पं. किशन गोलछा जैन, ज्योतिष, वास्तु और तंत्र-मंत्र-यन्त्र विशेषज्ञ
संघी और भाजपाई सरदार पटेल के बड़े गुण गाते हैं और नेहरूजी को गरियाते हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि वास्तव में सरदार पटेल उतने समझदार थे ही नहीं जितना उन्हें दर्शाया जाता है, खासकर नेहरूजी के मुकाबले तो बिल्कुल नहीं. (फिर भी संघी-भाजपाई उन्हें प्रधानमंत्री बनने लायक मानते हैं जबकि हकीकतन तो वे गृहमंत्री बनने लायक भी नहीं थे. (उन्हें गृहमंत्री का पद भी गांधीजी के सामीप्य और नेहरूजी की मित्रता के कारण मिला था, उनकी अपनी योग्यता के आधार पर नहीं).
न जाने कितने ही सरदार पटेल के ऐसे निर्णय हैं जिन पर लम्बी बहस की जा सकती है, जैसे जूनागढ़ और हैदराबाद इत्यादि को भारत में मिलाने का, कश्मीर को छोड़ देने का और तो और राजस्थान के एक क्षेत्र को नाजायज तरीके से मुंबई को दे देने का भी. (आप सोच सकते हैं कहां बॉम्बे और कहां सिरोही, लेकिन फिर भी राजस्थान के निवासियों के जबरदस्त विरोध के बावजूद राजस्थान का एक प्रान्त पुनर्गठन अधिनियम के चलते राजस्थान के दिल माउंट आबू को निकालकर बॉम्बे को दे दिया.)
जी हां, आज़ादी के बाद जब रियासतों का विलयीकरण किया जा रहा था और छोटी-बड़ी रियासतों को मिलाकर रेजीडेंसियां बनायी जा रही थी (ये सारा काम नेहरूजी की कृपा से सरदार पटेल को मिला, जिसे वे अपने सहयोगी वी. पी. मेनन की सहायता से अंजाम दे रहे थे. सो सारा राजपुताना रेसिडेंसियों का एक स्टेट राजस्थान बनाया गया लेकिन माउंट आबू जिसे राजस्थान का दिल कहा जाता है, माउंट आबू जो उस समय सिरोही रजवाड़े का हिस्सा था और राजस्थान जैसे सूखे मरुस्थलीय क्षेत्र में हरियाली युक्त खूबसूरत हिलस्टेशन और पर्यटन का केंद्र और देलवाड़ा समेत अनेकों प्रसिद्ध जैन मंदिरों की भरमार है, उसे राजस्थान से काटकर बॉम्बे को दे दिया था. (ज्ञात रहे अंग्रेजों के शासन में माउंटआबू गर्मियों के मौसम में राजपुताना रेसीडेंसी की राजधानी होता था) और उस समय गुजरात का कोई अस्तित्व तक नहीं था क्योंकि 80% गुजरात के इलाके बॉम्बे और 20% राजपुताना के अंडर में थे.
इसका एक मात्र कारण हिलस्टेशन होने से आय के स्रोत अच्छे थे. पटेल (चूंकि उस समय गुजरात तो था नहीं, इससे अपने आपको बम्बईया बाबू समझते थे और इसकी आमदनी अपने गृहराज्य बॉम्बे में शामिल करना चाहते थे. और इसी से राजस्थान की तमाम जनता और जनप्रतिनिधियों के कठोर विरोध के बावजूद अपनी मनमानी के चलते सरदार पटेल ने फरवरी 1948 में माउंट आबू के कारण पूरे सिरोही को राजस्थान से काटकर बॉम्बे में मिला दिया.
हालांकि समय राजस्थान के तमाम जनप्रतिनिधियों ने उस समय राजपुताना कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष और राजस्थान के सबसे लोकप्रिय नेता गोकुल भाई भट्ट (गोकुल भाई भट्ट को राजस्थान में दूसरा गांधी या राजस्थान का गांधी माना जाता है और उनका जन्मस्थान भी सिरोही था) की अगुवानी में नेहरूजी से मिलकर उनके समक्ष भी अपनी बात रखी और जब नेहरूजी ने सरदार पटेल को इस बाबत निर्देश दिया तो सरदार पटेल ने नेहरूजी की बात को भी नजरअंदाज कर अपनी हठधर्मी पर अड़े रहे.
