गिरीश मालवीय
मोदी ने भारत की कृषि व्यवस्था की विनाश कथा लिख दी है. मोदी सरकार ने जीएम फसलों के लिऐ भारत के दरवाजे खोल दिए हैं. जी हां यह सच है, सरकार ने जीनोम एडिटेड टेक्नोलॉजी का उपयोग कर नई फसल प्रजातियां विकसित करने के लिए होने वाले रिसर्च का रास्ता साफ कर दिया है. सरकार ने जीनोम एडिटेड प्लांट्स की एसडीएन-1 और एसडीएन-2 श्रेणियों के नियमन की समीक्षा (रेगुलेटरी रिव्यू) के लिए स्टेंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसिजर्स (एसओपी) को 4 अक्तूबर, 2022 को अधिसूचित कर दिया है.
2022 में भारत में बेहद चालाकी के साथ जीएम यानि जेनेटिकली मोडिफाइड के नाम पर जीन एडिटिंग तकनीक शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है, जबकि यूरोपीय यूनियन में अदालत ने स्पष्ट कर दिया है कि जीन एडिटिंग की तकनीक को भी जीएम फसलों की श्रेणी में ही रखा जाएगा.
4 अक्टूबर को जारी अधिसूचना में कहा गया है कि सरकार द्वारा गठित एक एक्सपर्ट कमेटी द्वारा लंबे विचार-विमर्श के बाद यह जीनोम एडिटेड प्लांट्स की एसडीएन-1 और एसडीएन-2 श्रेणियों के लिए तैयार एसओपी को रेगुलेटरी कमेटी ऑन जेनेटिक मैनीपुलेशन (आरसीजीएम) की 7 सितंबर, 2022 को हुई 240वीं बैठक में मंजूरी दी गई और इनको अधिसूचित करने की सिफारिश की गई, जिसके बाद डिपार्टमेंट ऑफ बॉयोटेक्नोलॉजी (डीबीटी) द्वारा इनको अधिसूचित किया जा रहा है.
जीएम टेक्नोलॉजी के तहत एक प्राणी या वनस्पति के जीन को निकालकर दूसरे असंबंधित प्राणी/वनस्पति में डाला जाता है. इसके तहत हाइब्रिड बनाने के लिये किसी जीव में नपुंसकता पैदा की जाती है. जैसे जीएम सरसों को प्रवर्धित करने के लिये सरसों के फूल में होने वाले स्व-परागण (सेल्फ पॉलिनेशन) को रोकने के लिये नर नपुंसकता पैदा की जाती है. फिर हवा, तितलियों, मधुमक्खियों और कीड़ों के ज़रिये परागण होने से एक हाइब्रिड तैयार होता है. इसी तरह बीटी बैंगन में प्रतिरोधकता के लिये ज़हरीला जीन डाला जाता है, ताकि बैंगन पर हमला करने वाला कीड़ा मर सके.
यह पूरी व्यवस्था प्रकृति के विरुद्ध है
दरअसल कृषि व खाद्य क्षेत्र में जेनेटिक इंजीनियरिंग की प्रौद्योगिकी मात्र लगभग छह-सात बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ में केंद्रित हैं. इन कंपनियों का मूल आधार अमेरिका में है. इनका उद्देश्य जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से विश्व कृषि व खाद्य व्यवस्था पर ऐसा नियंत्रण स्थापित करना है, जैसा विश्व इतिहास में आज तक संभव नहीं हुआ है.
यही वो टोटल कंट्रोल है जिसकी बात हम लगातार इस वाल पर करते आए हैं. इस संदर्भ में हेनरी किसिंजर का प्रसिद्ध कथन है – ‘control food and you control people.’ लेकिन बात यही खत्म नहीं होती. जीएम फसलों का विरोध सिर्फ एकाधिकार वाद के लिए ही नहीं है बल्कि जीएम फसल पूरे पारिस्थितिक तंत्र के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न कर देती हैं.
इस बात का अंदाजा आप इसी से लगा लीजिए कि अमेरिका में मात्र एक फीसदी भाग में जीएम मक्के की खेती की गई थी लेकिन इसने अपने आसपास 50 फीसदी गैर जीएम खेती को संक्रमित कर दिया. उत्पादन बढ़ाने की होड़ में चीन ने भी अपनी जमीन पर जीएम चावल एवं मक्के की खेती की थी लेकिन महज पांच वर्ष के अंदर ही वहां के किसानों को नुकसान उठाना पड़ा. वर्ष 2014 के बाद से वहां जीएम खेती को बंद कर दिया गया है.
