[ भाजपा के रुप में देश की सत्ता पर विशुद्ध फासीवादी ताकत ने कब्जा जमा लिया है, जो देश को पूरी तरह से नोंंचने-खसोटने पर आमादा है. फासीवाद का यह भारतीय संस्करण जर्मनी के नाजियों से भी ज्यादा भयानक और भयभीत करनेवाला है क्योंकि जर्मन नाजी तो कई मामलों में राष्ट्रवादी भी था, परन्तु भारत में फासिस्टों का यह संघी रूप केवल लूट- खसोट करने का औजार भर बनकर रह गया है, जो राष्ट्रवाद का ढ़ोंग रचकर राष्ट्र को ही देशी दलाल पूंजीपतियों और उसके साम्राज्यवादी आका के हाथों बेच रहा है. ऐसे में भारत के इस भयावह फासीवादी हमले देश के अस्तित्व तक को खतरे में झोंक रहा है.
जर्मन नाजी फासीवाद के अंत के साथ हिटलर ने खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर लिया था, परन्तु भारतीय फासिस्ट तो इतना ज्यादा बेहाया और निर्लज्ज है कि वह खुलेआम देश छोड़कर भाग जाने का न केवल ऐलान ही कर चुका है बल्कि विदेशों में जा बसने का पुख्ता इंतजाम भी कर रहा है. माल्या, मोदी , चौकसी आदि के पलायन को ठीक इसी स्वरूप में समझना होगा. फासीवाद का यह भारतीय संस्करण अपने अन्तरवस्तु में न केवल भयावह ही है वरन् अविश्वसनिय भी. देश को संकटों में झोंक कर पलायनवादी भी है. ऐसे वक्त में फासीवाद के विरुद्ध डट जाना ही देशभक्ति है.
सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता बच्चा प्रसाद सिंह अपने इस शानदार विश्लेषण में न केवल फासिस्ट ताकतों का विश्लेषण ही किया है बल्कि उससे लड़ने का एक रास्ता भी सुझाया है. ये फासिस्ट ताकतों से लड़ रहे हैं, यही कारण है कि उनके सुझावों पर गंभीरतापूर्वक जरुर सोचा जाना चाहिए. ]
आज देश के जनवादी, प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष, राष्ट्रभक्त और क्रांतिकारी शक्तियों में से अधिकांश ने देश की सत्ता और समाज पर मंडराते और बढ़ते हिन्दुत्ववादी फासीवाद के खतरे को महसूस कर लिया है । साथ ही इसके खिलाफ इन शक्तियों द्वारा अपने-अपने स्तरों पर अपनी-अपनी आत्मगत तैयारियों के मुताबिक पहलकदमियां ली जा रही है. कालक्रम में वे पहलकदमियां बढ़ी हैं और बढ़ रही है. हिन्दुत्ववादी फासीवाद के खिलाफ प्रचार-प्रसार अभियान बढ़ रही है. हिन्दुत्ववादी फासीवाद के खिलाफ प्रचार अभियान बढ़े हैं. विचार-गोष्ठियां, सेमिनारों, पर्चें और पत्रिकाओं आदि के जरिये या फिर लेखन की अन्य विधाओं के जरिये प्रचार-अभियान, बहसें आदि निरंतर जारी है. इसी बीच कुछ फासीवाद विरोधी संगठन व संयुक्त मोर्चा भी उभारे हैं और उभर रहें हैं. इस क्रम में इस हिन्दुत्ववादी फासीवाद का शिकार बने वर्ग, जमात और तबकों व ताकतों की आपसी समझ भी पहले के मुकाबले बढ़ी है और वे एक-दूसरे के करीब आ रहें हैं. खासकर कम्युनिस्टों की विभिन्न कोटियों के साथ दलितों, अल्पसंख्यकों और अन्य जनवादी, प्रगतिशील व धर्मनिरपेक्ष ताकतों का अलगाव घट रहा है और परस्पर भरोसा-विश्वास आदि बढ़ें हैं. इस तरह इस फासीवाद के खिलाफ उभरी शक्तियों के साझा मंच की संभावना के वास्तविकता में तब्दील होने की परिस्थितियां बनी है.
