औरतें नहीं चाहती हैं,
ईश्वर विलुप्त हो जाए
औरतें, अपना सहारा कैसे छोड़ दे,
इस संसार में
जहां, उनका दूसरा कोई सहारा नहीं है
इस विक्षिप्त और राक्षस समय में
उन्हें भरोसा है
कि यह ईश्वर नाम का प्राणी, जो धुंआ ही है
लेकिन, वृक्ष से ज़्यादा मज़बूत है,
जहां वे चिड़ियों की तरह
घोंसले बना कर रहती आई है,
वैसे यह आई है-शब्द भी निरपेक्ष
नहीं है, क्योंकि कोई भी निर्भर तभी होता है,
जब उसे, सारी दुनिया में
सारे सहारे छल चुके होते हैं,
वह गिरने को ही होती है, कि
यह छल उसे थाम लेता है
और वो सबकुछ भूल कर प्रर्थनाएं करती हैं
जिसमें, उनके लिये भी दुआएं मांगती नहीं थकती
जिन्होंने उन्हें सदियों से छला है
उसी तरह वह ग़रीब भूखा और लाचार,
जिसे अपनी ताक़त का पता नहीं है,
ग़लती से ईश्वर की शरण में
जाता रहा है, और क्या चाहिए,
इस ईश्वर को, कि ऐसे आश्रय
जिसमें आना-जाना कुछ नहीं है,
ताना-बाना कुछ नहीं है
वो भी जानता है कि इन्हें, याने ग़रीबों को भी,
अमीर लोगों की तरह ही
जस की तस चदरिया धरनी होगी,
फिर भी तब तक
तसल्ली से भूखा तो मर ही सकता है
तिल तिल कर
जी तो सकता है
राजे भी ख़ुश रहते हैं, ईश्वर से,
क्योंकि, वे जानते हैं
कि ग़रीब, चुप रहेगा, सोचेगा तो,
सिर्फ ईश्वर के बारे में
उसके बारे में नहीं सोचेगा
उसे अपना राज,
अबाध चलाने की सुविधा, यह
ईश्वर ही देता है,
यह ईश्वर जो है नहीं, लेकिन
राजा के लिये,
एक सुविधाजनक छल है और ग़रीब
के लिये दीमक की तरह चाटता छल है
जब यह ग़रीब और
उन औरतों के दुःख एक हो जाएंगे
तब, इस छल की पोल खुलेगी, ताकता रहेगा
राजा
विस्फारित आंखों से दुनिया को, लेकिन
तब यह क़यामत की दुनिया होगी !
- प्रमोद बेड़िया
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