‘हम हार क्यों गए स्पार्टाकस ?’
पूछा था बुढ़िया ने,
मरते हुए स्पार्टाकस से.
‘हम तो लड़े थे,
कमजोरों के लिए,
आज़ादी और जाने कितने
अब बेमानी उसूलों के लिए,
फिर हार क्यों गए स्पार्टाकस ?’
स्पार्टाकस की खून की बूंदे
गिर गीला कर रहीं थी
बुढ़िया के सफेद बाल.
उसने सूखे गले से बोलना चाहा
पर कह न सका
कि
सच जीतेगा इसलिए उसकी तरफ
नहीं खड़े रहते.
बहुत बार हारता है सत्य –
जब भी वो रखता है कदम किताबों के बाहर.
तुम्हारी हीरो वाली गाथाओं के
बाहर बहुत बार मार भी दिया जाता है सच.
उस मरते सच को बस अकेला नहीं
मरने देना है,
वो हारे भी तो उसके साथ खड़े रहना है.
क्योंकि तभी कविताओं में भी सच बच पायेगा.
गीतों में तभी हर बार विजयी होगा.
सच के साथ रहना क्योंकि
कल के लिए उसके मरे हुए टुकड़ों से
फिर नए सच के पेड़ आएंगे,
जिनके छांव में बड़े होंगे
हमारे बच्चे,
जो एक रोज़ उन पेड़ों का
जंगल खड़ा करेंगे.
और जंगल को हराना काफी मुश्किल है.
स्पार्टाकस हार चुका था,
उसपे थूका जा रहा था,
पर क्रॉस पर भी तो खड़ा रहा
वो सच के लिए.
स्पार्टाकस मर चुका था,
बुढ़िया घर जा चुकी थी,
बिना जवाब सुने,
सब जान चुकी थी.
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