पेरिस कम्यून की दर्दनाक पराजय से सबक लेकर रुसी क्रान्ति ने दुनिया के सर्वहाराओं के सपनों को पंख लगा दिया. इसी कड़ी में भारत जैसे देशों की मेहनतकश जनता के बीच 1949 की चीनी क्रान्ति ने आशाओं की बुझती आंखों में मशाल को जला दिया. तेलंगाना किसान आंदोलन लगभग चीन के इसी रास्ते पर आगे बढ़ चली लेकिन संशोधनवादी (गद्दार) नेतृत्व व अन्य कारणों ने तेलंगाना आंदोलन को ध्वस्त कर दिया, लेकिन एकबार फिर नक्सलवादी आंदोलन ने भारत के मेहनतकश जनता में आशाओं की उम्मीद जगा दी.
चूंकि चीन की परिस्थिति भारत की परिस्थितियों से काफी हद तक मेल खाता है, इसलिए भारत के कम्युनिस्ट क्रांतिकारी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से इतना अधिक प्रभावित हुई कि उन्होंने चीन के अध्यक्ष माओ को ही अपना अध्यक्ष घोषित कर चारु मजुमदार के नेतृत्व में नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन शुरु कर दिया. माओ के अध्यक्षाधीन चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने माओ को अध्यक्ष बनाने का आलोचना करते हुए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी दिया, जो ‘भारत में वसंत का वज्रनाद’ शीर्षक लिखा गया लेख था.
हलांकि भारत में कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों द्वारा शुरू किया गया नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन जल्दी ही पूरी निर्ममता से सरकार द्वारा कुचल दिया गया, लेकिन तब तक यह समूचे भारत में फैल गया था. आज 50 साल बाद कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों ने एक मजबूत पार्टी (सीपीआई-माओवादी) का गठन कर गुरिल्ला जनफौज (पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी-पीएलजीए) का निर्माण कर लिया है और भारत सरकार से दो-दो हाथ कर रहा है.
देश की मेहनतकश जनता की उम्मीद बनी यह पार्टी जिस तरह चीन से काफी कुछ सीखा, उसमें एक महत्वपूर्ण चीज देश के युवाओं, पत्रकारों, लेखकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों को अपनी ओर आकर्षित करना भी शामिल था. चीन में जिस तरह इन्हें आंदोलनरत गांवों, या कहें मुक्त आधार क्षेत्रों में उन्हें जाने, समझने, सीखने के लिए प्रेरित किया, ठीक उसी तर्ज पर भारत में भी बड़े पैमाने पर छात्र, युवाओं, बुद्धिजीवियों को ‘गांव चलो अभियान’, या ‘चलो गांव की ओर’ का अभियान आयोजित किया.
चूंकि भारत में अब तक माओवादी आंदोलनकारियों का कोई आधिकारिक आधार इलाका नहीं है, फिर भी माओवादियों के इस अभियान ने माओवादी आंदोलन को विकसित होने या स्थापित होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया है. हजारों हजार युवा, छात्र ने इस अभियान में भाग लेकर खुद को इस आंदोलन से जोड़ लिया है. कहना न होगा, किसी भी आंदोलन का रीढ़ यही छात्र, युवा तबका होता है जो आंदोलन को नये नये तरीकों से विकसित होने, शासक वर्गों के दमन का मुकाबला करने के लिए नये नये तरीके खोज निकालते हैं. आज भारत में येनान जाओ के परिपेक्ष्य में ‘दण्डकारण्य जाओ’ का अभियान जोरों पर है.
इसी कारण हम यहां एक महत्वपूर्ण लेख साझा कर रहे हैं, जो चीन में ‘येनान चलो’ अभियान के दौरान चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने निरंतर चलाया था, और यह अभियान देश में चल रहे क्रांतिकारी आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया था. यह लेख हम ”ट्राइकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान’ वेबसाइट से साभार ले रहे हैं. इस लेख में भारत के संदर्भ में कुछ कमियां हैं, मसलन, ‘रेड बुक’ नाम से कुख्यात माओ के कोटेशन बुक की प्रशंसा की गई है, जिसने भारत में क्रांतिकारी आंदोलन को भारी नुकसान पहुंचाया है. पाठकों के सामने हम यह महत्वपूर्ण लेख प्रस्तुत करते हैं.
इसी के साथ हम अपने पाठकों को साफ बताना चाहेंगे कि माओ त्से-तुंग की 1976 में मृत्यु के साथ ही चीन ने समाजवादी रास्ता छोड़कर कर सामाजिक साम्राज्यवाद के तौर पर पतित हो चुका है. अब हम दुनिया के किसी भी देश में चल रहे कम्युनिस्ट क्रांतिकारी आंदोलन को समर्थन देने के बजाय, शोषण का औजार विकसित कर लिया है – सम्पादक
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का आधार क्षेत्र येनान कल्पना, प्रयोग और एक नए समाज तथा एक नए मनुष्य के निर्माण का शाब्दिक एवं प्रतीकात्मक मंच था. इस मंच पर किसान, श्रमिक, और सैनिक इतिहास को आगे बढ़ाने वाले अभिनेता और अपने द्वारा लिखी, गाई, नाटक के रूप में दिखाई गई और जी गई कहानियों के नायक बनें. इस डोज़ियर में शामिल चित्र ‘येनान दशक‘ (1935-1945) के दौरान की रोज़मर्रा व सांस्कृतिक ज़िंदगी की तस्वीरों के कोलाज हैं.मेरे दिल, इतनी तेज़ न धड़क.
सड़क की धूल, मेरी नज़रों को धुंधला मत कर…
मैंने मुट्ठी में पीली मिट्टी भर ली है और उसे छोडूंगा नहीं,
इसे कस कर पकड़ लिया है, अपने सीने से लगा लिया है.
कई बार मैंने येनान लौटने का सपना देखा,
सपने में मेरी बांहें पगोडा हिल से लिपट जाती हैं.
हज़ारों–हज़ार बार मैंने तुम्हें पुकारा,
– येनान माता अभी यहां है, ठीक यहीं !
डू फू क्रीक गाती है, और विलो ग्रोव गांव मुस्कुराता है,
लहराते लाल झंडे मुझे अपनी ओर बुला रहे हैं.
उनके गले में सफ़ेद गमछे और कमर पर लाल पट्टी,
मेरे प्यारे लोग मुझसे मिलते हैं,
मुझे यान नदी के उस पार ले जाते हैं.
मैं उनकी बांहों में समा जाता हूं,
मेरी बाहें फैली हुई हैं,
मैं बहुत कुछ कहना चाहता हूं,
मेरी ज़बान मेरा साथ नहीं देती.
– हे जिंग्ज़ी, रिटर्न टू येनान (1956) का अनुवाद.
2 मई 1942 को दोपहर डेढ़ बजे का समय था. उस दिन उत्तर–मध्य चीन में स्थित कम्युनिस्ट क्रांतिकारी आधार वाले शहर येनान में ठंडक से लबरेज़ वसंत का मौसम था. केंद्रीय पार्टी कार्यालय, जिसे ‘हवाई जहाज़‘ उपनाम से पुकारा जाता था, शहर की एकमात्र तीन मंज़िला इमारत में स्थित था. मुख्य हॉल में काफ़ी चहल–पहल थी, सामान्य दिनों में जो डाइनिंग फ़र्नीचर ख़ाली रहता था आज उसके इर्द गिर्द दो बेंच लगा दी गई थी, जिसके साथ ही एक डेस्क भी सजा दिया गया था; माओत्से तुंग जब अपने नियत समय पर हॉल में पहुंचे तो ये हॉल उनके स्वागत के लिए पूरी तरह से तैयार था. उपस्थित लोग ‘वर्तमान साहित्यिक और कलात्मक आंदोलन के विभिन्न पहलुओं पर विचारों के आदान–प्रदान के लिए जमा हुए थे.[1]
हालांकि प्रतिभागियों की सटीक संख्या दर्ज नहीं की गई थी, मगर इस बैठक से कई दिन पहले प्रोपगैंडा विभाग के कार्यवाहक प्रमुख और बैठक के अध्यक्ष काई फेंग द्वारा एक सौ से अधिक निमंत्रण भेजे गए थे. यह निमंत्रण गुलाबी काग़ज़ पर छपा था, जो काग़ज़ येनान में नहीं बनता था, इससे इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इस बैठक का चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) के शीर्ष नेतृत्व के लिए क्या महत्व था. देश के प्रमुख बुद्धिजीवी, सैन्य कमांडर, राजनीतिक कैडर तथा प्रकाशन, शोध, समाचार पत्र, फ़िल्म, फ़ोटोग्राफ़ी, नाटक, कविता आदि कला व साहित्यिक कार्यों के प्रतिनिधि और युवा इकाइयां सभी एक साथ एकत्रित थे.
