इस देश के मूलवासी – आदिवासी, तमाम कायर, अकर्मण्य लोगों के अकर्मण्यता की कीमत अपने खून से चुका रहे हैं. देश के देशी-विदेशी गठजोड़ से संचालित देश के संसाधनों की लूट के खिलाफ एकमात्र आदिवासी ही वह समुदाय है जो पूरी दृढता से जल, जंगल, जमीन की लड़ाई को हमेशा से जारी रखे हुए हैं, चाहे वह बस्तर (छत्तीसगढ़) के आदिवासी हों या गोड्डा (झारखंड) के आदिवासी. चाहे वह तिलकामांझी हो या सिद्धू-कान्हू या फिर बिरसा मुंडा हो.
इसी क्रम में अपने जल-जंगल-जमीन को अडानी जैसे लुटेरों के चंगुल में जाने से बचाने की लड़ाई में गोड्डा के आदिवासियों ने जो शानदार लड़ाई लड़ी है, वह बेमिसाल है. खबर के अनुसार राजमहल कोल परियोजना की अधिगृहीत जमीन का सीमांकन करने पहुंचे पुलिस व जिला प्रशासन के अधिकारियों को लगातार दूसरे दिन भारी विरोध का सामना करना पड़ा. प्रशासन, पुलिस व सुरक्षा बलों के बसडीहा मौजा पहुंचने पर विरोध कर रहे तीन गांव के आदिवासियों ने पथराव शुरू कर दिया और पथराव के साथ पुलिस पर तीर भी चलाये.
इस भारी विरोध के कारण एसडीपीओ शिवशंकर तिवारी सहित पांच भाड़े का पुलिसिया गिरोह के सदस्य घायल हो गया. आदिवासियों के प्रतिरोधी तीर उसके पैर में लगने से हनवारा थाना के कारिंदा असफाक आलम घायल हो गया. इससे बौखलाया पुलिसिया गिरोह के कारिंदों ने आदिवासियों पर जानलेवा हमला कर दिया और आंसू गैस के गोले दागने लगा. इस कार्रवाई में कई ग्रामीण भी घायल हो गये. इसके बाद ग्रामीण और भड़क उठे. ग्रामीणों का कहना था किसी भी हालत में जमीन नहीं देंगे.
मामला क्या है ?
वर्ष 2016 में झारखंड सरकार ने बहुत जोर-शोर के साथ गोड्डा जिले में एक पाॅवर प्लांट स्थापित करने के लिए अडाणी समूह के साथ समझौता किया था, जिसके लिए 10 गांवों की 1364 एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया जाना है. यह स्थिति तब है, जब राज्य सरकार ने ही 2013 में यह कानून बनाया है कि आदिवासियों की जमीन का फैसला ग्राम-सभाएं करेंगी, ऐसे में आदिवासियों की जमीन का जबरन अधिग्रहण अनेक सवाल खड़े करता है.
झारखंड सरकार के इस रवैये पर विरोध के स्वर तेज होने लगे हैं. झारखंड जनाधिकार महासभा ने इस परियोजना की जांच की थी. जांच में यह बात सामने आई कि सरकार जमीन अधिग्रहण करने के लिए अपने ही सभी नियमों व व्यवस्थाओं को तोड़ रही है. साथ ही विरोध करने वालों पर झूठे मुकदमे लादकर खामोश करने का प्रयास कर रही है. इसी बीच आदिवासियों का जमीन छीनने पहुंची पुलिसिया गिरोह के साथ ग्रामीण आदिवासियों का जबरदस्त भिडंत हो गया. ग्रामीण आदिवासियों का स्पष्ट कहना है कि बिना ग्राम सभा के आदेश और पर्याप्त मुआवजा के बिना जमीन नहीं देंगें.
