हेमन्त कुमार झा
जन सुराज के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर देखा, ‘ध्वस्त शिक्षा और भ्रष्ट परीक्षा के खिलाफ प्रशांत किशोर का आमरण अनशन जारी.’
हालांकि, मुद्दा शिक्षा और परीक्षा है लेकिन अधिक चर्चा इस बात को लेकर है कि प्रशांत किशोर के पीछे कौन सी शक्तियां हैं, उनकी फंडिंग के स्रोत क्या हैं, उनके बगल में लगी वैनिटी वैन का मालिक कौन है, वैन का प्रतिदिन का किराया कितना है आदि आदि.
विशेषज्ञों का एक बड़ा तबका यू-ट्यूब परिचर्चाओं और अन्य सोशल मीडिया मंचों पर यह बताने में लगा है कि इन सबके पीछे भाजपा है, मोदी हैं जबकि कुछ तो यह भी बताने में लगे हैं कि यह सब तो स्वयं नीतीश जी ही करवा रहे हैं.
राजनीति में इतने झोल होते हैं, इतनी पेचीदगियां होती हैं कि कुछ भी हो सकता है. संभव है मोदी जी इस फिल्म के निर्देशक हों, संभव है नीतीश जी ही इसके निर्माता हों और प्रशांत किशोर इसके अभिनेता हों, साथ में लगे पूर्व अधिकारी गण या अन्य लोग सहायक अभिनेता हों, जिंदाबाद जिंदाबाद करते लोग वैसे ही हों जैसे फिल्मों में नाचते कूदते हीरो के इर्द गिर्द दर्जनों लोग उछलते मटकते रहते हैं. इस छलिया पॉलिटिक्स के दौर में कुछ भी हो सकता है.
अभय कुमार दुबे जी ने एक संवाद में थोड़ा संतुलित वक्तव्य दिया कि बिहार में प्रशांत किशोर की राजनीतिक सक्रियता अभी बंद मुठ्ठी की तरह है और कि अभी उन्हें लेकर किसी अंतिम निष्कर्ष तक पहुंच जाना जल्दबाजी होगी. लेकिन, इतने सारे विद्वतगण, इतने सारे विश्लेषक तमाम परिचर्चाओं में इस तथ्य की लगभग पूरी तरह उपेक्षा कर रहे हैं कि बात तो सही है, बिहार में शिक्षा ध्वस्त है और परीक्षाएं संशयों में घिरी हैं.
हमारे जैसे लोग, जो अपनी जीविका के लिए बिहार की शिक्षा संरचना से जुड़े हैं और इसके तंत्र की दुर्दशा के कमोबेश भुक्तभोगी भी हैं, उनके लिए यह अनशन इतना मायने तो रख ही रहा है कि चलो, इसी बहाने बिहार की ‘ध्वस्त शिक्षा और भ्रष्ट परीक्षा’ पर कुछ सार्वजनिक विमर्श हो जाए.
हालांकि, अधिकतर विशेषज्ञों ने लगभग कसम ही खा ली है कि वे प्रशांत किशोर के अनशन प्रकरण पर चर्चा तो खूब करेंगे लेकिन सिर्फ इसके पॉलिटिकल एंगल पर ही चर्चा करेंगे, इसमें साजिशों की बू सूंघेंगे और दूसरों को सुंघाएंगे.
अगर मोदी जी इसके निर्देशक हैं और नीतीश जी सह निर्देशक हैं तो मैं व्यक्तिगत रूप से दोनों को धन्यवाद देता हूं कि इन दोनों ने किसी कुशल वक्ता और जीवट वाले आदमी को ‘तथाकथित रूप से भाड़े पर लेकर’ बिहार की शिक्षा और परीक्षा की दुर्दशा पर बोलने के लिए मैदान में उतार दिया है.
