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2030 तक भारत में बंधुआ मजदूरी को समाप्त करने के लक्ष्य की जमीनी हकीकत

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2030 तक भारत में बंधुआ मजदूरी को समाप्त करने के लक्ष्य की जमीनी हकीकत
2030 तक भारत में बंधुआ मजदूरी को समाप्त करने के लक्ष्य की जमीनी हकीकत

जुलाई 2016 में केंद्र सरकार ने संसद को बताया था कि ‘बंधुआ मजदूरी के पूर्ण उन्मूलन’ के 15 वर्षीय लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वे 2030 तक लगभग 1 करोड़ 84 लाख बंधुआ मजदूरों की पहचान, रिहाई और पुनर्वास करेंगे. केंद्र सरकार के आंकड़े बताते हैं कि 1978 से जनवरी 2023 के बीच चार दशकों में लगभग 315,302 लोगों को बंधुआ मजदूरी से मुक्त कराया गया, जिनमें से 94% लोगों का पुनर्वास भी किया गया.

सरकारी आंकड़ों के ही आधार पर, सरकार 2016 के अपने बयान के बाद से केवल 32,873 लोगों को ही बंधुआ मजदूरी से मुक्त करा पाई है, जिसका सालाना औसत 4,696 है. इसका मतलब यह है कि इस वार्षिक दर पर सरकार 2030 के अपने लक्ष्य का केवल 2% ही हासिल कर पाएगी और लगभग 1 करोड़ 80 लाख लोग तब भी बंधुआ मजदूर रहेंगे.

बंधुआ मजदूरी आधुनिक गुलामी का एक रूप है. यह 1976 से ही भारत में अवैध है, जब बंधुआ मजदूरी (उन्मूलन) अधिनियम (BLSA-बीएलएसए) पारित किया गया था. यह ‘बंधुआ मजदूरी’ को एक जबरन श्रम प्रणाली के रूप में परिभाषित करता है, जिसके तहत एक उधार लेने वाला व्यक्ति, उधार देने वाले व्यक्ति से समझौता करता है कि उधारी के बदले वह या उसके परिवार का कोई सदस्य किसी निश्चित या अनिश्चित अवधि के लिए बिना किसी श्रमशुल्क के उनके लिए मजदूरी करेगा. यह प्रक्रिया पैतृक भी हो सकती है, जिसमें उधार लेने वाले व्यक्ति के वंशजों पर उधार पूरा करने या उसके बदले बंधुआ मजदूरी करने का दायित्व होता है.

मुक्त कराए गए बंधुआ मजदूरों को आजीविका और पुनर्वास प्रदान करने हेतु केंद्रीय़ योजना के तहत जिला अधिकारियों (डीएम) या उप जिला अधिकारियों (एसडीएम) द्वारा बंधुआ श्रम रिहाई प्रमाण पत्र जारी किया जाता है और इसके बाद ही वित्तीय और गैर-वित्तीय सहायता प्रदान की जा सकती है. लेकिन बंधुआ मजदूरों पर काम करने वाले एक्टिविस्ट्स और विशेषज्ञों का कहना है कि बंधुआ मजदूरों की पहचान करना सरकारों की प्राथमिकता ही नहीं है और जिला अधिकारी अक्सर ‘रिहाई प्रमाणपत्र’ जारी नहीं करते हैं.

30 वर्षीय अनुज कुमार* को अंबाला में एक ईंट भट्टे से बचाया गया था और वह उत्तर प्रदेश के देवबंद के अपने पैतृक गांव में राजमिस्त्री के रूप में काम करने के लिए वापस चले गए. 43 वर्षीय महेश कुमार* एक अन्य पूर्व बंधुआ मजदूर हैं, जिन्हें मार्च 2022 में रिहाई प्रमाण पत्र जारी किया गया था. वह अब अपने गृहनगर बिलासपुर, छत्तीसगढ़ से पड़ोसी राज्य तेलंगाना में निर्माण कार्य में मजदूरी करने के लिए जाते हैं. दलित समुदाय से आने वाले अनुज और महेश दोनों ने बताया कि योजना के तहत पात्रता होने के बावजूद उन्हें कोई पुनर्वास सहायता नहीं मिली है.