सम्मेलन से पहले के महीनों में, वामपंथियों की अलग–अलग कलात्मक और साहित्यिक धाराओं के बारे में जानकारी हासिल करने और उस समय के तात्कालिक सांस्कृतिक प्रश्नों की पहचान हेतु माओ ने व्यक्तिगत रूप से दर्जनों पत्र लिखे और प्रमुख बुद्धिजीवियों से मिलकर बातचीत की. एक राजनीतिक नेता होने के अलावा, माओ, आख़िरकार एक कवि थे, जिनकी अपनी रचनाओं ने चीनी कम्युनिस्ट आंदोलन के जन्म और उत्थान का व्यापक चित्रण किया था. उनकी कविताओं ने कई लड़ाइयों और मोर्चो, जीत और हार के दृश्यों को चित्रित किया, जिनमें उनके द्वारा जिंगजांग पर्वत में स्थापित कम्युनिस्ट आधार कैम्प से लेकर लाल सेना की पश्चिम की ओर ऐतिहासिक लॉन्ग मार्च जैसी घटनाओं का वर्णन शामिल है.
येनान काल (1935-1945) के दौरान उन्होंने सैद्धांतिक और व्यावहारिक लेखन में इन अनुभवों को संक्षेप में प्रस्तुत किया, जिन्हें आगे चलकर माओत्से तुंग विचार के रूप में जाना गया. वहां, प्रतिष्ठित मेहराबों वाली गुफाओं में रहते हुए, माओ ने सैन्य रणनीति से लेकर दर्शन, पार्टी–निर्माण से लेकर राजनीतिक अर्थव्यवस्था, भूमि सुधार से लेकर अंतर्राष्ट्रीयतावाद तक के विषयों का अध्ययन किया और लिखा. इनमें क्रांतिकारी संघर्ष को आगे बढ़ाने में कला और साहित्य की भूमिका का व्यवस्थित विश्लेषण भी शामिल था, जिसे साहित्य और कला पर येनान फ़ोरम में वार्ता (Talks at the Yan’an Forum on Literature and Art) में संक्षेप में प्रस्तुत किया गया था. इस रचना में, जो येनान फ़ोरम के एक वर्ष बाद प्रकाशित हुई थी, माओ और अन्यों ने साम्यवादी सांस्कृतिक और वैचारिक कार्यों के अपने वर्षों के अनुभव और प्रयोग का निचोड़ प्रस्तुत किया.
1942 में उस दोपहर पार्टी कार्यालय में काई ने आधिकारिक तौर पर तीन सप्ताह तक चली बैठक के तीन प्लेनरी सत्रों में से पहले सत्र की शुरुआत की. प्रत्येक प्लेनरी सत्र में उठाए जा रहे बिंदुओं के बारे में कमरे में पीछे की तरफ़ रखे एकमात्र डेस्क पर बैठे माओ लगातार नोट्स ले रहे थे. इस सम्मेलन के ठीक बाद वार्ता (Talks) नाम से प्रकाशित रचना इन्हीं हस्तक्षेपों और बातचीत के आधार पर लिखी गई थी.
माओ ने अपने शुरुआती संबोधन में कहा, ‘आज की हमारी बैठक का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि साहित्य और कला क्रांतिकारी मशीन में एक पुर्ज़े के रूप में इतनी अच्छी तरह से फ़िट हो जाएं कि वह लोगों को एकजुट करने और उन्हें शिक्षित करने के लिए तथा दुश्मन पर हमला करने और उसे नष्ट करने के लिए शक्तिशाली हथियार के रूप में काम करें.’
दुश्मन का अर्थ समझाने के लिए माओ ने राजनीतिक स्थिति का विश्लेषण पेश किया, जो कि ‘वस्तुनिष्ठ तथ्यों से शुरू हुआ… : जापान के ख़िलाफ़ प्रतिरोधात्मक युद्ध जिसे चीन पांच साल से लड़ रहा है; विश्वव्यापी फ़ासीवाद–विरोधी युद्ध; प्रतिरोधात्मक युद्ध में चीन के बड़े ज़मींदार और बुर्जुआ वर्ग का ढुलमुल रवैया तथा उनके द्वारा जनता पर किए जाने वाले घोर अत्याचार की उनकी नीति.’
माओ ने इस बात को रेखांकित किया कि साम्राज्यवादी आक्रमणों और जापानी क़ब्ज़े की एक सदी से उत्पन्न असंतोष और दु:ख के परिणामस्वरूप चीन में क्रांतिकारी स्थितियां पैदा हुई हैं; यह देखना बाक़ी है कि क्या राजनीतिक ताक़तें चीनी अभिजात वर्ग को पीछे धकेल पाने में सक्षम होंगी और क्या वे एक स्वतंत्र एजेंडा आगे बढ़ा सकेंगी. आधार क्षेत्रों का निर्माण और लेखकों, कलाकारों तथा अन्य बुद्धिजीवियों सहित इन क्षेत्रों में बढ़ता लोकप्रिय समर्थन क्रांतिकारी विकास का एक उदाहरण था. माओ ने कहा कि, ‘चीनी जनता की मुक्ति के हमारे संघर्ष में कई मोर्चे हैं, जिनमें क़लम और बंदूक़ के मोर्चे हैं, [यानी] सांस्कृतिक और सैन्य मोर्चे.[2]
उन्होंने स्वीकार किया कि पार्टी में वैचारिक एकता पैदा किए बिना और सर्वहारा व्यक्तिपरकता को क्रांतिकारी कार्य के केंद्र में रखे बिना केवल सैन्य विजय अपने आप में अपर्याप्त रहेगी. ‘बंदूक़ों वाली सेना‘ और ‘सांस्कृतिक सेना‘ ने एक दूसरे के लिए पूरक का काम किया: युद्ध क्षेत्र की लड़ाई और लोगों के दिल और दिमाग़ जीतने की लड़ाई लड़ी. सांस्कृतिक कार्य इस वैचारिक परिवर्तन के लिए महत्वपूर्ण था, यह सुनिश्चित करने के लिए कि श्रमिक, किसान और सैनिक ख़ुद को अपनी कहानियों और इतिहास के नायक के रूप में देखने लगें.
इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए माओ ने पांच कलात्मक और साहित्यिक ‘समस्याओं‘ को संबोधित किया; ये समस्याएं थीं पक्ष, दृष्टिकोण, दर्शक, कार्य और अध्ययन. पहले बिंदु के बारे में माओ ने तर्क दिया कि सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं को एक ‘वर्गीय स्टैंड‘ लेना चाहिए – एक ऐसा स्टैंड जो मज़बूती से जनता का पक्ष लेता हो – जिसमें कलाकार भी ख़ुद को एक संघर्षरत कार्यकर्ता के रूप में देखता है.
‘दृष्टिकोण‘ और ‘दर्शक‘ के संबंध में माओ ने सही दृष्टिकोण पर विस्तार से विचार किया कि कैसे कलाकारों और लेखकों द्वारा ‘प्रशंसा‘ और ‘निंदा‘ की जानी चाहिए. एक तरफ़ यह विचार था कि लोगों के संघर्षों, आकांक्षाओं और ‘उजास‘ की प्रशंसा की जाए. दूसरी ओर, ‘अंधेरे को बेनकाब़‘ करना भी आवश्यक था, और दुश्मन की आलोचना करना तथा जापानी क़ब्ज़े का विरोध करने के लिए संयुक्त मोर्चे के सहयोगियों की कमियों की तरफ़ इशारा करना भी.
अपने शुरुआती संबोधन में माओ ने येनान में उभरकर सामने आईं व येनान फ़ोरम की आवश्यकता का कारण बनीं कुछ प्रमुख बहसों पर प्रकाश डाला. उन्होंने शहरी बुद्धिजीवियों और छात्रों के नेतृत्व में एक साम्राज्यवाद–विरोधी और सामंतवाद–विरोधी जागृति के रूप में उभरे 1919 के 4 मई आंदोलन की पीढ़ी की आलोचना भी की, जिनका उस विद्रोह के दौरान राजनीतिकरण हुआ लेकिन जिनमें से कई अब येनान में थे. हालांकि उन्होंने राष्ट्रीय चेतना और एक नये सांस्कृतिक आंदोलन के निर्माण में मदद की थी, लेकिन अधिकांश लोग और बहुसंख्यक किसान उनके काम से अनभिज्ञ थे. क्योंकि माओ कहते हैं, वे ‘जनता की समृद्ध और जीवंत भाषा‘ में नहीं बोलते थे.