इस मामले में कुछेक चीजें तो साफ है. मसलन एक भारत का यह हिन्दुत्ववादी फासीवाद समूची दुनियां में उभर रहें फासीवादी ताकतों का ही एक हिस्सा है और भारत में उसके उभरने प्रक्रिया दुनिया के स्तर पर फासीवाद के उभार की प्रक्रिया की धारावाहिकता में ही है एवं उसकी एक अंग है. दूसरे, यह विश्व के स्तर पर वित्तीय पूंजी के बढ़ते विस्तृत होते और गहराते जा रहे सामग्रिक संकट की ही अभिव्यक्ति है. इस सामग्रिक संकट को देखें तो हमें एक क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं की एक-दूसरे से जुड़ी पूरी श्रृंखला दिखती है, एक चेन रिएक्शन दिखता है. वित्तीय पूंजी का गहरा संकट विश्व साम्राज्यवाद और उनके देशी दलाल वर्गों के सामग्रिक संकट को गहरा बना रहा है. इस संकट का हल लूट-खसोट और मुनाफे के मौजूदा क्षेत्रों व श्रोतों से संभव नहीं हो पा रहा है. फलतः वे पागलों की तरह मुनाफे और लूट-खसोट के नये-नये क्षेत्रों की तलाश में पूरी दुनिया के खाक छाने दे रहे हैं. साथ ही लूट व मुनाफे के पुराने सेक्टरों, क्षेत्रों व इलाके के भी शोषण-दोहन को उन्हें बेतहाशा बढ़ाना पड़ रहा है.
स्वभाविक रूप में साम्राज्यवादियों को इस बढ़ते संकट का बोझ अपने उपनिवेशों, अर्ध-उपनिवेशों और नवउपनिवेशों पर लगातार बढ़ाना पड़ रहा है. यहां तक कि अपने देशों की जनता के सभी वर्गों व तबकों पर भी उन्हें यह बोझ बढ़ाते जाना पड़ रहा है. सभी जगह बेलफेय र के खर्चे और सभी किस्म के सब्सिडियों में काटौती हो रही है और सरकारी खर्चों को निरंतर घटाया जा रहा है. उत्पादन लागत को भी निरंतर घटाना उनकी मजबूअी है वरना गिरते हुए मुनाफे की दरों को थामना और फिर संकटों की भरपाई के लिए पर्याप्त मुनाफा (सुपर मुनाफा) हासिल करना मुमकिन नहीं होगा. उनके लिए कोढ़ के ऊपर खाज यह भी कि मुनाफे की दरों को लगातार बढ़ाने, निरंतर बढ़ते हुए मुनाफे को सुनिश्चित करने और लूट-खसोट तथा मुनाफे के नये-नये क्षेत्रों की तलाश करने के क्रम में साम्राज्यवादियों और उनके बीच के अन्तरविरोध भी निरंतर बढ़ता बढ़ता जा रहा है. जो भी हो, इस सब का कुल परिणाम साम्राज्यवादी देशों के अपवने केन्द्रों और उनके उपनिवेशों, अर्द्ध-उपनिवशों व नव-उपनिवेशों की जनता की बढ़ती व गहराती दुर्दशा के रूप में सामने आ रहा है, जो उनमें क्षोभ, गुस्सा और प्रतिवाद व प्रतिरोध को जन्म दे रहा है तथा उन्हें बढ़ा रहा है.
