर पर किए. मौजूदा सत्ता विचार के लालकृष्ण आडवानी, मुरली मनोहर जोशी, सुब्रमण्यम स्वामी और अन्य दलों के फारुख अब्दुल्ला और सचिन पायलट वगैरह के परिवार इस परंपरा से अछूते कहां हैं ! कितनी भी कोशिश करें, हिन्दी में कम से कम एक तिहाई उर्दू शब्द हैं जिन्हें अवाम की जबान से निकालकर फेंका ही नहीं जा सकता.
अजीब किस्म का नफरती अभियान चलाया जा रहा है, जो भारत की मजबूती की बुनियाद पर हर वक्त बुलडोजर चलाता रहता है. देश के सत्तापरस्त बुद्धिजीवी तो चुप ही रहते हैं. भारत में मूल्य-क्षरण का नया युग आ गया है. उसे संविधान के मकसद से भी लेना देना नहीं है बल्कि वह संविधान के मकसद को ही कुचल देना चाहता है.
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किसी देश का इतिहास या कोई कालखंड किसी बादशाह या सम्राट की सनक या तुनक पर नहीं तामीर होता. बीते इतिहास का बाद की पीढ़ियां मूल्यांकन करती हैं. भारत में मुगलकाल का इतिहास भी इस मूल्यांकन का अपवाद नहीं है. भारतीय पस्तहिम्मत, बिखरे हुए और नाकाबिल नहीं होते तो दुनिया के कई मुल्क और जातियां शक, कुषाण, हूण, फ्रांसीसी, पुर्तगाली, अंगरेज, मुगल, तुर्क, यूनानी आदि भारत पर हमला नहीं करते.
इनमें केवल मुगल हुए हैं जिन्होंने हमलावर होने के बावजूद भारत में अपना सांस्कृतिक समास ढूंढ़ा. वे इसी देश के लोगों और उनकी परंपराओं के साथ रच, बस, खप गए. वे भले आए होंगे शायद लुटेरों की शक्ल में, लेकिन जेहनियत में वे भारतीय होने का अहसास पाकर फिर लौटकर नहीं गए. ऐसे मुगलकाल का इतिहास दूध की मक्खी की तरह निकालकर इतिहासविहीन लोगों द्वारा फेंका जा रहा है. उन्हें इतिहास के बदले अफवाहों, चुगलखोरी, झूठ, फरेब वगैरह से लगाव होता है.
वे चाहे कुछ करें इतिहास की पुख्ता पीढ़ी दर पीढ़ी बौद्धिक जमीन उर्वर होती है. बहुत पुराना इतिहास ही तो बाद में मिथक में तब्दील हो जाता है. उसकी इतिहास के मुकाबले कहीं ज्यादा स्वीकार्यता भी हो जाती है. मसलन राम और कृष्ण या त्रेता और द्वापर की कहानियां भारतीय संस्कृति की समझ का अनिवार्य हिस्सा हैं.
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बादशाह अकबर खुद को मुसलमानों का न तो नुमाइंदा समझता था और न ही इस्लाम के प्रचार-प्रसार को अपने जीवन का मूल मकसद मानता था. पहले वह बादशाह और उसके बाद मुसलमान होता था. देशवासियों के बीच फैली मजहबी कट्टरता को खत्म करना चाहता था. उन्हें ऐसे धर्म का अनुयायी बनाना चाहता था जिसमें सभी धर्मों की अच्छी बातेें शामिल हों. धार्मिक विद्वेष जैसी बुरी बातें दूर कर दी जाएं.
उसे पितामह बाबर की वसीयत याद रही होगी जो उसने अपने पुत्र हुमायूं को दी थीं – ‘ऐ मेरे बेटे ! हिंदुस्तान में अलग-अलग मज़हबों के लोग रहते हैं. खुदा का शुक्र अदा करो कि बादशाहों के बादशाह ने इस मुल्क की हुकूमत तुम्हारे सुपुर्द की है.’ इन नसीहतों के कारण हुमायूं ने रानी करुणावती की भेजी राखी स्वीकार की थी.
मुग़लों ने भारत को अपना वतन और दिल्ली, आगरा आदि को अपना घर बना लिया था. सूफी आंदोलन की अगुआई मुस्लिम सूफी व शेखों और हिंदू साधु संतों के हाथों में रही है. नतीजतन बहादुरशाह ज़फर के वक्त तक पहुंचते पहुंचते हिंदुस्तानियत का खून मुग़लों और दूसरे मुसलमानों की रगों में ईरान और तूरान से ज़्यादा ज़ोर मार रहा था. वे देशज संस्कृति में रंगे जा चुके थे.