भारत में बीटी कॉटन की खेती का अनुभव आंख खोलने वाला है. हजारों किसान भारत में इसी वजह से आत्महत्या कर रहे हैं. आंकड़ों की बात करें तो महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और पंजाब में सबसे ज़्यादा बीटी कपास की खेती करने वाले किसानों ने ही आत्महत्याएं की हैं, वहीं विदर्भ के किसान बीटी कॉटन उगाने के लिये मजबूर हैं, जबकि इसकी लागत ज़्यादा और मुनाफा कम है.
2017 में गठित एक संसदीय समिति की रिपोर्ट में यह सवाल उठाया गया था कि जीएम फसलों का 90 प्रतिशत हिस्सा मात्र छ: देशों (यूएस, कनाडा, अर्जेन्टीना, ब्राज़ील, भारत, चीन) तक सीमित है तो सरकार यह जानने का प्रयास क्यों नहीं करती है कि अधिकांश देशों ने इन्हें अपनाने से क्यों इंकार किया है ?
संसदीय समिति ने कहा था कि जीएम फसलों से जुड़े जैव सुरक्षा के सरोकारों व इनके सामाजिक आर्थिक औचित्य की स्वतंत्र पारदर्शी समीक्षा व इनसे जुड़ी किसी भी समस्या की क्षति की ज़िम्मेदारी निर्धारित करने के लिए जब तक सही व्यवस्था सुस्थापित नहीं हो जाती है तब तक किसी जीएम फसल को अनुमति नहीं मिलनी चाहिए.
इंडिपेंडेंट साइंस पैनल (स्वतंत्र विज्ञान मंच) में एकत्र हुए विश्व के कई देशों के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने जीएम फसलों पर प्रस्तुत एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ के निष्कर्ष में कहा गया है – जीएम फसलों के बारे में जिन लाभों का वायदा किया गया था, वे प्राप्त नहीं हुए हैं और ये फसलें खेतों में बढ़ती समस्याएं उपस्थित कर रहीं हैं. अब इस बारे में व्यापक सहमति है कि इन फसलों का प्रसार होने पर ट्रान्सजेनिक प्रदूषण से बचा नहीं जा सकता है. अत: जीएम फसलों व गैर जीएम फसलों का सहअस्तित्व नहीं हो सकता है.
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि जीएम फसलों की सुरक्षा प्रमाणित नहीं हो सकी है. दूसरी ओर, पर्याप्त प्रमाण हैं कि इन फसलों में सुरक्षा सम्बंधी गंभीर चिंताएं उत्पन्न होती हैं. यदि इनकी उपेक्षा की गई तो स्वास्थ्य व पर्यावरण की क्षति होगी जिसकी मरम्मत या क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती.
जीएम फसलों के भारत में इस प्रयोग का कड़ा विरोध नहीं किया गया तो भविष्य में हमारे लिए कुछ भी नही बचेगा. यह बेहद गंभीर विषय है, तमाम विपक्षी दलों को एकजुट होकर इस विषय में हम सबकी आवाज बनना होगा.
पीएम मोदी की ड्रोन योजना
लोग पीएम मोदी की ड्रोन उड़ाने वाली बात का असली मतलब नही समझे और लगे मजाक उड़ाने, महामानव का छिपा हुआ एजेंडा तो समझ लो भाई ! चलिए मान लिया कि ड्रोन आलू नहीं ढोएगा लेकिन ड्रोन कृषि में इस्तेमाल तो किया जाएगा ! पीएम की बात का भी ठीक यही मतलब है और यही से असली खेल शूरू होता है.
पहली बात ड्रोन कौन बनाएगा ? ड्रोन अडानी जी बनाएंगे. कुछ महीने पहले ही अडानी ने कृषि ड्रोन स्टार्टअप जनरल एरोनॉटिक्स में 50 फीसदी इक्विटी हिस्सेदारी खरीदी है. जनरल एरोनॉटिक्स वही कंपनी है जिसके सीईओ से मोदी जी ने पिछले अमेरिका दौरे पर लंबी मुलाकात की है.
दूसरी बात ये है कि ड्रोन आखिर उड़ाएगा कौन ? जैसा कि आप जानते है कि ड्रोन तो होरी और धनिया उड़ाने से रहे. तो ड्रोन उड़ाएगी भी मल्टी नेशनल कंपनियां. मोदी सरकार भारतीय कृषि को कॉर्पोरेट कृषि व्यवसाय मॉडल में बदलना चाहती है, ये सब उसी तैयारी है.
