हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
हाथरस जैसी घटनाएं सिर्फ इसका संकेत नहीं हैं कि दलित आज भी कितने उत्पीड़ित हैं, यह इस बात का भी खुला संकेत है कि हमारी कानून-व्यवस्था शक्तिशाली जमातों के चंगुल में आज भी है.
सुना है, हाथरस में घटी हैवानियत की घटना की लीपापोती करने में बड़े-बड़े प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी लगे हुए हैं. जाहिर है, नेता जी लोग चाहे जितने प्रपंच रचें, इस तरह की घटनाओं में पुलिस-प्रशासन के आला अफसरों के सक्रिय सहयोग के बिना मामले की लीपापोती नहीं की जा सकती.
मन में सवाल उठता है कि ये इतने बड़े-बड़े अधिकारी गण इस तरह के घृणित अपराधों में भी आखिर कैसे अपनी न्यूनतम मानवीयता को ताख पर रख कर नेताओं के राजनीतिक हितों के लिये मामलों की लीपापोती में लग जाते हैं ? आखिरकार, जब उनकी नौकरी लगी होगी तो उन्हें पता होगा कि उनकी प्रतिबद्धता अंततः कानून और संविधान के प्रति है. ठीक है कि सत्तासीन राजनेताओं की चापलूसी के बहुत सारे फायदे हैं लेकिन, कोई हद भी तो होती है.
अभी खबरों में देख रहा हूं, पुलिस ने परिजनों की सख्त आपत्ति के बावजूद उस मृतका का दाह संस्कार आधी रात को कर दिया. फिर, कोई बड़ा अधिकारी बयान दे रहा है कि रेप नहीं हुआ, कोई अधिकारी कह रहा है कि जीभ नहीं काटी गई. अब जब शव का दाह संस्कार ही हो गया तो बहुत सारे साक्ष्य भी खत्म हो गए. जो हाकिम बोलें, वही सही माना जाएगा.
रेप हुआ या नहीं, जीभ काटी गई या नहीं, यह जांच का विषय हो सकता है, लेकिन उस मासूम किशोरी के साथ ऐसी हैवानियत की गई कि अंततः उसकी मार्मिक मौत हो गई. आखिर क्या कारण रहा होगा कि एक किशोरी की हत्या इतने खौफनाक तरीके से की गई ? क्या रेलवे ठेकेदारी का विवाद था ? क्या राजनीतिक विवाद था ? क्या गैंगवार की परिणति थी यह हत्या ?
सीधी-सी बात है कि वह लड़की थी, मासूम उम्र की थी, एक कमजोर जाति की थी और सबसे बड़ी बात, जिस गांव में वह रहती थी उसमें उसकी जाति के महज़ 15 घर थे, जबकि, जैसा सुना है, जिन आतताइयों पर आरोप है, उनकी जाति के करीब 600 घर हैं उस गांव में. हम समझ सकते हैं कि मामला क्या रहा होगा और क्यों ऐसी क्रूर हत्या हुई. हम अंदाजा लगा सकते हैं कि 600 घरों वाले लोगों में कुछेक प्रभावी अफसर होंगे, कई छुटभैये नेता होंगे, टोपी वाले कई रसूखदार होंगे जिनकी आमदरफ्त अक्सर थाना और ब्लॉक में होगी.
हमें कोई संदेह नहीं कि उनमें कई सक्रिय हो गए होंगे कि मामले की लीपापोती हो और गुनहगारों पर कोई आंच न आए. आखिर, अपना बच्चा है, थोड़ी ऊंच-नीच हो गई तो ऐसा इस उम्र में होता ही रहता है. सदियों की परंपरा जो है, पोते-भतीजे कमजोरों के साथ गुनाह करेंगे, बाबा-चाचा लोग उसे बचाने में लग जाएंगे.
अब 600 घर हैं तो एक वोटबैंक है न ? मामूली बात नहीं है कि एक कमजोर वर्ग की बालिका को न्याय दिलाने के फेर में हजारों वोटों को दांव पर लगा दें. नेताओं के अपने दांव हैं. अफसरों के अपने दांव.
