पं. किशन गोलछा जैन, ज्योतिष, वास्तु और तंत्र-मंत्र-यन्त्र विशेषज्ञ
भारत के महान सम्राट अशोक के बाद बादशाहों में अकबर ही एक ऐसा बादशाह थे, जिन्हें सभी वर्गों और धर्मों का बराबर प्यार और सम्मान मिला. इतिहासकार राज किशोर राजे ने तवारीख-ए-आगरा पुस्तक में उल्लेख किया है कि जैन मुनि हीर विजय सूरी के प्रभाव में अकबर ने शिकार खेलना बंद कर दिया था. निषेध के दिनों में पशुओं के वध पर भी प्रतिबंध लगाया था. बादशाह अकबर ने हीर सूरी को जगद्गुरु की उपाधि दी थी, इसी से उन्हें जगद्गुरु विजय हीर सूरी के नाम से जाना जाता है. जब हीर सूरी से अकबर की मुलाकात हुई तो पहली ही मुलाकात में अकबर हीर सूरी के ज्ञान और जीव-जयणा का कदरदान बन गये थे. (वो किस्सा कुछ यूं है), यथा –
एक बार बादशाह अकबर अपने महल के झरोखे में बैठे नगर की चहल-पहल निहार रहे थे कि तभी उसने देखा कि तेज ढोल-नगाड़े के साथ बहुत बड़ी भीड़ जुलुस के रूप में जयनाद गुंजायमान करती हुई एक स्त्री को पालकी में उठाये गुजर रही है. वो दोनों हाथ जोड़े सभी को अभिवादन करती हुई कभी-कभी पालकी से दान उछाल रही है और उसके ठीक आगे वाद्य के साथ मंगलगान हो रहा है.
बादशाह एकदम आश्चर्यचकित हो गये क्योंकि ये वो जमाना था जब स्त्री को दासी समझा जाता था और पति के मरने पर उसे जबरन जिन्दा जलाकर सती बना दिया जाता था. ऐसे में एक स्त्री को इतना सम्मान और उसकी पालकी उठाने की बड़े-बड़े सेठों में होड़-सी मच रही थी और आनंद तो इतना झलक रहा था कि बादशाह खुद कुछ समय के लिये तल्लीन-सा हो गये थे.
उन्होंने फ़रमावदार को बुलाया और उस जुलुस के बारे में पता करने को कहा. फ़रमावदार गया और सारी बात पता करके आया और बादशाह को बताया कि – ‘ये जुलुस जैन धर्म वालों का है और जो स्त्री पालकी में बैठी है उसने 6 महीने लगातार बिना अन्न खाये व्रत किया है और उस दौरान वो पानी भी उबला हुआ (प्रासुक जल) सिर्फ दिन के समय ग्रहण करती थी, रात को तो जल का भी त्याग होता था.
बादशाह अकबर और भी ज्यादा आश्चर्यचकित हो गये और सोचने लगे कि – ‘क्या ऐसा संभव है कि कोई 6 महीने तक ऐसे रह सके ? हमारे रोजे में तो सूर्योदय से सूर्यास्त तक खाने-पीने का निषेध है उसमें भी हालत ख़राब हो जाती है फिर इस स्त्री ने 6 महीने से अन्न का एक दाना मुंह में नहीं डाला, फिर भी वो मुस्कराते हुए इस तरह तरोताजा और आनंद में है. ऐसा कैसे संभव है ?’
उसने उस स्त्री (नाम -चंपा श्राविका) को हाजिर होने को फ़रमाया क्योंकि वो इस सच को स्वयं परखना चाहते थे. चंपा श्राविका के दरबार में हाजिर होने पर बादशाह ने उससे पूछा – ‘सच बताओ कि ऐसा तुमने किस बल से किया ? झूठ बोला तो सजा दी जायेगी.’
चम्पा श्राविका ने प्रत्युत्तर दिया – ‘जहांपनाह ! ये मैंने अपने अरिहंत देव के बल से और अपने गुरु के आशीर्वाद से किया.’ लेकिन अकबर को विश्वास नहीं हुआ और उसने पूछा – ‘अगर ऐसा है तो क्या तुम दुबारा ऐसा करके दिखा सकती हो ?’ चंपा श्राविका ने कहा – ‘जहांपनाह ! आपकी आज्ञा से और अपने धर्मबल से ऐसा करुंगी.’