दो दशक बाद, अब देश एक नये राजनीतिक मोड़ पर खड़ा था, जिसके लिए एक अलग तरह के सांस्कृतिक उत्पादन और एक नये तरह के बुद्धिजीवी की आवश्यकता थी. केवल ग्रामीण इलाक़ों में काम करके और ख़ुद को –मानसिक व शारीरिक दोनों रूप से– पूरी तरह झोंककर ही ये शहरी बुद्धिजीवी ख़ुद को क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं में बदल सकते थे तथा वास्तव में लोगों की सेवा कर सकने वाली कलात्मक रचनाएं उत्पन्न कर सकते थे. माओ ने कहा, इसके लिए ‘भावनाओं के परिवर्तन, एक वर्ग से दूसरे वर्ग में परिवर्तित होने’ की आवश्यकता है.
माओ जिन सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं को संबोधित कर रहे थे और वे कार्यकर्ता येनान क्यों आए थे, इसे समझने के लिए हमें यह देखना होगा कि यह शहर कम्युनिस्ट आंदोलन का केंद्र कैसे बना. हज़ारों लेखक, कलाकार और बुद्धिजीवी येनान गए थे और क्रांतिकारी सांस्कृतिक कार्यों की विभिन्न अवधारणाओं और प्रथाओं को अपने साथ लाए थे. येनान फ़ोरम ने विविधता और विचलन के माहौल में स्पष्टता और एकता लाने की कोशिश की.
येनान जाओ !
‘पिताजी, मुझे यह घर छोड़ना है, लेकिन मुझे यहां से जाने के लिए क्या करना चाहिए ?’, 1938 के वसंत में चीन के दक्षिण–पश्चिमी शहर चेंगदू में रहने और पढ़ने वाली सोलह वर्षीय महिला ने लिखा.[3] अपनी मातृभूमि के हालातों को देखते हुए जिस असंतोष और हताशा का उसे सामना करना पड़ रहा था उसका ज़िक्र उसने अपने पत्र में किया. कुछ महीने पहले, बीजिंग के लुगुओ ब्रिज (या मार्को पोलो ब्रिज) पर एक सशस्त्र संघर्ष के साथ दूसरा चीन–जापानी युद्ध शुरू हुआ था; जिसे 7 जुलाई की घटना के रूप में जाना जाता है. चीन पर जापानी आक्रमण और अधिग्रहण –जो 1931 में शुरू हुआ और 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक 14 साल तक चला था– अपने चरम पर था; लाखों चीनी अपनी जान गंवा चुके थे और देश में बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा था.[4] हाई स्कूलों और विश्वविद्यालयों ने अपने छात्र वापस भेज दिए थे; जिनमें से कुछ ने सुरक्षित जगहों पर पनाह ले ली, और बाक़ी उस दौर के प्रतिष्ठित काम ‘राष्ट्रीय मुक्ति‘ के संघर्ष में शामिल हो गए.
किशोर छात्रा आगे लिखती है, ‘तो अब मैं और कहीं नहीं, बस शानबेई (उत्तरी शानक्सी) ही जा सकती हूं. दूसरों के द्वारा चुने गए रास्तों के बारे में सोचते हुए, मैं बहुत लंबे समय से इस पर विचार कर रही हूं कि यह एकमात्र ऐसी जगह है जो मुझे निराश नहीं करेगी और मुझे ज़िंदा रखेगी.'[5] यह नौजवान महिला उन हज़ारों छात्रों और बुद्धिजीवियों में से एक थी, जिन्होंने येनान के कम्युनिस्ट क्रांतिकारी आधार स्थल तक की लंबी यात्रा करने का फ़ैसला किया था.
शानक्सी के उत्तर–मध्य प्रांत के लोएस पठार में स्थित येनान चीनी सभ्यता का एक महत्वपूर्ण स्थल है और चीनी क्रांति का एक पवित्र स्थान भी. येनान की जड़ें 3,000 साल पीछे तक जाती हैं; आबादी के दक्षिण की ओर पलायन से पहले येनान, पीली नदी, प्रसिद्ध पीली पृथ्वी और पौराणिक पीले सम्राट का एक प्राचीन केंद्र था.[6] 1937 में जब कम्युनिस्टों ने इसे अपनी राजधानी बनाया, तब तक यह ‘लगभग 10,000 की आबादी वाला ग़रीब, धूल भरा और सुदूर सीमांत शहर‘ बन चुका था.[7] नाज़ी जर्मनी के समर्थन में जब राष्ट्रवादी पार्टी बलों (कुओमिन्तांग या केएमटी) ने एक अभियान के तहत कम्युनिस्टों को घेर कर उनके दक्षिण–पूर्वी जियांग्शी आधार क्षेत्र से पीछे हटाया था तब कम्युनिस्टों की सामूहिक वापसी की विख्यात लॉन्ग मार्च (1934-1935) का गंतव्य स्थल येनान ही था.
लॉन्ग मार्च के बीच में ही, जनवरी 1935 में, ज़ूनी सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसमें सीपीसी के पोलित ब्यूरो के बारह सदस्यों में से छह ने भाग लिया. लाल सेना को भारी नुक़सान हुआ था और उसका मनोबल टूट गया था, और इस निर्णायक बैठक ने माओत्से तुंग को पार्टी तथा सेना के प्रमुख नेता के रूप में स्थापित कर दिया और इसके बाद चीनी क्रांतिकारी प्रक्रिया की कमान उनके हाथों में चली गई.
12 महीने में 9,000 किलोमीटर की यात्रा के दौरान 18 पहाड़ और 24 नदियों को पार करके केवल 8,000 सैनिक येनान पहुंचे.[8] तीन टुकड़ियों में जिन 86,000 लोगों ने येनान तक कि यात्रा शुरू की थी, उनमें से कई भूख से मर गए, कुछ मारे गए, कुछ धोखा दे गए, या थककर हाथ खड़े कर गए. यह ‘आधुनिक समय का एक अद्वितीय ओडिसी (महाकाव्य) था’ एडगर स्नो ने कहा था.[9] स्नो पहले विदेशी पत्रकार थे जिन्होंने येनान की गुफाओं में माओ का साक्षात्कार लिया और अपनी क्लासिक पुस्तक रेड स्टार ओवर चाइना (1937) के माध्यम से दुनिया को कम्युनिस्ट क्रांति के शुरुआती वर्षों के बारे में बताया.
उसी साल, कम्युनिस्टों के आधार शानक्सी–गांसु–निंग्ज़िया सीमा क्षेत्र के बीच स्थित येनान सीपीसी का आधिकारिक केंद्र बना था. इसके बाद के ‘येनान दशक‘ में, ग़रीब, और बेहद सीमित संसाधनों से लैस रैगटैग (साफ़ न दिखने वाले) कम्युनिस्टों ने इस क्षेत्र के लाखों किसानों का समर्थन जीता, शहरों में लोकप्रिय समर्थन प्राप्त किया, अपनी पार्टी की सक्रिय सदस्यता बढ़ाकर 12 लाख तक पहुंचा दी, और लाखों सशस्त्र किसानों के समर्थन के साथ दस लाख से ज़्यादा सैनिकों की लाल सेना का निर्माण किया. 1 अक्टूबर 1949 को, येनान पहुंचने के 14 साल बाद, माओत्से तुंग ने बीजिंग में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना की स्थापना की घोषणा की.[10]
चीन के कम्युनिस्ट आंदोलन के राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में येनान दूर–दराज़ के कलाकारों, लेखकों और शहरी बुद्धिजीवियों को आकर्षित करता था. 1938 में, चित्रकार और शिक्षक वांग शिकोउ ने शीआन से येनान तक पैदल 300 किलोमीटर की यात्रा की, रास्ते में मलेरिया होने के बाद भी. विश्व–प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट बनने से पहले युवा हुआ जुनवु जापानी–क़ब्ज़े वाले शंघाई से निकलकर दक्षिणी चीन के शहर हांगकांग और ग्वांगझू से होते हुए येनान पहुंचा था– अपनी मां को बताए बिना.
उसी वर्ष, 4 मई आंदोलन की पीढ़ी की प्रमुख नारीवादी लेखिका डिंग लिंग कम्युनिस्ट आधार क्षेत्र में पहुंचीं थी. ये सभी कलाकार और लेखक उन 40,000 बुद्धिजीवियों में शामिल थे, जो 1943 तक येनान पहुंचे थे.[11] अक्सर ज़मींदारों, कुलीनों, छोटे व्यापार मालिकों और अमीर किसानों के परिवारों से आने वाले इन बुद्धिजीवियों ने शहर की सुख सुविधाओं को छोड़कर हवा, रेत, बारिश और बर्फ़ आदि से होते हुए हज़ारों किलोमीटर का सफ़र तय किया था.