जमीन के जबरन अधिग्रहण के खिलाफ कानूनी लड़ाई
इंडियास्पेंड वेबसाइट की खबर के अनुसार इसके खिलाफ झारखंड के पूर्वी जिले गोड्डा में चार गांवों के सोलह निवासियों ने 4 फरवरी, 2019 को झारखंड हाई कोर्ट का रुख किया था. ग्रामीणों ने भारत के सबसे बड़े समूह, अडानी समूह के लिए 1,032 फुटबॉल मैदानों का आकार के बराबर उपजाऊ भूमि के विवादास्पद अधिग्रहण को रद्द करने की मांग की है. 16 ग्रामीणों की याचिका में आरोप लगाया गया है कि पूरी भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया ‘अवैध और अनियमितताओं से भरी’ हैं.
चल रहा भूमि अधिग्रहण और स्थानीय लोगों की ओर से ताजा कानूनी चुनौती झारखंड (भारत के सबसे गरीब राज्यों में से एक) और शेष भारत के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह पहली बार है, जब राज्य सरकार ने निजी उद्योग के लिए 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून को लागू किया है.
इस बीच, दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संस्था ‘एनवायरनिक्स ट्रस्ट ’के एक वैज्ञानिक राममूर्ति श्रीधर ने इस भूमि पर आने वाले अडानी समूह की थर्मल पावर परियोजना के लिए पर्यावरणीय स्वीकृति को चुनौती देते हुए ‘नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल’ (एनजीटी) का रुख किया है. याचिका में कई आधारों का हवाला दिया गया है, जिसमें क्लीरन्स के बाद प्लांट के लिए पानी के स्रोत को चीर नदी से गंगा नदी तक स्विच करना शामिल है.
विवादास्पद परियोजना मई 2016 में, भारत के सबसे अमीर और सबसे शक्तिशाली पुरुषों में से एक, गौतम अडानी के नेतृत्व में अडानी समूह ने झारखंड सरकार से गोड्डा के 10 गांवों से 2,000 एकड़ (जो मुंबई के डाउनटाउन नरीमन पॉइंट व्यापार जिले से 95 गुना ज्यादा) के करीब जमीन का अधिग्रहण करने के लिए कहा, जिससे आयातित कोयले से 1,600 मेगावाट बिजली प्लांट का निर्माण किया जा सके. अडानी समूह गोड्डा में उत्पादित बिजली बांग्लादेश को बेचेगा.
मार्च 2017 में, सरकार ने कहा कि वह छह गांवों (माली, मोतिया, गंगा, पटवा, सोंडीहा और गायघाट) में 917 एकड़ जमीन का अधिग्रहण करेगी. अब तक, सरकार ने 16 याचिकाकर्ताओं में से चार के गांवों (माली, मोतिया, गंगटा और पटवा) में 500 एकड़ निजी भूमि का अधिग्रहण किया है.
जमीन अधिग्रहण पर सवाल उठाए 16 ग्रामीण, जिन्होंने हाई कोर्ट का रुख किया है, वे संथाल आदिवासी, दलित और अन्य पिछड़ी जाति के समुदायों से हैं और इनमें सेवानिवृत्त शिक्षक, किसान, बटाईदार और कृषि कर्मचारी शामिल हैं. याचिकाकर्ताओं ने कहा कि उन्होंने और अन्य प्रभावित ग्रामीणों ने ‘भूमि अधिग्रहण में अवैधता को उजागर करते हुए अलग-अलग अधिकारियों को कई पत्र लिखे थे और भूमि के अधिग्रहण का विरोध किया था, लेकिन कहीं से एक भी प्रतिक्रिया / जवाब नहीं मिला था.’ दु:खी होकर अब वे अदालत का दरवाजा खटखटा रहे हैं.
आदिवासियों के खिलाफ दर्ज किया गया आपराधिक मुकदमा
याचिकाकर्ताओं में गंगटा के संताली किसान सूर्यनारायण हेम्ब्रम शामिल हैं. जब हेम्ब्रम और अन्य ग्रामीणों ने जुलाई 2018 में अपनी भूमि के जबरन अधिग्रहण का विरोध किया, तो अडानी समूह के कर्मियों ने उनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज कराए – जिनमें दंगा करने, आपराधिक आपराधिक अतिचार और सार्वजनिक शांति भंग करने के आरोप शामिल थे. सूर्यनारायण हेम्ब्रम और अन्य किसानों को अपनी भूमि के अधिग्रहण का विरोध करने के लिए आपराधिक मामलों का सामना करना पड़ रहा है. हेम्ब्रम उन याचिकाकर्ताओं में से एक हैं जिन्होंने हाई कोर्ट का रुख किया है.