बादशाह अकबर ने चंपा श्राविका को दिन-रात कड़े पहरे के बीच रखा मगर अर्हत धर्म की रक्षा के लिये चंपा श्राविका ने छमासी तप के पारणे फिर छमासी तप किया और वो भी पूरी क्रियाविधान के साथ. इधर बादशाह अकबर प्रतिदिन दरबार में अपने पहरेदारों से पड़ताल दरयाफ्त करते थे और पहरेदार बताते थे कि – ‘चंपा श्राविका न केवल सूर्योदय से पहले उठती है बल्कि दिन भर धार्मिक क्रिया में रत रहती है, प्रतिदिन मंदिर जाकर पूजा भी करती है और फिर दोपहर से सूर्यास्त से पहले तक प्रासुक जल ग्रहण करती है. सूर्यास्त के बाद तो जल भी नहीं पीती और देर रात्रि तक धर्माराधना करती है, फिर सोती है.
दिन-दर- दिन दरयाफ्त करते एक महीना… दो महीना यावत 6 महीने पुरे हो गये. बादशाह ने जाना कि श्राविका ने जैसा बोला वैसा ही अंजाम दिया है – तो बादशाह बहुत प्रभावित हुए और चंपा श्राविका का बहुत अभिनन्दन किया. उन्हें शाही हाथी के होदे पर बिठाकर वापिस भेजा (बाद में हीर सूरी से प्रतिबोध पाकर इसी छमासी तप के दिनों को जोड़कर अकबर ने अपनी सल्तनत में अमारी घोषणा का फरमान भी जारी किया).
चंपा श्राविका के तप से प्रभावित अकबर की जिज्ञासा दिन-रात जैन धर्म के बारे में बढ़ती जा रही थी (अकबर के दरबार में जैन भी थे). आखिरकार एक दिन उनसे बोला कि – ‘मुझे चंपा श्राविका के गुरु से मिलना है उन्हें आदर के साथ दरबार में बुलाओ और उन्हें लेने के लिये हाथी घोड़े और रथ भेजो.’ (जैन दरबारी तो ये जानते थे कि जैन मुनि इन सबका उपयोग नहीं करते मगर बादशाह के आदेश के सामने कौन अपना मुंह खोले, सो ऐसा ही किया गया).
जब बादशाह का फरमान हीर सूरी के पास हाथी, घोड़ों और रथ के साथ पहुंचा – तब हीर सूरी गांधार में थे और उन्होंने बादशाह को कहलवाया कि ‘जैन साधु दूसरे जीवों पर सवारी नहीं करते, वे जीव-जयणा के लिये पैदल विहारी होते हैं. अतः समय का योग बनने पर वे दिल्ली के दरबार में आयेंगे.’ प्रत्युत्तर बादशाह के पहुंचा तो बादशाह और ज्यादा बेसब्र हो गये, पर इन्तजार के अलावा उनके पास कोई दूसरा चारा नहीं था. अत: वे बेसब्री से इन्तजार करने लगे.
चातुर्मास पूर्ण होने पर गांधार से विहार कर हीर सूरी दिल्ली की तरफ रवाना हुए और मार्ग में उन्हें अर्जुन ठाकोर नाम का डाकू मिला, जिसे प्रवचन देकर उन्होंने उसकी लूटपाट बंद करने का प्रण दिलवाया. समय बीता और फिर हीर सूरी का दिल्ली में भव्य प्रवेश हुआ, तब तक अकबर रोज हीर सूरी का समाचार दरयाफ्त करते थे और फिर हीर सूरी के दिल्ली में प्रवेश के साथ ही उन्होंने अपने फतेहपुर महल को धुलवाकर नया कार्पेट लगवाये.
