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हरित क्रांति, डंकल प्रस्ताव, कांन्ट्रैक्ट फार्मिंग और किसान आंदोलन

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हरित क्रांति, डंकल प्रस्ताव, कांन्ट्रैक्ट फार्मिंग और किसान आंदोलन

केन्द्र सरकार के सात साल, कोरोना महामारी के दूसरे साल और किसान आंदोलन के छह महीने पूरा होने के बाद जरूरी है कि किसानों के जमीनी हालात का जायजा लिया जाए. किसानों की असली मुसीबत यह है कि उनकी ज्यादा पैदावार ही इस वक्त जी का जंजाल बनती जा रही है. लॉकडाउन की वजह से आवाजाही पर लगी रोक, कृषि उपज की घटती मांग, घोषित समर्थन मूल्य पर किसानों से खरीद पर दरपेश तमाम अड़चनें एक तरह से कोरोना काल में किसानों की मुसीबत के जख्मों पर नमक छिड़कने का काम कर रही हैं.

किसानों की मुसीबत की ऐसी ही घड़ी में उनके दिलों की घड़कन को करीब से महसूस करने वाले उपन्यासकर मुंशी प्रेमचंद कहते हैं, ‘खेती की हालत अनाथ बालकों सी है. जलवायु अनुकूल हुई तो अनाज के ढेर लग गए, इसकी कृपा नहीं हुई तो कपटी मित्र की तरह दगा दे गई. ओला और पाला, सूखा और बाढ़ टिड्डी और लाही, दीमक और आंधी से प्राण बचे तो फसल खलिहान में आई. कुल मिलाकर इतने दुश्मनों से बची तो फसल, तो नहीं फैसला.’

मुश्किल यह है कि जब वक्त पर किसानों के हक में फैसले की बारी आती है, तो अक्सर उनके साथ अब तक नाइंसाफी होती रही है. मसलन, कोरोना काल में उत्तर प्रदेश सरकार ने पहले तय किया कि प्रति किसान उसकी कुल उपज का 30 क्विंटल गेहूं खरीदेगी. इस साल गेहूं की पैदावार ज्यादा हुई है, सरकार की खरीद एजेंसी एफसीआई की ओर से ऐसी तमाम पाबंदियां लगाई जा रही हैं ताकि किसानों से गेहूं की ज्यादा खरीद न करनी पड़े.

जब सरकार पर जनप्रतिनिधियों ने दबाव बनाया तो अब सौ क्विंटल प्रति किसान गेहूं खरीद की घोषणा करनी पड़ी. इसके अलावा, पैदावार बेचने के लिए किसान को लेखपाल से लेकर जिले के एडीएम तक दौड़ लगानी पड़ती है ताकि बिक्री के लिए जरूरी दस्तावेज सत्यापित हो सकें. बिक्री का टोकन मिलने के बाद किसान गेहूं लेकर मंडी पहुंचता है तो तौल का कांटा और कोरोना के भय से सरकारी कर्मचारी, दोनों नदारद.

इस साल ‘यास’ तूफान की वजह से पूर्वी उत्तर प्रदेश और सटे बिहार में रोहिणी नक्षत्र में इतनी जोरदार बारिश हुई कि गेहूं खरीद का काम कम से कम दस दिनों के लिए ठप हो गया. ऐसी परिस्थिति में सबसे बुरा हाल उन 88 फीसद सीमांत और बटाईदार किसानों का है, जिनके पास अपने खेत नहीं है, मालगुजारी पर खेत जोतते-बोते हैं. एक तो उनके पास सरकारी समर्थन मूल्य पर उपज बेचने के लिए जरूरी दस्तावेज नहीं हैं, दूसरा मालगुजारी समेत दूसरी तमाम देनदारियों की अदायगी और अगले साल के लिए खेत की बुवाई का अग्रिम बयाना देने का भी यही वक्त है.

ऐसे में मजबूरन ये किसान घोषित समर्थन मूल्य 1975 रुपये प्रति क्विंटल की बजाय 425 से 450 रुपये कम दाम पर अपना गेहूं बेच रहे हैं. बता दें कि हर साल सरकार 23 फसलों का समर्थन मूल्य घोषित करती है. इस समर्थन मूल्य पर पूरे देश में सात से आठ फीसद किसानों की उपज की ही खरीद होती है, बाकी के लिए स्थानीय साहूकारों और बनियों को मनमर्जी के मुताबिक खरीद की खुली छूट है.