भूमि अधिग्रहण अडानी समूह के निजी लाभ के लिए
अपनी याचिका में, ग्रामीणों ने कहा कि वे चाहते हैं कि अदालत जमीन अधिग्रहण को कई आधारों पर रद्द कर दे, जिसमें शामिल हैं –
राज्य सरकार अडानी समूह के लिए किसानों से भूमि प्राप्त कर रही है, इसे ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ परियोजना कह रही हैं, लेकिन यह वर्गीकरण त्रुटिपूर्ण है. चूंकि समूह गोड्डा में उत्पन्न पूरी बिजली बांग्लादेश को बेच देगा, इसलिए भूमि अधिग्रहण अडानी समूह के निजी लाभ के लिए है.
भूमि अधिग्रहण की लागत और लाभों का आकलन करने के लिए सामाजिक प्रभाव आकलन (SIA) ‘मौलिक रूप से त्रुटिपूर्ण’ है. इनमें से कुछ त्रुटियां हैं, जैसे कि प्रभावित लोगों की संख्या को कम करके ‘गलत तरीके से दावा करना’ कि कोई विस्थापन नहीं होगा. ग्रामीणों की लागत का विश्लेषण नहीं करना, जैसे कि भूमि और खेती की आजीविका का नुकसान और गांवों में सामुदायिक संपत्ति, जिसमें चारागाह और जल निकाय शामिल हैं और ग्रामीणों के राय की अनदेखी करना, जिन्होंने भूमि अधिग्रहण परियोजना के बारे में महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं. जबकि एसआईए स्वतंत्र एजेंसी द्वारा चलाया जाता है, मुंबई स्थित परामर्शदाता फर्म, एएफसी इंडिया लिमिटेड, जिसे यह कार्य दिया गया था. एसआईए को तैयार करने के लिए प्रभावित लोगों के साथ विस्तृत साइट का दौरा और बैठकें नहीं की गई, और एक तरीके से कंपनी का समर्थन करने के लिए काम किया गया.
परियोजना के लिए 2016 में आयोजित सार्वजनिक सुनवाई ‘स्वतंत्र और निष्पक्ष’ नहीं थी. कई ग्रामीणों को इसमें शामिल होने से रोक दिया गया था और पुलिस द्वारा लाठीचार्ज किया गया. विभिन्न अधिग्रहण प्रक्रियाओं और सुरक्षा उपायों के इर्द-गिर्द दस्तावेजों और अधिसूचनाओं का सार्वजनिक रूप से खुलासा नहीं किया गया है, और प्रभावित लोगों को उपलब्ध नहीं कराया गया है, जैसा कि सरकार को कानून के तहत करना आवश्यक है.
80 फीसदी भूमिधारकों की सहमति नहीं ली गई
80 फीसदी भूमिधारकों की सहमति नहीं ली गई है, जैसा कि इसे एलएआरआर (LARR) अधिनियम के तहत होना चाहिए. याचिका में भूमि अधिग्रहण का विरोध करने वाले 400 भूस्वामियों द्वारा प्रतिनिधित्व का उल्लेख किया गया है; 2017 में ये प्रतिनिधित्व राज्य सरकार और झारखंड के राज्यपाल को सौंपे गए थे. राज्य सरकार ने ग्राम सभा की ‘सहमति के बिना’ अडानी समूह के लिए गांवों की सामुदायिक भूमि का अधिग्रहण किया है. अधिग्रहण ‘संताल परगना टेनेंसी एक्ट-1949’ का उल्लंघन करता है, इस कानून का लक्ष्य किसानों से भूमि के हस्तांतरण पर कई प्रतिबंध लगाकर आदिवासियों के हक की रक्षा करना था.
