‘पेशेवाओं के शासनकाल में, महाराष्ट्र में, इन अछूतों को उस सड़क पर चलने की आज्ञा नहीं थी जिस पर कोई सवर्ण हिन्दू चल रहा हो. इनके लिए आदेश था कि अपनी कलाई में या गले में काला धागा बांधे, ताकि हिन्दू इन्हें भूल से ना छू लें. पेशवाओं की राजधानी पूना में तो इन अछूतों के लिए यह आदेश था कि ये कमर में झाडू बांधकर चलें, ताकि इनके पैरों के चिन्ह झाडू से मिट जाएं और कोई हिन्दू इनके पद चिन्हों पर पैर रखकर अपवित्र न हो जाएं. अछूत अपने गले में हांडी बांधकर चले और जब थूकना हो तो उसी में थूकें, भूमि पर पड़ें हुए अछूत के थूक पर किसी हिन्दू का पैर पड़ जाने से वह अपवित्र हो जाएगा.’
उपर्युक्त बातें अम्बेदकर ने अपनी किताब ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ में महाराष्ट्र में ब्राह्मणवाद के कट्टरतम रूप लिखा था. 18वीं सदी में महाराष्ट्र में छुआछूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह, अंधविश्वास जैसी प्रथाएं व्याप्त थी. पूरा समाज रूढ़िवाद से ग्रसित था. समाज में तमाम दलित-शूद्र-स्त्री विरोधी रूढ़ियों-आडंबरों-अंधविश्वास के खिलाफ इस सामाजिक क्रांति की अग्रदूत के रूप में ज्योतिबा संग सावित्रीबाई फुले ने मजबूती से जंग लड़ने की ठानी.
सावित्री बाई फुले का पूरा जीवन समाज के वंचित तबकों खासकर स्त्री और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष और सहयोग में बीता. सावित्री बाई फुले को प्रथम महिला शिक्षिका, प्रथम शिक्षाविद् और महिलाओं की मुक्तिदाता कहें तो कोई भी अतिशयोक्ति नहीं होगी. वह कवयित्री, अध्यापिका, समाज सेविका थी.
सावित्रीबाई का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव नामक छोटे से गांव में हुआ था. 9 साल की अल्पआयु में उनकी शादी पूना के ज्योतिबा फुले के साथ किया गया. सावित्री बाई फुले की कोई स्कूली शिक्षा नहीं हुई थी, वहीं ज्योतिबा फुले तीसरी कक्षा तक शिक्षा प्राप्त किए थे.
एक बार सावित्री जब छोटी थी अंग्रेजी की एक किताब के पन्ने पलट रही थी, उसी वक्त उनके पिताजी ने यह देख लिया और तुरंत किताब को छीनकर खिड़की से बाहर फेंक दिया क्योंकि उस समय शिक्षा का हक़ केवल उच्च जाति के पुरुषों को ही था. दलित और महिलाओं को शिक्षा ग्रहण करना पाप था. सावित्री बाई उस किताब को चुपचाप वापस ले आई. उस दिन उन्होंने निश्चय किया कि वह एक न एक दिन पढ़ना ज़रूर सीखेगी और यह सपना पूरा हुआ ज्योतिबा फुले से शादी करने के बाद.
ज्योतिबा फुले मानती थी कि दलित और महिलाओं की आत्मनिर्भरता, शोषण से मुक्ति और विकास के लिए सबसे जरूरी है शिक्षा. इसकी शुरुआत उन्होंने सावित्री बाई फुले को शिक्षित करने से की. ज्योतिबा को खाना देने जब सावित्री बाई खेत में आती थीं, उस दौरान वे सावित्री बाई को पढ़ाते थे. लेकिन इसकी भनक उनके पिता को लग गई और उन्होंने रूढ़िवादिता और समाज के डर से ज्योतिबा को घर से निकाल दिया. फिर भी ज्योतिबा ने सावित्रीबाई को पढ़ाना जारी रखा और उनका दाखिला एक प्रशिक्षण विद्यालय में कराया. समाज द्वारा इसका बहुत विरोध होने के बावजूद सावित्री बाई ने अपना अध्ययन पूरा किया.