उन खोजपूर्ण प्रारंभिक वर्षों में सभी प्रकार के सांस्कृतिक संगठनों का गठन, विलय, दोबारा नामकरण और विघटन हुआ. कारख़ानों, स्कूलों, सैन्य इकाइयों और ग्रामीण ठिकानों में कलात्मक और साहित्यिक समूह स्थापित किए गए थे. स्ट्रीट कविता समूहों की स्थापना की गई थी, इनमें से एक समूह के घोषणापत्र में लिखा था कि ‘ग्रामीण इलाक़ों में एक भी दीवार या सड़क के किनारे एक भी चट्टान को मुक्त और ख़ाली न रहने दो … लिखो … गाओ – प्रतिरोध के लिए, राष्ट्र के लिए, जनता के लिए.'[12]
1930 के दशक की शुरुआत में जापानी साम्राज्यवाद के प्रतिरोध में एक शक्ति के रूप में जो नाट्य मंडल उभरे थे, वो अशिक्षित ग्रामीण आबादी द्वारा विशेष रूप से सराहे गए. वे मौखिक रूप से और आम भाषा में वर्तमान समय की सबसे ज़रूरी समस्याओं के बारे में संवाद कर कम्युनिस्ट कार्यक्रम की व्याख्या करने व प्रोपगैंडा को ध्वस्त करने में सक्षम थे; और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि वे लोगों का विश्वास जीतते थे.
1936 में अपनी यात्रा के दौरान, एडगर स्नो ने इन नाट्य मंडलों की प्रतिबद्धता और रचनात्मकता से प्रभावित होकर उन्हें ‘कम्युनिस्ट आंदोलन में प्रचार का सबसे शक्तिशाली हथियार‘ कहा. स्नो के लिए, ‘कला और प्रचार (प्रोपगैंडा) के बीच कोई स्पष्ट विभाजन नहीं है. मानव अनुभव में जो समझ में आता है और जो समझ में नहीं आता है, केवल उसके बीच अंतर है.[13]
हालांकि, इस सांस्कृतिक कार्य में अभी भी शहरी बुद्धिजीवियों का वर्चस्व था, जिसमें कुलीन या औपचारिक शिक्षा प्राप्त पूर्णकालिक और शौक़िया लेखक शामिल थे. इस क्षेत्र में कुछ ही किसान, श्रमिक और सैनिक शामिल थे, और लोक कला के पारंपरिक रूपों को शायद ही कभी प्रदर्शित किया जाता था. हालांकि ये बुद्धिजीवी अच्छे इरादों के साथ आए थे, लेकिन जहां से वे आए थे वहां की ज़िंदगी स्थानीय किसानों की ज़िंदगी से बहुत अलग थी.
‘देश के अन्य हिस्सों से आए लेखकों को लिबरेटेड ज़ोन में रहने की आदत नहीं थी, और इसके साथ तालमेल बिठाने में समय लगता है, इसलिए कुछ विवाद हुए हैं‘, प्रसिद्ध उपन्यासकार, नाटककार, और चीन के जनवादी गणराज्य के संस्कृति मंत्री माओ डन ने इस बात को रेखांकित किया.[14] वो आगे लिखते हैं कि, ‘लेखकों ने येनान को एक आदर्श दुनिया समझ लिया था. उन्हें लगता था कि वहां सब कुछ पर्फ़ेक्ट होगा. लेकिन यहां आने के बाद उन्होंने पाया कि वास्तविकता और आदर्श के बीच में अंतर था, जिसकी वजह से तरह–तरह की टिप्पणियां सामने आई हैं.’
सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं के सामाजिक कार्य और राजनीतिक कर्तव्य के विषय में बुद्धिजीवियों की पार्टी से अलग राय और इसकी वजह से उनके एक वर्ग के भीतर उभरे असंतोष को दर्शाने के लिए ‘टिप्पणियां’ शब्द का उल्लेख किया गया था.
अंधेरे को बेनक़ाब करें या उजाले की तारीफ़ करें ?
येनान फ़ोरम आयोजित होने से पहले के महीनों के दौरान पांच प्रमुख लेखकों ने, जो सभी सीपीसी सदस्य थे, पार्टी के अख़बार, लिबरेशन डेली में निबंधों की एक शृंखला प्रकाशित की. आई किंग, लो फेंग, वांग शिवेई और जिओ जून के साथ ही अख़बार की संपादक डिंग लिंग ने आधार क्षेत्र में पठन सामग्री की कमी, कलात्मक निर्माण के प्रतिकूल परिस्थितियों, सीपीसी नेताओं की विशेष स्थिति और महिलाओं के दोयम दर्जे की आलोचना की.
इन निबंधों के केंद्र में कलात्मक स्वतंत्रता और कलात्मक उत्पादन पर पार्टी के कथित प्रतिबंधों का सवाल था. सवाल था कि क्या कला और साहित्य की भूमिका ‘उजाले की तारीफ़ करना’ –यानी पार्टी और जनता के कार्यों का महिमामंडन करना– है या ‘अंधेरे को उजागर करना’ और चीनी समाज तथा कम्युनिस्ट आंदोलन की समस्याओं की ओर इशारा करना ?[15]
कला और सांस्कृतिक कार्यों के लिए ज़िम्मेदार पार्टी नेता और माओ के एक भरोसेमंद साथी झोउ यांग बहस के दूसरे पहलू का नेतृत्व कर रहे थे. रिमार्क्स ऑन लिटरेचर एंड लाइफ़ (1941) में, झोउ ने उन आलोचनाओं का तीखा खंडन किया:
… इन्हीं गांवों में कलात्मक अभिव्यक्ति के योग्य जीवन और संघर्ष की ताज़ा कहानियां हैं. अगर आपको लगता है कि अब लिखने के लिए कुछ नहीं है, तो जीवन की अपनी तीव्र इच्छा को, अपनी रचनात्मक इच्छा की जगह लेने दें. अपनी गुफाओं से बाहर निकलने और आम लोगों के साथ थोड़ा–सा घुलने मिलने से निश्चित रूप से मदद मिलेगी.[16]
इन बहसों में ही येनान फ़ोरम की ज़रूरत पैदा हुई थी, और फ़ोरम के पहले प्लेनरी सत्र में टिप्पणियां करने के लिए माओ ने प्रमुख विपक्षी आवाज़ जियाओ जून को पहले वक्ता के रूप में आमंत्रित किया था. अगले तीन हफ़्तों के दौरान, कलात्मक क्षेत्रों की अपनी बैठकों में, प्रकाशित लेखों में, और 16 और 23 मई 1942 को आयोजित दो अन्य पूर्ण सत्रों में यह वाद–विवाद जारी रहा. इन बहसों में उठाए गए बिंदुओं को व्यवस्थित और संशोधित किया गया तथा उनपर विचार विमर्श किया गया. एक साल बाद, ‘साहित्य और कला पर येनान फ़ोरम में वार्ता’ पहली बार, प्रभावशाली लेखक और 4 मई आंदोलन के प्रमुख नेता लू शुन की मृत्यु की सातवीं वर्षगांठ, पर प्रकाशित की गई.
प्रकाशित रचना में, निष्कर्ष को पांच खंडों में विभाजित किया गया है, जिसमें पहला खंड इस मूल प्रश्न को संबोधित करता है कि ‘साहित्य और कला किसके लिए ?’ हैं. इसकी प्रेरणा सोवियत नेता व्लादिमीर लेनिन के पार्टी संगठन और पार्टी साहित्य (1905) से ली गई थी, जिसने ‘देश के फूल, उसकी ताक़त और उसके भविष्य –लाखों मेहनतकशों’ की सेवा को ही सांस्कृतिक कार्य के लक्ष्य के रूप में चिह्नित किया था.[17]
माओ ने औद्योगिक श्रमिकों के साथ साथ किसानों, सैनिकों और शहरी पूंजीपतियों को शामिल कर ‘जनता’ की अवधारणा को व्यापक बनाया, और इस प्रकार से बुद्धिजीवियों को जनता के बीच श्रमिकों के रूप में स्थापित किया. दूसरा खंड ‘कैसे सेवा करें’ सवाल पर केंद्रित है, जिसमें क्रांतिकारी विचारों को लोकप्रिय बनाने के साथ ही लोगों के सांस्कृतिक मानकों और साक्षरता को बढ़ाने की आवश्यकता को संतुलित किया गया है. माओ ने लिखा, ‘क्रांतिकारी लेखकों और कलाकारों के रचनात्मक श्रम के माध्यम से लोगों के जीवन में पाया जाने वाला कच्चा माल जनता की सेवा करने वाले वैचारिक साहित्य और कला में रूपांतरित हो जाता है.’ दूसरे शब्दों में, क्रांतिकारी संस्कृति ‘असीमित’ तथा ‘एकमात्र स्रोत’, जनता, से सीख कर उसे ही अपनी मेहनत का फल सौंप देती है.