अभी तक किसानों की उपज की खरीद का कोई बेहतर इंतजाम पंजाब और हरियाणा को छोड़कर पूरे देश में नहीं हो पाया है. इन मुश्किल हालात से निजात दिलाने के लिए ही संयुक्त पंजाब प्रांत में सर छोटू राम के प्रयास से कृषि उपज मंडी समिति और अमेरिकी कृषि वैज्ञानिक डॉ. फ्रैंक डब्लू वार्नर के सुझाव पर लालबहादुर शास्त्री की सरकार के समय देश में किसानों के हित में कृषि उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू किया गया.

अब तीन नये कृषि कानून के विरोध में पिछले सात महीने से धरनारत किसानों की प्रमुख मांग है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की कानूनी गारंटी दे. केंद्र सरकार की ओर से अब तक इसे स्वीकार नहीं किया गया है. खेतों को निजी हाथों में सौंपने के पैरोकारों की दलील है कि सरकार का काम किसानों की उपज खरीदना, अपने खर्चे पर उसके रखरखाव का इंतजाम करना नहीं है. देश में करीब दस हजार एफपीओ केंद्र खोलने की घोषणा निजीकरण की दिशा में जाने का ही संकेत है.

सरकार का दावा है कि बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी तो किसानों को ज्यादा फायदा होगा. पर देखा जा रहा है कि कोरोना जैसे विपत्ति काल में निजी कंपनियों मजबूरी का फायदा उठाने में कुछ ज्यादा ही माहिर हैं. कोरोना काल में जीवनरक्षक दवाओं की कालाबाजारी के मामले में ये कंपनियां मानवीयता की सीमाएं लांघकर ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के खेल में लगी रहीं. फिर इन कंपनियों से कैसे उम्मीद की जाए कि मुसीबत के वक्त किसानों का शोषण करने से बाज आएंगी ?

(एक शब्द में जवाब है – नहीं. क्योंकि वित्तीय पूंजी अपना शोषणकारी भयानक पंजा कृषि क्षेत्र में जबरन घुस रही है और वित्तीय पूंजी पर भरोसा नहीं किया जा सकता.)

वित्तीय पूंजी (साम्राज्यवाद) कृषि क्षेत्र में घुसकर कैसे उसे अपने ऊपर निर्भर बना लेती है, उस पर प्रभुत्व कायम कर लेती है, और फिर कब्जा करती है – इसका उदाहरण क्रमश: हरित क्रांति, डंकल प्रस्ताव व कांन्ट्रैक्ट फार्मिंग है.

आप पुरानी पीढ़ियों के लोगों से पता कर लीजिए कि कृषि में हरित क्रांति और फिर सफेद क्रांति लागू होने से पहले कृषि आत्मनिर्भर थी. गांव से ही कृषि संसाधन – बीज, कुआं, तालाब, नदी से सिंचाई, राख की कीटनाशक, हल, बैल प्राप्त हो जाते थे, इन्हीं संसाधनों व वर्षा द्वारा कृषि उत्पादन होता था. उत्पादन कम था, अत: खाने पीने की समस्या थी. खेती पिछड़ी हुई थी, लेकिन आत्मनिर्भर थी.

अतः कृषि विकास हेतु साम्राज्यवादी सरकारों, उनके विश्व बैंक व भारतीय सरकार द्वारा हरित क्रांति और सफेद क्रांति शुरू की गई. हरित क्रांति के तहत आधुनिक बीज, खाद, ट्यूबेल, ट्रैक्टर व रासायनिक दवाओं से खेती की जाने लगी. यह सारे संसाधन गांव की जगह शहरों-बाजारों में मिलते हैं, और वह भी नगद.

फलत: हरित क्रांति के नाम पर आधुनिक बाजारों, उद्योगों व बैंकों पर निर्भर बढ़ती गई. उत्पादन तो बढ़ा, लेकिन लाभ मिला कृषि लागत के सामानों व उपभोक्ता सामान बनाने व बेचने वाले देशी-विदेशी पूंजीपतियों को. किसान घाटे का शिकार होकर गरीबी, फटेहाली, झेलता टूटन का शिकार बनता गया.

दरअसल यह हरित व सफेद क्रांतियां किसानों को कृषि लागत सामग्री की, उपभोक्ता सामानों की एवं कर्जे की मंडी अर्थात वित्तीय पूंजी हरित क्रांति से किसानों की समृद्धि के प्राचारी दावों के विपरीत किसानों को संकटग्रस्त होना ही था, और वही हुआ भी. उदाहरण, हरित क्रांति का लक्ष्य था – शहरों में कार्यरत कारखानों के मजदूरों, कर्मचारियों व मध्यमवर्गीय तबकों को संस्था व भरपूर खाद्यान्न की आपूर्ति करना.