मोतिया गांव की एक दलित महिला किसान, सुमित्रा देवी ने आरोप लगाया था कि सरकार ने फरवरी 2018 में उसकी जमीन जबरन अधिग्रहित कर लिया था और तब से उसकी जमीन अडानी समूह के कब्जे में है. कुछ दिनों बाद उनकी मृत्यु हो गई. अब उनके पति रामजीवन पासवान इन याचिकाकर्ताओं में शामिल हैं. पासवान ने कहा, ‘भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में जालसाजी, झूठ और धमकी शामिल हैं. इसके लिए कुछ जवाबदेही होनी चाहिए.’
याचिकाकर्ता अदालत से कृषि और सामान्य भूमि के अधिग्रहण पर रोक लगाने के लिए कह रहे हैं और किसान मालिकों के लिए अब तक अधिगृहित भूमि की वापसी का आदेश चाहते हैं, जिनमें से कई के लिए जमीन आजीविका का एकमात्र स्रोत है. वे अडानी समूह द्वारा वर्तमान में चल रही सभी निर्माण गतिविधियों पर रोक लगाने की मांग कर रहे हैं. रांची में रहने वाली वकील सोनल तिवारी ने ग्रामीणों का प्रतिनिधित्व करते हुए कहा था –
‘कंपनी को ग्रामीणों से सीधे संपर्क करना चाहिए था और अगर वे अपनी जमीन बेचना चाहते हैं तो वे फैसला करते. लेकिन सरकार ने अडानी समूह को लाभ पहुंचाने के लिए 2013 के कानून का ‘दुरुपयोग’ किया. जबकि अधिकारी सरकारी जमीन को पट्टे पर दे रहे हैं, किसानों की जमीन के मामले में वे कंपनी को मालिकाना हक दे रहे हैं, जिससे ग्रामीणों को जमीन वापस न मिल सके.
इस बीच, एनजीटी में 6 फरवरी, 2019 को दायर एक याचिका में वैज्ञानिक श्रीधर ने पर्यावरण मंत्रालय, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा अगस्त 2017 में इस पावर प्लांट को दी गई पर्यावरण मंजूरी को चुनौती दी थी. अडानी समूह ने 36 मिलियन क्यूबिक मीटर प्लांट की वार्षिक आवश्यकता के लिए जल स्रोत के रूप में गोड्डा की चीर नदी का हवाला देते हुए परियोजना के लिए पर्यावरणीय मंजूरी प्राप्त की. अब यह कहता है कि इसके बजाय यह साहिबगंज जिले से सटे गंगा नदी से पानी खींचेगा. यह 92 किलोमीटर की पानी की पाइपलाइन के लिए 460 एकड़ से अधिक भूमि पर उप-सतही अधिकार भी चाहता है.
श्रीधर की याचिका में कहा गया है कि, ‘गंगा नदी से पानी की निकासी का उल्लेख कभी भी ईआईए (पर्यावरण प्रभाव आकलन) में नहीं किया गया था या सार्वजनिक सुनवाई के दौरान या ईएसी (पर्यावरण मूल्यांकन समिति) से पहले किसी भी बैठक में, जहां परियोजना मूल्यांकन के लिए विचार किया गया था, जनता के सामने नहीं रखा गया. इसलिए, पर्यावरणीय मंजूरी (ईसी) के बाद परियोजना के प्रस्तावक ने परियोजना के एक महत्वपूर्ण पहलू का दायरा पूरी तरह से बदल दिया है.’
याचिका में तर्क दिया गया कि यह दिखाने के लिए कि गोड्डा की चीर नदी में ‘पर्याप्त पानी’ है, कंपनी ने ‘गलत आंकड़े’ दिए, ताकि परियोजना के लिए ‘शीघ्र स्वीकृति’ सुरक्षित हो सके. परियोजना के ईआईए रिपोर्ट में किए गए दावों का विश्लेषण और सत्यापन करने के लिए नियामक अपने कर्तव्य में विफल रहे.