हालांकि बंधुआ मजदूरी को 1976 में ही अवैध घोषित कर दिया गया था, लेकिन हर साल बंधुआ मजदूरी और मानव तस्करी के सैकड़ों नए मामले सामने आते हैं.क्षआधुनिक दासता के उन्मूलन पर काम करने वाली अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था ‘वॉक फ्री’ के वैश्विक गुलामी सूचकांक के अनुसार 2021 में भारत में लगभग 1.1 करोड़ लोग आधुनिक गुलामी में थे, जिसमें जबरन श्रम, बंधुआ मजदूरी, ऋण बंधन, जबरन विवाह, गुलामी और मानव तस्करी जैसे मामले शामिल हैं. इस सूचकांक से पता चला कि एशिया प्रशांत क्षेत्र में भारत, ईरान, उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के साथ उन चार देशों में से एक है, जिनके पास आधुनिक गुलामी पर कोई राष्ट्रीय कार्य योजना नहीं है.

‘सबूत’ का बोझ

भारत में सृजित अधिकांश नौकरियां अनौपचारिक क्षेत्र में हैं, जिसके कारण अक्सर नौकरी में असुरक्षा, कम वेतन और श्रमिक सुरक्षा की कमी होती है. स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2023 रिपोर्ट के अनुसार अनौपचारिकता का यह स्तर एक चिंता का विषय है. रिपोर्ट में कहा गया है कि 1983 और 2019 के बीच रोजगार में गैर-कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत तक बढ़ी, लेकिन ऐसी अधिकांश नौकरियां अनौपचारिक किस्म की ही थी.

राष्ट्रीय श्रम आयोग की 2002 की रिपोर्ट में कहा गया है कि जब कमाई, वैधानिक न्यूनतम मजदूरी से कम होती है और श्रमिकों को उधार लेकर जीवन यापन करना पड़ता है, तो श्रमिकों की स्थिति बंधुआ मजदूरी की तरफ बढ़ने लगती है.

बंधुआ मजदूरी के पूर्ण उन्मूलन के लिए विजन दस्तावेज़ सोर्स: लोक सभा
बंधुआ मजदूरी के पूर्ण उन्मूलन के लिए विजन दस्तावेज़ सोर्स: लोक सभा

बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास के लिए 1978 में एक केंद्र प्रायोजित योजना बनाई गई. तब प्रत्येक श्रमिक के लिए सहायता की सीमा 4,000 रुपये थी, जिसे संबंधित राज्य और केंद्र सरकारों के बीच साझा किया जाता था. कई बार हुए योजना में संशोधन के बाद मई 2000 में सहायता राशि 20,000 रुपये तय की गई और इसमें जिला स्तरीय सर्वेक्षण, जागरूकता सृजन और मूल्यांकन गतिविधियों को भी शामिल किया गया.

छुड़ाए गए बंधुआ मजदूरों को 30,000 रुपये की तत्काल वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए पुनर्वास योजना को फरवरी 2022 में फिर से संशोधित किया गया. इसमें जिला मजिस्ट्रेट के विवेक के आधार पर पुरुष श्रमिक के लिए 1 लाख रुपये, प्रत्येक महिला और बच्चे के लिए 2 लाख रुपये और यौन शोषण व तस्करी के चरम मामलों से जुड़े ट्रांसजेंडर व्यक्तियों, महिलाओं और बच्चों के लिए 3 लाख रुपये की अतिरिक्त सहायता राशि तय की गई.

2016 केंद्रीय योजना के आधार पर बंधुआ मजदूर पुनर्वास के लिए किए गए कुछ उपाय सोर्स: लोक सभा (3 अप्रैल, 2023)

वित्तीय सहायता के अलावा लाभार्थी गैर-नकद सहायता के भी हकदार होते हैं, जिसमें आवास के लिए भूमि आवंटन, कृषि भूमि का आवंटन, कम लागत वाली आवास इकाईयों का प्रावधान, न्यूनतम मजदूरी लागू करना आदि शामिल हैं. बंधुआ मजदूरों की पहचान, रिहाई और पुनर्वास के लिए तय किए गए मानक संचालन प्रक्रिया में कहा गया है कि डीएम या एसडीएम को बंधुआ मजदूरी की मौखिक या लिखित शिकायत प्राप्त होने के 24 घंटे के भीतर ही प्रभावित मजदूर को बचाना होगा.

