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हारे हुए नीच प्रतिशोध की ज्वाला में जलते हैं

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हारे हुए नीच प्रतिशोध की ज्वाला में जलते हैं

सुब्रतो चटर्जी

धोनी ने सिखाया, ‘परिवार के नाम से क़िस्मत नहीं लिखी जाती,’ नीच (नरेन्द्र मोदी) ने कहा. लेकिन, मांं के दूसरों के घरों में बर्तन मांंजने का हवाला दिया जा सकता है, और नब्बे साल की बुढ़िया को नोटबंदी को सही साबित करने के लिए दो हजार रुपए के लिए लाईन में खड़ा किया जा सकता हैं.

संयोगवश या प्रयोगवश नीच ने धोनी के रिटायर्ड होने पर संदेश देने के लिए स्वर्गीय राजीव गांंधी की जयंती को चुना. नीच ने धोनी को अभिनंदन देने के बहाने परिवारवाद पर परोक्ष रूप से चोट किया. विकृत रुचि के लोगों के कान में नीच के ये शब्द अमृत घोल दिये होंगे, ये निश्चित है.

दरअसल, कुंठा हमारी सामाजिक मनोविज्ञान की अभिव्यक्ति है. अनपढ़ का पढ़े-लिखे लोगों के प्रति, ग़रीब का अमीर के प्रति, मुफ़लिस बेरोज़गार का नौकरी प्राप्त लोगों के प्रति, साधारण परिवार में जन्में लोगों का तथाकथित उच्च कुल में पैदा हुए लोगों के प्रति, अवर्णों का सवर्णों के प्रति इत्यादि. साधारण जीवन यात्रा हो या मनुष्य की राजनीतिक, सामाजिक सोच हो, हर क्षेत्र में हमारे कर्म इसी कुंठा का प्रतिस्फलन बनता जा रहा है, जो कि एक चिंतनीय विषय है.

जॉन मिल्टॉन के महाकाव्य Paradise Lost में जब शैतान हार जाता है, और एक जंगल में निर्वासित हो कर अपने हार की समीक्षा करता है तो सोचता है –

Can not I create
Can not I create another world
Another Universe ?

एक दूसरी दुनिया, एक दूसरा ब्रह्मांड बनाने की उसकी इच्छा, जो उसके मन मुताबिक़ हो, और जहांं ईश्वर का प्रवेश वर्जित हो, उसकी कुंठा की अभिव्यक्ति है, जिसे महाकवि ने कुछेक शब्दों में अमर कर दिया. इसे लिखते समय अंधे महाकवि ने स्पष्ट देखा था कि किस तरह हारे हुए मन के लोग प्रतिशोध की ज्वाला में जलते हैं, और सृष्टि में जो कुछ भी सुंदर है, उसे नष्ट करने और अपने मनमुताबिक नई दुनिया बनाने का ख़्वाब पालने लगते हैं.

हितोपदेश में एक कहानी है. एक बार जंगल में भारी बारिश हो रही थी. एक पेड़ के नीचे बंदरों का एक झुंड भींगते हुए ठंढ में कांंप रहे थे. पेड़ के उपर अपने घोंसले में आराम से बैठे कुछ परिंदे पूछ लेते हैं, ‘हे मर्कट, ये जो तुमलोग दिन भर उछल कूद मचाते हो, सूखे दिनों में क्यों न अपने लिए घर बनाते हो ताकि बरसात और जाड़े में आराम से रह सको ?’ बारिश ख़त्म होने के बाद बंदर पेड़ पर चढ़ जाते हैं और परिंदों के घोंसले तहस-नहस कर देते हैं. बंदर अपना घर नहीं बना सकते, लेकिन, दूसरों का बना बनाया घर तोड़ सकते हैं, ठीक उस शैतान की तरह.

2014 के बाद से नया भारत (Another world) बनाने के नाम पर शैतान ने आज तक जो कुछ भी किया है, क्या वह उन बंदरों की कुंठा से मिलता जुलता नहीं है ?

योजना आयोग को भंग करना इसलिए ज़रूरी था कि उसमें देश के सबसे अच्छे दिमाग़ थे, जिनके विचार और भाषा नीच की समझ के परे थे. नीति आयोग बना, और अपने चमचों को भर कर ख़ुद को उनसे श्रेष्ठ साबित कर दिया.