जब हीर सूरी उपस्थित हुए तो अपने तीन राजकुमारों के साथ अपने सिंहासन से उतारकर उनके स्वागत में दरबार के दरवाज़े तक गये. देखा हीर सूरी बाहर खड़े हैं. उनके आलोकमय मुखमण्डल के तेज को बादशाह अकबर देखते ही रह गये. कुछ न बोल सके. उन्होंने हीर सुरी के स्वागत में महल में महंगे कार्पेट बिछवाये थे और सजावट करवायी थी, परन्तु ये क्या… हीर सूरी की आवाज़ से उनकी तंद्रा भंग हुई. वे पहरेदार से कार्पेट हटाने को बोल रहे थे. अकबर जैसे होश में आये और बोले – ‘गुरुदेव ! ये कार्पेट एकदम नये हैं और आपकी शान में बिछवाये गये हैं. कृपया इसपर चलकर बादशाह की आवभगत का मान रखे.’
हीर सूरी का गंभीर प्रत्युत्तर बादशाह के कान में गूंजा – ‘बादशाह आपने ये हमारे लिये किया है परन्तु हम (जैन साधु) कार्पेट पर नहीं चलते. वे अहिंसक होते हैं. अतः भूमि पर जीव जयणा के साथ चलते हैं. आपके इस कार्पेट के नीचे न जाने कितने जीव होंगे और मेरे पैरों के नीचे आकर मारे जायेंगे सो आप ये कार्पेट हटवा लीजिये ताकि मैं आपके दरबार के अंदर आ सकूं.’
बादशाह ने सोचा – इनके आशीर्वाद से चंपा श्राविका ने दो बार बिना अन्न के 6-6 महिनों का तप किया है, सो ये गलत तो बोल ही नहीं सकते सो बादशाह ने कार्पेट हटवाने का आदेश दिया. जैसे ही वो नया कार्पेट हटाया जाता है तो बादशाह देखते हैं कि उस नये कार्पेट के नीचे लाखो चींटिया थी. ये देखते ही बादशाह हीर सूरी के सामने नतमस्तक हो गया.
बादशाह के साथ हीर सूरी ने दरबार के अंदर प्रवेश किया. बादशाह ने अपने सिंहासन के साथ एक सोने का रत्नजड़ित सिंहासन हीर सूरी के लिये रखवाये थे. हीर सूरी की भेंट के लिये ननविद्य रत्नजड़ित आभूषण बनवाये थे, मगर हीर सूरी ने फिर मना कर दिया और कहा – ‘बादशाह जैनमुनि माया के त्यागी होते हैं. अतः इनको भी स्वीकार नहीं कर सकते हैं (फिर हीर सूरी के कहने पर बादशाह को वो सोने सिंहासन हटवाकर उसकी जगह लकड़ी का पाट लगवाना पड़ा जिसपर हीर सूरी अपना आसन लगाकर विराजमान हुए.)
फिर बादशाह के अनुरोध पर हीर सूरी ने जैन धर्म के सिद्धांतो के विषय में बादशाह को बताया और साथ ही अहिंसा पालन के लिये प्रेरित किया (बादशाह ने हीर सूरी को अपना गुरु मान लिया) लेकिन भेंट नहीं दे पाया था. अतः उसने कहा – ‘गुरुदेव ! आप दरबार में आये लेकिन कुछ भी स्वीकार नहीं किया. भोजन करना तो स्वीकार कीजिये.’
हीर सूरी बोले – ‘अकबर बादशाह ! हमारे देवाधिदेव तीर्थंकर परमात्मा ने साधु के लिये सर्वविरति का मार्ग बताया है. अतः साधु के लिये राजपिंड निषेध होता है. कोई भी साधु राजा के घर का भोजन नहीं कर सकता. अतः ये भी मुझे अस्वीकार है परन्तु अगर आप सच में ही कुछ देना चाहते है तो मैं अपने मन से कुछ मांगू ?’
