रोज़
एक ख़ास वक्त पर
एक ख़ास तल्ले पर
रुकती है लिफ्ट
गलियारे के
शीशे की खिड़की से
झांकता है उस पार
मेरा सोता हुआ बच्चा
घुटने को छुपाये हुए पेट में
कहता है
पापा, देखो ना
खेलते-खेलते कितना बड़ा हो गया हूँ मैं
आपके कंधे क्यों और झुक जाते हैं
रोज़, दफ़तर से लौटने के बाद
बौने होते जा रहे हैं आप
कितनी ख़ूबसूरत है दुनिया
समुद्र के नील तट पर
बगुला धवल वस्त्रों में
खरगोशी छलांगें मारते
किसी सूदखोर की तिजोरी की तरह
श्वेत दांतों की पंक्तियों से झांकती
सुबह की तरह
तुम देखते ही नहीं वो हरश्रृंगार
जो सावन की आवक पर
इठलाती है उस कांच की खिड़की के बाहर
तुम्हारी ऊंगलियां पकड़कर
वो तीन औरतें
कब की जा चुकी हैं
अपने अपने कमरों में
अपनी अपनी आग के पास
भींगा मौसम
कभी कभी आज भी निचोड़ता है खुद को
आकाशगंगा के हृदय में
अवाक पृथ्वी
पगली, घूमती
अमरत्व के चुंबन की तलाश में
मेरे अबोध बच्चे
तुम्हारी बंद मुठ्ठियों में
आज भी कैद है मेरा कल
निर्भीक रजनीगंधा सी
महकती रहे मेरी रात
जो क्षणिक है वही है कालातीत.
- सुब्रतो चटर्जी
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