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ऐतिहासिक किसान आन्दोलन की ऐतिहासिक जीत 

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ऐतिहासिक किसान आन्दोलन की ऐतिहासिक जीत 

किसानों ने ऐतिहासिक जीत हासिल की है. ऐतिहासिक इस मायने में कि विश्व में न तो एकतरफा और न ही साझा नेतृत्व में कहीं इतना लंबा आंदोलन हुआ है (26 नवंबर 2021 को 1 वर्ष पूरे हुए). इतना ही नहीं इस आंदोलन पर पूरी दुनिया की नजर लगी थी. कारण कि किसानों को आतंकी, खालिस्तानी और न जाने क्या-क्या बताने वाली भाजपा ने अंतरराष्ट्रीय समर्थन को भी शक के दायरे में लाने की कोशिश की थी.

प्रारंभ से नवउदारवादी नीतियों के समर्थक, विचारक, अर्थशास्त्री, लेखक, पत्रकार-संपादक और सरकार के हर कदम के समर्थन में चारण गीत गाने वाली मीडिया जोर शोर से प्रचार कर रही थी कि किसी भी हालत में तीन कृषि कानून वापस नहीं होंगे. लेकिन किसानों के इस अनुशासित और संयमित आंदोलन ने कारपोरेट और आरएसएस के ताकतवर गठजोड़ पर टिकी नरेंद्र मोदी की प्रचंड बहुमत वाली अड़ियत और अहंकारी सरकार को तीन काले कृषि कानूनों को वापस लेने की सार्वजनिक घोषणा करने पर मजबूर कर दिया. इस मायने में भी यह ऐतिहासिक है.

अपने साल भर के आंदोलन में किसानों ने बहुत बड़ी कीमत चुकाई है. उन्हें शीत, ताप और बारिश के बीच कई मौसम राजधानी की सीमाओं पर खुले आसमान के नीचे अस्थायी टेंटों में बिताने पड़े. दमनकारी सरकारी अड़गेबाजी के बीच 700 से ज्यादा शहादतें देनी पड़ी और अनगिनत लांछने झेलने पडे. कभी उन्हें मुट्ठी भर बताया गया तो कभी किसान मानने से भी इंकार कर दिया गया. इनकी वैधता और विश्वसनीयता पर नाना प्रकार के दोष लगाए गए.

खालिस्तानी, देशद्रोही से लेकर आंदोलनजीवी, परजीवी और मवाली तक उन पर भला कौन-कौन तोहमत नहीं लगाई गई. लांछित करने का सिलसिला उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में कुचल मारने तक जा पहुंचा तो भी शोक या सहानुभूति के सरकारी बोल नहीं ही फूटे. यह तो किसानों का जीवट था कि इसके बावजूद अहिंसक संघर्ष के पथ से विचलित नहीं हुए और सरकार की उम्मीद के अनुसार थक या हार जाने की बजाय लंबी लड़ाई को तैयार रहे.

मोदी सरकार ने काले कानूनों को अध्यादेश के जरिए (जून 2020) से लागू करने और फिर संसद के दोनों सदनों में खासकर राज्यसभा में छल-प्रपंच के जरिए पास करवाने और फिर अपने ‘रबर स्टैंप’ राष्ट्रपति से मोहर लगवाने की कवायद की थी. अब फिर उसी प्रक्रिया से वापस करके न केवल अपनी पार्टी, कानूनों के पास करने में सहयोग करने वाले दल बल्कि देश के राष्ट्रपति की फजीहत करवाई.

संयुक्त किसान मोर्चा ने सिर्फ तीन काले कानूनों की वापसी से अपना आंदोलन स्थगित करने की घोषणा नहीं किया बल्कि अपनी सभी मांगों यथा सभी फसलों पर एमएसपी की गारंटी, आंदोलनकारियों पर मुकदमे की वापसी, पराली व विद्युत विधेयक के मुद्दों पर समाधान और लखीमपुर खीरी कांड के आरोपी अजय मिश्र टेनी की बर्खास्तगी की मांग पर लिखित आश्वासन भी लिया है. अमल नहीं होने पर फिर से तेज आंदोलन किया जायेगा.