हम यूरोप से लेकर अमरिका और ऐशिया, अफ्रीका से लेकर लातीनी अमरीका के देशों में इस बढ़ते लूट-खसोट के खिलाफ, बढ़ती चरम दुर्दशा के खिलाफ एक पर एक जनउभारों का विस्फोट देख रहें हैं. कहीं निरस्त्र तो कहीं सशस्त्र. पर सभी जगह इन जनउभारों के तेवर जुझारू है, ठोस रूप से शोषक-शासक वर्गों को उखाड़ फेंकने की मानसिकता से लैस हैं और इनमें दिनों-दिन शामिल व सक्रिय होने वाली वर्गों, तबकों व ताकतों में इजाफा हो रहा है. वित्तीय पूंजी के गहराते सामग्रिक संकट का चेन-रिएक्शन यहीं नहीं रूकता. इन बढ़ते जनविक्षोभों, जनप्रतिकारों व जनप्रतिरोधों को इन तरह-तरह के जनउभारों को कुचलने के लिए साम्राज्यवाद और उसके देशी दलाल वर्ग सभी जगह दमन-उत्पीड़न का फासीवादी तरीका अपना रहे हैं. जनवादी स्पेसों का पूरी तरह गला घोंटकर एवं जनवादी नकाबों व आवरणों के बनाए रखने वाले सभी कार्यक्रमों व व्यवस्थामूलक उपयों को तिलांजलि देकर वे राज्य को एक पुलिसिया राज्य में बदल दे रहे हैं. विरोध की ताकतों और यहां तक कि विरोध की संभावित ताकतों और यहां तक कि विरोध की संभावित ताकतों को भी बेरहमी से कुचल डालने के लिए एक खूख्वांर व बर्बर पुलिसिया राज सामने लाया जा रहा है. इन प्रतिवादों-प्रतिरोधों को दबाने व कुचल डालने के लिए सरकारी और निजी सैन्य ताकतों और तंत्रों को खड़ा किया जा रहा है, उन्हें मजबूत बनाया जा रहा है और उन्हें छुट्टा छोड़ दिया जा रहा है. इस तरह देश और दुनिया के अधिकांश जगहों में फासिस्ट शासन को हम उभरते देख रहे हैं.
इस प्रकार के खूख्वांर व पाश्विक दमन-उत्पीड़न को निरंतर जारी रखने के लिए और इसके लिए एक जनवाद विरोधी निरंकुश सत्ता व समाज का पुनर्गठन करने के लिए उन्हें एक प्रतिक्रियावादी जनमत भी चाहिए. इसी प्रतिक्रियावादी जनमत के निर्माण के लिए वे अलग-अलग राजनीतिक-सांस्कृतिक बनावट के मुताबिक अलग-अलग तरीके ले रहे हैं. कहीं पर सम्प्रदायों, कामों, धर्मों और जातियों आदि को. साथ ही सीी जगह पर उग्र राष्ट्रीयता और उग्र धर्मांधता की आंधी बहाई जा रही है. उद्देश्य है जनता के बीच से ही बहुसंख्यक वर्गों व जमातों की साम्प्रदायिक धार्मिक या नस्ली विचारधरा को और उग्रराष्ट्र व धर्मार्ंधता को उभारने के जरिये एक प्रतिक्रियावादी जनमत खड़ा करना और साथ ही उस प्रतिक्रियावादी जनमत की शिकार जनता को भी अपने पीछे खड़ा कर लेना. इसी प्रतिक्रियावादी जनमत और उसकी शिकार जनता के एक हिस्से को अपने पीछे लेकर यह फासीवाद विभिन्न देशों में जनवाद और जनवादी ताकतों का पूरी तरह गला घोंट रहा है और एक निरंकुश व फासिस्ट शासन कायम कर तमाम विरोध की ताकतों को बेरहमी से कुचल रहा है. विरोध जितना ही व्यापक और विस्तृत हो रहा है, दमन उतना ही खूंख्वार हिंस्र और बेलगाम होता जा रहा है.
संकट-शोषण-विद्रोह-दमन के इस पूरे दुश्चक्र के क्रम में फासीवाद के उभार की इस पूरी प्रक्रिया को देखते हुए हमें कुछ आम निष्कर्ष निकालने होंगे –
1. भारत में हिन्दुत्ववादी फासीवाद का उभरना दुनिया के स्तर पर उभरते हुए फासीवाद की प्रक्रिया का एक अंग है, उसी का हिस्सा है.