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एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम से यह हटाया गया –
‘गांधी उन लोगों द्वारा विशेष रूप से नापसंद थे जो चाहते थे कि हिन्दू बदला लें या जो चाहते थे कि भारत हिन्दुओं के लिए एक देश बने. जैसे पाकिस्तान मुसलमानों के लिए था. उन्होंने गांधी जी पर मुसलमानों और पाकिस्तान के हितों में काम करने का आरोप लगाया. गांधी जी को लगा कि ये लोग गुमराह हैं. उन्हें विश्वास था कि भारत को केवल हिन्दुओं के लिए एक देश बनाने का कोई भी प्रयास भारत को नष्ट कर देगा. हिन्दू मुस्लिम एकता के उनके दृढ़ प्रयास ने हिन्दू चरमंथियों को इतना उकसाया कि उन्होंने गांधी जी की हत्या के कई प्रयास किए.’
पहले गांधी की हत्या वाले हिस्से में लिखा था –
’30 जनवरी की शाम को उनकी दैनिक प्रार्थना सभा में गांधी जी को एक युवक ने गोली मार दी थी. बाद में आत्मसमर्पण करने वाला हत्यारा पुणे का एक ब्राम्हण था. जिसका नाम था नाथूराम गोडसे. जो एक चरमपंथी हिन्दु अखबार का संपादक था, जिसने गांधी जी को मुसलमानों का तुष्टिकरण करने वाला बताया था.’
गांधी को तबाह करने के लिए नई जुगतें ढूंढ़ी जा रही हैं. इस बात की शर्म आ रही है कि लिखें कि गांधी का हत्यारा ब्राह्मण था. यह भी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर उनकी हत्या के आरोप में प्रतिबंध लगा था. नाथूराम गोडसे का अपराध हल्का करने के लिए भाषायी छेड़छाड़ की जा रही है.
गांधी के लिए संघ और हिन्दू महासभा में बेसाख्ता नफरत आज भी पके घाव की तरह है. भले ही उस पर राजनीतिक सत्ता मिलने से पपड़ी पड़ी दिखती है. लगभग सौ वर्षों से संघ विचारधारा गांधी के मुकाबले देश को सांप्रदायिक नफरत का मरुस्थल बनाना चाहती रही है. औसत हिन्दू के मन में दूसरी सबसे बड़ी कौम द्वारा मुसलमान के लिए लगातार नफरत रहे तो संघ विचारधारा को लगता एक दिन यही चिनगारी दहकता शोला बन जाएगी. फिर सत्ता पाने के लिए राजनीतिक रोटी सेंकना बहुत आसान हो जाएगा, वही हुआ.
हिन्दुत्व का शुरुआती पाठ सावरकर को उनके गुरु समझे जाने वाले छत्तीसगढ़ के बिलासपुर निवासी डा. बी. एस. मुंजे ने पढ़ाया. मुंजे और बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्थापनाकार हेडगेवार कांग्रेस सदस्य रहकर नफरत का बगूला उगाना चाहते थे. वह गांधी की शख्सियत के कारण मुमकिन नहीं हुआ. दोनों हिन्दुत्ववादी आज़ादी के आन्दोलन में अपनी अंगरेज़परस्ती छिपाए रहते थे इसलिए कांग्रेस पार्टी छोड़ दी.
मुंजे शायद पहले भारतीय हैं जो इटली जाकर तानाशाह मुसोलिनी से मिले और गुफ्तगू की। उसका प्रामाणिक आधिकारिक ब्यौरा नहीं मिलता। मुंजे की इटली यात्रा के पीछे क्या आकर्षण हो सकता था?
इस पर बहुत बावेला मचा कि गांधी की हत्या करने में क्या संघ और सावरकर का हाथ था ? सावरकर और संघ विचारधारा में गांधी के लिए प्रशंसा या झुकाव का सवाल हो नहीं सकता था. हत्यारे नाथूराम गोडसे का सावरकर का शिष्य और संघ का स्वयंसेवक भी हो रहना पब्लिक डोमेन में है.
फिलवक्त राहुल गांधी पर मुकदमा चल रहा है, जब उन्होंने गांधी जी की हत्या के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को ज़िम्मेदार ठहराया. आरोप से तकनीकी तौर पर बचने की संघ की कोशिश रही लेकिन जनधारणा में उससे फारिग हो जाना बहुत मुश्किल है. चुन्नीलाल वैद्य की पुस्तिका इस सिलसिले में अकाट्य है.
संघ विचारधारा की पेंचदार समझ में किसी भी कांग्रेस नेता के मुकाबले गांधी के लिए घृणा का पैमाना अलग तरह का है. गांधी के बाद ही नेहरू का नंबर आता है. संघ विचारधारा ने शुरू से ही मुसलमान को अपना टारगेट बनाकर राजनीतिक वितंडावाद शुरू किया. नफरती गुब्बारे की हवा गांधी के कारण बार बार निकल जाती थी.