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) की 8 दिसंबर, 2021 की एडवाइजरी के अनुसार, बंधुआ मजदूर के छूटने के 24 घंटे के भीतर ही रिहाई प्रमाण पत्र जारी किया जाना चाहिए और इसके बाद उन्हें मुआवजा और पुनर्वास प्रदान करना चाहिए. हालांकि सरकारी सहायता केवल तभी सुलभ है जब संबंधित प्रमाणपत्र जारी करने वाले डीएम/एसडीएम द्वारा बंधुआ मजदूरी को स्वीकार्य किया जाता है. विशेषज्ञों का कहना है कि कई मामलों में ऐसा नहीं होता है.

अनुज, उनके माता-पिता और तीन भाई-बहनों को एक बिचौलिए ने 20,000 रुपये की अग्रिम राशि दी थी और उनके द्वारा बनाए गए ईंटों की संख्या के आधार पर श्रमराशि देने का वादा किया था. अंबाला में ईंट भट्टे पर चार महीने तक बंधुआ मजदूर के रूप में काम करने वाले अनुज ने बताया, ‘हमें प्रति व्यक्ति द्वारा बनाई गई ईंटों की संख्या (प्रतिदिन कम से कम 1,000 ईंटों) के आधार पर हर 15 दिनों में श्रमराशि मिलनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.’

भट्टा मालिक ने उन्हें उनकी मजदूरी नहीं दी, ऊपर से परिवार पर ही 1.75 लाख रुपये का बकाया दिखा दिया. अनुज का दावा है कि 2019 में प्रशासन द्वारा उन्हें भट्टा मालिकों से छुड़ाया गया लेकिन रिहाई के बाद से उन्हें जिला प्रशासन से रिहाई प्रमाणपत्र नहीं मिला. जिला प्रशासन द्वारा जारी एक गैजेट के अनुसार पचास बंधुआ मजदूरों को भट्टों से बचाया गया और उन्हें रिहाई प्रमाण पत्र जारी किए गए, लेकिन मजदूरों का कहना है कि उन्हें ये पत्र कभी नहीं मिले.

भूमिहीन प्रवासी श्रमिक महेश को 14 मार्च, 2022 को रिहाई प्रमाण पत्र जारी किया गया, लेकिन आज तक उन्हें कोई सहायता नहीं मिली है. 2008 तक एक स्थानीय समाचार पत्र के साथ रिपोर्टर के रूप में काम करने वाले महेश ने कहा उनके साथ उनकी पत्नी सहित गांव के कुल 22 श्रमिक थे, जिन्हें ईंट बनाने के लिए प्रति दिन 700 रुपये देने का वादा कर ले जाया गया था.

महेश ने कहा, ‘मालिकों द्वारा हमारे साथ बुरा व्यवहार किया गया क्योंकि हमारे दलाल (ठेकेदार या बिचौलिया) ने ईंट भट्ठा मालिक को 5 लाख रुपये का धोखा दिया था.’

महेश के मुताबिक, बिलासपुर श्रम विभाग ने दस्तावेज न मिलने का दावा करते हुए उन्हें बताया कि उनके पास पुनर्वास के लिए फंड नहीं है. उन्होंने बताया कि रिहाई के बाद से ही सरकारी सहायता प्राप्त करने के लिए परिवारों ने हजारों रुपये खर्च करके दर्जनों बार 30 किमी दूर स्थित सरकारी कार्यालयों का चक्कर लगाया होगा, लेकिन कुछ नहीं हुआ.

तस्करी के शिकार बंधुआ मजदूरों की पहचान, रिहाई, पुनर्वास और उन्मूलन के लिए गठित राष्ट्रीय नेटवर्क ‘बंधुआ मजदूरी उन्मूलन राष्ट्रीय अभियान समिति’ (NCCBEL-एनसीसीईबीएल) के संयोजक निर्मल गोराना ने बताया, ‘पूर्ण पुनर्वास में वित्तीय और गैर-वित्तीय सहायता दोनों शामिल होनी चाहिए. नकद सहायता में 30,000 रुपये की अंतरिम राहत शामिल है, लेकिन रिहाई प्रमाणपत्र दिए जाने के बाद भी छुड़ाए गए मजदूरों को अंतरिम राहत नहीं मिल पाती है.’