2. पूरी दुनिया में वित्तीय पूंजी और उसके संचालकों विश्व साम्राज्यवाद व देश-देश में उसके दलाल वर्गों द्वारा अपने बढ़ते, विस्तृत होते और गहराते सामग्रिक संकट से खुद की रक्षा करने की निराशोन्मत्त कोशिशों के क्रम में ही यह फासीवाद उभरा है. अतः वहीं की तरह यहां भी हिन्दुत्ववादी फासीवाद के खिलाफ किसी भी लामबंदी और विरोध को साम्राज्यवाद और उनके देशी दलाल शासक वर्गों के विरूद्ध लामबंदी और विरोध से जोड़ना होगा. यानी हिन्दुत्ववादी फासीवाद के खिलाफ सभी संघर्षों व कार्रवाईयों को निश्चित रूप से वह जिसकी रक्षा में खड़ा है, उस साम्राज्यवाद और उनके देशी दलाल वर्गों एवं उनकी सत्ता व राजमशीनरी के विरूद्ध उन्मुख होना होगा.
3. इस हिन्दुत्ववादी फासीवाद ने अपने सक्रिय समर्थन में एक प्रतिक्रियावादी जनमत भी बनाया है और ये उस जनमत को निरंतर ध्रुवीकृत, गोलबन्द व सक्रिय कर रहे हैं. यह अनायास नहीं है कि रैडिकलों, दलितों और अल्पसंख्यकों पर फिर मजदूर-किसानों व अन्य वर्गों पर भी जो हमले हो रहे हैं, उसमें से अधिकांश जनता के बीच से ही तैयार उन्मादी व लम्पट जमातों के जरिए किये व कराये जा रहे हैं. यह फासीवाद जनता के अपने यहां ठोस रूप से मजदूर वर्ग और मध्यवर्ग के एक अच्छे-खासे हिस्से को अपने राष्ट्रवादी और साम्प्रदायिक व धार्मिक प्रचार कार्यों और उन्माद पैदा करने वाली गतिविधियों के जरिए अपने पीछे लगा लेने में सफल हुआ है. सकारात्मक व कन्विंसिंग काउंटर प्रचार-कार्यों और वर्ग-पहचानों व वर्ग-संघर्ष के जरिए वर्ग गोलबंदियों को बड़े पैमाने पर सामने लाने के जरिये ही हम इस प्रतिक्रियावादी जनमत में दरार डाल सकते हैं और उन शिकार वर्गों के साकारात्मक तत्वों व हिस्सों को अपने साथ जोड़ सकते हैं. यह किये बिना हम वास्तविक दुश्मनों के खिलाफ वास्तविक दोस्तों को गोलबन्द करने में विफल होंगे और फासीवाद विरोधी संघर्ष नाकाम हो जाएगा, आपसी युद्ध व मार-काट में फंस जाएगा. शासक वर्ग व फासिस्ट ताकतें यही तो चाहती हैं.
4. इस हिन्दुत्ववादी फासीवाद का अस्तित्व इसलिए टिका है कि वह उग्र राष्ट्रवाद को भड़काने के लिए पाकिस्तान जैसे एक काल्पनिक शत्रु को लगातार जनता के समक्ष पेश करने में कामयाब हुआ है. दूसरे उसने मुसलमानों, दलितों और अन्य अल्पसंख्यकों पर हमले बढ़े हैं. कुल मिलाकर इस हिन्दुत्ववादी फासीवाद ने चूंकि हमलों का दायरा बढ़ाया है, अतः उसकी विरोधी शक्तियों का भी दायरा बढ़ा है. इस तरह शोषित-पीड़ित वर्गों को गोलबन्द कर वर्ग-संघर्षों को आगें बढ़ाने वाली ताकतों के साथ सामाजिक दमन-उत्पीड़न की शिकार और उनके खिलाफ संघर्षरत् ताकतों के एकतावद्ध होने की, फासीवाद के खिलाफ एक काफी व्यापकतर साझा मंच बनाने और एक साझा संघर्ष खड़ा करने की परिस्थितियां पहले के किसी भी समय से ज्यादा बेहतर हुई है.