अध्ययन पूरा करने के बाद सावित्री बाई ने सोचा कि प्राप्त शिक्षा का उपयोग अन्य महिलाओं को भी शिक्षित करने में किया जाना चाहिए. उस समय समाज लड़कियों को पढ़ाने के खिलाफ थी. यह एक बहुत बड़ी चुनौती थी. ज्योतिबा के साथ मिलकर 1848 में उन्होंने पुणे में बालिका विद्यालय की स्थापना की जिसमें कुल नौ लड़कियों ने दाखिला लिया और सावित्री बाई फुले इस स्कूल की प्रधानाध्यापिका बनी.
दबी-पिछड़ी जातियों के बच्चे, विशेषकर लड़कियां की संख्या इस स्कूल में बढ़ती गयी. सावित्री बाई का रोज घर से विद्यालय जाने का सफ़र सबसे कष्टदायक होता था. जब वो घर से निकलती तो लोग उन्हें अभद्र गालियां, जान से मारने की लगातार धमकियां देते, उनके ऊपर सड़े टमाटर, अंडे, कचरा, गोबर और पत्थर फेंकते थे, जिससे विद्यालय पहुंचते-पहुंचते उनके कपड़े और चेहरा गन्दा हो जाया करते थे. सावित्री बाई इसे लेकर बहुत परेशान हो गईं थी. तब ज्योतिबा ने इस समस्या का हल निकला और उन्हें 2 साड़ियां दी. मोटी साड़ी घर से विद्यालय जाते और वापस आते समय के लिए थी, वहीं दूसरी साड़ी को विद्यालय में पहुंच कर पहनना होता था.
1 जनवरी 1848 से लेकर 15 मार्च 1852 के दौरान सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले ने बिना किसी आर्थिक मदद और सहारे के लड़कियों के लिए 18 विद्यालय खोले. इन शिक्षा केन्द्र में से एक 1849 में पूना में ही उस्मान शेख के घर पर मुस्लिम स्त्रियों व बच्चों के लिए खोला था. ‘कड़ी मेहनत करो, अच्छे से पढ़ाई करो और अच्छा काम करो’ का नारा सावित्री बाई अपने विद्यार्थियों को दिया. ब्रिटिश सरकार ने सावित्री बाई फुले और ज्योतिबा फुले के योगदान को देखते हुए 16 नवम्बर 1852 को उन्हें शॉल भेंटकर सम्मानित किया.
उन्होनें 1852 में ‘महिला मंडल’ का गठन स्त्री की दशा सुधारने के लिए किया. उन्होंने 1853 में ‘बाल-हत्या प्रतिबंधक-गृह’ की स्थापना की, जहां विधवाएं अपने बच्चों को जन्म दे सकती थी और यदि वो उन्हें अपने साथ रखने में असमर्थ हैं तो बच्चों को इस गृह में रखकर जा सकती थी. उस समय विधवाओं के सिर को जबरदस्ती मुंडवा दिया जाता था. सावित्री बाई फुले और ज्योतिबा ने इस अत्याचार का विरोध किया और नाइयों के साथ काम कर उन्हें तैयार किया कि वो विधवाओं के सिर का मुंडन करने से इंकार कर दे. इसी के चलते 1860 में नाइयों ने हड़ताल कर दी कि वे किसी भी विधवा का सर मुंडन नहीं करेंगे, और ये हड़ताल सफल रही.
1855 में मजदूरों को शिक्षित करने के उद्देश्य से फुले दंपत्ति ने ‘रात्रि पाठशाला’ खोली थी. सावित्री बाई फुले और ज्योतिबा ने अपने घर के भीतर पानी के भंडार को दलित समुदाय के लिए खोल दिया. सावित्री बाई फुले और ज्योतिबा ने 24 सितम्बर, 1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना की. सत्यशोधक समाज द्वारा पहला विधवा पुनर्विवाह 25 दिसम्बर, 1873 को संपन्न किया गया था और यह शादी बाजू बाई निम्बंकर की पुत्री राधा और सीताराम जबाजी आल्हट की शादी थी. 1876 व 1879 में पूना में अकाल पड़ा था तब ‘सत्यशोधक समाज‘ ने आश्रम में रहने वाले 2000 बच्चों और गरीब जरूरतमंद लोगों के लिये मुफ्त भोजन की व्यवस्था की.