एनजीओ ‘प्रयास सेंटर फॉर लेबर रिसर्च एंड एक्शन’ के संस्थापक सुधीर कटियार ने भी कहा, ‘राज्य सरकारें श्रमिकों को बचाती तो हैं, लेकिन वे श्रमिकों को रिहाई प्रमाणपत्र जारी करने में अनिच्छुक होती हैं, इसके कारण श्रमिकों को पुनर्वास नहीं मिल पाता है. हम अक्सर श्रमिकों की रिहाई तो करवा लेते हैं, लेकिन शायद ही किसी को रिहाई प्रमाणपत्र मिल पाता है.’

बंधुआ मजदूरी का डेटा

फरवरी 2023 में संसद में सरकार की प्रतिक्रिया से पता चला कि 2019 से जनवरी 2023 के बीच 2,650 लोगों को पुनर्वासित किया गया, लेकिन 2019-20 के दौरान भारत में बंधुआ मजदूरी रिहाई या पुनर्वास का कोई मामला सामने नहीं आया.

हालांकि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार 2019 में बंधुआ श्रम प्रणाली उन्मूलन अधिनियम, 1976 (बीएलएसए) के तहत कुल 1,155 मामले दर्ज किए गए, जिसमें 96% अपराध एससी और एसटी जाति के बंधुआ मजदूरों के साथ हुए थे. इसी तरह 2020 में 1,231 मामले (एससी/एसटी के खिलाफ 94%) और 2021 में 592 मामले (एससी/एसटी के खिलाफ 96%) दर्ज किए गए, जिससे पता चलता है कि रिहाई और पुनर्वास डेटा की संख्या आपस में मेल नहीं खाते हैं.

विशेषज्ञों का कहना है कि राज्य सरकारें भी अपने अधिकार क्षेत्र में बंधुआ मजदूरी की मौजूदगी को स्वीकार करना नहीं चाहती हैं, इसलिए भी ये डेटा का झोल होता है.

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस करने वाले एक्टिविस्ट और वकील अमीन खान ने कहा, ‘छुड़ाए जाने और बंधुआ मजदूरी मामले के रूप में पहचान किए जाने के बाद एफआईआर दर्ज किए जाने का प्रावधान है. अगर 2019 में इससे संबंधित 1,155 मामले सामने आए थे, तो कम से कम उतनी रिहाई भी तो दिखाई जानी चाहिए.’

उन्होंने आगे कहा, ‘जिला अधिकारियों पर बंधुआ मजदूरों को ना दिखाने का दबाव होता है क्योंकि इससे सरकार की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचता है और राजनीतिक रूप से शक्तिशाली लोग भी इस काले धंधे में शामिल होते हैं.’

प्रवासी और गैर औपचारिक श्रमिकों पर काम करने वाली गैर-लाभकारी संस्था आजीविका ब्यूरो के कार्यक्रम प्रबंधक (कानूनी शिक्षा, सहायता और वकालत) संतोष पूनिया ने बताया, ‘किसी व्यक्ति को बंधुआ मजदूर साबित करना ही एक बहुत बड़ी बाधा है क्योंकि अधिकारियों में प्रशिक्षण और जागरूकता की कमी है और यह भी धारणा है कि जो व्यक्ति रिहाई के बाद अभी ‘बिना बंधन’ के घूम रहा है वह कैसे ‘बंधुआ’ हो सकता है.’ उन्होंने बताया, ‘ऐसे मामलों में आम तौर पर एसडीएम छापेमारी के लिए नहीं जाते हैं और वे पुलिस व श्रम विभाग पर निर्भर होते हैं.’

अमेरिकी विदेश विभाग की भारत पर मानव तस्करी रिपोर्ट, 2022 में कहा गया है कि कई भारतीय राज्यों में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ने भी बंधुआ मजदूरी को हल करने के प्रयासों को प्रभावित किया है. रिपोर्ट के अनुसार, ‘पुलिस ने राष्ट्रीय स्तर पर खासकर बिहार और राजस्थान में बंधुआ मजदूरी के कम से कम आधे मामलों में एफआईआर दर्ज नहीं की.’

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) की 2019-20 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार जब एक विशेष दूत ने जुलाई 2019 में बंधुआ और बाल श्रम की स्थिति का आकलन करने के लिए बिहार के नवादा जिले के पकरीबरवां ब्लॉक का दौरा किया, तो उन्होंने पाया कि राज्य सरकार जिले में चिन्हित अधिकांश बंधुआ और बाल मजदूरों को 20,000 रुपये की तत्काल नकद सहायता प्रदान करने में विफल रही है. इसके अलावा जिले में बंधुआ मजदूरी कराने वाले लोगों के खिलाफ कोई आरोप पत्र दायर नहीं किया गया था.