5. इस हिन्दुत्वावादी फासीवाद ने भारत के संघात्मक ढांचे पर भी जबर्दस्त हमला बोला है. सामग्रिक संकट का हल करने के लिए वित्त और सत्ता का संकेन्द्रण अनिवार्य है. उभरते विरोधों को दबाने हेतु मौजूदा-राज्य को पुलिसिया स्टेट में बदलने के लिए भी सत्ता का सकेंन्द्रण आवश्यक शर्त है. इसके लिए जरूरी है कि राज्य के संघात्मक स्वरूप को – अभी जो भी है – खत्म कर एक एकात्मक राज्य बनाया जाए. आप पिछले चार-पांच वर्षों से एक पर एक उठाये गये कदमों को देंखे, मसलन, योजना अयोग को खत्म कर नीति आयोग बनाना, रिजर्व बैंक की स्वायत्तता को खत्म करना, सुप्रीम कोर्ट व हाई कोर्ट में जजों की बहाली के लिए पहले से चले आ रहे कॉलेजियम सिस्टम में फेरबदल, उच्च शिक्षा में युजीसी को खत्म करने का कदम, विधानसभाओं के चुनाव एक ही बार कराने का शिगुफा आदि पर गौर करें तो साफ दिखेगा कि किस तरह राज्य के संघात्मक स्वरूप को खत्म कर उसे एकात्मक राज्य की दिशा में ले जाया जा रहा है. वित्त और सत्ता का यह कदम एकदम संकेन्द्रण निश्चित रूप से वित्तीय व आर्थिक क्षेत्र औअ सत्ता का साझीदार बने पीड़ित हिस्सों को बाहर धकेलेगा. उन्हें फासीवाद के खिलाफ खड़ा होने की परिस्थितियां पैदा करेगा. ऐसे में फासीवाद विरोधी संघर्षों की नेतृत्वकारी ताकतों के लिए साझा मंचों में इनके लिए भी दरवाजा खुला रखना आवश्यक हो जायेगा.
6. हिन्दुत्ववादी फासीवाद के उभार और उसकी एक पर एक जनवाद विरोधी, धर्म-निरपेक्षता विरोधी कदमों के साथ-साथ उसके खिलाफ देश व जनता की उभर रही शक्तियों पर एक निगाह डालें तो कुछ चीजें सामने आती है –
(क) कई स्तरों पर अलग-अलग पहलकदमियां ली जा रही है, पर उनके बीच आपसी तालमेल का अभाव है.
(ख) फासीवाद विरोधी संघर्ष की गतिविधियां अभी मूलतः पर्चे निकालने, सेमिनार व विचार-सभाएं आयोजित करने और कुछ कार्यक्रमों व घोषणापत्रों के दस्तावेज पेश करने तक ही सीमित है. बीच-बीच में शहरों में कुछ प्रतिवाद व प्रतिरोध निकालने जैसी गतिविधियां भी जारी है. निश्चित रूप से इनका महत्व है और ऐसी प्रचार-मूलक कार्रवाईयों के बिना फासीवाद विरोधी जनमत बनाना संभव नहीं है. इस मामले में कहना इतना ही है कि इन भंडाफोड़ अभियानों को इस तरह चलाना है, जिससे कि एक फासीवाद विरोधी जनमत बनाने के साथ-साथ फासीवादियों द्वारा बनाये प्रतिक्रियावादी जनमत में भी दरार डाली जाए और जनता के जिन हिस्से को वे अपने साथ लेने में कामयाब हुए हैं, उनके अधिकांश हिस्से को अपने साथ हुए हैं, उनके अधिकांश हिस्से को अपने साथ समझा-बुझाकर लाया जाय.
(ग) इन प्रचार मूलक कामों से एक जमीन तैयार हो रही है, जिनपर संगठनात्मक काम करना और फिर पूरी जनता को गोलबन्द करते हुए फासीवादी संघर्ष में उतारना एक प्रधान व बुनियादी काम के रूप में हमारे सामने है.