तीसरा खंड सांस्कृतिक कार्य और समग्र क्रांतिकारी कार्य के बीच के संबंध पर केंद्रित है. इस खंड में इस रचना का वह प्रसिद्ध वाक्यांश है, जिसमें राजनीति से कला के अलगाव, जनता से बुद्धिजीवियों के अलगाव और क्रांतिकारी कार्यों से संस्कृति के अलगाव के ख़िलाफ़ तर्क दिया गया है :
आज दुनिया में, सभी संस्कृति, सभी साहित्य और कला निश्चित वर्गों से संबंधित है और निश्चित राजनीतिक दिशाओं को परिभाषित करते हैं. वास्तव में कला के लिए कला जैसी कोई चीज़ नहीं है, कला जो वर्गों से ऊपर है, या कला जो राजनीति से अलग या स्वतंत्र है. सर्वहारा साहित्य और कला संपूर्ण सर्वहारा उद्देश्य के अंग हैं; जैसा कि लेनिन ने कहा, वे पूरी क्रांतिकारी मशीन के कल–पुर्ज़े हैं.
राजनीति – विशेष रूप से वर्ग राजनीति – को सांस्कृतिक कार्यों के केंद्र में रखकर, माओ ने इस धारणा को दृढ़ता से ख़ारिज कर दिया कि कला और संस्कृति समाज से अलग हो सकती है.
चौथे खंड में, माओ ने सामाजिक व्यवहार और प्रभाव के आधार पर कलात्मक इरादे को आंकने के मानदंड को परिभाषित किया है. माओ के लिए, विरासत में मिले बुर्जुआ, सामंती, उदारवादी और व्यक्तिवादी दृष्टिकोण को उखाड़ फेंकने के लिए मार्क्सवाद का अध्ययन आवश्यक था, ताकि ‘जिस दौरान उन्हें नष्ट किया जा रहा है, उसी दौरान कुछ नया बनाया जा सके.’
अंतिम खंड उन हज़ारों बुद्धिजीवियों की ओर इशारा करता है जो क्रांति की सेवा करने के लिए येनान पहुंचे थे, जिनमें से कई पार्टी में तन से तो शामिल हुए थे लेकिन मन से नहीं. येनान फ़ोरम और उसके बाद प्रकाशित रचना केवल बौद्धिक आलोचकों के एक छोटे समूह के लिए नहीं थे: वे कई पार्टी सदस्यों के भीतर मौजूद ‘ग़ैर–सर्वहारा विचारधारा’ के ख़िलाफ़ इस बड़े वैचारिक संघर्ष का हिस्सा थे.
यह ऐतिहासिक फ़ोरम सुधार आंदोलन (1942-1944) का हिस्सा थी, जिसका उद्देश्य था पार्टी में वैचारिक एकता स्थापित करना और कलाकारों तथा लेखकों के काम और बहुसंख्यक किसानों की वास्तविकताओं के बीच अभी भी मौजूद बड़े अंतर को कम करना.[18] भौतिक परिस्थितियों से बुद्धिजीवियों का अलगाव एक ऐसी समस्या रही है जिसकी खोज मार्क्सवादी परंपरा में बहुत पहले कर ली थी.
कार्ल मार्क्स ने थिसिस ऑन फ़ायरबाख़ (1845) में लिखा, ‘दार्शनिकों ने अब तक केवल विभिन्न तरीक़ों से दुनिया की व्याख्या की है; बात इसे बदलने की है’; आधी सदी बाद, एंटोनियो ग्राम्शी ने एक ‘नये बुद्धिजीवी‘ के निर्माण का आह्वान किया, जो ख़ुद को ‘व्यावहारिक जीवन में सक्रिय भागीदार के रूप में, निर्माता के रूप में, संगठनकर्ता के रूप में, “स्थायी प्रेरक” के रूप में झोंक देगा, न कि केवल एक साधारण वक्ता के रूप में अपनी भूमिका का निर्वाह करेगा.[19]
इसी तरह, माओ का मानना था कि इन ‘नये बुद्धिजीवियों’ को बनाने के लिए, पारंपरिक बुद्धिजीवियों, जैसे वे जो येनान गए थे, को अपने मूल वर्गीय चरित्र को पार करने का संघर्ष करना पड़ेगा.
क्रांतिकारी प्रक्रिया के लिए एक नये बुद्धिजीवी वर्ग के निर्माण की आवश्यकता थी जो ग्रामीण चीन की संस्कृति – दूसरे शब्दों में कहें तो, एक जन संस्कृति, जनता की संस्कृति – में निहित नये क्रांतिकारी विचारों को लेकर लाए. येनान दशक के दौरान, नये बुद्धिजीवियों ने ग्रामीण इलाक़ों में 90 प्रतिशत निरक्षरता दर को कम करने के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रमों और जन साक्षरता अभियानों में भाग लिया. येनान फ़ोरम के समय माओ ने अनुमान लगाया था कि येनान में पहले से ही 10,000 से अधिक कार्यकर्ता ऐसे थे जो पढ़ सकते थे; इस प्रक्रिया के दौरान, उन्होंने अपने आसपास की दुनिया की व्याख्या करने के सीखे–सिखाए तरीक़ों को भुला कर नए तरीक़े सीखे.
इसके साथ साथ, लोगों की सांस्कृतिक शक्ति का निर्माण करना भी ज़रूरी था. इसके लिए ‘मानकों को ऊपर उठाने’ की आवश्यकता थी, जैसा कि माओ ने ‘वार्ता’ में लिखा था : लोगों की सांस्कृतिक साक्षरता को बढ़ाने के साथ उनकी क्रांतिकारी चेतना को भी जागृत करना. हालांकि, एक नयी लोकप्रिय संस्कृति का निर्माण रातोंरात नहीं हो सकता था.
रूसी क्रांति के बाद के शुरुआती वर्षों में, लेनिन ने श्रमिकों की शक्ति के निर्माण के संबंध में इसी तरह के एक प्रश्न पर विचार किया था :
सोवियत सत्ता कोई चमत्कार करने वाला तावीज़ नहीं है. यह रातोंरात अतीत की सभी बुराइयों – निरक्षरता, संस्कृति की कमी, बर्बर युद्ध के परिणाम, लुटेरे पूंजीवाद के दुष्परिणामों– को ठीक नहीं कर सकती है. लेकिन यह समाजवाद का मार्ग प्रशस्त करती है. यह अभी तक उत्पीड़ित रहे लोगों को अपनी पीठ सीधी करने का मौक़ा देती है और उनके लिए देश की पूरी सरकार, अर्थव्यवस्था के पूरे प्रशासन, उत्पादन के पूरे प्रबंधन को अपने हाथों में लेने की संभावना को लगातार बढ़ाती है.[20]
शायद कई सहस्राब्दियों में पहली बार, येनान में, चीनी किसान हर गीत, कविता, कलाकृति और नाटक के साथ अपनी पीठ सीधी करना सीख रहे थे; कला के ये सभी रूप नये इंसान और एक नये समाज के निर्माण के अभिन्न अंग होते हैं. किसान अपने जीवन में और उनके द्वारा बताई गई कहानियों में नायक बने – इतिहास और संस्कृति को आगे बढ़ाने वाले व्यक्ति. ‘वार्ता’ में माओ जनता के भीतर संस्कृति की भूख पर बात करते हैं :
‘सभी प्रकार के कार्यकर्ता, सेना के जवान, कारख़ानों के मज़दूर, और गांवों के किसान साक्षर हो जाने पर किताबें और अख़बार पढ़ना चाहते हैं, नाटक और ओपेरा देखना चाहते हैं, चित्र और पेंटिंग देखना चाहते हैं, गीत गाना और संगीत सुनना चाहते हैं; वे हमारे साहित्यिक और कलात्मक कार्यों के दर्शक हैं.’