उतार दिया है मैदान में कि जो सब कुछ तेजस्वी को बोलना था, उसे तुम बोलो, चीख चीख कर मांग करो कि बीते दस वर्षों से हो चुकी परीक्षाओं में हुए भ्रष्टाचार की जांच रिपोर्ट प्रकाशित की जाए, बिहार की सरकार को खूब कोसो कि राज्य में शिक्षा व्यवस्था तमाम स्तरों पर ध्वस्तप्राय है…और इस तरह मुद्दे को तेजस्वी से छीन लो.
वैसे भी, बिहार में कोई नामचीन नेता यहां के शिक्षा तंत्र की दुर्दशा पर गंभीर नहीं, न कोई कुछ बोलता है. किसी को जाति चाहिए, किसी को धर्म चाहिए, किसी को माफिया का सपोर्ट चाहिए और…फंड तो सबको चाहिए. पता नहीं, इन नेताओं को और इनकी पार्टियों को कैसे कैसे और कहां कहां से फंड आते हैं !
नए नवेले एमएलसी वंशीधर ब्रजवासी जी का एक इन्टरव्यू अभी कल ही किसी यूट्यूब चैनल पर सुन रहा था. वे बता रहे थे कि शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने करोड़ों करोड़ की लूट की है और इसके लिए न जाने कितने स्कूल हेडमास्टरों के जाली दस्तखत करवा कर गलत विपत्र भी बनवाए हैं. मास्टरों से भयादोहन वाली वसूली जैसे आरोप तो तब से लगते रहे हैं जबसे सरकारी स्कूलों का अस्तित्व है, उनमें सरकारी मास्टर हैं और उनकी निगहबानी को शिक्षा विभाग के सरकारी अधिकारी हैं.
ब्रजवासी जैसे लोग बहुत कम हैं, शायद नहीं के बराबर हैं, जो साहस के साथ इन तथ्यों को सामने लाते हैं. लेकिन, होता कुछ नहीं. हो यही रहा है कि तमाम शिक्षा शास्त्रीय अवधारणाओं को दरकिनार करता कोई ब्यूरोक्रेट अपनी उंगली के इशारों पर बिहार की स्कूली शिक्षा को चलाता रहता है. एक हाकिम की मर्जी हुई कि तमाम स्कूली बच्चों की मासिक परीक्षा होगी, लो जी, लग गए सारे मास्टर महीने में सात दिन परीक्षा में ही.
किसी हाकिम को लगा कि मास्टरों को 9 से 5 जोत देना है तो जोत दिया, किसी हाकिम की मर्जी हुई कि शाम 5 बजे के बाद रोज वीडियो कांफ्रेंसिंग वाली मीटिंग करनी है तो जोत दिया सबको. रोज रिपोर्ट करो जैसे कि कोई थाना हो, जैसे कि कोई खुफिया अभियान हो जिसकी रोज रिपोर्टिंग जरूरी हो. हाकिम का मुखे कानून शिक्षा के सिस्टम को मखौल बनाने के सिवा और कुछ नहीं. ऊपर से पूरे तंत्र में पसरा अराजक भ्रष्टाचार…तौबा तौबा !!
स्कूलों का तो ब्रजवासी जी और उन जैसे कुछेक और लोग सुना देते हैं. विश्वविद्यालय की नौकरी तो खुद मै कर ही रहा हूं और खुली आंखों से बिहार के विश्वविद्यालयों में चलते भारी भारी, एकदम निडर और बेतरह निर्लज्ज भ्रष्टाचार को देखता रहा हूं. यह बोलने में कोई गुरेज नहीं है कि नीतीश राज में बिहार की उच्च शिक्षा में भ्रष्टाचार पहले की तुलना में कई गुना बढ़ गया.