एक्टिविस्ट्स और संगठनों से प्राप्त डेटा के अनुसार पाया कि ऐसे कई मामले हैं, जहां बंधुआ मजदूरों को छुड़ाने के के बाद ना तो उनका रिहाई प्रमाण पत्र जारी किया गया और ना ही उनका पुनर्वास हुआ.

निर्मल गोराना द्वारा साझा किए गए NCCBEL-एनसीसीईबीएल डेटा के अनुसार 2019 में कम से कम 652 बंधुआ मजदूरों को छुड़ाया गया, जिनमें से सिर्फ 207 को रिहाई प्रमाण पत्र जारी किए गए. 2021 में 320 बंधुआ मजदूरों को बचाया गया, जिनमें से 65 को रिहाई प्रमाण पत्र दिए गए, वहीं सिर्फ 49 को वित्तीय सहायता प्रदान की गई. किसी को भी आवास या कृषि भूमि के लिए गैर-वित्तीय सहायता नहीं मिली.

इसी प्रकार 2022 में 212 बंधुआ मजदूरों को छुड़ाया गया. एनसीसीईबीएल डेटा से पता चलता है कि तीन में से दो से भी कम बंधुआ मजदूरों को रिहाई प्रमाण पत्र मिल पाया और केवल 27 को 30,000 रुपये की अंतरिम राशि मिल पाई. वहीं 2023 में छुड़ाए गए 59 बंधुआ मजदूरों में से एक को भी रिहाई प्रमाण पत्र और संबंधित पुनर्वास सहायता जारी नहीं किया गया. NCCBEL-एनसीसीईबीएल के आंकड़ों के अनुसार अधिकांश बंधुआ मजदूर एससी और एसटी समुदायों से हैं.

आजीविका ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार नवंबर 2020 से उनकी श्रमिक हेल्पलाइन द्वारा प्राप्त कुल 14 मामलों में से केवल एक मामले में श्रमिकों को रिहाई प्रमाण पत्र जारी किया गया था. विशेषज्ञों ने कहा कि अक्सर श्रमिक भी मामला दर्ज कराने से हिचकिचाते हैं और बकाया वेतन पर समझौता कर घर लौटना पसंद करते हैं.

अमीन खान के आंकड़ों से पता चला कि 2021 में कम से कम 105 श्रमिकों को छुड़ाया गया और 73 को रिहाई प्रमाण पत्र जारी किए गए. खान ने बताया कि इनमें से केवल 15 को 20,000 रुपये की अंतरिम सहायता दी गई.

‘इंडियास्पेंड’ ने सूचना के अधिकार (आरटीआई) अधिनियम के तहत 2016 से बंधुआ मजदूरों की रिहाई और पुनर्वास संबंधी राज्यवार विवरण की जानकारी के लिए 7 सितंबर को श्रम और रोजगार मंत्रालय में एक आवेदन दायर किया था. इस रिपोर्ट के अंग्रेजी में प्रकाशन होने के 15 दिन बाद 17 अक्टूबर, 2023 को श्रम और रोजगार मंत्रालय से एक आरटीआई प्रतिक्रिया मिली.

सरकार ने बताया कि 30 सितंबर, 2023 तक चार दशकों में 296,508 बंधुआ मजदूरों का पुनर्वास किया गया है – यानी इस साल 31 जनवरी से 203 और लोगों को बचाया और पुनर्वास किया गया. आरटीआई के जवाब से ही पता चलता है कि 2016-17 और 2022-23 के बीच 13,946 बंधुआ मजदूरों का पुनर्वास किया गया और उन्हें वित्तीय सहायता प्रदान की गई.

यह संसद के आंकड़ों के समान 2019-20 के लिए ‘शून्य’ पुनर्वास भी दिखाता है. इस योजना में छह साल की अवधि के दौरान केंद्रीय सहायता के रूप में लगभग 20.4 करोड़ रुपये दिए गए. उत्तर प्रदेश ने कम से कम एक तिहाई पुनर्वास की सूचना दी और उसे 42% नकद सहायता दी गई.

