एक हैरी है, और है एम्मा. डॉक मजदूर का बेटा हैरी क्लिफ्टन, और बैरिंगटन शिपिंग लाइन के मालिक की राजकुमारी जैसी बेटी- एम्मा बैरिंगटन. स्कॉलरशिप पर हैरी उस स्कूल में पहुंचता है, जहां एम्मा पढ़ती है. प्रेम होता है…जो छह नॉवल की सीरीज में परवान चढ़ता है. जिंदगी के तमाम रंग देखता है. युवा हैरी और एम्मा, मां-पिता बनते हैं. जीवन जीते हैं, तमाम सपने पूरे करते हैं. सुख और दुःख, सफलता और फेलियर…साथ-साथ !!
आखरी नॉवल है, आखरी पन्ने. पहली मुलाकात के सत्तर साल बाद वो मशहूर लेखक हैरी, एक्स ब्रिटिश हेल्थ मिनिस्टर याने अपनी पत्नी, एम्मा के बिस्तर पर बैठा है. ग्यारह माह पहले एम्मा को मोटर न्यूरॉन डिजीज डिटेक्ट हुई थी. एक-एक करके सारे अंगों पर कंट्रोल खो चुका है. सिर्फ वह सिर्फ पलकें हिला सकती है. बेहद दर्द में है. हैरी ग्यारह माह से उसकी अटूट सेवा कर रहा है. एम्मा अब बोल भी नहीं सकती तो मियां बीवी ने पलको की झपक की एक भाषा डेवलप कर ली है.
एम्मा पलकें झपकाती है. हैरी मना कर देता है…वह फिर इसरार करती है. हैरी फिर मना कर देता है. दर्द से चूर एम्मा की आंख की कोर से एक आंसू गिरता है. हैरी का दिल टुकड़े टुकड़े जाता है…बुझे मन से तकिया उठाता है, एम्मा के मुंह पर रखता है. कुछ क्षण दबाव…
मौत के हफ्ते भर बाद, आज चर्च में एम्मा की मेमोरियल सर्विस होनी है. सारी तैयारियां हो चुकी. उनका बेटा, हैरी को बुलाने जाता है. देखता है…वृद्ध हैरी कुर्सी पर लुढ़का हुआ है. हाथ से, एम्मा का जवानी में लिखा वो पत्र, छूटकर फर्श पर जा पड़ा है. शरीर अभी भी गर्म था…पर निष्प्राण था.
जेफ्री आर्चर की तमाम नॉवेल्स में यह सबसे लंबी सीरीज थी. इन दोनों की मोहब्बत के एक-एक पल को पाठक के रूप में, सजीव गवाह मैं बनता हूं. उन पलों को साथ जीता हूं. हम जीते हैं. एम्मा की मौत के बाद कुछ पन्ने, एक अनकहे गिल्ट में जीता हूं और हैरी की मौत के साथ मुक्त हो जाता हूं.
फरवरी 1944 आगा खान पैलेस.
गांधी कस्तूरबा के सिरहाने बैठे हैं. चौवन साल पहले जिसे ब्याहकर लाये, जिसने उनकी विचित्र सी जिंदगी में बराबर साथ निभाया, आज निष्चेष्ट पड़ी थी. कस्तूर को क्रोनिक ब्रोंकाइटिस थी. टीबी तब लाइलाज थी. ऊपर से दो हार्ट अटैक भी हो चुके थे. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जेल की जिंदगी ने कस्तूर को बेहद कमजोर कर दिया था. सांस बेहद धीमी थी.
डॉक्टर जवाब दे चुके थे. गांधी ने भी सभी दवाएं बन्द करने को कह दिया है. बेटा देवीदास कहीं से पेनिसिलिन ले आया है. एक नई दवा है, एक नया जादू. डाक्टरों पर उसे लगाने का दबाव डालता है. गांधी बीच में आते हैं.- ‘वह जितना दर्द सह चुकी है, बहुत है. अब कोई जादुई दवा उसे ठीक नहीं कर पायेगी.’
लेकिन बेटा, बेटा है. मां को जीवन देना चाहता है. एक कोशिश करना चाहता है. पिता से लड़ता है –
– रोक क्यों रहे हैं आप ?
– तुम जो करोगे सिर्फ उसकी तकलीफ के दौर को लम्बा करोगे. लेकिन फिर भी, तुम अगर यही करना चाहते हो, तो कर लो, मैं बीच में नहीं आऊंगा.’
गांधी हट जाते हैं. पेनिसिलिन रखी रह जाती है. कस्तूर की सांसें टूट जाती हैं. गांधी भी टूट चुके हैं. पैलेस के प्रांगण में कस्तूर की चिता जलती है. गांधी चिता की आखरी आंच बुझने तक वही बैठे रहते हैं. आगा खां पैलेस की कैद में जाने वाले गांधी, और वहां से छूटने वाले गांधी, दो अलग शख्स हैं.
बचे हुए तीन साल, उनका कोई घर नहीं, लौटने की ललक नहीं, कोई इंतजार करता हुआ शख्स नहीं. बंगाल, दिल्ली, पंजाब, दक्षिण की यात्राओं में जीवन गुजरता है. वह खूनी दौर, दिन रात का तनाव, और बिखरता हुआ भारत. आजादी उत्साह बढ़ाने में विफल है. वे दूर नोआखाली में चल रही है. हैदर मंजिल में सो रहे हैं. कृशकाय, 79 बरस का शख्स उपवास कर रहा हैं…एक डैथ विश, साफ दिखाई देती है.
बस एक जिंदगी है, आगे न स्वर्ग है, न नर्क है. जन्म और मृत्यु के बीच का दौर आप किस तरह गुजारते हैं, स्वर्ग-नर्क सब वहीं बिखरा है. जीवन की श्रृंखला के बीच प्रेम, हंसी खुशी के लम्हें ही स्वर्ग है. नफरत, पीड़ा, बदला, जलन इस श्रृंखला के नर्क हैं. स्वर्गिक खुशियां देना प्रेम है. दर्द के नर्क से बचाना भी..,उसके बगैर, एक नर्क भोगना भी.
- मनीष सिंह
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