अमेरिकी लोकतांत्रिक इतिहास में यह अजूबा संभवतः काफी दिनों बाद देखा गया जब राष्ट्रपति चुनाव के दौरान और उसके बाद भी देश के नागरिक बेहद डरे हुए हैं. नारीवादी समाजशास्त्री और दार्शनिक जुडिथ बटलर ने वोट डालने के बाद कहा- ‘जब हमने इस बार मतदान किया तो हम जो बाइडेन और कमला हैरिस के पक्ष में मतदान नहीं कर रहे थे, बल्कि हम इसलिए मतदान कर रहे थे कि भविष्य में मतदान करने की संभावना बनी रहे. हम इसलिए मतदान कर रहे थे कि मतदान करके सरकार बनाने वाली लोकतांत्रिक प्रक्रिया बरकरार रहे.’ यह एक ऐसी डर है जिसका सामना हर वह देश कर रहा है जहां द़िक्षणपंथी ताकतें चुनाव हार जाने के बाद भी न केवल सत्ता को आसानी से नहीं छोड़ना चाहती बल्कि अपनी जीत को कायम रखने के लिए हर संभव प्रतिरोध का रास्ता अपनाती है. यहां तक कि वह सशस्त्र हमला करने का भी रास्ता नहीं छोड़ती. यह परिघटना अमेरिका जैसे मजबूत लोकतांत्रिक देश में भी देखने को मिली जब ट्रंप समर्थन हथियार लेकर मतगणना केन्द्र तक पहुंच गये थे और गणना रोकने के लिए दवाब डालने लगे थे.
भारत में मूर्खों और अंधविश्वासी देश में जहां लोकतंत्र के जड़ों की चूलें तक हिला दी गई है, दक्षिणपंथी ताकतें एक के बाद एक चुनाव जीतने का रिकार्ड कायम करता जा रहा है. इसके लिए वह उन ताकत तरीकों को अपना रहा है, जिससे जीतें सुनिश्चित की जा सके. अमेरिका जैसे लोकतांत्रिक और समूद्ध देश से नकारे जाने वाले इवीएम जैसी खिलौनों के सहारे भारत में दक्षिणपंथी ताकतें चुनाव में जीत रही है, और जनता के द्वारा डाले गये मतों को बेकार साबित किया जा रहा है. दक्षिणपंथी उपद्रवियों से डरा हुआ अमेरिका ने महज चार सालों के बाद तो इससे छुटकारा पा लिया है, भले ही अब दक्षिणपंथी ट्रंप कितना ही जोर क्यों न लगाये, परन्तु भारत जैसे कमजोर लोकतांत्रिक देशों को यह पता नहीं कितने दशक तक झेलना होगा.
अगर ट्रम्प की हार पर रिपब्लिकन पार्टी का यह बर्ताव है, तो सोचिए अगर वे जीत जाते तो यह पार्टी उनके उल्लंघनों को कितनी आसानी से सहती. फिर ट्रम्प कभी किसी लाल बत्ती पर नहीं रुकते. और दुनिया मे डेमोक्रेट्स को इसलिए अच्छा माना क्योंकि उन्होंने तुर्की, हंगरी, पॉलैंड, रूस, बेलारूस व फिलिपीन्स में ट्रम्प जैसे दक्षिणपंथी जनवादी देखे हैं, जिन्होंने खुद को जिताकर कोर्ट, मीडिया, इंटरनेट और सुरक्षा संस्थानों को नियंत्रण में ले लिया और उनका इस्तेमाल विरोधियों के खिलाफ किया.