इससे उद्योगपतियों, वित्तपतियों को सस्ते श्रम फलत: ज्यादा मुनाफे व सूद की प्राप्ति हो जानी थी, सो हुआ भी. इसी उद्देश्य हेतु साम्राज्यवादी देशों व उनके दलाल अरब देशों को खाद्यान्न, फल, सब्जी, गोश्त, दूध आदि की जरूरतों व औद्योगिक कच्चे मालों की आपूर्ति करने के लिए ही हरित क्रांति की योजना लागू की गई थी.

किसान पुनः पुरानी खेती की ओर अब लौट नहीं सकते क्योंकि पुराने बीज, खाद, हल-बैल जैसे संसाधन कृषि क्षेत्र से गायब हो चुके हैं. शुरू शुरू में कृषि विकास हेतु सस्ती लागत सामग्री, सिंचाई, सस्ते कर्ज देकर 40 से 50 वर्षों से साम्राज्यवाद कृषि को अपने ऊपर निर्भर बनाने का लक्ष्य पूरा कर चुका है, अतः अब कृषि एवं सिंचाई हेतु सहायता इत्यादि देना कम या बंद कर दिया गया.

अपने चारित्रिक गुणों के अनुसार साम्राज्यवादी जानते थे कि किसान नई खाद बीज खरीदने के लिए कर्ज लेने और अपने उत्पादन बाजारों में खरीदने-बेचने के आदी बन जाएंगे, तो किसानों को ज्यादा सूद वाले कर्जे देकर और अत्यधिक लाभ लेने वाले लागत उपभोक्ता माल बेचकर, तथा कृषि उत्पाद को कम मूल्य पर खरीद कर, पहले से उठाए गये घाटे को (कम सूद वाले कर्जे व सस्ती कृषि लागत, उपभोक्ता सामान को), कई गुना लाभ पर सालों साल वसूल किया जा सकता है, और आज यही हो रहा है.

कृपया ध्यान दें ! हरित क्रांति से किसानों की महंगाई, बेकारी, गरीबी व टूटन आदि समस्याएं बढ़ती गई, लेकिन यह प्रचार करके डंकल प्रस्ताव लागू किया गया था कि किसान अब नई खेती से लाभ ले रहा है. अतः लागत सामान – बीज, खाद, कीटनाशक आदि मुहैया कराने वाली साम्राज्यवादी कंपनियों को भी उस लाभ में हिस्सा अर्थात लाभांश चाहिए.

‘डंकल प्रस्ताव’ के तहत ‘बौद्धिक संपत्ति संबंधी व्यापार के अधिकार के नियम’ के तहत खादों, बीजों इत्यादि को पेटेंट कानून के तहत लाकर उसे महंगा बेचकर भारी लाभ कमाया जाने लगा (इसके लिए पाठक कृपया जी.डी. सिंह (गुरदर्शन सिंह) द्वारा लिखित डंकल प्रस्ताव नामक बुक पढ़ सकते हैं.)

हरित क्रांति द्वारा भारतीय कृषि का राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीयकरण जो हुआ था, उसे ही सुनिश्चित नियमबद्ध करने के लिए डंकल प्रस्ताव लाया गया था. फलत: टूटते किसानों पर डंकल प्रस्ताव (नई आर्थिक नीति) लागू करने के बाद सरकारी गोदामों, ब्लॉकों, सोसायटियों से सस्ती व उत्तम किस्म के बीजों, रासायनिक दवाओं की आपूर्ति व सरकारी सिंचाई, उत्तरोत्तर कम कर दी गई.

बाजार से महंगे खाद बीज आदि खरीदना व निजी सिंचाई प्रबंध करना किसानों के जिम्मे में आ गया. लागत की बढ़ती महंगाई के कारण किसान कर्ज में फंस गया और कर्ज चुकता न कर पाने के कारण आत्महत्या करने लगा.

कृपया ध्यान दें, कि संकटग्रस्त होना व आत्महत्याएं करना यह सीमांत छोटे व मझोले किसानों की समस्याएं हैं, क्योंकि सूखा, बाढ़, अतिवृष्टि या मौसमी बीमारियों, समय पर सिंचाई ना हो पाने तथा खाद बीज दवाएं नकली होने से उत्पादन कम होने या उत्पादन का उन्हें उचित मूल्य नहीं मिलने पाने की समस्याएं इन्हीं की है. इन्हें समर्थन मूल्य व अन्य सरकारी समाधान भी नहीं मिल पाता, लेकिन बड़ी खेतियों के चंद धनी किसान लाभ प्राप्त कर लेते है.