(घ) फासीवाद विरोधी कार्यों की दिशा के रूप में मौजूदा समय में फासीवादी दमन का तत्काल शिकार बन रहे तबकों, जमातों और सम्प्रदायों खासकर दलितों व अल्पसंख्यकों को साथ लेने की बात तो हमारे दिमाग में है और उस दिशा में कोशिशें भी हो रही है. पर इसके साथ-साथ बुनियादी वर्गों खासकर मजदूरों-किसानों व मध्यवर्ग को गोलबन्द करने के लिए उनकी मांगों को उठाते हुए उन्हें भी फासीवाद विरोधी संघर्षों में उतारने के मामले में परम्परागत पहलकदमियों में ह्रास नजर आता है, तो इसे भी ठीक करने की जरूरत है.
(च) हम सभी जानते हैं कि विकास के तमाम दावों व प्रचारों की सुनामी के वाबजूद हमारा देश अभी भी मूलतः किसानों का देश है. किसानों से हमारा मतलब गरीब-भूमिहीन मध्यम किसानों के साथ-साथ धनी किसानों के भी एक बड़े हिस्से से है जो देशी-विदेशी पूंजी के शोषण के शिकार हैं. इन किसानों की अपनी समस्यायें पर हो या फिर सत्ता दखल के लिए संचालित लोकयुद्ध के एक प्रधान और बुनियादी वर्ग के रूप में हो, उनकी परम्परागत गोलबन्दी और संघर्ष के अलावा फासीवाद विरोधी संघर्ष में भी इनकी गोलबन्दी के बिना महज दलित एवं अल्पसंख्यक तबकों और कुछेक मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों को साथ में लेकर फासीवाद विरोधी संघर्ष चलाने की बात हवाई और एकांगी हो जाएगी. हमें हर हालत में यह याद रखना होगा कि अतीत में साम्प्रदायिक दंगों की रोकथाम करने और साम्प्रदायिक शक्तियों को ध्वस्त करने में हमेशा ही इस किसान वर्ग की और साथ ही मजदूरों की बड़ी भूमिका रही है और आगे भी रहेगी. बंगाल और केरल के उदाहरण सामने हैं. इस क्रम में भारतीय वर्ग के भी फासीवाद विरोधी और साम्प्रदायिकता विरोधी संघर्षों की परम्परा को दिमाग में रखना हमारे लिए जरूरी है. अतः फासीवाद विरोधी संघर्ष के लिए जनगोलबन्दी की बात हम सोचे तो हमें अवश्य ही एक वर्ग के रूप में मजदूरों और किसानों को फासीवाद विरोधी संघर्षों में गोलबन्द करने पर बल देना चाहिए. इसके लिए शहरों में मजदूर बस्तियों में और बल देकर देहातों में किसानों में सघन काम किया जाना अत्यन्त आवश्यक है. यही वह कोर है, वह बुनियाद है जिस पर खड़े होकर हम दलित और अल्पसंख्यकों की उत्पीड़ित शक्तियों एवं अन्य सकारात्मक ताकतों को अपनी ओर ला सकते हैं और फासीवाद विरोधी संघर्ष को एक जमीनी व अमली जामा पहना सकते हैं. यानि जरूरी है कि फासीवाद-विरोधी संघर्ष और गोलबन्दी के ठोस उद्देश्य से भी वर्ग-संघर्ष को तेज किया जाए, फिर वर्ग-दृष्टिकोण से जाति व जमात के सवाल को, सत्ता के मुट्ठीभर हाथों में केन्द्रीकरण और बढ़ती निरंकुशता के सवाल को, राष्ट्रोन्माद व धर्मोंन्वाद के सवाल को सम्बोधित करते हुए फासीवाद विरोधी मोर्चा में सभी सकारात्मक ताकतों को गालबन्द किया जाए, उसे जमीनी बनाया जाए और उसे संघर्षोंन्मुख किया जाए.
