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हमारा समाज और हमारा घर बच्चों का कत्लगाह बनता जा रहा है

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हमारा समाज और हमारा घर बच्चों का कत्लगाह बनता जा रहा है

हिमांशु कुमार, सामाजिक कार्यकर्त्ताहिमांशु कुमार, गांधीवादी कार्यकर्ता

क्या किसी एक परीक्षा से लाखों बच्चों की योग्यता के बारे में जाना जा सकता है ? हर बच्चा अलग है. उसके सोचने का तरीका समझने का तरीका उसकी सीखने की गति अलग है लेकिन हमारी मुनाफे के लिए चलने वाली अर्थव्यवस्था कहती है कि इसे ऐसे गुलाम चाहियें जो मुनाफा कमाने में सबसे तेज़ हों.

यानी अच्छा कम्प्यूटर चलाने वाला, अच्छा गणित वाला, अच्छी तरह मशीन बनाने वाला, अच्छी तरह मशीन चलाने वाला, काम करने वाले कर्मचारियों के आफिस का मैनेजमेंट करने वाला. कम समय में कम कीमत पर ज़्यादा माल बनाने की खोजें करने वाला जो युवक इनमें से कोई काम कर सकता हो, वह तो बुद्धिमान है बाकी के युवा बेकार के हैं.

हांं, चूंकि अब मुनाफाखोर व्यापारी मनोरंजन के बिजनेस में भी हैं इसलिए अगर आपका बच्चा ऐसा खिलाड़ी है जो पैसा कमाने में मदद कर सके या नर्तक है या अभिनय कर सकता है तो भी उसे मुनाफाखोर व्यापारी किसी काम का मान सकते हैं. सिर्फ तब तक जब तक वह मुनाफा कमाने में मदद कर सकता है. उसके बाद कलाकारों और खिलाडियों को गुमनामी और गरीबी में मरना पड़ता है.

आप इसी मुनाफाखोर समाज में रह कर बड़े हुए हैं इसलिए आप भी इसी समाज की तरह सोचते हैं. इसलिए आप अपने बच्चे को इस मुनाफाखोर बाज़ार में पैसा कमाने के योग्य बनाने में पिल पड़ते हैं.

आप अपने बच्चों को पूरा पूरा दिन किताबें रटने और परीक्षा की तैयारी करने के लिए मजबूर करते हैं. आप अपने बच्चे को दुसरे बच्चों से ज़्यादा नम्बर लाने के लिए मजबूर करते हैं. आज आपके बच्चे की सफलता का पैमाना ही यही है कि उसके नम्बर दूसरे बच्चों से ज़्यादा आयेंक्यों कि मुनाफाखोर व्यापारी सबसे ज़्यादा नम्बर वाले को चुन लेगा.

इस चक्कर में आज बच्चों को सौ प्रतिशत नम्बर लाने के लिए मजबूर किया जाता है. इस चक्कर में बच्चों के दिमागों पर बहुत क्रूरतापूर्वक जोर डाला जाता है, जिससे वह ज़्यादा रट सकें.

असली समस्या तो यह है कि आज व्यापारी मुनाफे के लिए मशीनें बढाते जा रहे हैं और कर्मचारियों की संख्या कम करते जा रहे हैं इसलिए नौकरियां कम होती जा रही हैं. बची-खुची नौकरियों के लिए लड़ाई है इसलिए बाज़ार नौकरी पाने के लिए कर्मचारी चुनने का तरीका मुश्किल करता जा रहा है लेकिन आप सोचने लगते हैं कि आपका बच्चा बेवकूफ है इसलिए उसके नम्बर पड़ोसी के बच्चे से कम आये हैं.

आप अपने बच्चे को नालायक, बदमाश और चालाक कह कर परेशान करते हैं इससे बच्चे अपना आत्मविश्वास खो देते हैं. बड़ी संख्या में बच्चे आत्महत्या करते हैं. बच्चे भी खुद को नालायक और दुनिया के लिए बेकार समझने लगते हैं लेकिन इंसान व्यापारी के लिए मुनाफा कमाने के लिए नहीं बना है. समाज में बहुत सारे काम हैं.

इंसान खुद अपनी पसंद और समाज की ज़रूरत के हिसाब से काम चुन सकता है. ज़रूरी थोड़ी है कि आपका बच्चा कम्पनी में ही नौकरी करे ? आपका बच्चा मोची बन सकता है. नल ठीक करने वाला प्लम्बर बन सकता है. कार मेकेनिक बन सकता है. माली बन सकता है लेकिन आप ऐसा सोचते ही घबरा जाते हैं क्योंकि आपको लगता है कि अरे यह सारे काम तो इज्ज़त के नहीं हैं.

अगर आपका बच्चा इन कामों को करेगा तो समाज में आपकी क्या इज्ज़त बचेगी. लोग कहेंगे कि आपका बच्चा माली है तो समस्या यह है कि समाज मेहनत का काम करने वालों को बेइज़्ज़ती की नज़र से देखता है. समस्या यह है कि आप भी प्लम्बर कार मेकेनिक या माली से ऐसे बात करते हैं जिसे यह दूसरी केटेगरी के इंसान हैं और ज़्यादा पैसा कमाने वाले इंजीनियर या अफसर दूसरी केटेगरी के इज्ज़तदार लोग हैं तो असली समस्या तो आपकी समझ और आपकी आदत है.

आप मेहनत करने वालों को इज्ज़त नहीं देते इसलिए आप अपने बच्चे को मजबूर करते हैं कि वह वो पेशा चुनने लायक बने जिन्हें आप इज्ज़त देते हैं.

अजीब बात है. समस्या आप की है लेकिन मजबूर बच्चे को कर रहे हैं. आजकल माता पिता बच्चों को दिन-रात पढने के लिए मजबूर करते हैं. उन्हें कोचिंग के लिए राजस्थान के कोटा जैसी जगह में प्लाईवूड के बने दडबे में रहने के लिए मजबूर किया जाता है. कोटा में अनेकों बच्चे हर साल आत्महत्या करते हैं. हमारा समाज और हमारे घर बच्चों के कत्लगाह बनते जा रहे हैं. ऐसे दबावों और समझ के साथ जो लोग समाज को आगे चलाएंगे, वो भी अपने बच्चों के साथ ऐसा ही करेंगे. वो भी मेहनत करने वालों को बेईज्ज़ती की नज़र से देखेंगे.

इस समाज ने अपने लिए सारे तनाव सारे दुःख खुद पैदा किये हैं और फिर यह समाज शान्ति के लिए ईश्वर की कल्पना करता है. आप बनाओ अशांति और कोई आसमान में बैठा ईश्वर आपको दे दे शान्ति, यह हो ही नहीं सकता. अशांति आपकी बनाई हुई है. शांति का निर्माण भी आप ही करेंगे. कोई ईश्वर आपके लिए शान्ति लेकर नहीं आएगा.

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