कटियार ने बताया कि पुनर्वास योजना दशकों से लागू है और 2016 में योजना में संशोधन के बाद ट्रायल कराना अनिवार्य हो गया. इसके तहत रिहाई के 24 घंटों के भीतर एक ट्रायल दायर होना चाहिए, जिसकी रिपोर्ट कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा तीन महीने के भीतर भेजा जाना चाहिए.

कटियार ने बताया, ‘यह ट्रायल अनिवार्य है और वित्तीय व गैर-वित्तीय सहायता सहित पुनर्वास की सभी प्रक्रिया इस रिपोर्ट के आधार पर ही पूरी होती है. हालांकि इस ट्रायल में समय लग सकता है और मजदूरों को इसके पूरा होने तक इंतजार करने के लिए नहीं कहा जाना चाहिए.’

अमेरिकी सरकार की रिपोर्ट में कहा गया है कि पूर्ण मुआवजे का मिलना मजिस्ट्रेट प्रक्रिया के समापन पर निर्भर है, जिसमें कुछ साल भी लग सकते हैं. सरकार ने इस बंधुआ मजदूरी उन्मूलन कार्यक्रम को कभी भी पूरी तरह से लागू नहीं किया और जहां थोड़ा-बहुत लागू भी हुआ, वहां पर भी एनजीओ और एक्टिविस्ट्स के जोर देने के कारण ऐसा संभव हो पाया. वहीं कुछ राज्यों में इस प्रक्रिया को नियंत्रित भी किया गया कि पीड़ित अपने मुआवजे का उपयोग कैसे कर सकता है और कैसे नहीं.

सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस अकाउंटेबिलिटी के 2018 के एक अध्ययन के अनुसार, 5 करोड़ रुपये के बजट आवंटन के बावजूद 2016-17 में नकद सहायता और योजना के अन्य घटकों पर कुछ भी खर्च नहीं हुआ. अगले दो वर्षों में इस बजट को बढ़ाकर 10 करोड़ रुपये कर दिया गया.

फरवरी 2023 तक तीन वर्षों में सरकार ने हर साल बजट आवंटन का अधिकतम आधा हिस्सा ही खर्च किया. सबसे अधिक व्यय 2022-23 में हुआ, जहां आवंटित 10 करोड़ रुपये में से 4.6 करोड़ रुपये खर्च किए गए.

यह बढ़ोतरी भी भ्रामक है क्योंकि इस अवधि के दौरान 2022 में योजना में संशोधन करके अंतरिम राहत राशि को 10,000 रुपये से बढ़ाकर 30,000 रुपये कर दिया गया था, वहीं 2022-23 में छुड़ाए गए श्रमिकों की वास्तविक संख्या पिछले वर्ष की तुलना में केवल एक तिहाई थी.

एक्टिविस्ट और वकील खान ने कहा कि एक बार बंधुआ मजदूर रिहाई प्रमाणपत्र जारी हो जाने के बाद ट्रायल के दौरान अपराधियों के लिए सजा और छुड़ाए गए मजदूरों के लिए मुआवजे का निर्धारण करना होता है. हालांकि ऐसे भी कई उदाहरण हैं, जब ट्रायल में देरी के कारण लोगों को मुआवजा नहीं मिल पाया है.

1 करोड़ 84 लाख बंधुआ मजदूरों को बचाने के 2030 के लक्ष्य के विपरीत 2023 की लोकसभा स्थायी समिति की रिपोर्ट में श्रम और रोजगार मंत्रालय के हवाले से कहा गया है कि यह योजना मांग-आधारित है, जिसके कारण बंधुआ मजदूरों की पहचान करने और उन्हें छुड़ाने के लिए लक्ष्य निर्धारित नहीं किया जा सकता है.

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स्रोत: श्रम, कपड़ा और कौशल विकास पर स्थायी समिति की रिपोर्ट

लोकसभा की एक रिपोर्ट भी बंधुआ मजदूरों की रिहाई और पुनर्वास के लिए सरकारी प्राथमिकता की कमी की पुष्टि करते हुए कहती है कि केंद्र सरकार के पास इस योजना का पूरा पुनर्वास विवरण नहीं था. श्रम और रोजगार मंत्रालय ने कहा कि उसके पास राज्यों द्वारा प्रदान की जा रही गैर-नकदी सहायता का विवरण नहीं है, क्योंकि यह ‘राज्य सरकार के अधिकारों के दायरे में’ आता है.