तो उपरोक्त निष्कर्षों के आधार पर हम यदि इस हिन्दुत्ववादी फासीवाद के बढ़ते खतरे के मद्देनजर अपने कार्यभारों को सूत्रबद्ध करें तो निम्न बिन्दु सामने आते हैं –
1. फासीवाद विरोधी प्रचार अभियानों, खासकर भंडाफोड़ अभियानों को तेजकर फासीवाद विरोधी ताकतों को गोलबन्द किया जाए, फासीवाद के पक्षधर प्रतिक्रियावादी जनमत में दरार डाली जाए और इस तरह कट्टर हिन्दुत्ववादी फासीवादी ताकतों को अलगाव में डालकर व्यापक फासीवाद विरोधी वर्गों, जातियों और जमातों को अपने पक्ष में लाया जाए, गोलबन्द किया जाए.
2. इसका व्यापक प्रचार यिका जाए कि यह हिन्दुत्ववादी फासीवाद साम्राज्यवाद और उनके देशी दलाल वर्गों, दलाल पूंजीपतियों और बड़े सामंतों को शोषण व शासन की रक्षा में, उनके चौतरफा और बढ़ते, विस्तृत होते व गहराते संकट से उनकी रक्षा में खड़ा है. अतः इस फासीवाद विरोधी संघर्ष को साम्राज्यवाद और उनके दलाल शोषक-शासक वर्गों के खिलाफ संघर्षों से जोड़कर चलाना जरूरी है.
3. फासीवादी दमन के शिकार सभी वर्गों, जातियों व जमातों और सभी परिवर्तनकारी शक्तियों पर जारी दमन का तीव्र प्रतिवाद किया जाए. साथ ही दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, फिर मजदूरों-किसानों, छात्र-नौजवानों, मध्यवर्ग पर जारी शोषण-दमन के खिलाफ बड़े पैमाने पर विस्थापन के खिलाफ संघर्षतरत् सभी शक्तियों पर और साथ ही माओवादियों से लेकर अन्य परिवर्तनकारी सभी शक्तियों तथा विज्ञानसम्मत् विचारों को बढ़ावा देने वाले तर्कशील ताकतों पर बढ़ते फासिस्ट दमन-उत्पीड़न का जबर्दसत विरोध किया जाए. जरूरी है कि इन दमन-विरोधी प्रतिवाद व प्रतिरोध की कार्रवाईयों को फासीवाद विरोधी संघर्षों व गतिविधियों से जोड़ा जाए.
4. वर्ग-संघर्ष को तेज कर वर्गीय गोलबन्दियों को बढ़ाया जायें. मजदूर वर्ग और किसान वर्ग के संघर्षों और लामबन्दियों को ही फासीवाद विरोधी मोर्चों व संघर्षों की बुनियाद बनाकर और इसी बुनियाद पर फासीवाद का शिकार बन रहे सभी तबकों, जातियों, जमातों और शक्तियों को लामबन्द करके ही हम वास्तव में फासीवाद विरोधी मोर्चा को जमीनी शक्ल दे सकते हैं. उसे संघर्ष के मैदान में उतार सकते हैं और फासीवादी ताकतों को शिकस्त दे सकते हैं.
याद रखना होगा कि किसी भी संघर्ष में हमारे वास्तविक दोस्त कौन हैं और हमारे वास्तविक दुश्मन कौन हैं – यह सवाल सर्वाधिक महत्व रखता है. हमें हर सवाल को इस उद्देश्य से सम्बोधित करना है, जिससे कि हम वास्तविक दोस्तो और वास्तविक दुश्मनों की पहचान को सबके सामने उजागर कर सके और वास्तविक दोस्तों के बीच जमीनी स्तर की, संघर्ष की तथा चिन्तन और कर्म की एकता हासिल कर सकें.
बुनियादी रूप से इन कार्यभारों को पूरा कर फासीवाद विरोधी संघर्ष को आगे बढ़ाने के जरिए फासीवाद को ध्वस्त कर एक जनवादी और समाजवादी भारत के निर्माण की दिशा में किस हद तक आगे बढ़ा जा सकेगा, यह आज फासीवाद विरोधी गतिविधियों में संलग्न हिरावल, सही ताकतों की पहल, उनकी सही समझदारी और इस संघर्ष के विकास-विस्तार में हर तरह की कुर्बानी और आत्मबलिदान देने के लिए तत्पर रहने के उनके जज्बे पर निर्भर करता है.
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