‘औरत का नहाना और खाना
किसी को नही पता चलना चाहिए’
हमारे बचपन में दादी कहती रहती
जितना हो सके घर की बहुओं से
यही करने की उम्मीद करती
दूध पिलाने वाली औरत चार बेर खा सकती है
नई नवेली दुल्हीनों में पहाड़ भर काम का दम होता
खाना नही वो चुग भी ले तो फर्क नही पड़ता
बड़ी उम्र औरत को तय करना होता
कि पकौड़ी मर्द की थाली तक ही बनने हैं
कि कुछ हिस्सा औरतों में भी बंटेगा
चटनी छनौरी बरी नींबू की रईसी
बस मर्द कर सकते
वो कमाने वाले लोग है और
परमेश्वर भी
लड़कियां किसी की भी थाली का
बचा खा लेती
चाचा पापा दादी अम्मा
इनकी थाली नहीं लगाई जाती
हमारे किशोर उम्र होने तक
ये बात अंदर जमने लग गई कि
तमाम स्वाद के बचे हुए को ही
हमारे हिस्से आना है
पालथी मार के और पसर के नहीं खाना
छाती को सपाट रखना है
हाथ पैर को बिजली की गति से चलना है
हमनें अपनी चाचियों को दन्न से पानी ले जाते
दन्न से पेटिकोट पर साड़ी लपेट
अपने कोठरी में जाते देखा
इनकी नींद हल्की होनी चाहिए
एक जरा-सी आहट पर
ये उठ के खड़ी हो जाती थी
इनकी कोठरी में एक ताखा होता
उसपर एक शीशा और सिंहोरा होता
इनकी डोरी पर तीन धुली साड़ी लटकी होती
ब्रा तो ये जानती भी नहीं थी
महीने के पांच दिन ये कोठरी से न निकलती
एक बेस्वाद थाली
इनके दरवाजे पे रख दी जाती
एक छोटा सा जंगला जरूर होता
एकदम छोटा
ये उसी पर ठोढ़ी टिकाएं खेत खलिहान देखती
वहीं से दिखता सत्ती का चौरा
देखने की नजर ही तो थी इनके पास
कि ये उस छोटे जंगले से उठता बादल
बवंडर, तेज उठी हवा सब देख लेती
वहीं से दिखती थी जाने वाली पगड़न्ड़ी
उसी से चलकर आई थी ये घर में
उन्ही पगड़न्ड़ी से गांव की बेटी विदा होती
ये जंगला से सट कर रोती
कोई फोटो नहीन थी मां बाप की
कि निहारती कभी
ये मजबूत पेड़ से टूटा पत्ता थी
किसी और आंगन में गिरी
ऐसी कितनी औरतें
मेरे बाबा के बड़े घर के छोटी कोठरी में बन्द
चक्की जाता के गीत गाती
चोकर की तरह उड़ी
इनके लाकडाउन की अवधि पूरी जिंदगी थी
इनके जगंलों ने इन्हें जिंदा रखा था
ये एक लोटा जल में
सूरज तुलसी आंवले और चारों दिसा को
पानी पिला सकती हैं
सुना कम हो रहीं है
लाकडाउन में रहने वाली औरतें
सुना जंगले बड़े हो रहे हैं
- शैलजा पाठक
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