बादशाह तो जैसे निहाल ही हो गये. जिस गुरु को वो रत्नाभूषण देना चाहता था और उन्होंने कुछ लिया नहीं था वही गुरु उससे कुछ मांगने की बात कर रहे थे. बादशाह तुरंत ही बोले – ‘गुरुदेव कृतार्थ कीजिये, मुझे बड़ी ख़ुशी प्राप्त होगी.’ (बादशाह अकबर सुबह के नास्ते में चिड़िया की जीभ का सवा किलो मांस खाता था. ये बात उसके जैन दरबारियों ने हीर सूरी को पहले ही बता दी थी). सो हीर सूरी ने तुरंत कहा – ‘बादशाह ! अगर आप मुझे कुछ देकर सचमुच खुश होंगे तो फिर अपने दैनिक जीवन में हिंसा और अमिष का त्याग करने का प्रण ले लीजिये अर्थात आप चिड़िया के जीभ का सवा किलो मांस जो नास्ते में खाते हैं, उससे कितनी चिडियों की आपके निमित से रोज हत्या होती है, जिससे आपके निकृष्ट कर्मों का बंध होता है. आपने मुझे गुरु माना है और मैं तो अहिंसक हूं तो कम से कम इतना प्रण तो गुरुनिमित से ग्रहण कर लीजिये.’
बादशाह ने एक पल भी नहीं सोचा और तुरंत कहा – ‘गुरुदेव ! वादा करता हूं, आज के बाद मैं भोजन में मांसाहार नहीं करूंगा.’ इसके बाद हीर सूरी ने दिल्ली में चातुर्मास किया और दिन-प्रतिदिन हीर सूरी के प्रवचनों से वो अहिंसक होते गये. (कालांतर में उन्होंने शिकार पर, जानवरों और पक्षियों के बंधन (पिंजड़े में कैद) पर और तालाबों से मछली पकड़ने पर और पर्युषण के दिनों में किसी भी जीव की हिंसा करने पर प्रतिबंध लगाया. बढ़ते बढ़ते ये प्रतिबन्ध रोजो के दिनों पर भी लागु हुआ.
(उससे पहले रोजे मांस खाकर भी खोले जाते थे पर अकबर के आदेश से रोजो में अमिषाहार पर प्रतिबन्ध लगा. समय बीतता गया और अलग-अलग तिथियों में मारि का निषेध होता रहा. अन्ततः लगभग आधे वर्ष से थोड़ा ज्यादा समय अमारि प्रवर्तन का हुआ.)
पर्युषण में अहिंसा वाले फरमान में तो अकबर ने दो दिन पहले और और दो दिन बाद के ऐसे चार दिन अपनी तरफ से जोड़कर 12 दिन की निषेधाज्ञा लागू की. बादशाह के फरमान से सभी जैन तीर्थों का जजिया कर समाप्त किया गया और पालीताणा, गिरनार, सम्मेतशिखर, राजगृही, चम्पापुरी, पावापुरी, केसरियाजी, आबू इत्यादि अनेक जैन तीर्थ स्थानों और उसके आसपास की जगहों पर पशु/पक्षी की हत्या, कत्लखानों और मांसाहार का निषेधाज्ञा फरमान भी जारी किया.
पालीताणा तीर्थ के जीर्णोंद्वार का भी फरमान कर्माशाह को प्रदान किया और सभी जैन तीर्थों पर लूट-पाट या तोड़फोड़ नहीं करने का फरमान भी सभी सूबेदारों को जारी किया. हीर सूरी के प्रयासों से अनेकानेक मुसलमानों ने ही नहीं बल्कि हिन्दुओं ने भी मद्यपान का त्याग किया, जिससे प्रभावित होकर बादशाह अकबर ने उन्हें जगद्गुरु की उपाधि प्रदान की.
विजय हीर सूरी को बादशाह अकबर के प्रतिबोधक लिखा है लेकिन असल प्रतिबोध तो उसे चंपा श्राविका के कारण प्राप्त हुआ था. अर्थात चंपा श्राविका के निमित से ही बादशाह अकबर के जीवन में जैन धर्म के प्रति अनुग्रह का बीजारोपण हुआ था, जिससे बाद में हीर सूरी की प्रेरणा से न सिर्फ मांसाहार छोड़ा बल्कि अपनी पूरी सल्तनत में 6 महीने तक (अलग-अलग तिथियों में) जीवहिंसा का निषेध फरमान भी जारी किया.
