“यह अजीब बात है बल्कि षड्यंत्र है कि जब शोषित लोग लड़ने लगते हैं , तब ही यह शोर हो जाता है कि हिंसा हो रही है. शोषक वर्ग की हिंसा सिर्फ ‘ला एंड आर्डर प्राब्लम’ कहलाती है . शासन की हिंसा संवैधानिक बन जाती है .” – हरिशंकर परसाई
हिंसा का सबसे बड़ा पैरोकार यह शासक वर्ग अपने शोषण के कुचक्र को अनवरत जारी रखने के लिए एक से बढ़कर एक हिंसा के कुख्यात तरीके ईजाद करता है. समूचे विश्व का इतिहास शासक वर्ग के इसी क्रूर हिंसा से भरा हुआ है. शासकों के इस क्रूरतम हिंसा का आसान शिकार देश की शोषित जनता और उसके रहनुमा बनते रहे हैं, जो शोषण के इस रक्तपिपासु तंत्र के खिलाफ सवाल खड़ा करते हैं.
शासकों के इस अकथनीय क्रूर हिंसात्मकता के पीछे एकमात्र वजह होती है देश की जनता के मन को खौफ से भर देना. शासक हमेशा भयभीत होता है कि जनता के मन से खौफ खत्म न हो जाये. यही कारण है कि शासक वर्ग जनता और उसके रहनुमाओं के लिए क्रूर से क्रूरतम हिंसा का तरीका ईजाद करता है, जो बर्बर मध्ययुग से लेकर आज तक बरकरार है.
आम जनता के ऊपर ढ़ाये जा रहे यह क्रूर हिंसा हर सवाल से परे होता है. शासक के इस हिंसा के पक्ष में उसके भांड देश भर में प्रचार चलाते थे और जनता को आतंक से भर देते थे ताकि कोई भी शासक के इस बर्बर शोषण और हिंसा पर सवाल खड़ा करने की हिम्मत न कर सके. मध्ययुगीन भांड आज विकसित होकर भांड मीडिया का स्वरूप ग्रहण कर लिया है, जो आज शासकीय हिंसा के पक्ष में 24 घंटे गुणगान करते नहीं अघाता है.
देश की जनता शासक से डरना बंद न कर दें, इस कारण दुनिया के तमाम शासकों की ही तरह भारत का शासक भी भयाक्रांत रहता है. इसके लिए उसने अनेक तरीक़े ईजाद किये हैं, जिसमें एक जनता को धोखा देने के लिए लोकतंत्र का फर्जी लाबादा ओढ लिया है और जनता के प्रचंड शोषण-दोहन से उपजे उपजे आक्रोश को निकालने के लिए शेफ्टी वॉल्व के तौर पर कोर्ट का ईजाद किया है, जिसे सर्वोच्च निकाय के तौर पर स्थापित करने का एक हिस्टीरियाई अभियान देश भर में चलाया है, जिसके ऊपर सवाल उठाना गंभीर अपराध की श्रेणी मानी जाती है.
परन्तु वास्तविकता यह है कि कोर्ट और कानून का बुना गया यह ताना-बाना दरअसल शासकों के शोषण की प्रणाली को आम जनता के बीच मजबूत और ग्राह्य बनाने का ही एक उपक्रम है, जिसमें को सफेद धवल और आम जनता को सारे कुकर्म का स्त्रोत साबित किया जाता है. जो कुछ इससे इतर देखने को मिलते हैं, वह केवल आम जनता के शोषण के विरुद्घ उपजी आवाज को रोकने के लिए है ताकि इस फर्जी न्याय प्रणाली पर उसका विश्वास बना रहे और शासक उसके पसीने की कमाई को लूटकर अपना स्वर्ग सजाते रहे.
शासक का सबसे बड़ा डर होता है कि जनता उससे डरना बंद न कर दें. इसलिये जनता जब हथियार उठाती है और शासकीय क्रूर हिंसा का प्रतिउत्तर प्रतिहिंसा से देने लगती है तब भय से थर्राता शासक और उसके भांड मीडिया एक स्वर से जनता के इस प्रतिहिंसा के खिलाफ चीखने-चिल्लाने लगता है. समानता, बंधुत्व और अहिंसा की याद दिलाने लगता है गोया समानता, बंधुत्व और अहिंसा को पालन करने की जिम्मेदारी केवल शासित-शोषितों की ही है.
देश की विशाल जनता अपने शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ जब कभी आन्दोलित होती है, शासक और उसकी भांड मीडिया हिंसा-हिंसा की शोर मचाकर उस आंदोलन पर सीधा सैन्य हमला करने के लिए माहौल बनाने लगता है और आंदोलन को क्रूर तरीक़े से खत्म कर डालने की कोशिश करता है.
हिंसा से केवल शासक डरता है. जनता तो रोज शासकों के अत्याचार से मारी जाती है. भूख से मर जाती है. गोलियों से भून डाली जाती है. यही कारण है कि जनता को हिंसा से डर नहीं लगता. हिंसा तो जनता की जीवन संगनी है, पर शासक को हिंसा से बेहिसाब खौफ होता है. वह मरना नहीं चाहता. वह खुद को अजर अमर समझता है, इसलिए जरूरी है कि शासक वर्ग को भी मौत का खौफ होना चाहिए. उसे भी जनता के प्रतिहिंसा का स्वाद चखना चाहिए, इसके अलावे और कोई रास्ता नहीं शोषण-दमन और हिंसा के दुश्चक्र से बचने का.
शासकों के हितों की हिफाजत हेतु बनाये गये इस फर्जी न्यायपालिका ने दलित-आदिवासियों की सुरक्षा में बनी कानून को खत्म करने की पहल की, जो भाजपा शासित शासक वर्ग के इशारे पर की गई है. जिसके खिलाफ देश की जनता का ‘भारत बंद’ का सफल आह्वान, इसमें हिंसक तरीके से सैन्य बलोंं का प्रयोग कर आन्दोलनकारियों की हत्या और शासक और उसके भांड मीडिया की ‘हिंसा-हिंसा’ की चीख को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए.
S. Chatterjee
April 3, 2018 at 5:40 pm
भारत में वर्ग संघर्ष वर्ण संघर्ष में भी प्रतिस्फलित होता है। इस तथ्य को समझे बग़ैर सामाजिक , राजनीतिक क्रांति की रूपरेखा नहीं तैयार हो सकती
यह एक अजीब विरोधाभास है कि भारत की विशेष परिस्थितियाँ जातियों के संघर्ष को वर्ग संघर्ष से अलग नहीं कर सकती। शायद इसका कारण आर्यों और अनार्यों के बीच टकराव और आर्यों द्वारा अनार्यों को पराधीन बनाने की प्राचीन इतिहास में है। आज़ादी के बाद भी सत्ता कुलीनों की रखैल बनकर रह गई , फलत: ग़रीब , उपेक्षित और वंचित तबक़ा , जिसका एक विशाल भाग तथाकथित नीच जातियों से थान, अपने को ठगा महसूस करता रहा। आज वे जब अपने हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं तब ये ज़रूरी है कि वामपंथी पूरी ताक़त से इनके साथ खड़े रहें
Rohit Sharma
April 4, 2018 at 3:22 am
शत् प्रतिशत सहमत. इसके वगैर कोई विकल्प ही नहीं है.