इस याचिका में कहा गया है कि मंत्रालय के पर्यावरणीय प्रभाव आकलन नियमों के प्रावधान 8.1.vi के अनुसार पर्यावरणीय मंजूरी को खारिज कर दिया जाना चाहिए, जो कि गलत या भ्रामक आंकड़ों को दिखाने और प्रस्तुत करने से संबंधित है. याचिका में परियोजना को चुनौती देने के लिए अन्य आधार भी शामिल हैं, जिसमें थर्मल पावर प्लांट लगाने के लिए सरकार के अपने दिशानिर्देशों का उल्लंघन भी शामिल है; ये बताते हैं कि कोई भी कृषि भूमि को औद्योगिक स्थल में नहीं बदला जाएगा. गोड्डा में, प्लांट उपजाऊ, सिंचित, बहु-फसल भूमि पर आ रहा है, और 97 फीसदी ग्रामीण अपनी आजीविका के लिए साल भर कृषि पर निर्भर हैं.
याचिका में कहा गया है, ईआईए रिपोर्ट स्थानीय समुदायों और कृषि उत्पादकता पर थर्मल पावर प्लांट के प्रभाव के बारे में चुप है. ईआईए और निकासी प्रक्रिया वायु प्रदूषण, संयंत्र उत्सर्जन, भूजल और फ्लाई ऐश भंडारण और निपटान के साथ बिजली प्लांट के अन्य प्रभावों का पर्याप्त रूप से विश्लेषण करने में विफल रहे हैं. याचिका में यह भी तर्क दिया गया है कि परियोजना के संबंधित पहलुओं के कई पर्यावरणीय प्रभाव हैं, जिनकी ईआईए और मंजूरी ने अनदेखी है, इनमें शामिल हैं –
- प्लांट से बांग्लादेश तक बिजली पहुंचाने के लिए 120 किलोमीटर की ट्रांसमिशन लाइन, जो वन भूमि को काटेगी.
- मौजूदा रेल नेटवर्क से प्लांट के लिए कोयले का परिवहन करने के लिए 45 किलोमीटर लंबी रेलवे लाइन.
- कोयले की ढुलाई के लिए रेलवे लाइन से प्लांट तक 10 किलोमीटर की सड़क.
ग्रामीणों ने आरोप लगाया है कि पिछले साल से चल रहे प्लांट निर्माण में पहले ही क्षेत्र के भूजल को लिया जा रहा था, और इससे उनके जलस्रोत सूख रहे थे.
आदिवासियों के सामने विकल्प क्या है ?
अडानी के निजी लाभ के लिए अधिग्रहित किये जा रहे हजारों एकड़ जमीन से आदिवासियों को उजारने के लिए चलाये जा रहे पुलिसिया गिरोह के खिलाफ कोई भी कोर्ट खड़ा नहीं होगा. इसके लिए देशभर में चलाये जा रहे शांतिपूर्ण आन्दोलन और कोर्ट में जारी रखा गया कानूनी प्रक्रिया निर्थकता से अधिक और कुछ भी नहीं है. यह सरकार, यह कोर्ट और उसकी पुलिसिया गुण्डावाहिनी न केवल आदिवासियों के ही खिलाफ है अपितु शोषण और लूट का बुनियाद भी प्रदान करता है.
ऐसे में केवल और केवल देश के आदिवासियों समेत तमाम मेहनतकश जनता की एकता ही एकमात्र विकल्प है, जिसके सहारे जल, जंगल, जमीन के लूट की इस लड़ाई को जीत में बदला जा सकता है. इसके लिए एकमात्र भाकपा माओवादी ही वह पार्टी है जिसके नेतृत्व में भाड़े के हत्यारे पुलिसिया गिरोह के खिलाफ तीर-धनुष से शुरु हुई इस लड़ाई को रायफल से भी आगे ले जाते हुए सत्ता पर कब्जा करने की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है और तभी जल, जंगल, जमीन की समस्या का असली निदान किया जा सकेगा.
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