इसके पीछे सिर्फ नीतीश जी का राज ही जिम्मेवार हैं, ऐसा कहना बहुत सही नहीं होगा. वे बीस वर्षों से राज में हैं और इन दो दशकों में उपभोक्तावाद और बाजारवाद निकृष्ट मूल्यों के न जाने कितने पड़ावों को लांघ चुका है. बाजार है तो चीजें ही क्यों, लोग भी बिकेंगे, लोग बिकेंगे तो पद भी बिकेंगे, पद बिकेंगे तो तंत्र खोखला होगा ही और तंत्र खोखला होगा तो जो इसके रिसीविंग एंड पर हैं, वे दुर्दशा भोगेंगे ही.
नतीजा यह है कि बिहार के कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में वित्तीय अनियमितताएं अराजक शब्द की सीमाओं को भी लांघ चुकी हैं और इन अराजकताओं का सीधा कुप्रभाव शैक्षणिक माहौल पर पड़ते पड़ते अब हर तरह की गिरावट तमाम सीमाओं को लांघ चुकी है. लगता ही नहीं है कि तंत्र पर काबिज जो अधिकतर भ्रष्ट लोग हैं, उन्हें किसी का डर भी है ?
पता नहीं, बिहार की आर्थिक अपराध यूनिट के पुलिस वाले इधर क्यों नहीं ध्यान देते. पता नहीं कैसे सरकार का ऑडिट विभाग इन मामलों में नख दंत विहीन ही नहीं, नेत्र विहीन भी बना हुआ है. बिहार के न जाने कितने कॉलेज हैं जहां अचंभित कर देने वाली वित्तीय अनियमितताएं बदस्तूर चलती ही आ रही हैं और कभी नहीं सुनाई देता कि ऑडिट भी कोई चीज है.
सामान्य शिक्षक समुदाय वेतन की घोर अनियमितता से त्रस्त है और पढ़ने वाले बच्चों को तो पता ही नहीं है कि उनके साथ तंत्र कितना घोर अन्याय करता आ रहा है. मतलब कि कॉलेज में विभाग के विभाग शिक्षक विहीन हैं, नॉन टीचिंग स्टाफ की कमी तो पिछले तमाम रिकॉर्ड्स ध्वस्त कर चुकी है.
चलो, मान लिया कि प्रशांत किशोर अभिनेता है और मोदी या नीतीश या कोई और उसका निर्देशक है लेकिन वह पांच छह दिनों से निराहार, इस भीषण ठंड में खुले आसमान के नीचे बैठा माइक पर बिहार की शिक्षा और परीक्षा जैसे शब्द तो बोल रहा है. यहां तो इन शब्दों का कोई नामलेवा तक नहीं और विशेषज्ञ हैं कि टॉर्च लेकर निर्देशक की पोशाक पहचान रहे हैं.
जलाओ टॉर्च, पहचानो पीछे के लोगों को, जरूरी है यह भी, आखिर सबका सच सामने आना चाहिए, आना ही चाहिए. बिहार के लोग सिर्फ झांसे में डाले रखने के लिए नहीं हैं, उन्हें सच्चाई बतानी चाहिए. बतानी ही चाहिए, लेकिन जो शब्द प्रशांत किशोर और उनके अगल बगल के लोग बोल रहे हैं…यानी शिक्षा और परीक्षा, उस पर भी खुल कर बोलना चाहिए. बोलना चाहिए और इन घनघोर अंधेरों में टॉर्च लेकर उन लोगों की शिनाख्त भी करनी चाहिए जो बिहार के बच्चों के भविष्य को अंधेरों में धकेलने वाले अंधेरों के सौदागर हैं.
बिहार की उच्च शिक्षा के प्रांगण में अंधेरे के सौदागरों की भीड़ बढ़ती ही जा रही है और उससे भी अफसोसनाक यह कि निर्लज्ज होना तो उनके स्वभाव में ही है, वे बाकायदा निडर भी हैं. उनकी निडरता बिहार के अंधेरों को और सघन, और सघन करती जा रही है. आए कोई, भाड़े पर ही सही, अभिनेता ही सही, कोई तो आए जो इन मुद्दों पर बात करे, जो इन मुद्दों को सार्वजनिक विमर्शों के केंद्र में लाए.
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