मार रही है
लोकवेद को
भद्रजनों की अदाकारियां,
ओछी बिछा बिसात
बिखेरी
अधकचरी कुछ जानकारियां.
हमको रखा निरक्षर,
लेकिन इनसे स्वार्थ-
उपनिषद बांचे.
ढलते रहे स्वर्णकलशों से
हमको रखा बनाकर सांचे
मूड़ काटते मोरध्वज सी
राजे-रानी चला आरियां
मार रही है
लोकवेद को
भद्रजनों की अदाकारियां,
विधिसम्मत ये कोढ़ दे रहे,
परम्परागत दाद-खाज में.
पिछड़ों की क्या बात करें हम-
संविधान सम्मत सुराज में ?
इनके बीज
कहां तक धारें
सिलिया जैसी अवश नारियां.
मार रही है
लोकवेद को
भद्रजनों की अदाकारियां,
शबरी औ शम्बूक हजारों,
जीवनरेखा से नीचे हैं.
सरसुतिया,
दुरगी, लछमी की
ये चोली अंगिया खींचे हैं
फांस रखा
पीढ़ी दर पीढ़ी
फैलाकर फर्जी उधारियां.
मार रही है
लोकवेद को
भद्रजनों की अदाकारियां,
वेदवाक्य होना था,
लेकिन हुए आजकल हम गाली-से.
आईने मुंह चुरा रहे हैं भंते!
अपनी बदहाली से.
महानगर दिल्ली हो या फिर गांव लुहारू,
शक़्ल-सूरतों से लगते हैं सभी बाजार
दस्तावेज़ समय के अपने
नज़र आ रहे क्यों जाली से ?
बीहड़ आज बस गए आकर मैदानों में,
खेत-खेत में खाई,
खंदक खलिहानों में;
क्यों बारूदी गंध आ रही
इस पत्तल या उस थाली से ?
वस्तु व्यक्ति में फ़र्क नहीं
रह गया ज़रा-सा,
पूंजी ने क़ातिल छेनी से ग़ज़ब तराशा.
जिसे दौड़ना था रग-रग में
वही बह रहा है नाली से.
वेदवाक्य होना था, लेकिन
हुए आज हम-तुम गाली-से.
मार रही है
लोकवेद को
भद्रजनों की अदाकारियां.
- नईम
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