हम तीन बार पुलित्जर पुरष्कार विजेता एवं द न्यूयार्क टाइम्स में नियमित स्तंभकार थाॅमस एल. फ्रीडमैन का यह लेख यहां प्रकाशित कर रहे हैं, जो यह बतलाने के लिए काफी है कि अमेरिकी समाज इन दक्षिणपंथी उपद्रवियों से किस कदर परेशान था कि वह केवल आगामी चुनाव को जारी रखने और लोकतांत्रित मूल्यों को बचाये रखने के लिए ही जो वाइडेन को वोट दिये थे. जबकि भारत में आये दिन यह दक्षिणपंथी ताकतें ऐलान करती रहती है कि चुनावी परंपरा को ही बंद कर दिया जाये. इस सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश से सेवानिवृत और दक्षिणपंथी ताकतों के आंगन (राज्यसभा) में सांसदी की कुर्सी पाये गोगोई का बयान भी बेहद परेशान करने वाला रहा है जिसमें उसने चुनावों को ही बंद कर देने की बात कहीं है. बहरहाल यहां हम थाॅमस एल. फ्रीडमैन का यह लेख देखते हैं –
मुझे अमेरिकी चुनावों के बाद कैसा लग रहा है ? मैं हैरान और डरा हुआ हूं. मैं लोकतंत्र की अभिव्यक्ति देख हैरान हूं. यह 1864 के बाद सबसे प्रभावशाली चुनाव रहा है. और फिर भी मैं डरा हुआ हूं कि कुछ जरूरी राज्यों में कुछ हजार वोटों के कारण नतीजा पिछले चुनावों जैसा भी हो सकता था.
अगर ट्रम्प व उनके समर्थकों ने एक या दो दिन विरोध किया होता तो कोई बड़ी बात नहीं होती. लेकिन जिस तरह वे लगातार ऐसा कर रहे हैं, लोगों की इच्छा गलत साबित करने की कोशिश कर रहे हैं, उनकी मीडिया के चमचे उन्हें बढ़ावा दे रहे हैं, उससे एक सवाल उठता है कि आप रिपबल्किन पार्टी के इस अवतार पर कभी भी व्हाइट हाउस में दोबारा भेजने को लेकर कैसे विश्वास करेंगे ?
उसके सदस्य चुपचाप बैठे रहे, लेकिन ट्रम्प ने फेडरल ब्यूरोक्रेसी का इस्तेमाल महामारी के खिलाफ युद्ध छेड़ने के लिए करने की बजाय फेडरल ब्यूरोक्रेसी के ही कुछ लोगों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया, जिन्हें वे अपना दुश्मन मानते हैं. इनमें डिफेंस सेक्रेटरी, नेशनल न्यूक्लियर सिक्योरिटी एडमिनिस्ट्रेशन के प्रमुख और सायबरसिक्योरिटी अधिकारी शामिल हैं. वाशिंगटन पोस्ट के मुताबिक ट्रम्प की इस साफ-सफाई के पीछे 30 वर्षीय जॉनी मैकएंटी हैं, जिन्हें दो साल पहले व्हाइट हाउस से इसलिए निकाल दिया गया था क्योंकि उन्हें ऑनलाइन जुए की लत थी. लेकिन ट्रम्प उन्हें वापस लाए और पूरी अमेरिकी सरकार का कार्मिक निदेशक बना दिया.
एक राजनीतिक पार्टी जो ऐसे लापरवाह नेता के खिलाफ नहीं बोलती, वह पार्टी नहीं कहला सकती. यह तो किसी शख्सियत के पंथ की तरह है. यह तब से ही स्वाभाविक लग रहा है, जबसे रिपब्लिकन पार्टी ने बिना किसी आधार के राष्ट्रपति चुनावों के उम्मीदवारों का नामांकन पूरा कर दिया था. उसने घोषणा कर दी थी कि उसका आधार वही है, जो उसका प्रिय नेता कहता है. यह किसी पंथ की तरह ही तो है. तो क्या अमेरीकियों से यह उम्मीद है कि वे ट्रम्प के जाने के बाद रिपब्लिकन पार्टी का यह व्यवहार भूल जाएं और उसके नेताओं को कहने दें – ‘प्यारे अमेरीकियों, ट्रम्प ने चुनावों को पलटने की कोशिश की, और हमने उनका साथ दिया. लेकिन अब वे चले गए हैं, तो अब आप हम पर फिर से विश्वास कर सकते हैं.’
इसीलिए हम खुशकिस्मत हैं कि जो बाइडेन जीते. अगर ट्रम्प की हार पर रिपब्लिकन पार्टी का यह बर्ताव है, तो सोचिए अगर वे जीत जाते तो यह पार्टी उनके उल्लंघनों को कितनी आसानी से सहती. फिर ट्रम्प कभी किसी लाल बत्ती पर नहीं रुकते. और दुनिया मे डेमोक्रेट्स को इसलिए अच्छा माना क्योंकि उन्होंने तुर्की, हंगरी, पॉलैंड, रूस, बेलारूस व फिलिपीन्स में ट्रम्प जैसे दक्षिणपंथी जनवादी देखे हैं, जिन्होंने खुद को जिताकर कोर्ट, मीडिया, इंटरनेट और सुरक्षा संस्थानों को नियंत्रण में ले लिया और उनका इस्तेमाल विरोधियों के खिलाफ किया.