केंद्र सरकार के पास गैर-नकद सहायता पर कोई डेटा नहीं है

स्रोत: श्रम, कपड़ा और कौशल विकास पर स्थायी समिति की रिपोर्ट

आरटीआई के जवाब में भी केंद्र सरकार ने संसद की रिपोर्ट में साझा किए गए बयान को दोहराया, जिसमें कहा गया था कि पुनर्वास के लिए जानकारी सीधे राज्य के विभागों से प्राप्त की जा सकती है क्योंकि पुनर्वास राज्यों के दायरे में आता है.

सीबीजीए रिपोर्ट में कहा गया है, ‘योजना के विभिन्न घटकों के बीच उपलब्ध धन के वितरण की व्यवस्था केंद्र सरकार द्वारा स्पष्ट रूप से नहीं की गई थी. बंधुआ मजदूरी योजना हमेशा प्रतिपूर्ति के तरीके से काम करती है, न कि धन के अग्रिम भुगतान के माध्यम से.’

इसके अलावा पुनर्वास योजना के अनुसार प्रत्येक जिले को 10 लाख रुपये का एक कोष बनाना होगा जो नवीकरणीय हो और जिसका उपयोग छुड़ाए गए बंधुआ मजदूरों की तत्काल सहायता के लिए किया जाएगा. राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश के सिर्फ़ 29 जिलों ने 2022-23 में अपने कोष से इस धन का उपयोग किया.

गोराना ने बताया, ‘यह संभव ही नहीं है कि सभी जिलों के पास यह कोष हो और योजना के तहत बंधुआ मजदूरी के आंकड़ों में विसंगतियां ना हों. पुनर्वास पर भी कोई स्पष्टता नहीं है. जिन लोगों को 30,000 रुपये दिए गए हैं, उन्हें भी पुनर्वास डेटा में शामिल किया गया है, जो कि गलत है.’

केंद्र सरकार प्रत्येक संवेदनशील जिले में हर तीन साल में एक बार बंधुआ मजदूरों का सर्वेक्षण करने के लिए राज्यों को 4.5 लाख रुपये भी देती है. इसके अलावा हर राज्य को प्रति वर्ष 10 लाख रुपये का जागरूकता सृजन कोष भी प्रदान किया जाता है, वहीं बंधुआ मजदूरी उन्मूलन के लिए प्रति वर्ष पांच अध्ययनों के लिए 1.5 लाख रुपये प्रति अध्ययन प्रदान किए जाते हैं.

अब तक 180 बंधुआ मजदूरों की रिहाई करा चुके स्वतंत्र शोधकर्ता रवि ने बताया कि सर्वेक्षण ठीक से नहीं होते हैं, जिसका मतलब है कि सर्वेक्षण-आधारित रिहाई भी नहीं हो पाता. यह आमतौर पर व्यक्तिगत या एनजीओ की शिकायतों पर आधारित होता है.

राज्यों को इस पूरी प्रक्रिया का निगरानी रखने का काम सौंपा गया है. बंधुआ मजदूरों की पहचान करने के लिए श्रम मंत्रालय ने राज्यों को सलाह दी है कि वे बंधुआ मजदूरों की पहचान करने और उन्हें मुक्त कराने के लिए नियमित रूप से अधिक से अधिक सर्वेक्षण, जागरूकता अभियान और मूल्यांकन अध्ययन करें.

क्या और किए जाने की जरुरत है ?

संसदीय समिति ने सिफारिश की है कि सरकार को अधिकार क्षेत्र संबंधी पहलुओं के बावजूद प्रदान की गई सहायता का एक केंद्रीय डेटाबेस बनाए रखना चाहिए.

विशेषज्ञों और नीति दस्तावेजों की मानें तो समय-समय पर जिला स्तरीय बंधुआ मजदूरी सर्वेक्षण और मूल्यांकन कार्यक्रम आयोजित किया जाना चाहिए और इसके लिए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम और स्वच्छ भारत मिशन की तरह एक बेहतर सूचना प्रणाली होनी चाहिए.