नोटबंदी पुरानी आर्थिक नीतियों और ढांंचे पर कुठाराघात था, जो आत्मघाती होने के वावजूद एक नीच के विकृत अहं को तुष्ट करता था. नए नोटों की गुणवत्ता की तुलना अगर आप पुराने नोटों की गुणवत्ता से करेंगे तो आपको इस नए भारत की गुणवत्ता समझ आ जाएगी; बाक़ी सब अर्थशास्त्र और राजनीति है, जिस पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है.

संसद और चुनावी प्रक्रिया की शुद्धता, दो ऐसे लोकतंत्र के प्रतिमान थे, जिनके समानांतर कोई व्यवस्था बनाए बिना नीच का नया भारत अधूरा रह जाता इसलिए, पूरा संसद बस एक महामूर्ख दलाल के हाथों में सिमट गया. चुनावी प्रक्रिया के प्राण हरने के लिए इवीएम काफ़ी नहीं था, इसलिए इलेक्टोरल बॉड लाया गया.

न्यायपालिका को भी हटाया नहीं जा सकता, लेकिन जजों का लोयागति का भय दिखा कर या ढीला लंगोट (गोगोई) जैसे लोगों को राज्यसभा का लोभ दे कर अपने पाले में तो किया ही जा सकता है.

इसी श्रृंखला में, सरकार की भूमिका सिकुड़ती गई. ‘मीनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ (Minimum government, maximum governance) के लोक लुभावन नारे के पीछे जनता को हर तरह की सरकारी सहायता से दूर कर उसे आत्मनिर्भरता, यानि यतीम बनाने की काबायाद थी, जिसकी बात आज नीच कर रहा है.

जब नीच लाईसेंस कोटा राज ख़त्म करने की बात करता है तो इसका मतलब उन बेईमान, देशद्रोही बनियों की सुविधा के लिए होता है, जिनके हाथों जनता के दशकों की गाढ़ी कमाई से बनी पब्लिक सेक्टर की संपत्तियों को बेचना होता है.

‘आपदा में अवसर’ का नारा देकर एक चोरी का फ़ंड बनता है, क्योंकि प्रधानमंत्री राहत कोष में जवाबदेही है. अब, जबकि शैतान अपनी दुनिया बना ही रहा है तो किसके प्रति जवाबदेही हो, और क्यों हो ?

सवाल पूछने वाली मीडिया को ख़रीद लो, एक नई मीडिया बनाओ, जो हारे हुए बंदी को भी चंद वरदाई जैसा हीरो बना दे. रही सही कसर तो बीच-बीच में पुलवामा के बहाने या गलवां में पुराने भारत के निष्ठावान सैनिकों को मरवा कर ख़ुद को देशभक्ति का सर्टिफ़िकेट देने से ही निकल जाता है.

धोनी मेरे शहर रांंची से हैं, और हम सबको उस पर गर्व है. लेकिन, हे नीच शिरोमणी, धोनी साधारण परिवार से है, लेकिन आपके राजनीतिक अभिभावकों की तरह, अंग्रेज़ों के मुखबिर, हत्यारे, चोर, देशद्रोही और मुसोलिनी के तलबे चाटने वाले फ़ासिस्ट नहीं हैं. मैं उन लोगों के प्रति आपकी कुंठा समझ सकता हूंं जिनके परिवार का इतिहास स्वाधीनता संग्राम और शहादत के ख़ून से जगमगा रहा है. ये भी सही है कि आप अपने नैसर्गिक माता-पिता को बदल नहीं सकते, लेकिन, अपने वैचारिक माता-पिता को तो त्याग कर ही सकते हैं.

लेकिन, फिर वही सवाल ‘Can a leopard change its spots ?’ नहीं, दाग अच्छे हैं. बेहतर है कि नरसंहार, देशद्रोह, दलाली, झूठ, मक्कारी, कुशिक्षा और चोरी के दाग के साथ ही आप जियें और मरें. सबका ख़ून शामिल है इस मिट्टी में … उनमें से कुछ आपके जैसे नीच भी हैं.

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