अत: वह जैसे पंजाब के आधुनिक बड़े किसान जमींदार, हिंसक विरोधी होने के बावजूद भी कृषि के अंतरराष्ट्रीयकरण वाले डंकल प्रस्ताव के समर्थन में आ गये थे. कुल मतलब यह कि डंकल प्रस्ताव के बाद किसानों की सब्सिडी (रियायतें) साम्राज्यवादियों के निर्देशानुसार काटी जाने लगी. अतः पहले की तरह किसानों को न तो सस्ते साधन मिलते हैं, न हीं ज्यादा सब्सिडी और न ही कर्जे व अन्य बकायों की माफियां.

पूंजीवादी प्रचार तंत्र कहता है कि किसानों के लिए दिए जाने वाली इन सारी रियासतों में राष्ट्र की आर्थिक व्यवस्था को नुकसान होगा. प्रश्न है – कि पूंजीपतियों की छूटों, रियायतों व कर्जमाफी से क्या राष्ट्र की आर्थिक क्षति नहीं होती ?

बरहाल, डंकल प्रस्ताव के बाद अब वित्तीय पूंजी के तीसरे चरण अर्थात अब कब्जेदारी के रूप में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का कानून बन गया है. इसे अब ठेका खेती के रूप में प्रचारित किया जा रहा है कि इससे किसान संकट मुक्त होकर खुशहाल हो जाएंगे, लेकिन हकीकत यह है कि जिस तरह पहले अज्ञानतावश किसान हरित क्रांति में फंसा उसी तरह आप अज्ञानतावश किसान कांट्रैक्ट फार्मिंग के संकट में फंसता जा रहा है.

जिस तरह उद्योग, सेवा, व्यापार में वित्तीय पूंजी यह कह कर घुसी कि हम विदेशी नहीं रह गए हैं, अतः हमें भी भारतीय पूजीपतियों जैसा व जितना अधिकार निजीकरण करके मिलना चाहिए, उसी तरह उनका कहना है कि खेती में लगने वाले खाद, बीज, दवाएं व कृषि यंत्र सब तो हमारा ही है, अतः हमें भी किसानी का अधिकार मिलना चाहिए.

किसानों से भी कहते हैं कि कृषि के सारे संसाधन पूंजी पैसे तो मेरे पास है, तेरे पास क्या है केवल आत्महत्या करने के सिवा. हां तेरे पास जमीन है, उसे ही हमारे साथ साझा करके आओ खेती करें, फिर जो उत्पादन होगा उसमें से अपने रकबे के अनुसार तुम्हें यानि किसान को हिस्सा मिल जाएगा.

अब आफत का मारा किसान सोचेगा कि यही ठीक है. एक तो उत्पादन सुनिश्चित और फिर रकवे के हिसाब से हिस्सा भी मिल जाएगा लेकिन वह यह नहीं जानता कि पूंजीवादी कंपनी मक्कारी व चालाकी से उनकी जमीन भी हड़प लेगी, कैसे…?

दो एक साल लाभ दिखाते हुए शेयरधारी किसानों को उनका लाभ दे देगी, लेकिन जब घाटा हो या नकली घाटा दिखाकर कंपनियां किसानों से कहेंगे कि जब लाभ से लाभ लेते रहे हो तो अब घाटे में भी हिस्सेदारी करो. क्या किसान यह बोझ उठा पाएगा..? नहीं, फिर उसकी जमीन हमेशा के लिए छिन जाएगी. इसमें खास बात यह है कि साम्राज्यवादी कंपनी व पूंजीवादी कम्पनी खेती के साथ साथ खेत पर भी मुफ्त में कब्जा जमा लेगी. यह है वित्तीय पूंजी का चरित्र.

हरित क्रांति के तहत कृषि संसाधन देकर खेती में घुसना, फिर डंकल प्रस्ताव व (हरित क्रांति) के तहत किसानों द्वारा अपनी ही जमीन पर कठोर श्रम करके कंपनियों को लाभ दर लाभ और सूद देना. इससे किसानों का टूटन व आत्महत्या बढ़ती रही. खेती पर पूरी तरह काबिज व एकाधिकार करने के बाद अब खेत पर भी कब्जा करने हेतु यह कांट्रैक्ट फार्मिंग है. मतलब यह कि वित्तीय पूंजी कृषि को भी अपने अधीन कर लेती है, वह न तो किसान का विकास करती है, और ना ही उसे स्वतंत्रता देती है.

  • मोहन सिंह एवं जनार्दन सिंह

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