फ्रेंच विदेश नीति विशेषज्ञ डॉमनीक मॉइजी ने मुझसे कहा, ‘एक अमेरिकी राष्ट्रपति का ईमानदार और मुक्त चुनावों के नतीजों को नकारना दुनिया भर के डेमोक्रेट्स के लिए चेतावनी है कि जनवादियों को हल्के में नहीं लेना चाहिए. वे आसानी से सत्ता नहीं छोड़ते.’ इसीलिए बाइडेन का मिशन सिर्फ अमेरिका सुधारना नहीं है. बल्कि ट्रम्पवादी रिपब्लिक पार्टी को हाशिये पर पहुंचाना है और एक स्वस्थ कंजर्वेटिव पार्टी बनाना है, जो आर्थिक विकास से लेकर जलवायु परिवर्तन तक में रूढ़ीवादी तरीके अपनाए और शासन की परवाह करे.
लेकिन डेमोक्रेट्स को खुद से यह सवाल पूछने की जरूरत है ट्रम्प बिना डिग्री वाले श्वेत कामकाजी वर्ग के मतदाताओं में इतने मजबूत क्यों रहे और पिछले चुनाव में अश्वेत, लैटिनों और श्वेत महिला मतदाताओं का समर्थन कैसे पाया ? इस चुनाव में डेमोक्रेट्स को चेतावनी मिली है कि वे जनसंख्या पर निर्भर नहीं रह सकते. उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि हर मतदाता यह माने कि डेमोक्रेटिक पार्टी ‘दोनों /और’ पार्टी है, न कि ‘दोनों में से एक या’ पार्टी. और इन्हें यह नए ट्रम्पवाद के आने से पहले करना होगा. उन्हें हर अमेरिकी को विश्वास दिलाना होगा कि डेमोक्रेट्स ‘दोनों’ करेंगे, केक को फिर बांटेंगे भी ‘और’ केक को बढ़ाएंगे भी, वे पुलिस विभाग में सुधार भी करेंगे और काननू मजबूत भी करेंगे, वे महामारी से जान भी बचाएंगे और नौकरियां भी बचाएंगे, वे सुरक्षा बढ़ाएंगे और पूंजीवाद भी, वे विविधता को भी मनाएंगे और देशभक्ति को भी, वे कॉलेजों को सस्ता करेंगे और कॉलेज में न पढ़ पाने वाले अमेरीकियों के काम को भी सम्मान दिलाएंगे, वे सीमा पर ऊंची दीवार भी खड़ी करेंगे और उसमें बड़ा दरवाजा भी बनाएंगे, वे कंपनी शुरू करने वालों का भी उत्साह बढ़ाएंगे और उनका नियमन करने वालों की भी मदद करेंगे.
और उन्हें उन लोगों से राजनीतिक विशुद्धता की मांग कम करनी होगी और उनके प्रति सहिष्णुता भी बढ़ानी होगी, जो समय के साथ बदलना चाहते हैं लेकिन वे ऐसा अपने तरीके से करेंगे, इसमें शर्मिंदगी महसूस किए बिना.
हम चाहते हैं कि अमेरिका का अगला राष्ट्रपति चुनाव सिद्धांतवादी मध्य-दक्षिण रिपब्लिकन पार्टी और ‘दोनों / या’ वाली डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच हो. महान देशों का नेतृत्व स्वस्थ केंद्र करता है. कमजोर देशों में यह नहीं होता.
थाॅमस एल. फ्रीडमैन का लेख यहां समाप्त हो जाता है, परन्तु हम भारत के लोगों के लिए एक गहरा सवाल छोड़ जाता है कि वह कब तक अपनी पीठ पर दक्षिण्पंथी ताकतों की कोड़ों को सहने के लिए अभिशप्त रहेगा.
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