इस आंदोलन की खूबी यह है कि इसका फलक इतना बड़ा है कि इसमें तमाम लोग अपनी कामयाबी देख रहे हैं. किसान यूनियनो को एकजुट करने की कोशिशें पहले भी होती रही है लेकिन किसान आंदोलन का इतना व्यापक फलक और सामूहिक नेतृत्व राजनीति में नई घटना है. इस ऐतिहासिक जीत से किसान ही नहीं मजदूरों, कर्मचारियों, बेरोजगारों, छात्रों और आदिवासियों के संघर्ष को भी उम्मीद की किरण दिखी है कि इस बचे-खुचे लोकतंत्र में भी आंदोलन से बहुत कुछ संभव है.

इस आंदोलन ने यह बात फिर से रेखांकित किया कि अंतिम तौर पर जनता ही सबसे बड़ी शक्ति होती है. वह ठान ले तो वियतनाम में अमेरिका को हरा सकती है और अमेरिका यूरोप की संयुक्त शक्ति को अफगानिस्तान छोड़कर भागने के लिए बाध्य कर सकती है, बशर्ते उसे सक्षम नेतृत्वकर्ता मिल जाए जो उसकी शक्ति को संगठित रूप दे सके तथा उसके संघर्ष और आंदोलन को सही दिशा मुहैया करा सके.

सच यह है कि किसान आंदोलन की जीत भारतीय जनता की जीत है, यह एक जनपक्षधर नेतृत्व की जीत है, यह इस वैचारिकी की जीत है जिसने कारपोरेट और फासीवादी तानाशाही सरकार को अपने निशाने पर लिया. यह न केवल देशव्यापी बल्कि विश्वव्यापी लोकतांत्रिक शक्तियों की जीत है. यह सत्ता के तानाशाही चरित्र की हार है और जनशक्ति के लोकतांत्रिक चेतना की जीत है. यह बेहतर दुनिया की चाहत रखने वालों के उम्मीद की जीत है.

जाति-धर्म से ऊपर उठकर सतत चलने वाले इस आंदोलन की जीत ने स्मरण ताजा कर दिया कि दुनिया की सबसे बड़ी सेना रूस के जार की थी जिसके पास एक करोड़ 42 लाख की सैन्य शक्ति थी. बंदूक, तोप, अत्याधुनिक हथियार भी थे, पर जब 1917 में जनता सड़क पर जार के खिलाफ उतरी तो जार का नामोनिशान मिट गया. इसी तरह चीन के अत्याचारी शासक च्यांग काई शेक के पास भी करीब 80 लाख की सेना थी पर जनता बगावत के लिए सड़क पर उतरी तो इतिहास के कूड़ेदान में डाल दिए गए.

26 नवंबर, 2020 से दिल्ली की सड़कों पर चले इस ऐतिहासिक आंदोलन ने शहीदे-आजम भगत सिंह के अहिंसा के रास्ते को अपनाकर मिसाल कायम किया. 700 से अधिक किसानों ने अपना आत्मबलिदान देकर यह दिखा दिया कि यह आंदोलन गांधीवादी नहीं था, जिसमें शोषक वर्ग की हिंसा को जायज ठहराया जाता था और जनता अगर आत्मरक्षात्मक हो जाए तो तुरंत उसे हिंसा घोषित करके आंदोलन वापस ले लिया जाता था.

यह आंदोलन भगत सिंह के अहिंसा पर आधारित था जिसने आत्मबलिदान देकर शोषक वर्ग को एक हद तक झुका दिया. गांधीजी भूख हड़ताल में सिर्फ अनाज का बहिष्कार करते थे. वे काजू, किसमिस, बादाम, मूंगफली खूब खाते थे मगर भगत सिंह और उनके साथी जेल में रहते हुए लगातार 116 दिन तक भूख हड़ताल में थे. इन लोगों को कई जेल कर्मी जबरदस्ती पटक-पटक कर मुंह में पाइप डालकर दूध पिलाने की कोशिश करते थे. सभी साथी सूखकर कांटा हो गए थे. उनके एक साथी यतींद्र नाथ दास भूख हड़ताल में शहीद हो गए, इसके बाद भी वे नहीं माने. उनकी मांगों के आगे ब्रिटिश साम्राज्यवाद को झुकना पड़ा.

किसान आंदोलन उसी तरह का आंदोलन था जिसने अपनी कुर्बानी देकर फासीवादी सरकार को झुकाया है. इस आंदोलन से किसानों ने बता दिया कि आत्मबलिदान दूसरों के बलिदान से श्रेष्ठ होता है. किसान आन्दोलन में शहीद हुए तमाम साथियों का क्रांतिकारी अभिनन्दन. ऐतिहासिक किसान आन्दोलन की ऐतिहासिक जीत की बधाई !

  • संजय श्याम

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