कई प्रतीक चुनकर हिन्दुत्व की पाठशाला में नफरत की कक्षाएं अब भी चलाई जा रही हैं. वे सब प्रतीक अहिंसक गांधी ने जीवन और कर्म के जरिए उदार हिन्दू मन में जज़्ब कर दिए थे. दुर्भाग्य है गांधी के समकालीनों ने अपने वारिसों में गांधी का जतन से सिरजा हुआ भारतीय मन जज़्ब नहीं किया.
मसलन गाय संघ परिवार के लिए वोट बैंक का हथियार है. बीफ कारखाने पर ज़्यादातर भाजपाइयों की मालिकी है. गंगा को अपनी मां कहते उसकी सफाई अभियान में करोड़ों खर्च करने वाली उमा भारती का अता पता नहीं है. गंगा सफाई अभियान के बदले गंगा गंदगी अभियान सरकार के स्तर पर शबाब में है. गंगा की पवित्रता में कोविड की बीमारी में मरते लाखों लोगों की लाशें डूबने तैरने लगी. गंगा की छाती पर वाराणसी में ऐय्याशी का एक बहुत बड़ा क्रूज़ शुरू किया गया है जिसमें प्रवेश का शुल्क हजारों में है. यह गंगा का अजीबोगरीब मोदीपरस्त सांस्कृतिक सम्मान है.
कालजयी गीता में केवल उतना हिस्सा रटाया जाता है जो कृष्ण की बानगी को समझाने के बदले हिंसा का ताज़ा राजनीतिशास्त्र पढ़ाने लगता है. जितनी बार गांधी ने राम के नाम का उल्लेख किया उतना तो हिन्दुत्व के सभी पैरोकारों ने मिलकर नहीं किया. गांधी के उत्तराधिकारी कांग्रेसियों ने इन सांस्कृतिक प्रतीकों की अनदेखी शुरू की. उसके भी कारण राम के नाम पर संघ परिवार ने एकाधिकार कर लिया।
राम राम, सीता राम, जय सियाराम जैसे संबोधन लोक जीवन के आह्वान हैं. हर हिन्दू के जीवन के अंत में ‘राम नाम सत्य है‘ का नारा आज भी मुखर है. राम के लोकतंत्रीय चरित्र को बदलकर उनमें जयश्रीराम के हुंकार का विकार भर दिया गया है. यह आदिपुरुष अल्पसंख्यकों और असहमतों को डराने का कंधा बनाया जा रहा है.
गांधी ने ‘हरिजन’ और ‘दरिद्र नारायण’ शब्दों का आविष्कार किया. कहा नेताओं से कोई काम करो तो सोचो तुम्हारे काम का असर समाज के सबसे अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति पर क्या होगा. वही अंतिम छोर का व्यक्ति आज मुफ्त अनाज की योजना में अस्सी करोड़ के पार है. इससे ज़्यादा उसकी हैसियत या पहचान नहीं है.
इतिहास में सबसे महंगे कपड़े वाला राजनेता चरखे में घुसकर तस्वीर खिंचाते काॅरपोरेटी अदानी का रक्षक बन गया. गांधी को लगभग चिढ़ाने के अंदाज़ में शौचालयों का चैकीदार बना दिया. साबरमती आश्रम पर पूरी तौर पर कब्ज़ा करने के बाद उसे एक रिसाॅर्ट और पिकनिक स्पाॅट में बदला जा रहा है. बीच बीच में राजघाट गांधी स्मारक पर मत्था टेकने ठनगन जारी है. गांधी गांव की आत्मा थे और गांव गांधी की आत्मा. भारत के अब तक के सबसे बड़े किसान आंदोलन में गांधी की अहिंसा दिखाई पड़ी. सरकार ने उसे कुचलने में नरमी नहीं दिखाई.
व्हाट्सएप विश्वविद्यालय, इंस्टाग्राम इंस्टीट्यूशन और फेसबुक सहित सोशल मीडिया में गांधी को भारत विभाजन का दोषी ठहराया ही जाता है और मुसलमानों का हमदर्द भी. भारत विभाजन का सच्चा इतिहास छिपाकर रखा जाता है. कूढ़मगज समझते हैं एनसीईआरटी की किताबों में गांधी के लोकयश का सच धूमिल कर दिया जाए तो गांधी इतिहास की यादों से धीरे धीरे गुम हो जाएंगे.
वे नहीं जानते गांधी विश्व मानव हैं. वे ही असली विश्व गुरु हैं, जो बनने की कुछ गुरु घंटाल कोशिश कर रहे होंगे. गांधी वे भारतीय हैं जो हर देश, हर कौम, हर मुसीबतज़दा और ज़म्हूरियतपसंद मनुष्य के मन में स्थायी हो गए हैं. यह श्रेय और भविष्य तो उनकी हत्यारी विचारधारा के किसी व्यक्ति को कभी नहीं मिल सकता. बेचारी पाठ्य पुस्तकें तो गांधी रामायण की पैरौडी क्यों बनाई जा रही हैं ?
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