हालांकि साक्षरता एक ज़रूरी काम था, लेकिन साक्षरता को संस्कृति का आनंद लेने और उत्पादन करने के लिए पूर्व निर्धारित शर्त के रूप में नहीं देखा गया था, क्योंकि लोक संस्कृति जनता की ही होती है. इस बीच, जो शहरी बुद्धिजीवी येनान गए थे उन्हें अपने और किसान जनता के बीच की खाई को कम करने के लिए अपने भीतर काफ़ी परिवर्तन करना था. यह परिवर्तन येनान फ़ोरम का केंद्रीय उद्देश्य था, जहां ‘जनता‘ और ‘बुद्धिजीवी‘ दोनों को परिभाषित किया गया था; क्योंकि मिलकर, वे एक प्रभावी राजनीतिक शक्ति में बदल सकते हैं.
पुरानी बोतल में नयी शराब
येनान फ़ोरम के समय मा के लू शुन एकेडमी ऑफ़ आर्ट्स (जिसे लुई के नाम से भी जाना जाता है) में एक संगीत छात्र था; यह एकेडमी येनान में कलाकार–कैडरों को प्रशिक्षित करने के लिए एक पुराने कैथोलिक चर्च को शैक्षिक केंद्र में बदल कर बनाई गई थी. 1962 में पेकिंग रिव्यू में प्रकाशित एक लेख में मा बताते हैं, ‘(माओ की) बात ने हम छात्रों को बहुत प्रेरित किया. हम जल्द से जल्द लोगों के पास जाना चाहते थे, सीखना चाहते थे, ख़ुद को (जनता के साथ) मिश्रित करना चाहते थे और क्रांति में अपना योगदान देना चाहते थे.'[21]
येनान फ़ोरम के दस महीने बाद, सीपीसी की केंद्रीय समिति ने साहित्यिक और थिएटर कार्यकर्ताओं को ग्रामीण इलाक़ों में जाने के लिए मोबिलाइज़ करने का फ़ैसला किया; माओ ग्रामीण इलाक़ों को ‘बड़ा स्कूल‘ कहते थे.[22] मा उन छात्रों के दल में थे जो पहाड़ी रास्तों पर पूरा एक दिन चलने के बाद जब थके हुए गांव में पहुंचे तो, अपने हाथों में झाड़ू लिए किसानों के एक समूह ने ढोल और नगाड़ों के साथ उनका स्वागत किया था. मा को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि स्थानीय किसानों ने पांच किलोमीटर तक का रास्ता साफ़ किया था, उन बुद्धिजीवियों के आने की उम्मीद में जिन्हें ‘चेयरमैन माओ ने उनकी मुक्ति (फ़ैनशेन) के लिए भेजा था.'[23]
अपने उत्साह के बावजूद मा ने स्वीकार किया कि उन्होंने शुरू में जो लोक धुनें सुनीं उनको लेकर उनके मन में तिरस्कार की भावना थी: ‘मुझे लगा कि यह थोड़ा नीरस था, इसमें परिष्कार और तथाकथित ‘कलात्मकता’ की कमी थी. […] एक शब्द में कहें तो वे मुझे पसंद नहीं आए, न ही मैंने उनके गाने गाए.’ लोगों के साथ जुड़ने की प्रक्रिया के माध्यम से मा की सोच में बदलाव आने लगा :
‘मैंने उनके संगीत में निहित समृद्ध भावना को महसूस करना शुरू किया. मैं उसे अलग तरह से सुनने लगा. यह अब मुझे इतना स्वच्छंद और भावनाओं से भरा, इतना सरल और स्वाभाविक लगने लगा था कि मानो हर घाटी और जलधारा इसकी धुन से गूंज उठती है. अपनी भावनाओं से प्रभावित होकर, मैं भी बाक़ी लोगों के साथ शामिल हो गया, ज़ोर से और ऊंची आवाज़ में गाने लगा.’
ग्रामीण इलाक़ों में जाना मा के आत्म–परिवर्तन का हिस्सा था; जन, लोकप्रिय और जीवंत संस्कृति के सामने उन्हें एक बौद्धिक और एक पेशेवर कलाकार के रूप में जिस श्रेष्ठता का एहसास होता था, उन्होंने उस पर क़ाबू पा लिया. ‘हमने 400 ली (200 किलोमीटर) की यात्रा की, और हर जगह हमें गीत का एक ही सागर मिला. विशाल ग्रामीण इलाक़ों में, हर कोई गायक था, चाहे पुरुष हो या महिला, बूढ़ा हो या जवान.’ किसानों के गीतों, उनकी ज़रूरतों की तात्कालिकता और मुक्ति के लिए उनके दृढ़ संकल्प से सीखना ‘बुद्धिजीवियों को लोकप्रिय बनाने’ के सुखद काम का हिस्सा था.[24]
इसी प्रक्रिया का नतीजा था कि मा ने आगे चलकर उस अवधि के सबसे महत्वपूर्ण चीनी ओपेरा में से एक, द व्हाइट–हेयरड गर्ल के संगीत की रचना की, जो बाद में 1951 में एक फ़िल्म और 1965 में एक राष्ट्रीय बैले बना. कहानी की नायिका है यांग ज़ियर, जो एक महिला किसान है, जिसे उसके मंगेतर वांग डाचुन से अलग करके अपने पिता के क़र्ज़ के बदले में एक ज़मींदार को जबरन बेच दिया जाता है. आख़िरकार वह भागकर पहाड़ों में चली जाती है, जहां जीवित रहने की कोशिश करते हुए उसके बाल सफ़ेद हो जाते हैं; दूसरी ओर वांग कम्युनिस्टों की आठवीं रूट सेना में शामिल हो जाता है. जब वांग और यांग अंततः मिलते हैं, तो वे केवल एक जोड़े की तरह नहीं, बल्कि एक दूसरे के कॉमरेड बन कर रहते हैं.
वर्ग–संघर्ष के बीच क्रांतिकारी प्रेम की यह कहानी पूरी तरह से कल्पना आधारित नहीं है – यह उत्तरी चीन के गांवों में घूमने वाले एक ‘सफ़ेद बालों वाले भूत’ की स्थानीय लोककथाओं पर आधारित है. मा और उनके साथी छात्रों को इस कहानी का पता तब चला था जब उन्हें ग्रामीण इलाक़ों में भेजा गया. उन्होंने एक स्थानीय अनुभव में संगीत और क्रांतिकारी सामग्री को जोड़ा, और वो राष्ट्रीय स्तर की प्रसिद्ध क्लासिक रचना बन गई. इस ओपेरा को येनान फ़ोरम द्वारा उठाए गए विचारों के एक जीवंत उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है, विशेष रूप से यह विचार कि कलाकारों और लेखकों को अपनी स्थानीय परिस्थितियों और लोकप्रिय सांस्कृतिक रूपों का अध्ययन करना चाहिए और उनमें खुद को डुबा देना चाहिए.
इन सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं ने लोक गीतों और नृत्यों पर विशेष ध्यान दिया, विशेष रूप से यांगी, या ‘चावल के गीतों’ पर. पारंपरिक रूप से देवताओं या ज़मींदारों के लिए गाए जाने वाले इन गीतों को क्रांतिकारी भावना पैदा करने और अग्रिम पंक्ति के सैनिकों को प्रोत्साहित करने के लिए नये अर्थ और विषय सामग्री के साथ प्रयोग में लाया गया. द वाइट–हेयरड गर्ल के बोल लिखने वाले हे जिंग्ज़ी के (येनान की एक खाई के बारे में) नन्नीवान जैसे लोकप्रिय गीत विशिष्ट रूप से वैचारिक थे, जिनकी जड़ें जन संस्कृति में निहित थीं तथा जिनमें लोकप्रिय धुनों के साथ–साथ राजनीतिक संदेश भी शामिल था.
एक नयी क्रांतिकारी संस्कृति के निर्माण का मतलब यह नहीं था कि इससे पहले की सारी संस्कृति को त्याग दिया जाए – चाहे वह प्राचीन, सामंती, या विदेशी मूल की ही क्यों न हो; इसका मतलब था, माओ ने वार्ता में तर्क दिया, ‘हमारी साहित्यिक और कलात्मक विरासत की सभी अच्छी चीज़ों को लेकर जो कुछ भी फ़ायदेमंद है उसे आलोचनातमक तरीक़े से आत्मसात करना.’ ‘पुरानी बोतल में नयी शराब’ परोसने की तरह क्रांतिकारी विचारों को एक ऐसी भाषा और रूप में प्रसारित करना जिनसे स्थानीय लोग परिचित थे तथा जिसका वे स्वागत करते थे.[25]
जिस तरह संस्कृति के पारंपरिक रूपों को नयी क्रांतिकारी अंतर्वस्तु दी गई, उसी तरह पारंपरिक बुद्धिजीवियों की ‘पुरानी बोतलें’ लोगों की सेवा करने वाले ‘नये’ बुद्धिजीवियों में तब्दील की जा रही थीं. डिंग लिंग से ज़्यादा कुछ ही और लेखकों ने इस प्रक्रिया को अवतीर्ण किया था. जब डिंग ने येनान के धूल भरे क्षेत्रों के लिए महानगरीय शंघाई को छोड़ा, तो वह पहले से ही एक स्थापित लेखिका थीं, जो मिस सोफ़ेया की डायरी (1928) जैसे उपन्यासों के लिए काफ़ी मशहूर थीं, जिसमें आधुनिक, शहरी चीनी महिला के हालात के बारे में बताया गया है.
