राम चन्द्र शुक्ल
बहुत बेहतरीन व हकीकत पर बनी दास्तान गोई है यह, जिसके दोनों फनकारों ने बेहतरीन प्रदर्शन किया है और 1947 में मजहबी जुनून ने किस तरह से इंसानियत को तार-तार कर दिया था, इसका पर्दाफाश कर दिया है.
मुझे इस बात की जानकारी नहीं थी कि इस दास्तान गोई में शामिल एक हस्ती अंकित चड्ढा जी अब इस दुनिया में नहीं रहे. दास्तान गोई मूल रूप से अवध व लखनऊ से जुड़ी हुई कला है, जो नवाबों के काल में पल्लवित व पुष्पित हुई और परवान चढ़ी. लखनऊ में वर्तमान समय में भी यह कला जिंदा है और दास्तान गोई की महिफिलों में भारी भीड़ जुटती है. इस शहर में आज भी बेहतरीन दास्तान गोई के कलाकार मौजूद हैं.
पिछले लगभग एक डेढ़ महीने से बेगम अनीस किदवई की किताब ‘आजादी की छांंव में’ पढ़ रहा हूंं. इस किताब के अब तक 200 पृष्ठ पढ़ चुका हूंं. 15 अगस्त को हुए बंटवारे व उसके बाद पाकिस्तान न जाकर हिंदुस्तान में रहने का फैसला करने वाले मुसलमानों के साथ हिंदुस्तान के स्वयंभू मजहब के ठेकेदारों, आरएसएस, हिंदू महासभा, कांग्रेस के एक फिरकापरस्त तबके के लोगों तथा दूसरी फिरकापरस्त ताकतों व जाहिल नौकरशाही ने कैसा बर्बर व जालिमाना सुलूक किया था- इसके तमामतर किस्से आपको इस दस्तावेजी व तारीखी तौर पर महत्वपूर्ण किताब में पढ़ने को मिल जाएंगे.
इस किताब की लेखिका के पति, जो उन दिनों देहरादून में सरकारी मुलाजिम थे और गांधी जी व उनके विचारों के समर्थक थे, भी इस फिरकापरस्ती के शिकार बनकर मार दिए गए थे. इसके बावजूद बेगम अनीस किदवई अपनी जिगरी दोस्त सुभद्रा कुमारी चौहान के साथ मिलकर दिल्ली के दंगा पीड़ितों को राहत पहुंचाने के लिए बनाए गये कैम्पों में काम करती रहीं और इंसानियत की एक अनुकरणीय मिसाल पेश करती रही.
इस किताब के पढ़ने से यह पता चला है कि साम्प्रदायिक तत्व दोनों फिरकों में सक्रिय थे. एक फिरका अपनी जहालत व बर्बरता को हिंदुस्तान में अंजाम दे रहा था तो दूसरा फिरका पाकिस्तान में. मजहब तो बस आड़ भर के लिए था, असली खेल तो हिंदुस्तान से पाकिस्तान जाने वाले मुसलमानों तथा पाकिस्तान से हिंदुस्तान आने वाले हिंदुओं की जमीन-जायदाद, घर, दुकान तथा स्त्रियों को हड़पने से जुड़ा था.
हिंदुस्तान के बंटवारे के लिए न तो हिंदुस्तान के अंग्रेजी हुक्मरानों को माफ किया जा सकता है और न ही कांग्रेस, मुस्लिम लीग, आरएसएस, हिंदू महासभा, गांधी व जिन्ना जैसे लोगों को ही इतिहास माफ करेगा.
इनके अंग्रेजी साम्राज्यवाद का मोहरा बन जाने के कारण ही बंटवारा हुआ और दस लाख से अधिक बेगुनाह इंसानों, जिनमें बड़ी संख्या में स्त्रियां और बच्चे थे, की जान चली गयी थी. बंटवारे के बाद फैली इस अराजकता व बर्बरता की दुनिया में कोई दूसरी मिसाल मिलना मुश्किल है.
15 अगस्त, 1947 को आधी रात के समय से लागू हुए बंटवारे के बाद दिल्ली में बनाए गये तीन मुस्लिम जोन का विवरण इस किताब में दिया गया है, जिसकी कहानी इस दास्तान गोई में पेश किए गये किस्से से मेल खाती है.
एक मुस्लिम जोन बल्ली मारान में था, दूसरा जामा मस्जिद के आसपास के इलाके में था और तीसरा भी दिल्ली के मुस्लिम बहुल इलाके बाड़ा हिंदूराव में बनाया गया था. इन मुस्लिम जोन्स में रहने वालों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए पुलिस का पहरा था, इसके बावजूद साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाएं घट रहीं थीं और कैम्पों से निकलकर मुसलमान दिल्ली से लाहौर व पाकिस्तान जाने वाली रेलगाड़ियों में किसी न किसी तरह जाकर बैठने में कामयाब हो रहे थे. यह सिलसिला 15 अगस्त, 1947 के बाद कई महीनों तक चलता रहा.
15 अगस्त, 1947 के बाद के 12-15 महीनों में दिल्ली का हकीकत में क्या हाल हुआ था अगर इसका पूरा व सच्चा ब्यौरा जानना है तो बेगम अनीस किदवई की 1970 के बाद प्रकाशित किताब ‘आजादी की छांंव में’ को जरूर पढ़ना चाहिए.
यह किताब इस राज का भी पर्दाफाश करती है कि 15 अगस्त 1947 को हुए बंटवारे के बाद हिंसा व बर्बरता करने कराने वालों में आरएसएस तथा हिंदू महासभा व कांग्रेस के ही फिरकापरस्त धड़े के लोग ही अगुवाई कर रहे थे, लूट पाट व हत्या करने वाले दंगाइयों की.
जो तथ्य अब तक सामने आए हैं उसके मुताबिक यही फिरकापरस्त लोग 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली व देश भर में हुए सिख विरोधी दंगों के लिए भी जिम्मेदार रहे हैं. इन्होंने ही 30 जनवरी, 1948 को अपने एजेंटों से गांधी जी की हत्या करा दी थी.
दिल्ली के बाद इन दंगों व बर्बरता की चपेट में पंजाब का लगभग पूरा हिस्सा आ गया था क्योंकि पंजाब की सीमा का एक बडा हिस्सा नये बने मुल्क पाकिस्तान की सीमा से लगा हुआ था. ये दंगे हिंदुस्तान के हिस्से में आने वाले पंजाब में हुए ही इसके साथ ही पाकिस्तान के हिस्से में आने वाले पंजाब में भी इसी बर्बरता को अंजाम दिया गया था.
इस समय हुई बर्बरता तथा इंसानियत को तार-तार कर देने वाली दास्तान को भीष्म साहनी की कहानी ‘अमृतसर आ गया है’, मोहन राकेश की कहानी ‘मलवे का मालिक’ तथा कहानी संभवतः मंटो की कहानी ‘पेशावर एक्सप्रेस’ में पढ़ा जा सकता है.
यह दास्तान गोई विभाजन की दर्द भरी हकीकत से रूबरू कराती है. शुक्रिया वीडियो उपलब्ध कराने वाले पत्रकार वीरेन्द्र शुक्ल जी का, जिन्होंने यह वीडियो उपलब्ध कराया.
हिंदुस्तान के बंटवारे पर आधारित एक दास्तान गोई के वीडियो
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