कटियार ने कहा कि यह योजना कुल मिलाकर अच्छी है, लेकिन जागरूकता की जरूरत है, खासकर इसलिए क्योंकि बंधुआ मजदूरी, मानव तस्करी का मामला भी हो सकता है, जिसमें किसी भी व्यक्ति को गुलाम के रूप में खरीदने या बेचने पर भारतीय दंड संहिता 370 लागू होती है. कटियार ने कहा, ‘अगर यह ठीक से लागू और निगरानी की जाए तो इससे मामलों के पंजीकरण में वृद्धि होगी और डेटा संकलन में भी सुधार होगा.’

उन्होंने कहा कि बंधुआ मजदूरी उन्मूलन का पूर्ण समाधान श्रम परिस्थितियों को बदलने में है, ना कि उनका केवल पुनर्वास करने में. पुनर्वास योजना में सुधार और बंधुआ मजदूरी समाप्त करने की दिशा में की गई कुछ प्रमुख सिफारिशें –

  • संवेदनशील जिलों के लिए योजना धनराशि बढ़ाई जाए.
  • पुनर्वास के केंद्रीय समन्वय और निगरानी तंत्र में सुधार.
  • कल्याणकारी अधिकारों के लिए बंधुआ मजदूरी पर राष्ट्रीय पोर्टल की स्थापना.
  • राज्यों से जानकारी एकत्र करने और सभी प्रकार की सहायता के लिए एक केंद्रीय डेटाबेस का निर्माण.
  • मजदूरों के लिए काम की बेहतर स्थितियां और समय पर वेतन सुनिश्चित करना.
  • पुनर्वास सहायता तक पहुंच के लिए रिहाई प्रमाणपत्र समय पर जारी करना.
  • बंधुआ मजदूरी की पहचान और उन्मूलन के लिए संवेदनशील जिलों में नियमित सर्वेक्षण और जागरूकता अभियान चलाना.
  • श्रमिकों को मिलने वाले लाभों की निगरानी के लिए केंद्र और राज्य स्तरीय अन्य योजनाओं के साथ बंधुआ श्रमिक पुनर्वास योजना का एकीकरण और समन्वय.

स्रोत: विशेषज्ञ और विभिन्न सरकारी व गैर-सरकारी रिपोर्ट्स.

2019 में एक ईंट भट्ठे से छुड़ाए गए अनुज के पास कोई जमीन नहीं है और वह अपने माता-पिता के साथ दो कमरे के घर में रहते हैं. उनके पास जो दो बीघे (1.2 एकड़) की जमीन थी, जो उनकी बहनों की शादी के लिए बेच दी गई. उन्होंने बताया, ‘मैं अंबाला में जिला श्रम अधिकारियों से मिलने गया था और वहां जरूरी दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करके आया, लेकिन उसके बाद से किसी ने भी मुझसे संपर्क नहीं किया है और मुझे अभी तक कोई पैसा नहीं मिला है.’

गांव में राजमिस्त्री के रूप में उन्हें अब देर से मजदूरी मिलती है, लेकिन अपने पिछले अनुभव के कारण वह अब घर से दूर मजदूरी करने नहीं जाना चाहते हैं.

महेश को 2022 में छुड़ाया गया था. उन्हें अभी तक कोई सरकारी पुनर्वास सहायता नहीं मिली है और उन्हें भी अनुज की तरह इसी तरह की दुश्वारियों का सामना करना पड़ रहा है. जब वह और उनकी पत्नी महीनों के काम के बाद घर लौटते हैं, तो वे अपनी सास के एक कमरे के घर में एक साथ किसी तरह रहते हैं. उन्होंने कहा, ‘अगर हमें पुनर्वास का पैसा और घर या खेती के लिए जमीन मिल जाए तो बढ़िया होता, हम किसी और बड़ी चीज की मांग नहीं कर रहे हैं.’

* छुड़ाए गए मजदूरों की पहचान गुप्त रखने के लिए उनके नाम बदल दिए गए हैं.

  • श्रीहरि पलिअथ
    श्रीहरि पलिअथ इंडियास्पेंड के वरिष्ठ नीति विश्लेषक है. पलिअथ चुनाव, कृषि, रोजगार, नीति और लेबर के मुद्दों पर लिखते है। वर्ष 2019 में उन्हें अपनी रिपोर्टिंग के लिए रेड इंक अवार्ड द्वारा स्पेशल मेंशन दिया गया था.

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ROHIT SHARMA

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