गुरिल्लों की रातें
रात्रि का खाना खाकर,
जब आप,
बिछावन पर रजाई ओढ़े,
सोने का प्रयत्न कर रहे होते हैं,
तब भी ठंढ़ से कंपकंपाते होंगे आप.
तब ही-
दूर जंगलों-पहाड़ों में बिचरती,
हमारी गुरिल्ला सेनायें,
खाना खाकर किसी गांव में,
चल रही होती है-
जंगलों-झाड़ियों के बीच रास्ता बनाते,
किसी घने वृक्ष के नीचे,
रात्रि विश्राम के लिए.
(क्योंकि घेर लेती है पुलिसें अक्सर
गांवों को,
ताकि पलक झपकते खत्म कर दें,
हम गुरिल्ला सेनाओं को)
काफी ओस बनती है रातों में.
खेतों के बीच,
फसलों पर गिरी,
ओस की बूंदें
भिंगो जाती है हमारे कपड़े और जूते.
घने वृक्ष के नीचे पहुंच जाने पर,
सोने खातिर जमीन साफ करते वक्त,
चुभ जाते हैं कांटे उंगलियों में,
ठिठुर जाती है उंगलियां,
ठंढ़ से.
बिछाते हैं पाॅली-बैग
हल्की और पतली चादरें,
ओढ़ लेते हैं हम.
या फिर-
घुस जाते हैं प्लास्टिक के गोल खोल में
इस तरह शुरू होती है हमारी लड़ाई,
ठंढ़ी बयार से.
(घने पेड़ के नीचे ठंढ़ कम लगती है शायद)
साथियों की संख्या और
शेष बचे रात्रि के हिसाब से,
तय होती है संतरी ड्यूटियां
रात्रि में बारी-बारी से,
तैनात होते हैं एक-एक साथी.
(ठंढ़ में खड़े होकर ड्यूटी निभाना,
काफी सख्त होता है
पर दुश्मन से सुरक्षा हेतु,
बेहतरीन तकनीक है ये ड्यूटियां)
अक्सर ही हमारी रातें
बीतती है ठंढ़ से ठिठुरती,
इस आशा में कि –
अहले सुबह खूब तापेंगे आग
खूब ! खूब !!
और फिर लड़ लेते हैं हम ठंढ़ से.
(रात्रि में आग जलाना,
ठिकाने खोल देना है)
पुलिसें सुंघती चलती है,
कुत्तों की मानिंदगांवों को घेरकर,
जंगलों की खाक छानकर,
टुट पड़ती है हमारे खुल चुके ठिकानों पर,
अथवा मुखबिरों से नई खबर पाकर
गांव की जनता को,
पीट डालती है पुलिसें.
धमकाती है,
दुव्र्यवहार करती है उनकी महिलाओं के साथ-
उनके कीमती गहने, कपड़े, समान, रूपये
छीन लेती है
तोड़ डालती है टुट चुके घरों को,
घिनौनी गालियों के साथ
पूछती है हमारे ठिकाने
परन्तु जनता के बहादुर गुरिल्लें
जनता के अभेद्य दुर्ग में,
बदलते रहते हैं अपने ठिकाने
हर रात्रि खोज लेते हैं हम नये आशियाने
भोर की लाली छाने से पहले ही
जग जाते हैं हम
संतोष झांकते हैं खरगोश की तरह-
प्लास्टिक के गोल खोल से
उपेन्द्र लगाते हैं पीठू
सूरज झल्लाते हैं ठंढ़ से
अमृत समेटते हैं अपना बिस्तर,
घासों-तिनके समेत.
और इसके साथ ही जग जाती है-
पत्तों की सरसराहटें,
झिंगुरों की झांय-झांय,
गीदरों की हांय-हांय,
और फिर चल पड़ते हैं हम सब-
रेलगाड़ी के डिब्बों की तरह,
रास्ते में बिछी घासों पर,
ताकि चुगली न कर दे जूतों के चिह्न.
खोल न दें हमारी जाने की राहें.
फसलों पर पड़ी ओस की बूंदें,
फिर भिंगोने लगती है हमारे जूते-कपड़े
ठंढ़ी बहती बयार-
ठिठुरा जाती हमें
नई सुबह की रक्तिम आभा,
अभिनन्दन करती है
और हम,
ठंढ़ से अकड़े शरीर को सेंकते हैं
लकड़ियों में धधकती लाल आग से –
- अभिजीत राय
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