सावित्रीबाई फुले ने अपने जीवन काल में दो काव्य पुस्तकें लिखी. पहला कविता संग्रह ‘काव्य फुले’ 1854 में छपा तब उनकी उम्र सिर्फ 23 साल की थी. कविताओं की दूसरी किताब ‘बावनकशी सुबोधरत्नाकर’ 1991 में आया, जिसको सावित्री बाई फुले ने अपने जीवनसाथी ज्योतिबा फुले के परिनिर्वाण प्राप्ति के बाद उनकी जीवनी के रूप में लिखा था. समता, बंधुता, मैत्री और न्याय पूर्ण समाज की ल़डाई के लिए, समाजिक क्रांति को आगे बढाने के लिए सावित्रा बाई फुले ने साहित्य की रचना की.
अशिक्षा अज्ञानता की वजह से ही पूरा बहुजन समाज हिंदुओं का गुलाम बना है. उनका पूरा जीवन समाज में वंचित तबके खासकर महिलाओं और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष में बीता. उनकी एक बहुत ही प्रसिद्ध कविता है जिसमें वह सबको पढ़ने-लिखने की प्रेरणा देकर जाति तोड़ने और ब्राह्मण ग्रंथों को फेंकने की बात करती हैं –
जाओ जाकर पढ़ो-लिखो, बनो आत्मनिर्भर, बनो मेहनती
काम करो-ज्ञान और धन इकट्ठा करो
ज्ञान के बिना सब खो जाता है,
ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते है
इसलिए, खाली ना बैठो, जाओ, जाकर शिक्षा लो
दमितों और त्याग दिए गयों के दुखों का अंत करो,
तुम्हारे पास सीखने का सुनहरा मौका है
इसलिए सीखो और जाति के बंधन तोड़ दो,
ब्राह्मणों के ग्रंथ जल्दी से जल्दी फेंक दो.
विद्या को श्रेष्ठ धन बताते हुए वह कहती हैं –
विद्या ही सर्वश्रेष्ठ धन है
सभी धन-दौलत से
जिसके पास है ज्ञान का भंडार
है वो ज्ञानी जनता की नज़रों में !
सावित्री बाई फुले जिन स्वतंत्र विचारों की थी, उसकी झलक उनकी कविताओं में स्पष्ट रूप से मिलती है. वे लड़कियों के घर में काम करने, चौका बर्तन करने की अपेक्षा उनकी पढाई-लिखाई को बेहद जरूरी मानती थी. वह स्त्री अधिकार चेतना सम्पन्न स्त्रीवादी कवयित्री थी.
‘चौका बर्तन से बहुत जरूरी है पढ़ाई
क्या तुम्हें मेरी बात समझ में आई ?’
सावित्री बाई फुले के अनुसार मनुस्मृति ही शूद्र समाज की दुर्दशा का कारण है. इस मनुस्मति के कारण ही चार वर्णों का जहरीला निर्माण हुआ है. इसी के कारण समाज में दलित शूद्रों की स्थिति और जीवन भयानक मानसिक और सामाजिक गुलामी में बीता है. यही पुस्तक सारे विनाश की जड़ है.
‘मनुस्मृति की कर रचना,
मनुचार वर्णों का जहरीला निर्माण करे
उनकी कदाचारी रूढ़ि परंपरा हमेशा चुभन भरी
स्त्री शूद्र सारे गुलामी की गुफा में बन्द
पशु की भांति शूद्र बसते हैं दड़बो में’
1897 में पुणे में प्लेग की भयंकर महामारी फ़ैल गयी. प्रतिदिन सैकड़ों लोगों की मौत हो रही थी. उस समय सावित्री बाई ने अपने दत्तक पुत्र यशवंत की मदद से एक हॉस्पिटल खोला. वे बीमार लोगों के पास जाती और खुद ही उनको हॉस्पिटल तक लेकर आतीं थी. हालांकि वो जानती थी कि ये एक संक्रामक बीमारी है, फिर भी उन्होंने बीमार लोगों की सेवा और देख-भाल करना जारी रखा.
किसी ने उन्हें प्लेग से ग्रसित एक बच्चे के बारे में बताया. वो उस गंभीर बीमार बच्चे को पीठ पर लादकर हॉस्पिटल लेकर गईं. इस प्रक्रिया में यह महामारी उनको भी लग गई और 10 मार्च 1897 को सावित्री बाई फुले की इस बीमारी के चलते निधन हो गया.
विनम्र श्रद्धांजलि !
- सुनील सिंह
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