हालांकि, येनान पहुंचने पर उन्हें किसान जीवन का प्रामाणिक विवरण लिखने, जिससे वह उस समय तक अपरिचित थी, और अपने स्वयं के पूर्वाग्रहों, व्यक्तिवाद और लोगों से अपने अलगाव को दूर करने के लिए संघर्ष करना पड़ा. वर्ग संघर्ष के संदर्भ में किसानों को चित्रित करने में डिंग और अन्य लेखकों को जो कठिनाइयां आईं, वे केवल उनकी अपनी कमियों की वजह से नहीं थीं, बल्कि इसलिए भी थीं क्योंकि ऐतिहासिक परिस्थितियों ने अभी तक लोगों में क्रांतिकारी चेतना पैदा नहीं की थी.
जैसा कि साहित्यिक इतिहासकार वांग शियाओपिंग बताते हैं, ‘क्रांतिकारी (‘सर्वहारा’) चेतना आधुनिक चीन में ‘पहले से’ मौजूद नहीं थी, बल्कि द्वंद्वात्मक राजनीतिक सिद्धांत से लैस अनुभवी क्रांतिकारियों ने उसे तैयार कर उसका स्तर ऊपर उठाना था.'[26] डिंग की लघु कथाएं और उपन्यास इस परिवर्तनकारी और द्वंद्वात्मक प्रक्रिया, जो बदले में वर्ग चेतना को गहरा करती है, और सीखे सिखाए तरीक़ों को भूलते हुए नए नज़रिए सीखने में बिताए गए सालों, व जनता के साथ बौद्धिक और राजनीतिक रूप से एकीकृत होने का प्रमाण हैं .
डिंग जिस मार्ग पर चलीं वह लोकप्रिय ‘एकीकरण’ की प्रक्रिया को दर्शाता है जिसे माओ ने वार्ता में रेखांकित किया: ‘जो बुद्धिजीवी जनता के साथ ख़ुद को एकीकृत करना चाहते हैं, जो जनता की सेवा करना चाहते हैं, उन्हें एक ऐसी प्रक्रिया से गुज़रना होगा जिसमें वे और जनता एक दूसरे को अच्छी तरह जान सकें.’ येनान पहुंचने के लगभग एक दशक बाद, डिंग ने क्रांतिकारी आंदोलन और भूमि सुधार के विषय पर अपना पहला उपन्यास लिखा, जिसका शीर्षक था द सन शाइन्स ओवर द सांगगन रिवर (1948).
देश के कुछ सबसे दूरदराज़ के ग्रामीण ज़िलों में महिलाओं, किसानों, श्रमिकों, दिग्गजों और कार्यकर्ताओं के साथ रहने और काम करने के वर्षों के अनुभव से इस उपन्यास का जन्म हुआ. वर्षों बाद भी, उन बहुत से बुद्धिजीवियों की तरह जिन्हें सांस्कृतिक क्रांति (1966-1976) के दौरान बड़ी तकलीफ़ों से गुज़रना पड़ा था, डिंग के मन में येनान भावना के प्रति सच्चाई और सम्मान बरकरार था. 81 साल की उम्र में जब उनकी मौत हुई उससे कुछ साल पहले 1980 में प्रकाशित अपने आख़िरी भाषण में, डिंग ने बताया, ‘यह कठिन था और मुझे तकलीफ़ हुई, लेकिन मैंने बहुत कुछ हासिल भी किया … मैं जनरलों के बारे में नहीं लिख सकती, क्योंकि मेरे पास उनके जैसा अनुभव नहीं है. लेकिन मैं किसानों के बारे में, मज़दूरों के बारे में, आम लोगों के बारे में लिख सकती हूं, क्योंकि मैं उन्हें अच्छी तरह जानती हूं.'[27]
डिंग और लाखों अन्य बुद्धिजीवियों ने येनान फ़ोरम के बाद के वर्षों में लोगों को अच्छी तरह से जानने का ही काम किया था, जिससे चीनी जनता और राष्ट्र को क्रांति की ओर ले जाने में मदद मिली. अपने भाषण में डिंग ने बहुत सफ़ाई से येनान भावना को संक्षेप में प्रस्तुत किया : ‘सृजन अपने आप में एक राजनीतिक क्रिया है, और लेखक एक राजनीतिक व्यक्ति होता है.’ डिंग के शब्द इस बात की पुष्टि करते हैं कि कला और संस्कृति वर्ग संघर्ष के लिए आवश्यक हैं. उनके शब्द, जनता के संघर्षों और आकांक्षाओं के लिए प्रतिबद्ध आज के लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों के लिए एक आह्वान हैं कि वे उनके नक़्शेक़दम पर चलें.
येनान भावना 80 साल बाद
19 अक्टूबर 1943 को पहली बार वार्ता के प्रकाशित होने के बाद, इस रचना का दर्जनों भाषाओं में अनुवाद और प्रकाशन हुआ, दुनिया भर के लाखों लोगों ने इसमें अपनी प्रतिध्वनि महसूस की.[28] येनान के वुडकट्स की स्क्रीन–प्रिंटिंग परंपरा और माओ द्वारा कलाकारों को जन संघर्षों में खुद को झोंक देने के आह्वान से प्रेरित होकर भारतीय कलाकार चित्तप्रसाद ने 1943-44 के बंगाल अकाल से सम्बंधित दिल को झकझोर देने वाले स्केच बनाए; इस अकाल में ब्रिटेन के क्रूर औपनिवेशिक शासन के कारण 30 लाख से अधिक लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी थी.[29]
क्यूबा के राष्ट्रीय कवि निकोलस गुइलेन ने वार्ता को ‘साहित्य और कला सिद्धांतों के लिए एक शानदार वैज्ञानिक भौतिकवादी मंच‘ कहा, ‘जो क्यूबा क्रांति के बीच कलाकारों और लेखकों के कार्यों को समझने और निर्धारित करने में मदद कर सकता है’.[30] इंडोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी (पीकेआई) से संबद्ध 2,00,000 सदस्यों के एक सांस्कृतिक संगठन, लेकरा, ने ‘तुरुण के बावह’ (जनता के बीच जाने) की जो अपनी मूल विधि विकसित की उसके पीछे येनान भावना काम कर रही थी.[31]
कोटेशंस फ़्रॉम चेयरमैन माओत्से तुंग (1966) – ‘छोटी लाल किताब‘ – में वार्ता के अंश शामिल हैं, और इसका अंतिम अध्याय कला और संस्कृति को समर्पित है. तीन दर्जन भाषाओं में एक अरब से अधिक आधिकारिक संस्करणों की बिक्री के साथ इस छोटी लाल किताब ने अनगिनत क्रांतिकारियों के दिलों में अपनी जगह बनाई, और यह अब तक की सबसे अधिक प्रसारित पुस्तकों में से एक है, जो कि पवित्र बाइबिल के बाद दूसरे स्थान पर है.
‘ट्राइकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान’ के साथ एक साक्षात्कार में, संयुक्त राज्य अमेरिका में ब्लैक पैंथर पार्टी के पहले संस्कृति मंत्री एमोरी डगलस ने याद करते हुए बताया कि कैसे पार्टी ने पार्टी के अख़बार के साथ सड़क के किनारे छोटी लाल किताब बेची, जिसकी क़ीमत 25 सेंट थी; किताब बेचने के पीछे यह संदेश था कि क्रांतिकारी संघर्ष में कला एक हथियार है.[32] जूलियस न्येरेरे के नेतृत्व में छोटी लाल किताब स्वाहिली और अंग्रेज़ी भाषाओं में तंज़ानिया की किताबों की दुकानों और छोटे शहरों में भी बेची गई थी. अफ़्रीकी समाजवादी विचारों के साथ मिलाकर माओ की सोच को रेडियो तरंगों के माध्यम से अनपढ़ और ग्रामीण समुदायों तक पहुँचाया गया.[33] वार्ता और इसके विचारों ने मंगोलिया से मोज़ाम्बिक तक, अर्जेंटीना से अल्बानिया तक, पेरू से फिलीपींस तक, विभिन्न स्थानों में अपनी नयी व्याख्या पाई और उनका नया उपयोग हुआ.