भारत के हर राज्य के हर जिले में देखा जाए तो बड़े किसान गिने-चुने ही हैं. ज्यादातर छोटी जोत के किसान हैं सरकार मल्टी नेशनल कंपनियों की सहायता से कई सालों से इसके डेटा जुटा रही है. सरकार ने जोत वाले 12 करोड़ किसानों की पहचान की है और उनमें से 5 करोड़ से ज्यादा किसानों का डेटाबेस तैयार किया है.
मोदी सरकार इस डेटा का इस्तेमाल करके कृषि क्षेत्र की कमान किसानों के हाथ से लेकर बड़े कारपोरेट के हाथों में सौपना चाहती हैं. इसके लिए सरकार ने अमेजन, माइक्रोसॉफ्ट और सिस्को के साथ ही ITC और जियो प्लेटफॉर्म्स जैसी कई कंपनियों के साथ करार किए हैं. देश में फसल उत्पादन बढ़ाने में मदद के बहाने विदेशी कंपनियों की भारतीय बाजार में पैठ बढ़ने लगी है.
माइक्रोसॉफ्ट ने एआई और मशीन लर्निंग की परख के लिए 100 गांवों का चयन किया है. अमेजन पहले से मोबाइल एप से किसानों को रियल-टाइम सलाह और सूचना दे रही है. स्टार एग्रीबाजार जमीन की प्रोफाइलिंग, फसल अनुमान, मिट्टी और मौसम के पैटर्न पर डेटा जुटा रही है. फिर वे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और डेटा एनालिटिक्स से इसका विश्लेषण करेंगी.
इससे बहुसंख्यक छोटे किसानों को नुकसान पहुंच सकता है क्योंकि कंपनियों को पता चल जाएगा कि उपज कहां अच्छी नहीं है, वे वहां के किसानों से सस्ते में खरीदेंगी, फिर ऊंचे दामों पर बेचेंगी. यह खेल सिर्फ भारत में नहीं चल रहा है बल्कि पुरी दुनिया में चल रहा है. दक्षिण अमेरिका में यह प्रयोग काफी सफल रहा है. इनकी नजर अब अफ्रीका और भारत पर जमी है.
2006 से बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने अफ्रीकी कृषि को बदलने के प्रयासों पर 5 बिलियन से अधिक खर्च किए हैं. इसका प्रमुख कार्यक्रम, अफ्रीका में हरित क्रांति के लिए गठबंधन, किसानों को उच्च इनपुट वाली औद्योगिक कृषि में परिवर्तित करने और वाणिज्यिक बीजों और कृषि रसायनों के लिए बाजारों को बढ़ाने के लिए काम करता है.
ये कृषि व्यवसाय कंपनियां खेती के सभी पहलुओं पर डेटा एकत्र करने के लिए दुनिया भर के खेतों पर डिजिटल ऐप तैनात कर रही हैं – मिट्टी का स्वास्थ्य, उत्पाद इनपुट, मौसम, फसल पैटर्न और बहुत कुछ, जिसमें दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण बीज और पशुधन और ज्ञान पर आनुवंशिक जानकारी शामिल है. हजारों वर्षों से ये सारा ज्ञान स्थानीय किसानों के पास रहा है, अब ये सारा ज्ञान डेटा के माध्यम से बहुराष्ट्रीय निगमों के स्वामित्व और नियंत्रण में जानेवाला है.
सरकार के इस प्रोग्राम का हिस्सा बनीं बड़ी कंपनियां खेती किसानी से जुड़ी जानकारी का फायदा उठाकर किसानों से उनकी उपज सस्ता खरीदेंगी और बेहद ऊंची कीमत पर बेचेंगी, जिसका असर आम आदमी पर महंगाई के रुप में पड़ेगा.
एआई एल्गोरिदम के नाम पर बड़े कारपोरेट किसानों के ‘नुस्खे’ किसानों को ही पैकेजिंग के साथ वापस बेच देंगे और बताएंगे कि कैसे खेती करें और कौन से कॉर्पोरेट उत्पाद खरीदें, कैसे ड्रोन से कीट नाशकों का छिड़काव करे. कैसे ड्रोन से आलू मंडी तक ले जाए, इन सब कामों के प्रचार के लिए इन्होंने एक पीएम को रखा हुआ है, जिसे आप देख ही रहे हैं.
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