ये बात सिर्फ श्वेतांबर जैनग्रंथो में ही नहीं बल्कि मुग़ल लेखकों बदायुनी और अबूल फजल ने भी लिखी है कि -अकबर ने जैन मुनि हीर सूरी को 1584 में एक फरमान लिखकर दिया जिसमे लिखा था कि ‘पर्युषण पर्व में कोई भी जीव हिंसा न करे और जैनों के सन्मुख मांस न खाये वरना उसे सख्त सजा दी जायेगी.’ (इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि अकबर की हीर सूरी के प्रति कितनी श्रद्धा रही होगी).
अबुल फजल ने तो यहां तक लिखा है कि – ‘जैन मुनि हीर सूरी के प्रभाव से बादशाह अकबर को जीवहिंसा के प्रति अरुचि उत्पन्न हुई और बादशाह ने कई खास तिथियों पर जीवहिंसा की मनाही कर दी. वह स्वयं मांसभक्षण के विरूद्ध हो गया और प्रत्येक शुक्रवार बिना जमीकंद वाला शुद्ध शाकाहारी (जैन) भोजन ग्रहण करने का नियम भी लिया. बाद में जब अकबर ने दीन-ए-इलाही धर्म (सुलह कुल) की शुरुआत की तो उस पर जैन धर्म के अहिंसावाद की गहरी छाप थी.
यही नहीं जिस सतीप्रथा पर रोक लगाने का श्रेय राजराम मोहनराय या अंग्रेज वायसराय विलियम बेंटिंक (1829) को दिया जाता है, उस पर भी रोक लगाने की शुरुआत बादशाह अकबर ने जैन अहिंसा से प्रेरित होकर की थी. यथा – एक ऊंचे कुल की राजपूतनी विधवा हो गयी थी और उसे उसके घरवाले जबरन सती करवा रहे थे. उस समय बादशाह अकबर अपने अंतःपुर में थे. जब उन्हें ये खबर मिली, बादशाह अकबर ने आव देखा न ताव और एक तेजगति के घोड़े पर सवार होकर बिना अंगरक्षकों और बिना सेना के ही चल पड़े. पीछे से सेना और अंगरक्षकों को पता चला तो वे भी पीछे-पीछे घोड़ों पर बैठकर भागे लेकिन तब तक बादशाह अकबर अकेला वहां पहुंच गये थे, जहां ये कुप्रथा चल रही थी और एक जीवित स्त्री को सती-प्रथा के नाम पर जबरन जलाया जा रहा था.
बादशाह ने पहुंचते ही उसको रुकवाया और बाद में उन्होंने इस प्रथा के विरुद्ध एक फरमान जारी किया, जिसमें लिखा गया कि ‘उसकी सल्तनत में अगर किसी भी स्त्री को धार्मिक पाखंड के नाम पर जबरन जलाया गया तो जिम्मेदार लोगो को कठोर सजा दी जायेगी.’
ऐसे महान आचार्य हीर सूरी का जन्म 1527 ईस्वी में हुआ था और ईस्वी संवत 1554 में उन्हें आचार्य पदवी दी गयी थी. ईस्वी संवत 1587 में वे अकबर से मिले और ईस्वी संवत 1596 में सौराष्ट्र के ऊना में उनका कालधर्म हुआ और बादशाह अकबर ने उनके अंतिम संस्कार के लिये 100 बीघा जमीन लिखकर जैन समाज को पट्टा दिया.
नोट : विक्रम संवत 1630 (ईस्वी सं 1574) में जगद्गुरु हीरसूरी के बढ़ते प्रभाव को देखकर हिन्दू सन्यासी जगमाल ऋषि ने बोरसद हाकेम को भड़काया, जिससे बोरसद हाकिम ने हीरसूरी पर उपसर्ग/उपद्रव किया. विक्रम संवत 1634 (ईस्वी सं 1578) में पाटण के पास कुणगेर चातुर्मास में जैन धर्म के ही दो आचार्यो सोमसुंदर सूरी और उदयप्रभ सूरी द्वारा हीरसूरी पर उपसर्ग/उपद्रव किया गया. विक्रम संवत 1636 में अहमदाबाद के हाकिम शहाबुद्दीन अहमद खान द्वारा हीरसूरी पर उपसर्ग/उपद्रव किया गया जिसका निवारण श्रावक कुंवरजी द्वारा हुआ.
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