बाद में पुरजोर विरोध के चलते जब ये कहा गया कि अगर ऐसा किया गया तो राजपुताना क्षेत्र भारत में अपना विलयीकरण खत्म कर देगा क्योंकि न सिर्फ सांस्कृतिक तौर पर बल्कि गर्मियों की राजधानी जैसी बहुत-सी बातें है जिस कारण सिरोही या माऊंट आबू पर अपना हक़ राजपुताना रेसीडेंसी नहीं छोड़ेगी.
तब लम्बे विरोध के बाद नंवबर 1948 में सरदार पटेल ने अपना तानाशाही फैसला सुनाया कि सिरोही न बॉम्बे में रहेगा और न ही राजपुताना में, इसे भारत सरकार अपने अधीन रखेगी और इसका सारा प्रबंधन भी केंद्र सरकार करेगी. लेकिन सर्वसम्मति से ये फैसला होने के बावजूद दो महीने से भी कम समय में (गांधीजी की मृत्यु पश्चात) सिरोही को फिर से बॉम्बे में मिला दिया गया. अपनी इस मनमर्जी वाली जीत की बाबत सरदार पटेल ने अपने विश्वस्त कल्याणजी मेहता को एक पत्र भी लिखा था कि – ‘संभालो अब फिर से आपका हुआ माउंट आबू…’
बाद में फिर से जब राजपुताना रेसीडेंसी के प्रतिनिधि नेहरू जी मिले और हस्तक्षेप कर उनका हक़ वापिस दिलाने को कहा तो नेहरूजी ने उन्हें आश्वासन दिया कि राजपुताना की जनता की भावनाओं का न सिर्फ ध्यान रखा जायेगा बल्कि हम उनकी इस भावना का आदर भी करते है. और इस तरह 26 जनवरी 1950 को नेहरूजी के निजी हस्तक्षेप के कारण सिरोही को वापिस राजपुताना में मिलाने के आदेश पर हस्ताक्षर कर दिये.
लेकिन यहां भी काइयां सरदार पटेल एक चाल खेल गये और सिरोही के दो हिस्से कर दिये. जिस हिस्से में गोकुलभाई भट्ट का गांव था वो राजपुताना को दे दिया और माउंट आबू और देलवाड़ा वाला हिस्सा बॉम्बे में ही मिला रहने दिया. विरोध चलता रहा और अपने हक़ को वापिस पाने की मांगें भी लगातार उठती रही. राजपुताना की देखा-देखी बाकी रियासतों ने भी भाषा और संस्कृति के आधार पर उनके राज्य बनाये जाने की आवाज़े बुलंद होने लगी और इसी दरम्यान सरदार पटेल की मृत्यु हो गयी.
बाद में नेहरूजी ने तमाम रियाया की जनता की भावनाओं का आदर करते हुए दिसंबर 1953 में फजल अली की अध्यक्षता में ‘राज्य पुनर्गठन आयोग’ बनाया, जिसके दो अन्य मुख्य सदस्य थे एच. एन. कुंजरू और के. एम. पणीक्कर. आयोग ने देशभर में जाकर लोगों की मांगों को सुना और सितंबर 1955 में अपनी फायनल रिपोर्ट बनाकर पेश की.
उसी रिपोर्ट के आधार पर 1956 में ‘राज्य पुनर्गठन अधिनियम’ पास हुआ और इसी अधिनियम के आधार पर 1 नवंबर 1956 को देलवाड़ा समेत माउंट आबू और सिरोही के बाकी हिस्से को राजपुताना का अभिन्न अंग माना गया और पुनर्गठन में राजपुताना रेसीडेंसी का नाम राजस्थान राज्य माना गया.
स्वदेश/स्वक्षेत्र का क्या महत्व है, ये दूसरे लोग (जो आज अफगानिस्तान से भागकर आ रहे हैं) अब समझ रहे हैं लेकिन हम राजस्थानी इसे शुरू से समझते हैं. और इसी कारण आज़ादी के बाद भी अपने हक़ की सबसे पहली लड़ाई हम राजस्थानियों ने ही लड़ी. और इस लड़ाई को लड़ने का कारण मुहैया कराया सरदार पटेल की अयोग्यता ने.
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