हे लेखक !
तुम्हारे लिए वह क्षण कितना सुकून भरा होता होगा न
जब तुम अपनी किसी रचना को पूरी कर लेते हो !
चेहरे पर एक आध्यात्मिक आभा आ जाती होगी न !
तुमने अपनी किसी कविता में कहा भी तो था
कि रचना, बच्चे को जन्म देने जैसा है
बच्चे के जन्म के बाद का उद्दात्त सुकून
इस उद्दात्त सुकून के बाद
क्या होता है तुम्हारे अक्षरों का,
तुम्हारे वाक्यों का, तुम्हारी रचनाओं का ?
पता है तुम्हें ?
तुम्हारे अक्षरों को अंधेरे तहख़ानों में
कागज पर उतारा जाता है
कागज़ी खुशबू के बीच
मशीन की धड़धड़
चरर्रर्रर्रर ठक फटाक
कागजों के तेजी से स्थान परिवर्तन में
हम कभी भी तुम्हारा लिखा
पूरा वाक्य नहीं पढ़ पाते
हां, आंखें जरूर कुछ शब्दों पर फिसल जाया करती हैं
जैसे दौड़ती ट्रेन की खिड़की से फिसलती हैं आंखें
खेतों पर, पेडों पर और ट्रेन के साथ भागते बच्चों पर
हां, आंखें कभी-कभी ठहर भी जाती हैं
तुम्हारे किसी शब्द पर
लेकिन इतना समय नहीं होता
कि हम पास के शब्द से उसका रिश्ता ढूंढ पाये
इंकलाब, प्रेम, अनुभूति
निकल जाते हैं आंखों से टकरा कर
बिना अपना मकसद बताये
जैसे ट्रैफिक पुलिस के सामने से
गुज़र जाती हैं गाड़ियां
बिना अपना गंतव्य बताये
अपने कंधों पर
तुम्हारी ताज़ी-महकती किताबों का
गठ्ठर लिए हम निकलते हैं
गांव शहर की दुकानों पर
और अब तो घर-घर भी
उस वक़्त भी हमें नहीं पता होता
कि हमारे कांधे पर क्या है ?
हालांकि कभी-कभी हमारे कंधे छिल जाते हैं
तुम्हारी किताबों के बोझ से
लेकिन हमें नहीं पता होता
कि यह बोझ किसका है ?
तुम्हारे आंसुओं का,
तुम्हारे असफल प्रेम का
या सब कुछ जला डालने की
तुम्हारी व्यग्र इच्छा का
हमें तो टाइम पर काम खत्म करना है
और फिर किसी दूसरे लेखक की
भावनाओं का बोझ ढोना है
हे लेखक !
क्या ऐसा नहीं हो सकता
कि रचने के बाद,
अपने आध्यात्मिक सुकून के बाद
निश्चित ही थोड़ा आराम के बाद
अपने शब्दों,
अपने वाक्यों,
अपनी रचना की उंगली थामकर
चल पड़ो….
तुम्हारे शब्द,
तुम्हारे वाक्य,
तुम्हारी रचना तुम्हें जहां भी ले जाए..
पहले छापेखाने में
और फिर सड़कों पर,
उन संकरी गलियों में जहां
धूप को भी कई-कई बार मुड़ना पड़ता है
गांवों-कस्बों में नुक्कड़ों-चौराहों पर
और हां, घने जंगलों में भी
वहां भी तुम्हारे पाठक हैं
तभी तुम जान पाओगे
कि तुम्हारे रचे शब्दों का क्या हुआ ?
तुम्हीं ने तो कहा था
कि रचना प्रक्रिया जन्म देने की प्रक्रिया है
जन्म देने के उद्दात्त सुकून के बाद मां क्या करती है
बच्चे को अपने शरीर की ऊष्मा देती है
बच्चे को उठना चलना और फिर दौड़ना सिखाती है
तुम्हें भी अपने रचे शब्दों को देनी है अपनी ऊष्मा
गांवों शहरों नुक्कड़ों और घने जंगलों में
अपने शब्दों को उठना,
चलना और दौड़ना सिखाना है
आओ,
अपने रचे अक्षरों की उंगली थाम निकल पड़ो
वहां…
जहां ‘आग’ से आग
और ‘मिट्टी’ से मिट्टी बनानी है
सचमुच की आग और सचमुच की मिट्टी !
- मनीष आजाद
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