न जाने कितनी हत्याएं, न जाने कितने बलात्कार, न जाने कितने अत्याचार होते हैं जिनका कोई निष्कर्ष नहीं निकलता. इलाके का बच्चा-बच्चा जानता रहता है कि गुनहगार कौन लोग हैं लेकिन पुलिस नहीं जानती, कोर्ट को पता नहीं चल पाता. फिर, इलाके का बच्चा-बच्चा अपनी खुली आंखों से देखता है कि वही गुनहगार आरोप मुक्त हो चौराहे पर खड़े ऐंठ रहे हैं. यह हमारे सभ्य होने पर और हमारे देश-समाज में कानून का राज होने पर जोरदार तमाचा है. ऐसे तमाचे लगते ही रहते हैं.
पुलिस-प्रशासन के जो बड़े अफसर इस तरह के मामलों में भी लीपापोती में लग जाते हैं, पता नहीं किन दबावों में, वे भी तो शाम को अपने घर लौटते होंगे. आखिर, वे अपनी बड़ी होती बेटियों से, बहनों से कैसे आंख मिला पाते होंगे ? कपिल मिश्रा का वह वायरल वीडियो, जिसमें वह कानून अपने हाथ में लेने की धमकी खुलेआम दे रहा था, उसमें उसके बगल में खड़े पुलिस के डीसीपी का चेहरा याद करें. हे..हे करता हंसता हुआ चेहरा. न कोई लाज, न कोई शर्म, न कोई अपराध बोध, जबकि उसके बगल में उस आपराधिक भाषा में बात करता कपिल मिश्रा पहली घनघोर बेइज्जती उस डीसीपी की ही कर रहा था.
क्या इतना बड़ा पुलिस अधिकारी सार्वजनिक रूप से इतना बेगैरत हो सकता है ? लेकिन, सबने उस अधिकारी को सैकड़ों लोगों के सामने बेगैरत हंसी हंसते देखा. जब वह डीसीपी अपने घर लौटा होगा तो अपने बच्चों से कैसे नजरें मिलाई होंगी उसने ? बच्चे तो उसके लौटने से पहले ही उस वीडियो को देख चुके होंगे.
यूपी-बिहार जैसे सामंती मिजाज वाले प्रदेशों में आज भी घटती ऐसी घटनाएं रामविलास पासवान, मायावती, जीतन मांझी आदि दलित नेताओं की राजनीति की खुदगर्ज नग्नता को उजागर करती हैं और आवाहन करती हैं कमजोर वर्ग के प्रत्येक व्यक्ति का कि वे नई राजनीति की ज़मीन तैयार करें, जिसमें ऐसे नेताओं का आना सम्भव हो सके जो उनके हितों की कीमत पर अपनी राजनीति की दलाली न करें.
हाथरस जैसी घटनाएं सिर्फ इसका संकेत नहीं हैं कि दलित आज भी कितने उत्पीड़ित हैं, यह इस बात का भी खुला संकेत है कि हमारी कानून-व्यवस्था शक्तिशाली जमातों के चंगुल में आज भी है. शक्ति का क्या है, कल किसी दूसरी जमात में हस्तांतरित हो सकती है. इतिहास अपनी गति से चलता है और न जाने कितने उत्थान-पतनों को अपने में समेटे नए दौर का सृजन करता आगे बढ़ता जाता है.
कोई भी हमेशा, हर दौर में शक्तिशाली नहीं रह सकता. जो आज कमजोर हैं, वे अगले दौर में मजबूत होंगे. होंगे ही, कोई नहीं रोक सकता उन्हें. धीरे-धीरे ही सही, समय बदल रहा है और एक दिन यह समाज भी बदला हुआ दिखेगा, शक्ति के समीकरण भी बदले हुए दिखेंगे. महज़ तीन दशकों के सामाजिक-राजनीतिक बदलावों से ही आगे कुछ दशकों के संभावित बदलावों का आकलन कर लीजिये. कानून और कोर्ट को जितना कमजोर करते जाएंगे, अपने बच्चों की जिंदगियों को सांसत में डालते जाएंगे. कोई भी नहीं बचेगा ऐसे में.
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