कला और संस्कृति और उसके सिद्धांत, व्यवहार, ग़लतियों और सबक़ की भूमिका पर तीसरी दुनिया से उभरने वाली सबसे महत्वपूर्ण कृति में से एक शायद वार्ता है. इसे राष्ट्रीय मुक्ति परंपरा में मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र की खोज, समाजवादी सांस्कृतिक नीति के प्रस्ताव, सांस्कृतिक कार्यों को करने वाले कैडरों के लिए एक मैनुअल, और साहित्यिक सिद्धांत या विशुद्ध साहित्य की तरह पढ़ा जा सकता है.
माओ को साहित्य और कला पर व्याख्यान दिए आठ दशक बीत चुके हैं. तब से, चीन दुनिया के सबसे ग़रीब देशों में से एक से उभर कर दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और वैश्विक शक्ति बन गया है तो, आज येनान भावना की क्या प्रासंगिकता है ? 2014 में, राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने बीजिंग में आयोजित साहित्य और कला मंच पर होने वाली वार्ता में येनान भावना को पुनर्जीवित करने की अपील की, साथ ही उन्होंने लेखकों और कलाकारों से माओ के उस आह्वान को याद करने को कहा जब माओ ने कहा था कि, समाजवादी संस्कृति की जड़ें चीनी संदर्भ में जमी हुई हों लेकिन उसकी नज़रें दुनिया की तरफ़ हों. वार्ता की विरासत केवल चीन और चीनी लोगों की नहीं है, बल्कि यह दक्षिणी गोलार्ध के देशों की जनता के लिए एक आवश्यक कृति है.[34] ट्राइकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान के साथ एक साक्षात्कार में, पूर्वी चीन नॉर्मल यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर लू शिन्यू ने इस विरासत और माओ की वार्ता को पुनर्जीवित करने के बारे में विचार व्यक्त किए:
[येनान फ़ोरम ने] बुद्धिजीवियों से जनता की सेवा करने और ऐसी जन संस्कृति विकसित करने का आह्वान किया, जो यह सुनिश्चित करे कि किसानों की आत्मपरकता चीन की क्रांति के केंद्र में हो. उस समय से अब तक सीपीसी का यही ऐतिहासिक लक्ष्य रहा है. बुद्धिजीवी किसानों के साथ मिलकर अपनी शक्ति का विस्तार करने के लिए ग्रामीण इलाक़ों में गए. आज, हम देखते हैं कि ग्रामीण पुनरुद्धार और ग़रीबी उन्मूलन अभियानों में बड़ी संख्या में कार्यकर्ता, शिक्षक और बुद्धिजीवी ग्रामीण इलाक़ों में जा रहे हैं.[35]
लू के अनुसार, ग्रामीण इलाक़ों में बुद्धिजीवियों का यह प्रवास येनान युग का एक अनिवार्य उदाहरण है, जिसके बिना शहरों और ग्रामीण इलाक़ों के बीच, विकसित पूर्वी क्षेत्र और ग़रीब पश्चिमी क्षेत्र के बीच आज के ध्रुवीकरण को कम नहीं किया जा सकता है. 2020 के अंत में, चीन ने घोषणा की कि उसकी 1.4 अरब की आबादी अत्यधिक ग़रीबी से बाहर आ गई है.[36]
देश में मौजूद विरोधाभासों और जारी समस्याओं के बावजूद, लू का मानना है कि चीन के उदय का श्रेय केवल पूंजीवादी तत्वों और बाज़ार की ताक़तों को नहीं दिया जाना चाहिए, बल्कि 1949 से समाजवाद के लिए चल रही राजनीतिक प्रतिबद्धता को दिया जाना चाहिए : ‘येनान की कहानी सिर्फ़ चीन की कहानी नहीं है; यह तीसरी दुनिया, बीसवीं सदी के इतिहास, समाजवादी आंदोलन और दुनिया के सभी ग़रीब लोगों की [कहानी] है. विशेष रूप से वैश्विक स्थिति के [मौजूदा] ध्रुवीकरण को देखते हुए, हमें न केवल चीन के लिए, बल्कि पूरे दक्षिणी गोलार्ध के लिए येनान भावना को याद करने की आवश्यकता है.'[37] आठ दशक बाद, हम उस उत्साह को याद करते हैं जिसके साथ युवा कलाकार और बुद्धिजीवी ‘येनान जाओ‘ के आह्वान के साथ ग्रामीण इलाक़ों में गए थे.
पीली नदी के किनारे, यान के पानी के तट पर,
पीली पृथ्वी का पठार है.
याओडोंग गुफाओं से सामने घूमती चक्की,
अतीत में ले जाती है.
मैं येनान जा रहा हूं,
समय को चुपचाप बीतते हुए देखने के लिए,
हज़ारों पहाड़ियों को देखने के लिए, जो पूरी तरह लाल हैं.
– ‘आई एम गोइंग टू येनान‘ (2011), चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के 90वीं वर्षगांठ के अवसर पर ज़ू पीडोंग द्वारा रचित, हुआ फेंग द्वारा लिखित और ली लॉन्ग द्वारा लिए गाया गया गीत.
Bibliography
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Endnotes
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- V.I. Lenin, ‘On Soviet Power’, in Lenin Collected Works, Vol. 29, (Moscow: Progress Publishers, 1972), 248–249, https://www.marxists.org/archive/lenin/works/1919/mar/x08.htm.
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- Hu Qiaomu, Hu qiaomu huiyi mao zedong胡乔木回忆毛泽东 [Hu Qiaomu Memories of Mao Zedong], 251–268.
- Ma Ke, ‘From “Yangko” Opera to “The White-Haired Girl”’, 20–22.
- Ibid.
- Li Huanhuan, ‘On the Inheritance and Development of Yan’an Yangge during the War of Resistance’, in Academic Journal of Humanities & Social Sciences 4, no. 2 (2021): 35–39.
- Wang Xiaoping, Contending for the ‘Chinese Modern’: The Writing of Fiction in the Great Transformative Epoch of Modern China, 1937–1949 (Leiden: Brill, 2019), 575.
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- Bonnie McDougall, Mao Zedong’s ‘Talks at the Yan’na Conference on Literature and Art’: A Translation of the 1953 Text with Commentary (Ann Arbor: University of Michigan, 1980).
- Sanjukta Sunderason, ‘Framing margins: Mao and visuality in twentieth-century India’, in Art, Global Maoism and the Chinese Cultural Revolution, ed. Jacopo Galimberti et al (Manchester University Press, 2020), 72–73.
- Huo Jinglian 霍静廉. ‘Qiantan mao zedong “zai yan’an wenyi zuotanhui shang de jianghua” zai guoneiwai de yingxiang’ 浅谈毛泽东《在延安文艺座谈会上的讲话》在国内外的影响 [On the domestic and international influence of Mao’s Talks at the Yan’an Forum on Literature and Art]. 纪念毛泽东同志《讲话》发表60周年研讨会[Seminar to commemorate the 60th anniversary of Comrade Mao’s Talks] (May 2002). https://cpfd.cnki.com.cn/Article/CPFDTOTAL-SQSL200205001016.htm.
- Tricontinental: Institute for Social Research, The Legacy of Lekra: Organising Revolutionary Culture in Indonesia, Dossier no. 35, December 2020, https://thetricontinental.org/dossier-35-lekra/; Simon Soon, ‘Engineering the human soul in 1950s Indonesia and Singapore’, in Art, Global Maoism and the Chinese Cultural Revolution, ed. Jacopo Galimberti et al. (Manchester University Press, 2020), 53–66.
- Emory Douglas, interview by Tings Chak, 7 March 2022, transcript Tings Chak.
- Priya Lal, ‘Maoism in Tanzania: Material connections and shared imaginaries’, in Mao’s Little Red Book: A Global History, ed. Alexander C. Cook (Cambridge University Press, 2014), 97–101.
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- Lu Xinyu, interview by Tings Chak, 14 March 2022, transcript by Tings Chak.
- Tricontinental: Institute for Social Research, Serve the People: The Eradication of Extreme Poverty in China, Studies in Socialist Construction no. 1, July 2021, https://thetricontinental.org/studies-1-socialist-construction/.
- Lu Xinyu, interview by Tings Chak.
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