राम अयोध्या सिंह
हिन्दू मानसिकता पत्थर की मूर्ति को भगवान या देवता मानकर उसकी न सिर्फ पूजा करता है, बल्कि उस पत्थर की मूर्ति के लिए लोगों की हत्या भी करने से परहेज नहीं करती है. यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि कच्छ की रानी का विश्वनाथ मंदिर के गर्भगृह में पुजारी द्वारा बलात्कार को तो भूला दिया जाता है, पर उस नारी के सम्मान के लिए अपवित्र हो चुके मंदिर का औरंगजेब द्वारा ढहवा दिया जाना उसे कबूल नहीं.
और इसके लिए औरंगजेब चार सौ सालों से गाली और अपमान सहता आ रहा है. क्या यही हिन्दू धर्म की महानता है कि किसी नारी का मंदिर में बलात्कार की घटना को तो वह सहन कर सकता है, पर पत्थर की मूर्ति का नहीं. स्पष्ट है कि उसे पत्थर की रक्षा में तो धर्म दिखाई देता है, पर किसी नारी की अस्मिता में नहीं.
इसी तरह दक्षिण में गोलकुंडा की मस्जिद को भी औरंगजेब ने इस कारण ढहवा दिया था कि वहां का सुबेदार सरकारी टैक्स वसूल कर राजकोष में उसे जमा न कर मस्जिद में छुपा दिया था, और उस छुपाये हुए कोष को प्राप्त करने के लिए ही औरंगजेब ने मस्जिद को ढहवा दिया था. इसमें कौन-सी गलती या अपराध है ? अपराध तो वास्तव में काशी विश्वनाथ मंदिर के पुजारी और गोलकुंडा के सुबेदार ने मंदिर और मस्जिद की आड़ लेकर किया था, जिन्हें सजा देने के लिए न तो काशी विश्वनाथ मंदिर के शिव आये, और न ही मस्जिद के खुदा आये.
इन कार्यों के लिए तो औरंगजेब को शाबाशी मिलनी चाहिए कि उसने धर्म की धर्म की रक्षा के लिए मंदिर और मस्जिद को ढहवा दिया. क्या नारी अस्मिता की रक्षा और राजकोष के गबन की राशि को मस्जिद तोड़कर प्राप्त करना धर्म नहीं था ? पता नहीं, धर्म का राग अलापने वाले कब मंदिर और मस्जिद के परे इंसान और इंसानियत में धर्म को देखने के काबिल होंगे ?
यही धार्मिक मदांधता से उपजी मानसिकता है, जो करोड़ों लोगों को अमानवीय परिस्थितियों में जीने पर भी उद्वेलित नहीं होता, पर एक पत्थर के सम्मान के लिए दंगे भड़क जाते हैं और हजारों लोगों की जानें चली जाती हैं. लाखों भारतीय रोज ही बिन खाए भुखे पेट सो जाते हैं, पर किसी भी हिन्दू धर्मावलंबी को कोई परवाह नहीं, और मंदिर के नाम पर खून खौलने लगता है. आज भी तो जम्मू के मंदिर में अबोध बच्ची के बलात्कार पर लोग चुप्पी लगा जाते हैं और बलात्कारी के समर्थन में जुलूस निकालते हैं.
भारत की नब्बे प्रतिशत जनता मूर्ख है, पर उनकी उत्तम शिक्षा के लिए कोई भी आंदोलन और संघर्ष करने के लिए कोई भी आगे नहीं आयेगा. सरकारी शिक्षण संस्थानों को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है, पर किसी को कोई चिंता नहीं. कोरोना के समय लाकडाउन में करोड़ों भारतीयों को अमानवीय परिस्थितियों में त्रासदपुर्ण जिंदगी गुजारने के लिए विवश किया गया, लोग आराम से घरों में कैद होकर समाचार सुनते रहे, और साहब की जयजयकार करते रहे, यही हमारा धर्म है.
इसी का परिणाम है कि हम रोजगार, गरीबी, महंगाई, भूखमरी, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वस्थ मनोरंजन, खेलकूद, देश की गिरती अर्थव्यवस्था, देश पर विदेशी कर्ज का लगातार बढ़ता भार और भारत की दुनिया में गिरती साख और प्रतिष्ठा पर हमारी कोई प्रतिक्रिया तक नहीं होती. हम आंख मुंदकर पड़े रहते हैं, पर किसी पत्थर या बाबा के लिए अपने आप को बलिदान करने या दूसरों की जान लेने के लिए भी हम तैयार हो जाते हैं. न जाने, धर्म का यह कौन-सा पाठ हमने पढ़ा है ?
विशाल भवनों और ऊंची अट्टालिकाओं में रहने वाले, करोड़ों की गाड़ियों में घूमने वाले, दुनिया को अपनी उंगलियों पर नचाने वाले, सारे आधुनिक सुख-सुविधाओं के बीच शानो-शौकत के साथ रहने वाले तथा दुनिया की बहुसंख्यक आबादी को ठेंगा दिखाने वाले अपने को जो भी समझें और दिखावा चाहे जो भी कर लें, पर ये लोग मनुष्य की श्रेणी में शामिल होने के लायक भी नहीं हैं. ये लोग मानवता के नाम पर कलंक और शत्रु हैं और ये ही अपने को आज का ईश्वर समझ रहे हैं. पर, इन्हें इतना भी पता नहीं है कि अगर आज दुनिया के सारे मजदूर एकजुट हो जायें, तो एक दिन में इनका अस्तित्व मिट जायेगा.
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